व्यवहारिक जीवन में वेदांत Vyavaharik Jivan Me Vedanta
प्रथम व्याख्यान
(लंदन में, १० नवम्बर १८६६ को दिया हुआ भाषण )
Vedanta Chapter-1: बहुत से लोगों ने मुझसे व्यावहारिक जीवन में वेदान्त-दर्शन की उपयोगिता पर कुछ बोलने के लिए कहा है। मैं आप लोगों से पहले ही कह चुका हूँ कि सिद्धान्त बिलकुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कार्यरूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो बुद्धि-विलास के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। अतएव, वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक बनना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा। केवल यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है उसे भी मिटाना पड़ेगा क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है- वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है। धर्म के सभी आदर्श जीवन के सभी अंशों के नींवरूप बनें, वे हमारी प्रत्येक चिन्ता के भीतर प्रवेश करें और कार्य में भी उन्हीं का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता रहे।
मैं क्रमश: व्यावहारिक जीवन पर वेदान्त के प्रभाव के बारे में ही कहूँगा। किन्तु ये व्याख्यान भावी व्याख्यानों की उपक्रमणिका के रूप में हैं, अतः पहले हमें वेदान्त-सिद्धान्त की आलोचना करनी होगी। हमें यह जानना है कि ये सिद्धान्त किस प्रकार पर्वतों की गुफाओं और घने जंगलों में से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों के कामकाज में भी कार्यान्वित हुए हैं। इन सिद्धान्तों में एक और भी विशेषता है, और वह यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यवास के फल स्वरूप उत्पन्न नहीं हुए, किन्तु जिन व्यक्तियों को हम सब से अधिक कर्मण्य मानते हैं वे ही राजसिंहासन पर बैठनेवाले राज राजर्षि इनके प्रणेता हैं।
श्वेतकेतु आरुणि ऋषि के पुत्र थे। ये ऋषि सम्भवतः वानप्रस्थी थे। श्वेतकेतु का लालन-पालन वन में ही हुआ, किन्तु वे पांचाल देश के राजा प्रवाहन जैवलि के पास गये। राजा ने उनसे पूछा "मरते समय प्राणी इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह तुम जानते हो? "नहीं" किस प्रकार यहाँ उसका पुनर्जन्म होता है, जानते हो? "नहीं।" पितृयान और देवयान' के विषय में भी कुछ जानते हो?"-आदि आदि।
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इस प्रकार राजा ने और भी अनेक प्रश्न किये। श्वेतकेतु किसी भी प्रश्न का उत्तर न दे सके। तब राजा ने कहा, “तुम कुछ नहीं जानते।" बालक ने लौटकर पिता से सब हाल कह सुनाया। पिता ने कहा, "मैं भी इन प्रश्नों का उत्तर नहीं जानता। अगर जानता तो क्या तुम्हें न सिखाता?" तब पिता-पुत्र दोनों राजा के पास गये और उनसे इस गुप्त विषय की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की। राजा ने कहा, "यह विद्या- यह ब्रह्मविद्या केवल राजाओं को ही ज्ञात थी, ब्राह्मणों को इसका कभी ज्ञान न था।" जो हो इसके बारे में वे जो कुछ जानते थे इन दोनों को शिक्षा देने लगे। इस प्रकार हम अनेक उपनिषदों में यही पाते हैं कि वेदान्तदर्शन केवल वन में ध्यान द्वारा ही नहीं जाना गया, किन्तु उसके सर्वोत्कृष्ट भिन्न भिन्न अंश सांसारिक कर्मों में विशेष व्यस्त मनीषी लोगों द्वारा ही चिन्तित तथा प्रकाशित किये गये। लाखों मनुष्यों के शासक स्वतन्त्र राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है? किन्तु साथ ही वे राजागण गम्भीर विचारशील भी होते थे।
इस प्रकार अनेक दृष्टिकोणों से देखने पर यह स्पष्ट अनुमान किया जा सकता है कि इस दर्शन के प्रकाश में हमारा जीवन गढ़ा तथा बिताया अवश्य जा सकता है। जब हम परवर्ती काल की भगवद् गीता की आलोचना करते हैं (शायद आप लोगों में से बहुतों ने इसे पढ़ा होगा, यह वेदान्तदर्शन का एक सर्वोत्तम भाष्य स्वरूप है) तब यही देखते हैं और यह आश्चर्य की बात है। कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल। यहीं श्रीकृष्ण अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दे रहे हैं और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर यही मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है- तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसी के बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। हम साधारणतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता।
यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिटटी के ढेले और पेड़ों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जानेवाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते हैं। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है वह अनन्त स्थिरता साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता। हम लोग भी बहुत कुछ देखने-सुनने के बाद यही समझ पाये हैं कि कार्य करने के लिए इस प्रकार की मनोवृत्ति ही सब से अधिक उपयोगी होती है।
लोगों ने मुझसे यह प्रश्न अनेक बार किया है कि हम कार्य के लिए जो एक प्रकार का आग्रह अनुभव करते हैं वह यदि न रहे। तो हम कार्य कैसे करेंगे? मैं भी बहुत दिन पहले यही सोचता था, किन्तु जैसे जैसे मेरी आयु बढ़ रही है, जितनी अभिज्ञता बढ़ती जा रही है, उतना ही मैं देखता हूँ कि यह सत्य नहीं है। कार्य के भीतर जितनी कम कामना रहती है उतनी ही सुन्दरता के साथ उसे पूर्ण किया जा सकता है। हम लोग जितने अधिक शान्त होते हैं उतना ही हम लोगों का आत्मकल्याण होता है और हम काम भी अधिक अच्छी तरह कर पाते हैं। जब हम लोग भावनाओं के अधीन हो जाते हैं, तब अपनी शक्ति का विशेष अपव्यय करते हैं, अपनी स्नायुमण्डली को विकृत कर डालते हैं, मन को चंचल बना डालते हैं, किन्तु काम बहुत कम कर पाते हैं। जिस शक्ति का कार्यरूप में परिणत होना उचित था वह वृथा भावुकता मात्र में समाप्त होकर क्षय हो जाती है।
केवल जब मन खूब शान्त और स्थिर रहता है तभी हम लोगों की समस्त शक्ति सत्कार्य में व्यय होती है। यदि तुम जगत् के बड़े बड़े कार्यकुशल व्यक्तियों की जीवनी पढ़ो तो देखोगे कि वे अद्भुत शान्त प्रकृति के लोग थे। कोई भी वस्तु उनके चित्त की स्थिरता भंग नहीं कर पाती थी। इसीलिए जो व्यक्ति बहुत जल्दी क्रोध में आ जाता है वह कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर पाता और जो किसी प्रकार भी क्रोध नहीं करता वह सबसे अधिक काम कर सकता है।जो व्यक्ति क्रोध, घृणा आदि किसी शत्रु के वश में हो जाता है वह अपने को खण्ड खण्ड कर डालता और कभी एक बड़ा कर्मठ व्यक्ति नहीं बन पाता। केवल शान्त, क्षमाशील, स्थिरचित्त व्यक्ति ही सब से अधिक काम कर पाता है।
वेदान्त आदर्श के सम्बन्ध में ही उपदेश देता है और जिसे हम वास्तव अर्थात् बोधगम्य कहते हैं उससे आदर्श कहीं अधिक उच्च होता है, यह भी हम जानते हैं। हम लोगों के जीवन में दो प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। एक है अपने आदर्श को जीवनोपयोगी बनाना अपने वर्तमान जीवन के स्तर पर उसे खींच लाना और दूसरी है इसी जीवन को आदर्शोपयोगी बनाना अर्थात् आदर्श के अनुसार जीवन का गठन करना। इन दोनों का भेद भलीभाँति समझ लेना चाहिए -कारण, अपने आदर्श को जीवनोपयोगी बनाते समय, अपने अनुसार बनाते समय हम लोग प्रायः प्रलुब्ध हो जाते हैं। मैं सोचता हूँ कि मैं कोई विशेष प्रकार का कार्य कर सकता हूँ, शायद उसका अधिकांश ही बुरा है और उसके पीछे शायद क्रोध, घृणा अथवा स्वार्थपरता ही विद्यमान है। अब मानो किसी व्यक्ति ने मुझे किसी विशेष आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया निश्चय ही उनका पहला उपदेश यही होगा कि स्वार्थपरता तथा आत्मसुख का त्याग करो।
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में सोचता हूँ कि यह करना तो असम्भव है। किन्तु यदि किसी ने एक ऐसे आदर्श के सम्बन्ध में उपदेश दिया जो कि मेरी स्वार्थपरता और निम्न भावों का समर्थन करे तो मैं उसी समय कह उठता हूँ, 'यह है मेरा आदर्श' और मैं उसी आदर्श का अनुसरण करने के लिए व्यस्त हो जाता हूँ। इसी प्रकार 'शास्त्रीय' बात को लेकर लोग आपस में झगड़ते रहते हैं और कहते हैं कि जो मैं समझता हूँ वही शास्त्रीय है तथा जो तुम समझते हो वह अशास्त्रीय है। 'व्यवहार्य' (practical) शब्द को लेकर भी ऐसा ही अनर्थ होता रहता है।
