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राजद्रोह का क़ानून धारा 124 ए देश के लिए चुनौती और दुष्प्र्भाव

राजद्रोह का क़ानून धारा 124 ए देश के लिए चुनौती और दुष्प्र्भाव 


राजद्रोह क़ानून इंग्लैंड में साल 2009 में ही निरस्त हो गया था , लेकिन भारत में यह आज भी न केवल बरकरार है , बल्कि कहीं ज्यादा डरा भी रहा है । इसलिए इसे रद्द करने की मांग बढ़ती जा रही है ।


राजद्रोह क्या है,राजद्रोह का क़ानून धारा 124 ए देश के लिए चुनौती और दुष्प्र्भाव


विडंबना है कि ये क़ानून केंद्र का है , लेकिन इसका दुरुपयोग राज्यों की पुलिस द्वारा किया जा रहा है ।


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150 वीं गौरवशाली जयंती के बाद अब राजद्रोह कानून ने भी 150 सालों के विवादों का सफर पूरा कर लिया है । गांधीजा ने कहा था कि जनता में राजद्रोह जैसे काले कानूनों के जोर पर सरकार के प्रति प्रेम पैदा नहीं किया जा सकता ।


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राजद्रोह के आरोप में कई मुकदमों के ट्रायल के बाद लोकमान्य तिलक आजादी की लड़ाई के ऐतिहासिक नायक बन गए थे । तिलक तो असली नायक थे , लेकिन आजादी के बाद ऐसा भी हुआ कि राजद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल से अपराधी भी नायक बन गए जो सांविधानिक व्यवस्था की नाकामी को ही दर्शाता है । 


ऐसे में यह सवाल सहज ही उठता है कि क्या राजद्रोह कानून को खत्म करने का समय आ गया है ? जानते हैं कि इस कानून के पूरे पेंच-


क्या राजद्रोह सरकार के खिलाफ बात करना भी है ?


भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code आईपीसी ) की धारा 124 - ए के अनुसार अगर कोई व्यक्ति बोले या लिखे गए शब्दों या संकेतों द्वारा या दृश्य प्रस्तुति द्वारा , विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना और असंतोष उत्पन्न करे या ऐसा करने का प्रयास करे तो उसे आजीवन कारावास या तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माना अथवा सभी से दंडित किया जा सकता है । 


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राजद्रोह के क़ानून और सिहासत 


तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने सन 1951 में पहले संविधान संशोधन से अनुच्छेद 19 ( 2 ) में पब्लिक आर्डर को भी अभिव्यक्ति की आजादी का अपवाद बनाकर राजद्रोह क़ानून को सांविधानिक मजबूती प्रदान कर दी । उसके बाद संविधान में 16 वें संशोधन से संविधान के अनुच्छेद में देश की एकता और अखंडता का प्रावधान अपवाद के तौर पर जोड़ा गया । 


इंदिरा गांधी के दौर में सन 1974 में नई सीआरपीसी में राजद्रोह को संगेय अपराध बनाकर इसे और सख्त बना दिया गया । कम्युनिस्ट सांसद डी राजा ने सन 2011 में इसे खत्म करने के लिए राज्यसभा में निजी विधेयक पेश किया , लेकिन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कोई तवज्जो नहीं दी । 


उसके बाद भाजपा सरकार आने पर सुर बदलते हुए कांग्रेसी सांसद शशि थरूर ने इसमें बदलाव के लिए निजी विधेयक पेश कर दिया । 2019 के आम चुनाव के पहले सियासी मुद्दा बनाते हुए कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में राजद्रोह के क़ानून को खत्म करने की बात भी कही । 


उधर , कांग्रेसी राज में दमन के शिकार संघ और भाजपा के नेताओं ने राजद्रोह क़ानून का सदैव विरोध किया । लेकिन सत्ता में आने पर सियासी पलटी मारते हुए भाजपा सरकार ने देशहित के नाम पर राजद्रोह कानून को जारी रखने का इरादा बुलंद कर दिया । 


क्या इस कानून का भारतीय गणराज्य में आवशयकता है?  


