कारण सीधा है। हिन्दू धर्म उस अर्थ में धर्म नहीं है जिस अर्थ में यहूदी या अरबों का धर्म है। यह एक आन्दोलन है मानव का, निम्न स्तर से उच्चतम स्तर तक के अध्यात्म का, जो इसमें निहित है।
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इस आन्दोलन की टेढ़ी-मेढ़ी धाराओं से अपरिपक्व मानव गुजरता है, कहीं रास्ते सीधे हैं तो कहीं टेढ़े, जब तक कि वह ज्ञान भक्ति के युगल प्रस्तर राजमार्ग तक नहीं पहुँचता। चूँकि इस आन्दोलन में मानव के समस्त अनुभव सहज रूप से समाये हैं, अतएव मानवीय पक्ष का कोई विचार-व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और पर्यावरण से सम्बन्धित भी- हिन्दू धर्म की विशिष्टताओं से अछूता नहीं है।
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इस विचार के अज्ञान से या उसकी अधूरी जानकारी से कई समस्याओं का जन्म हो जाता है जिससे सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल हो जाती है और इसका कुश्रेय हिन्दू धर्म पर थोप दिया जाता है।
इस लेख का, जो आपके सामने है, यह उद्देश्य है कि पाठकों को इस वृहत् धर्म का कुछ प्रारम्भिक ज्ञान दे जो सदियों से इतिहास के थपेड़ों से बचता चला आया है और जिसने अपना अस्तित्व कायम रखा है। यह भी उद्देश्य है कि कुछ पहेलियों का समाधान भी दे जैसे मूर्तिपूजा, जातीय संघर्ष और अलगाव, अस्पृश्यता और भाग्यवाद जो दिखावा मात्र है। यदि इस लेख से विवेकानन्दजी के शब्दों में 'धर्म-जननी' हिन्दू धर्म के बारे में पाठकों की और अधिक जानने की जिज्ञासा बढ़ती है तो हमारा श्रम सार्थक होगा।
हिन्दू धर्म क्या है ?Hindu Dharm Ka Arth Kya Hota Hai?
पुराणी फारसी मैं "स" का उच्चारण "ह" हो जाता है। अतः फारस के निवासियों ने सिंधु नदी के भूभाग को हिन्दुस्तान या हिन्दू देश,यहाँ के निवासियों को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू हिन्दू धर्म नामों से पुकारा था। इस दृष्टि से देखने पर भारत मैं प्रचलि सभी धर्म,चाहे वह जैन धर्म हो,बौद्ध धर्म हो या सिख धर्म हो,हिन्दू धर्म के अलग-अलग पहलु मने जा सकते है।
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लेकिन हिन्दू की परिभाषा के अंतर्गत वही धर्म है जो वेदों पर आधारित और आर्य जाति द्वारा आचरित रहा है। परम्परा मैं इसका नाम' सनातन- धर्म। चल पड़ा है पड़ा है और यह ठीक भी है। यह अत्यंत प्राचीन भी है और इसमें शास्वत मूल्यों की अवधारणा भी है। 'सनातन' शब्द का अर्थ है 'शास्वत'और 'प्राचीन' है। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति 'धृ' से है। इसका अर्थ है विश्व को धारण करने वाला है।
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गौण अर्थ मैं धर्म आध्यात्मिक अनुशासन वह पथ भी होता है जो इस्रानुभूति की और हमें ले जाता है। अत्यंत प्राचीन काल से आज तक हिंदी धर्म मैं स्वीकृत आध्यत्मिक अनुसासन के सभी पंथों का निष्ठापूर्ण अनुसरण इस्रानुभूति से प्रेरित रहा है। भविष्य मैं भी उनसे प्रेणा अवश्य मिल सकती है। अतः 'सनातन-धर्म' नाम ही ठीक है
इसका उदगम कब और किसने किया?
संसार के अन्य धर्मों की बात अलग है। किसी एक धर्म दूत या मानवीय इतिहास के कालखंड विशेष मैं हिन्दू धर्म का उद्गम नहीं हुआ। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि धर्मदूत कहलाने योग्य अनगिनत संतों,ऋषियों और तपसियों की सहजानुभूति और आध्यतमिक साधनों पर आधारित है। पकड़ मैं आने योग्य आध्यात्मिक अनुभूतियाँ की पक्की नीव पर टिके हिन्दू धर्म की परम्परा युग-युग से गंगा की अविरल धारा की भांति प्रवाहित होती रही है इसलिए इसका नाम 'सनातन-धर्म' पड़ा है।
हिन्दू धर्म का मूल ग्रंथ क्या है? आप उसका निचोड़ बता सकते है?