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जिस बात को मैं कार्यरूप में परिणत करने योग्य समझता हूँ, जगत् में एकमात्र वही व्यवहार्य है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ, यदि मैं एक दूकानदार हूँ तो सोचता हूँ कि संसार में दूकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं चोर हूँ तो चोरी के बारे में भी यही सोचता हूँ। आप लोग जानते ही हैं कि हम सब इस 'व्यवहार्य' शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिए करते हैं जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है और जो हमसे किये जा सकते हैं। इसी कारण मैं तुम लोगों को यह स्पष्ट कर देनाचाहता हूँ कि यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यवहार्य है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।
वेदान्त का आदर्श कितना ही उच्च क्यों न हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता और वास्तव में यही आदर्श ठीक ठीक आदर्श है। एक शब्द में इसका उपदेश है "तत्त्वमसि' तुम्हीं वह ब्रह्म हो' और इसके समुदय उपदेश की अन्तिम परिणति यही है। अनेक प्रकार के बौद्धिक वादविवाद के पश्चात् तुम्हें इसमें यही सिद्धान्त मिलेगा की मानवात्मा शुद्धस्वभाव और सवज्ञ है। आत्मा के सम्बन्ध में जन्म अथवा मृत्यु की बात करना भी कोरी विडम्बना मात्र है। आत्मा का न कभी जन्म होता है न मृत्यु; मैं मरूँगा अथवा मरने में डर लगता है यह सब केवल कुसंस्कार मात्र है। और मैं यह कर सकता हूँ, यह नहीं कर सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं।
मैं सब कुछ कर सकता है। वेदान्त सब से पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार का कोई कोई धर्म कहता है कि जो व्यक्ति अपने से अतिरिक्त सगुण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता वहनास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है। अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास न करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बहुत से लोग इसकी धारणा भी नहीं कर पाते और हम लोगों में से भी अधिकांश व्यक्ति यह सोचते हैं कि यह कभी अपरोक्ष ज्ञान का विषय नहीं होगा, किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति ही इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। इस विषय में स्त्री पुरुष का भेद नहीं है, बालक बालिका का भेद नहीं है, जातिभेद नहीं है आवाल-वृद्ध वनिता, जाति-धर्म-भेद के बिना ही इस सत्य की उपलब्धि कर सकते हैं।- कुछ भी इसका प्रतिबन्धक नहीं हो सकता, कारण, वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही अनुभूत है और पहले से वर्तमान भी है।
हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही है। हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकर 'अन्धकार' अन्धकार कहकर चीत्कार करते हैं। हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि वहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था। वर्तमान भी है।' अन्धकार कभी था ही नहीं, दुर्बलता कभी थी ही नहीं, हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं। इस प्रकार वेदान्त, केवल 'आदर्श को कार्यान्वित किया जा सकता है' यही नहीं कहता, किन्तु यह भी कहता है कि वह आदर्श हम लोगों को पहले से ही प्राप्त है और जिसे हम अब आदर्श कहते हैं वही हमारी प्रकृत सत्ता है- वही हम लोगों का स्वरूप है। और जो कुछ हम देखते हैं वह सम्पूर्ण मिथ्या है। जब तक तुम कहते हो, 'मैं एक क्षुद्र मर्त्य जीव हूँ ' तब तब तुम झूठ बोलते हो ;तुम मानो जादू के जोर से अपने को असत्, दुर्बल, दुर्भागी बना डालते हो।
वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है। और वेदान्त कहता है कि सब से बड़ा भ्रम है- अपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहना– यह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदि आदि।कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो तभी तुम मानो बन्धन-शृंखला को और भी दृढ़ कर लेते हो, अपनी आत्मा को पहले से और भी अधिक मायाजाल में फँसा लेते हो। अतएव, जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है; जो अपने को अपवित्र मानता है वह भ्रान्त है; वह जगत् में एक असत् चिन्तनधारा प्रवाहित करता हैं। यही सदा याद रखना चाहिए कि वेदान्त में हमारे इस वर्तमान मायामय जीवन का इस मिथ्या जीवन का, जिसमें आदर्श के साथ मिल जाने की कोई चेष्टा नहीं है- परित्याग करने के लिए कहा गया है और ऐसा होने पर ही उसके पीछे जो सत्य जीवन सदा वर्तमान है, वह प्रकाशित होगा।
यह नहीं कि जो मनुष्य पहले अपेक्षाकृत कम पवित्र था वह उससे भी अधिक पवित्र हो गया, किन्तु वास्तव में वह पहले से ही पूर्ण शुद्ध है उसका वही पूर्ण शुद्ध स्वभाव धीरे धीरे प्रकाशित होता है। आवरण हटता जाता है और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता, मुक्त स्वभाव, प्रेम और ऐश्वर्य पहले से ही हम लोगों में विद्यमान है।
वेदान्ती यह भी कहते हैं कि ऐसा नहीं कि यह केवल बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में ही उपलब्ध हो सकता है, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह का आविष्कार किया था वे बन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे, वरन् विशेष कारण सहित हमारा ऐसा विश्वास है कि वे लोग ऐसे थे जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य परिचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजा वर्ग का हानि लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय राजागण ही सर्वेसर्वा थे- आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उसको जीवन में परिणत करने और मानवजाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव, उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उन लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक कर्महीन है।
अतः हम लोगों को जब इतना कम कामकाज है और हम जब उनकी अपेक्षा अधिक स्वाधीन हैं तो हम लोगों का इस पूर्ण सत्य का अनुभव न कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है। पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों के अभाव की तुलना में हमारा अभाव तो कुछ भी नहीं। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित कई अक्षौहिणी सेना के परिचालक अर्जुन का जितना अभाव था, हमारा अभाव उसकी तुलना में नगण्य है, तब भी इस युद्ध कोलाहल के बीच में भी वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने को समय पा सके- इसीलिए हमारे इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में भी यह करना सम्भव और उचित है।
हम लोग यदि ठीक प्रकार से समय बितायें तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं, उससे हम लोगों में से अनेक के पास अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। इसी में हमारे जीवन की सब से बड़ी विपत्ति की आशंका है। ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो हमारे व्यर्थ अभावों और वासनाओं के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं है, किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है।
वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ एक करना पड़ेगा वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा। कारण, तुम्हें सदा स्मरण रखना होगा कि वेदान्त का मूल सिद्धान्त यह एकत्व अथवा अखण्ड भाव है। द्वित्व कहीं नहीं है दो प्रकार का जीवन अथवा जगत् भी नहीं है। तुम लोग देखोगे कि वेद पहले स्वर्गादि के विषय में कहते हैं, किन्तु अन्त में जब वे अपने दर्शन के उच्चतम आदर्श के विषय में कहना आरम्भ करते हैं तो वे उन सब बातों को बिलकुल त्याग देते हैं। एक मात्र जीवन है, एक मात्र जगत् है, एक मात्र अस्तित्व है। सब कुछ वही एक सत्तामात्र हैं; भेद केवल परिमाण का है, प्रकार, का नहीं। भिन्न भिन्न जीवन के बीच में भेद प्रकारगत नहीं है। वेदान्त इस बात को बिलकुल नहीं मानता कि पशुगण मनुष्यों से सम्पूर्णतया पृथक हैं और उन्हें ईश्वर ने हमारे भोज्यरूप में बनाया है।
