Rabindranath Tagore Biography in Hindi रवींद्रनाथ टैगोर विश्व कवि विश्व विख्यात साहित्यकार और भारतीय साहित्य और एशिया के पहले नोबेल पुरुस्कार विजेता है। इन्हे गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है,ये एक मात्र ऐसी कवि है जिन्होंने दो देशों के राष्ट्र गान की रचना की है,एक तो भारत "जन मन गन " व् दूसरा बांग्ला देश "आमार सोनार बांग्ला "की हैं।
हम ये प्रार्थना ना करें कि हमारे ऊपर खतरे ना आएँ,
बल्कि ये करें कि हम उनका सामना करने में निडर रहेंग.- गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर

मानवीय सभ्यता के इतिहास में कुछ ऐसी प्रतिभाएं भी होती हैं, जिन्हें देशकाल की सीमाएं बांध नहीं पातीं। ऐसी प्रतिभाओं का परिचय चिरन्तन विश्व की व्यापकता में ही मिलता है,रबीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसी ही एक प्रतिभा थे। तो आइये जानते है विश्व गुरु Rabindranath Tagore Biography in Hindi |रबीन्द्रनाथ टैगोर जीवनी, वे केवल भारत के ही नहीं सारे संसार के कवि हैं, विश्व-मानव के कवि, कविना कवितमः, लेकिन वे केवल कवि ही नहीं, कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार और चित्रकार भी हैं।
Rabindranath Tagore Biography in Hindi | रबीन्द्रनाथ टैगोर जीवनी
विश्व कवि रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई सन् 1861 को कलकत्ता,बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत (वर्तमान कोलकाता,पश्चिम बंगाल,भारत) के विख्यात ठाकुर परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर था। टैगोर की मां शारदा देवी थी जो उन्हें बचपन में छोड़ कर स्वर्गवासी हो गई थी।
रबीन्द्रनाथ टैगोर जीवनी जन्म, प्रारंभिक जीवन, रचनाएँ,परिवार और शिक्षा
बचपन में उनकी पढ़ाई घर में शुरू हुई। बाद में कुछ समय के लिए लन्दन यूनिवर्सिटी कॉलेज में उन्होंने अध्ययन किया। बारह-तेरह वर्ष की अवस्था से ही रवीन्द्रनाथ ने कविता लिखनी शुरू की। रबीन्द्रनाथ टैगोर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ एक दार्शनिक और कवि थे। टैगोर के दूसरे भाई सत्येंद्रनाथ भारतीय सिविल सेवा में नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे।उनके भाई,ज्योतिरिंद्रनाथ, एक संगीतकार, संगीतकार और नाटककार थे, जबकि बहन स्वर्णकुमारी एक उपन्यासकार थीं।
नाम |
रबीन्द्रनाथ टैगोर (रबीन्द्रनाथ ठाकुर) |
जन्म |
7 मई, 1861 |
जन्म
स्थान |
कलकत्ता, ब्रिटिश भारत |
उपनाम |
भानु सिंघा ठाकुर (भोनीता) |
पिता
का नाम |
देवेंद्रनाथ टैगोर |
माता
का नाम |
शारदा
देवी |
पत्नी
का नाम |
मृणालिनी देवी |
बच्चे |
रेणुका टैगोर, शमींद्रनाथ टैगोर, मीरा टैगोर, रथिंद्रनाथ टैगोर और मधुरिलता टैगोर |
भाषा |
बंगाली, अंग्रेजी |
उपाधि |
विश्व
कवि |
पुरस्कार |
साहित्य में नोबेल पुरस्कार (1913) |
मृत्यु |
7 अगस्त,
1941 |
मृत्यु
स्थान |
कलकत्ता भारत |
व्यवसाय |
कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार और चित्रकार |
रबीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार
