Bhakt Pundalik Vitthal Kath: पांचवीं शताब्दी में भारत के दक्षिणी भाग दिंदीरवन नामक स्थान पर पंडित जानूदेव अपनी पत्नी मुक्ताबाई के साथ रहते थे। पांच गांवों की पुरोहिती उनके पास थी। उनके घर संतान हुई। जिसका नाम रखा गया पुंडलिक। दोनों ने बड़े लाड प्यार से बेटे को पाला और युवा होने पर उसकी शादी अच्छे खानदान में कर दी, परंतु शादी के बाद घर का वातावरण बदल गया।
पुंडलिक पत्नी प्रेम में अंधा हो परिवार की जिम्मेवारियां भूल गया। वह माता पिता की बात कम मानता और पत्नी व ससुराल वालों की अधिक । इससे घर में कलह क्लेश रहने लगा। इन सभी झंझावातों से बचने के लिए जानूदेव व मुक्ताबाई ने गांव के जत्थे के साथ काशी जाने की योजना बनाई। परंतु पत्नी के कहने पर पुंडलीक भी काशी जाने की जिद्द करने लगा।
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उसकी पत्नी को शक था कि उसकी सास अपने सारे गहने काशी में कहीं दान न कर दे। पिता द्वारा लाख मना करने पर भी वह काशी के लिए जत्थे के साथ चल पड़ा। पुंडलीक के बूढ़े माता-पिता पैदल चलते तो पुंडलीक की पत्नी अपने पिता द्वारा दिए गए घोड़े पर चलती। गांव के लोग अंदर ही अंदर हंसते और तरह-तरह की बातें करते। यात्रा करते हुए जत्था उस समय के महान संत कुकुटस्वामी के आश्रम में पहुंचा।
वे बहुत सेवाभावी थे। यात्रियों के रहने के लिए उन्होंने आश्रम में बहुत अच्छी व्यवस्था की हुई थी। गांव का सारा जत्था कुछ दिनों के लिए वहीं रुका। एक रात पुंडलीक को नींद नहीं आई तो आधी रात को उसने देखा कि तीन सुंदर कन्याएं आश्रम में आई। तीनों ने आश्रम में झाडू-पोंछा किया, कपड़े धोए, मिट्टी-गोबर का चौका लगाया, पानी भरा और चली गई।
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अगले दिन फिर यही हुआ। पुंडलीक से रहा नहीं गया और उसने कन्याओं से हाथ जोड़ कर पूछा कि वे कौन हैं और आश्रम में काम क्यों करती हैं? इस पर कन्याएं बोलीं, हम गंगा, जमुना और सरस्वती हैं। तुम जैसे बहुत से पापी जो माता-पिता, देश और समाज की सेवा नहीं करते, बहुत से लोग बेईमानी, धोखेबाजी करते हैं। झूठ बोलते हैं।
शराब पीते और मांस का सेवन करते हैं, नशों का प्रयोग करते हैं। पराई स्त्री व पराए धन को बुरी नज़रों से देखते हैं, वे भी हममें स्नान करते हैं। उनके पापों से हम भी मैली हो जाती हैं और अपना पाप उतारने के लिए हमें साधु-संतों की सेवा करनी पड़ती है। कन्याओं की बात सुन कर पुंडलिक का हृदय परिवर्तन हो गया। वह माता-पिता का भक्त बन गया और तुरंत यात्रा बीच में ही छोड़ कर घर लौट आया।
अब वह परिवार की सारी जिम्मेवारी उठाने लगा। माता पिता का कहा मानता। पत्नी व ससुराल वालों का भी पूरा सम्मान करता। पति-पत्नी दोनों मिल कर घर को चलाने लगे और सास-ससुर की सेवा करने लगे। एक रात विठ्ठल अपने पिता के पांव दबा रहा था और पिता सो गए। वह सारी रात पांव दबाता रहे। अचानक भगवान श्री कृष्ण उसके पीठ के पीछे आकर खड़े हो गए और उसे पुकारने लगे। पुंडलिक ने पूछा,'कौन हो भाई।' मैं कृष्ण, जिसकी तुम रोज़ पूजा करते हो। 'पुंडलिक बोला, 'मेरे पास फुर्सत नहीं, मैं अपने पिता की सेवा कर रहा हूं।'
'मुझे बैठने के लिए आसन नहीं दोगे' श्रीकृष्ण ने पूछा। जिस शिला पर पुंडलीक बैठा था उसने वही नीचे से निकाल कर पीछे फेंक दी। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण सारी रात पुंडलिक की प्रतीक्षा करते रहे। आज भी उस स्थान पर विट्ठल विठोभा मंदिर है जो करोड़ों लोगों की आस्था का केंद्र है।
अभी भी भगवान उसी स्थान पर शिला पर खड़े हैं। जिस ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ऋषि-मुनि युगों तक तप करते हैं, गृहस्थी सेवा और दान करते हैं, पुंडलिक ने माता पिता की सेवा से घर में रहते हुए ही प्राप्त कर लिया। माता पिता की भक्ति व सेवा में इतनी शक्ति है।
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