कुछ व्यक्तियों ने दयावश जीवित व्यवच्छेद निवारणी सभा (anti vivisestion society) स्थापित की है। मैंने एक दिन इस सभा के एक सदस्य से पूछा, "भाई, आप भोजन के लिए पशु हत्या को सम्पूर्णतया न्यायसंगत मानते हैं, किन्तु वैज्ञानिक परीक्षा के लिए दो एक पशुओं की हत्या के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" उसने उत्तर दिया, "जीवित की चीरभाड़ बहुत भयानक कार्य है, किन्तु पशुगण हमारे भोजनार्थं ही बनाये गये हैं।" कैसी अजीब बात है! वास्तव में पशुगण भी तो उसी अखण्ड सत्ता के अंशरूप हैं। यदि मनुष्य का जीवन अनन्त है तो पशु जीवन भी उसी प्रकार है। प्रभेद केवल परिमाणगत है, प्रकारगत नहीं, हम जिस प्रकार के हैं क्षुद्र जीवाणु भी उसी प्रकार के हैं प्रभेद केवल परिमाणगत है।
और उस सर्वोच्च सत्ता की दृष्टि से देखने पर यह प्रभेद भी नहीं देखा जाता। मनुष्य एक तिनके और पौधे में बहुत प्रभेद देख सकता है, किन्तु यदि तुम खूब ऊँचे चढ़कर देखो तो यह तिनका तथा एक बड़ा वृक्ष दोनों ही समान दिखेंगे। इसी प्रकार उस उच्चतम सत्ता के दृष्टिकोण से ये सभी समान हैं और यदि आप एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो आपको पशुओं से लेकर उच्चतम प्राणी तक समत्व मानना पड़ेगा; नहीं तो भगवान् एक महापक्षपाती व्यक्ति बन जायेंगे। जो भगवान् अपनी मनुष्य सन्तान के प्रति इतने पक्षपाती हैं और पशु नामक अपनी सन्तान के प्रति इतने निर्दय हैं, वे तो फिर दानवों से भी अधम हुए। इस प्रकार के ईश्वर की उपासना करने की अपेक्षा मुझे सैकड़ों बार मरना भी पसन्द है।
मेरा समस्त जीवन इस प्रकार के ईश्वर के विरुद्ध युद्ध में ही बीतेगा। किन्तु वास्तविक ईश्वर ऐसे नहीं हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं वे नहीं जानते कि वे दायित्व बोधहीन और हृदयहीन व्यक्ति हैं; वे क्या कह रहे हैं, यह नहीं जानते।यहाँ फिर 'व्यावहारिकता' शब्द गलत अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वास्तविक बात यह है कि हम खाना चाहते हैं, इसीलिए खाते रहते हैं। मैं स्वयं एक शाकाहारी न भी होऊँ, किन्तु मैं शाकाहार का आदर्श समझता हूँ। जब मैं मांस खाता हूँ तब जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। घटनाविशेष के कारण उसे खाने को बाध्य होने पर भी मैं यह जानता हूँ कि यह उचित नहीं। आदर्श नीचा करके अपनी दुर्बलता का समर्थन मुझे नहीं करना चाहिए। आदर्श यही है - मांस न खाया जाय; किसी भी प्राणी का अनिष्ट न किया जाय, क्योंकि पशुगण भी हमारे भाई हैं- बिल्ली और कुत्ते भी हमारे भाई हैं।
यदि उन्हें इस प्रकार से सोच सकते हो तो तुम सब प्राणियों में भ्रातृभाव की ओर बहुत कुछ अग्रसर हो गये- केवल मनुष्यजाति के प्रति भाईचारा चिल्लाना वृथा है। तुम संसार में देखोगे कि इस प्रकार का उपदेश बहुत लोग पसन्द नहीं करते, क्योंकि उन्हें वास्तव को छोड़कर आदर्श की ओर जाने के लिए कहा जाता है। किन्तु यदि तुम एक ऐसी बात कहो जिससे उनके वर्तमान कार्य का वर्तमान आचरण का समर्थन होता हो तो वे कहेंगे, यही 'व्यावहारिक' है।
मनुष्यस्वभाव में बहुत भारी रक्षणशील प्रवृत्ति दीख पड़ती है। हम लोग सामने एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहते। जिस प्रकार बर्फ में जमे व्यक्तियों के सम्बन्ध में पढ़ा जाता है वैसा ही मनुष्यजाति के बारे में भी कहा जा सकता है।सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है, तो वह कहता है, 'मुझे सोने दो-बर्फ में सोने से बड़ा आराम मिलता है! "उसकी वही निद्रा महानिद्रा हो जाती है। हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। हम लोग भी सारा जीवन यही कर रहे हैं- सिर से लेकर पैर तक समूचे बर्फ में जमे जा रहे हैं, तो भी हम लोग सोना चाहते हैं। अतएव, सदा आदर्श अवस्था में पहुँचने का प्रयत्न करो और यदि कोई व्यक्ति आदर्श को तुम्हारी निम्न भूमि में खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये जो कि उच्चतम आदर्श की शिक्षा नहीं देता, तो उसकी बात कानों में भी न जाने दो।