सन 1913 में इन्हे इनकी काव्यरचना "गीतांजलि" के लिए नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था। सन् 1915 में भारत की विदेशी सरकार(राजा जॉर्ज पंचम) ने उन्हें नाइट (सर) की उपाधि प्रदान की, परन्तु सन् 1920 में पंजाब के जलियांवाला बाग के निर्मम हत्याकांड से मर्माहत होकर उन्होंने नाइट की उपाधि वापिस कर दी। शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को शान्तिनिकेतन के माध्यम से जाना जाता है। प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति के आधार पर विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। लक्ष्य था, एक ऐसे विश्वविद्यालय का निर्माण, जहां विश्व एक नीड़ के समान बस सके।
रबीन्द्रनाथ टैगोर की प्रारंभिक रचनाएँ
प्रारम्भिक रचनाओं में 'बनफूल' तथा 'कवि-काहिनी' (1871) उल्लेखनीय हैं। उनके काव्य की मूलधारा की शुरुआत 'सन्ध्या संगीत' (1882) से होती है। रबीन्द्रनाथ टैगोर ने यह अवश्य कहा कि वे 'जन्म रोमांटिक' हैं, परन्तु उन्होंने यह कहना कभी नहीं भूला कि वे इस पृथ्वी को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहते। वे बाकी सबके साथ ही जीना चाहते हैं।
मरिते चाहिना आमि सुन्दर भुवने,
मानवेर माझे आदि बांचिबारे चाइ।
'कड़ि और कोमल' (1886), 'प्रभात संगीत' (1883), 'छबि ओगान'(1884), 'मानसी' (1890) में उनकी प्रारम्भिक कवि-दृष्टि का क्रम-विकास स्पष्ट है। 'सोनार तरी' (1894) काव्य-ग्रन्थ में विश्व-जीवन की आनन्द चेतना का पहला स्वर फूटता है। 'चित्रा' (1896) में यह परिणति प्राप्त करती है। इसी समय 'नैवेद्य' (1901) काव्य संग्रह में भक्ति के लिए कवि की व्याकुलता प्रकट हुई। यह व्याकुलता 'गीतांजलि' (1910) में अनाविल भक्तिरस से अभिषिक्त हो उठती है।
काव्य-संग्रह
इसी बीच सन् 1916 में उनका 'बलाका' काव्य-संग्रह प्रकाशित हुआ। भावैश्वर्य और शिल्पनैपुण्य से परिपुष्ट इस काव्य-संग्रह में विश्व के विवर्तन अथवा गति की रहस्यकथा प्रकट हुई है। इसके उपरान्त प्रकाशित काव्य-ग्रन्थों में 'पलातका' (1918), 'पूरबी' (1925), 'प्रवाहिनी' (1925), 'शिशु भोलानाथ' (1932), 'महुआ' (1929), 'वनवाणी' (1931), 'परिशेष' (1932), 'पुनश्च' (1932), 'वीथिका' (1934), 'पत्रपुट' (1936) आदि उल्लेखनीय हैं। 'पूरबी' (1925) में जीवन की अपराहन-बेला में जो शेष रागिणी बज उठी थी 'आरोग्य' (1941) तथा 'शेषलेखा' (1941) में मृत्यु के पदशब्द के साथ उसी की आवाज हमें सुनाई पड़ती है।
मृत्युपथ यात्री की विचित्र अभिज्ञता से युक्त ये कविताएं संसार की श्रेष्ठ कविताओं में हैं। अवसन्न चेतना की गोधुलि-बेला में कालिन्दी के काले स्रोत में कवि अपनी देह को अपनी अनुभूतियों तथा विचित्र-वेदना के साथ बहते देखता है।
इसी विचित्र वेदना के भीतर ही उनकी प्रार्थना वाणी उच्चारित हुई है। मानो जीवन-मृत्यु के सन्धि-क्षण में खड़े कवि अपने जीवन की चरम उपलब्धि-सीमा के साथ असीम की एकात्मा को मूल नहीं पाए हैं:हे पूषन, तुमने अपनी किरणें समेट ली थीं। अब उसको फिर से फैलाओ, जिससे मैं तुम्हारे कल्याणतम रूप को देख सकूँ और एक ब्रह्म की उपलब्धि कर सकूँ।
