Short story coffee : संभालना आ जाए , तो जिंदगी संभल जाती है ।
लघुकथा कॉफी एक हिन्दी कहानी
आज रात के खाने में क्या बनाऊं ? " आज बीना ने ड्रॉइंग रूम में बैठे अपने पति से मुस्कुराते हुए पूछा ।
' क्यों आज मेरा जन्मदिन है जो छप्पन भोग बनेगा ? जो मन हो बना लो रोज - रोज एक ही सवाल , तुम बोर नहीं होतीं क्या रोज पूछकर ? ' अनिल ने तुनक कर कहा । उंगलियां और निगाहें अब भी लैपटॉप पर ही थीं ।
बीना चुपचाप किचन में चली गई । बोली कुछ नहीं , भीगी पलकों ने दर्द समेट कर आंखों के भीतर ही मींच लिया था ।
अनिल को एहसास हुआ कि उसने ऑफिस का सारा गुस्सा बेवजह बीना पर निकाल दिया । कुछ देर बाद ही मन कचोटने लगा । अनिल को आत्मग्लानि महसूस हुई । उठकर किचन में गया ।
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' क्या पका रही हो ? ' अनिल ने बेहद मुलायम लहजे में पूछा । हालांकि उसे साफ़ - साफ दिख रहा था बरसात में उसके पसंदीदा बाटी - भर्ते की तैयारी चल रही थी । बीना ने कोई जवाब नहीं दिया ।
' अच्छा चलो , तुम थोड़ी देर बैठो , मैं चाय बनाकर लाता हूं । नहीं चाय रहने देते हैं । बारिश हो रही मैं तुम्हारी पसंदीदा कॉफी बनाकर लाता हूं । साथ में तुम्हारे फेवरेट काजू फ्राय भी ! ' अनिल ने बीना के हाथ से दूध का पतीला लेते हुए कहा ।
' चलो भी ! रहने दो जिंदगी में कभी कड़ाही चूल्हे पर चढ़ाई भी है जो आज काजू तलोगे ? तुम बैठो मैं ही बनाकर लाती हूं'- बीना ने मुस्कुराते हुए कहा ।
अनिल विजयी मुस्कान के साथ बाहर निकल आया । नाराजगी और उदासी ज्यादा बढ़ती उससे पहले अनिल ने बात सम्हाल ली । अनिल जानता था कि असल में सम्हाला तो पत्नी ने था- बात को बिना तूल दिए हुए । वह तो हमेशा पति को जीतते देखना चाहती है । फिर स्वयं से भी भला कैसे हारने देती ! कुछ देर बाद ड्रॉइंग रूम अनिल और बीना के ठहाकों से मूंज रहा था की महक ने पूरे कमरे में भर दी थी ।
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