आधुनिक संसदीय लोकतंत्र के जन्मदाता माने जाने वाले इंग्लैंड में सन 1275 के आसपास वेस्ट मिनिस्टर कानून से राजा के देवत्व को बचाने की पहल हुई , जिसे राजद्रोह कानून की शुरुआत माना जा सकता है । 

इसके बाद इंग्लैंड के 1945 के कानून की तर्ज पर भारत में 1870 में आईपीसी में राजद्रोह के अपराध का क़ानून जोड़ा गया । भारत के संविधान में जनता द्वारा चुनी गई सरकार हर पांच साल में बदल जाती है , इसलिए सरकार के खिलाफ बोलना कोई गुनाह नहीं है । 

अंग्रेजी हुकूमत में अभिव्यक्ति की आजादी का हक हासिल नहीं था , लेकिन आजाद भारत में यह सबसे मूल्यवान सांविधानिक हक़ है । इंग्लैंड में यह कानून सन 2009 में निरस्त हो गया । फिर भारतीय गणतंत्र में राजद्रोह के नाम पर जनता के सांविधानिक अधिकारों का हनन कैसे जायज माना जा सकता है ?

राजद्रोह और देशद्रोह क्या एक ही है या कुछ फ़र्क है ? 


विधि आयोग ने साल 1971 में पेश अपनी 43 वीं रिपोर्ट में राजद्रोह के दायरे में सरकार के साथ संविधान , विधायिका और न्यायपालिका को लाने की बेतुकी सिफारिश कर डाली । हकीकत तो यह है कि संविधान , संसद और न्यायपालिका की रक्षा के लिए संविधान और आईपीसी में पहले से ही कई तरह के अलग - अलग कानून बने हैं । 


देश की एकता और अखंडता को खंडित करने और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने वाले राष्ट्र - विरोधी , पृथकतावादी और आतंकवादी तत्वों से निपटने के लिए यूएपीए , मकोका और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे सख्त कानूनों की भी पहले से ही व्यवस्था है । 


तो फिर राजद्रोह के लचर कानून के नाम पर सरकार और देश का फर्क खत्म करने की इजाजत कैसे दी जा सकती है ? राजद्रोह और देशद्रोह को एक मानने की गलती करना संविधान के साथ ही पूरे देश के साथ भी एक धोखा ही माना जाना चाहिए ।


गांधी , तिलक से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी तक , सभी इसके विरोध में थे 


गुलाम भारत में तिलक और गांधी के बाद आज़ाद भारत में डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी और राम मनोहर लोहिया जैसे मनीषियों ने राजद्रोह जैसे कानून की खिलाफत की थी । प्रथम राष्ट्रपति डॉ . राजेंद्र प्रसाद कहते थे कि सिर्फ बाहरी वेशभूषा के आवरण से देशभक्ति पैदा नहीं की जा सकती । 


उपनिवेशवाद के निशानों के खात्मे के लिए नई संसद के निर्माण के साथ राजद्रोह जैसे अप्रासंगिक और दमनकारी कानूनों को रद्द करना समय की बड़ी मांग बनती जा रही है 


 सुप्रीम कोर्ट से कैसे रद्द हो सकता है यह क़ानून ?


बिहार के कम्युनिस्ट नेता केदारनाथ सिंह ने सीआईडी को गाली दी , जिस पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला ठोंक दिया । मामला सुप्रीम कोर्ट गया । सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने 1962 में कानून को वैध ठहराने के बावजूद इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कई जरूरी आदेश पारित किए । 


इनके अनुसार आपत्तिजनक लेख , भाषण , टीवी प्रस्तुति या सोशल मीडिया पोस्ट के साथ हिंसा भड़काने का सीधा मामला हो , तभी राजद्रोह का मामला बन सकता है । सुप्रीम कोर्ट ने हालिया.फैसले में उसी आधार पर वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के मामले को रद्द किया । 


हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसलों के बाद अब यह जरूरी हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द करने पर विचार करे । केदारनाथ मामले में 5 जजों की बेंच थी , इसलिए अब इस मामले में सुनवाई के लिए 7 या ज्यादा जजों की नई बेंच बनानी होगी ।


कुछ प्रमुख चर्चित मामले ... 


 राजद्रोह के सामूहिक मामले- 


2012 में तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु संयंत्र का विरोध करने पर 9000 लोगों पर और 2017 में झारखंड में पत्थलगड़ी आंदोलन से जुड़े करीब 10 हजार आदिवासियों पर


 आन्दोलनकारी- 


अरुंधती रॉय , बिनायक सेन , हार्दिक पटेल , दिशा रवि , सुधा भारद्वाज , कन्हैया कुमार , उमर खालिद आदि ।


मीडिया, लेखक , फिल्मकार


 असीम त्रिवेदी , मृणाल पांडे , राजदीप सरदेसाई , आयशा सुल्ताना आदि ।




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