पद्य की तरह गद्य की भी रचना रवीन्द्रनाथ ने बचपन से ही शुरू कर दी थी। उनके निबन्ध उनके शिल्पकार्य के ही उदाहरण हैं, जिनमें विचारों की गम्भीरता के साथ भावावेग की दीप्ति भी स्पष्ट है। उनका श्रेष्ठ गद्य-ग्रन्थ जीवनस्मृति (1912-13) है। यह इतिहास नहीं स्मृति के पट पर कवि के द्वारा अंकित जीवन के कुछ चित्र हैं।
रबीन्द्रनाथ टैगोर श्रेष्ठ कहानियाँ की
सन् 1888 में रवीन्द्रनाथ ने आधुनिक बंगला साहित्य में छोटी कहानी की सृष्टि करके एक नई महत्त्वपूर्ण विधा को प्रतिष्ठित किया रबीन्द्रनाथ ठाकुर बांग्ला साहित्य में कहानियों के प्रेणता माने जाते है और समालोचक इनकी कहानियां को अमर और कीर्ति देनेवाली बताते है। कुछ प्रमुख कहानियां इस प्रकार है -
उपन्यास
सन् 1884 में उनका पहला उपन्यास 'करुणा' प्रकाशित हुआ। रवीन्द्रनाथ के प्रसिद्ध उपन्यासों में चोखेर बाली(1903), 'नौका डूबी' (1906), 'गोरा' (1909) आदि उल्लेखनीय हैं।
नाटक
नाटक के क्षेत्र में 'बाल्मीकि प्रतिभा' (1881), 'मायेर खेला' (1888) उनके प्रारम्भिक गीति-नाट्य हैं। स्वर के धागे में हृदयावेग को पिरो देना ही इन नाटकों का उद्देश्य रहा है। राजा ओ रानी (1889), विसर्जन,(1890) तथा 'चत्रागंदा'(1892) में उनकी नाट्य-प्रतिभा अपनी पूरी शक्ति के साथ प्रकट हुई है। उनका सांकेतिक नाटक 'रक्तकरबी'(1926) उनकी श्रेष्ठ कृतियों में एक है। काव्य, स्वर, नाट्य तथा नृत्य के चतुरंग प्रवाह से युक्त उनके नृत्य नाटक 'नटीर पूजा' (1926), 'श्यामा' (1939) आदि उनकी बहुमुखी प्रतिभा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
मानव जीवन में ऋतु-क्रम का प्रभाव तथा प्रतिक्रिया दिखाने के लिए उन्होंने 'शारदोत्सव' (1908), 'राजा' (1910), 'अचलायतन' (1912), 'फाल्गुनी' (1916) आदि नाटक लिखे। जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने चित्र बनाना शुरू किया। इनमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति, निराशा का स्वर आदिम भावावेग के साथ प्रकट हुआ। परन्तु यह उनके जीवन की अन्तिम बात नहीं थी। नए युग के नए जीवन-बोध को उन्होंने सहर्ष ग्रहण किया, किन्तु क्षणकाल के लिए भी उनका मन संशयान्वित नहीं हुआ।
काव्य-रचना के पहले दिन से अन्तिम दिन तक परिचित उपनिषद् का मन्त्र ही उनका पाथेय बना रहा, इसीलिए तो आधुनिक युगबोध की बात करनेवालों के सम्मुख उन्होंने निःसंकोच होकर कहा, 'मैंने जीर्ण जगत में जन्म ग्रहण नहीं किया। हालांकि नए का आह्वान करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया।
रबीन्द्रनाथ टैगोर का निधन
7 अगस्त 1941 में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु से कुछ दिन पहले चिकित्सा के लिए उन्हें शान्तिनिकेतन से कलकत्ता स्थानान्तरित किया गया था। शान्तिनिकेतन से चलते हुए उनके नातिन ने उन्हें कहा था, दादाजी, आपको मालूम है, हमारे यहां नया पावर हाउस बन रहा है। आगमन होगा। इसके उत्तर में उन्होंने कहा था, 'हां पुराना आलोक चला जाएगा, नए का आगमन होगा