वेद ही हिन्दू ग्रन्थ के मूल ग्रन्थ है। 'वेद' शब्द का अर्थ 'ज्ञान' अथवा 'विवेक' है। श्रुति (जो सहजस्फूर्ति हो), आगम (जो विरासत में मिला हो ),निगम (जीवन की शाश्वत समस्याओं का जो शपष्ट और निर्दिष्ट समाधान प्रस्तुत करे ) आदि उसके लिए प्रयुक्त अन्य नाम है। इस्वर या परमात्मा की कृपा से ऋषियों-तपस्वियों को प्राप्त ज्ञानमूलक अनुभूति की गहराइयों मैं स्वतः स्फृर्त होने के कारण वे अपौरूसी माने जाते है, अर्थात वे मानव रहित नहीं है।ऋग्वेद,यजवर्वेद,सामवेद,अथर्वेद ये चार वेद है। इनमें ऋग्वेद ही प्राचीनतम है। उसमें उपलब्ध ज्योतिशास्त्र के तथ्यों के सहारे लोकमान्य तिलक तथा इतर विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे है कि ऋग्वेद आठ हजार साल पुराना है।
ऋग्वेद राचाओं-प्राथनाओं का संकलन है। यजुर्वेद मैं यज्ञ के विधि-विधानों और कर्मकांडों का विवरण है। सामवेद मैं ऋग्वेद की चुनी हुई राचाओं को ही स्व्बध किया गया है। इनका विसिष्ट योगों के अवसर पर स्वर पाठ होता है।सामवेद भारतीय पक्के राग-रागनियों का उद्गम भी है। अथर्वेद नीति सिद्धांत का संकलन है। उसमें विज्ञानं की कुछ शाखाओं,जैसे आयर्वेद का उल्लेख है जो स्वास्थ्य एवं आयुविर्धि का विज्ञानं है।
शुरू से ही प्र्तेक वेद का चार भागों मैं वर्गीकरण हुआ है। जैसे-मन्त्र या सहिंता, ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषद। 'सहिंता' इंद्र, वरुण, विष्णु, आदि वैदिक देवताओं के स्तुति-परक मन्त्र है। 'ब्राह्मण ' यज्ञ-यान के विधि-विधानों का वर्णन करते है। ब्राह्मण शब्द ब्राह्मण जाति का घोतक नहीं है। आरण्यक यज्ञ के कर्मकांडों पर आधारित और वन मैं आचरित विविध ध्यान-सामग्री का निरूपण करते है। विश्व के मूल मई निहित सत्य क्या है? मानव का यथार्थ शरीर क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है? उसे पाने क साधन क्या है? इन प्रश्नों पर प्रकाश डालने वाले चिंतन का दार्शनिक प्रतिपादन उपनिषदों मैं हुआ है।
हिन्दू धर्म में ईश्वर का स्वरूप क्या है?
संसार के प्रायः सभी धर्मों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं आस्था सार्वजनिक है। ईश्वर एक है, अद्वितीय है। सत्-चित्- आनन्द उसका स्वरूप है। वह जगत् का स्रष्टा है। वह अपने से, अपनी शक्ति से, इसका सृजन करता है, पालन करता है और उद्देश्य पूरा हो जाने पर उसे लौटा लेता है। यह क्रम चक्रवत् जारी रहता है। सृष्टि का निर्माण करने के बाद वह सम्राट की तरह इस पर शासन करता है। हर एक को उसके पुण्य-पाप के अनुपात में क्रम से पुरस्कार या दण्ड देता है। वह सर्वज्ञ है, सर्वसमर्थ है, सर्वव्यापक है। चराचर का वह अन्तर्यामी है। सत्य, ज्ञान, सौन्दर्य का निधान है तथा कल्पनातीत महान् गुणों का मूर्तरूप है। बद्ध तथा व्यथित जीवों के प्रति दया उसका प्रमुख गुण है।
सृष्टि का निर्माण ही पतितोद्धार के लिए हुआ है ताकि वे आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचकर अन्त में पूर्णत्व प्राप्त करें। श्रद्धा और भक्ति उसे प्रिय है। शरणागति या प्रपत्ति से उसकी उपासना सुगम है। वह प्रसन्न हो जाय तो जीना सार्थक होता है।वह साकार-निराकार दोनों है। इतना ही नहीं, वह हमें पशु-स्तर से सर्वोच्च शिखर तक उठाने के लिए संसार में अवतरित होता रहता है।
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