इस प्रकार का धर्माचरण मेरे द्वारा असम्भव है, किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये जो कि जीवन का सर्वोच्च आदर्श दर्शाता है, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। इस विषय में खूब सावधान रहना चाहिए। जब कभी कोई व्यक्ति किसी प्रकार की दुर्बलता को पुष्ट करने का प्रयत्न करे तभी विशेष सावधान होने की आवश्यकता है। एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे बन जाते हैं, उस पर भी यदि कोई आकर हमें उस प्रकार की शिक्षा दे और यदि हम उस उपदेश का अनुसरण करें तो हम कुछ भी उन्नति नहीं कर सकते।
मैंने ऐसी बातें बहुत देखी हैं, जगत् के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है और हमारे देश में अनेक धर्म सम्प्रदाय रक्तबीज के समान बढ़ते रहते हैं। प्रतिवर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते है; किन्तु एक बात मैंने विशेष रूप से देखी है कि जो सम्प्रदाय संसार और धर्म को एक साथ मिलाने की चेष्टा नहीं करते वे ही उन्नति करते हैं और जहाँ परमोच्च आदर्श का झूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्थ करने की– ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खींच लाने की चेष्टा रहती है, वहीं रोग घुस पड़ता है। मनुष्य जहाँ पड़ा है वहीं पड़े रहने से काम नहीं चलेगा उसे ईश्वर होना पड़ेगा।
इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घृणित दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बलता और सबलता में केवल परिमाणगत भेद है। प्रकाश और अन्धकार में भेद है केवल परिमाणगत पाप और पुण्य के बीच भी भेद है केवल परिमाणगत- जीवन और मृत्यु के बीच में भेद है केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं; कारण, वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तु मात्र हैं। सभी एक हैं, चाहे चिन्तनरूप हो, जीवनरूप हो, आत्मरूप हो, सभी एक हैं— प्रभेद केवल परिमाण और मात्रा के तारतम्य में है। जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये उनके प्रति घृणा करना ठीक नहीं है। किसी की भी निन्दा मत करो; किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो चुपचाप बैठे रहो, उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो। गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती। इस प्रकार से कभी किसी की उन्नति नहीं होती। दूसरे की निन्दा करने से केवल शक्ति क्षय होता है। समालोचना और निन्दा हम लोगों के वृथा शक्ति क्षय का उपाय मात्र है और अन्त में हम देखते हैं कि दूसरा जिस लक्ष्य की ओर जा रहा है हम भी उसी ओर जा रहे हैं। हम लोगों में से अधिकांश का मतभेद केवल भाषा का भेद मात्र है।
उदाहरणार्थ 'पाप' की बात लो। वेदान्त की पाप की धारणा तथा यह साधारण धारणा कि मनुष्य पापी है— दोनों वास्तव में एक ही बात हैं। दूसरी 'नहीं' की दिशा में है और वेदान्त की 'हाँ' की दिशा में। एक, मनुष्य को उसकी दुर्बलता दिखा देती है और दूसरी कहती है कि दुर्बलता हो सकती है किन्तु उस ओर ध्यान मत दो हम लोगों को उन्नति करनी है। जब मनुष्य पहले पहल जन्मा तभी उसका रोग क्या है, जान लिया गया। सभी अपना अपना रोग जानते हैं किसी दूसरे को कहना नहीं पड़ता। हम लोग बाह्य जगत् के सामने भले ही कपटाचरण करें, परन्तु अपने अन्दर ही अन्दर हम अपनी दुर्बलता जानते हैं।
किन्तु वेदान्त कहता है, केवल दुर्बलता स्मरण कराने से अधिक उपकार नहीं होगा– उसका उपचार करो। यह कहते रहना कि 'मैं रोगग्रस्त हूँ'– रोग की औषध या उपचार नहीं है। मनुष्य को सदैव उसकी दुर्बलता की याद कराते कहना उसकी दुर्बलता का प्रतीकार नहीं है, बल्कि उसे अपने बल का स्मरण करा देना ही उसके प्रतीकार का उपाय है। उसमें जो बल पहले से ही विद्यमान है उसका उसे स्मरण कराओ। मनुष्य को पापी न बतलाकर वेदान्त ठीक उसका विपरीत मार्ग ग्रहण करता है और कहता है, "तुम पूर्ण और शुद्धस्वरूप हो और जिसे तुम पाप कहते हो वह तुममें नहीं है।"
जिसे तुम 'पाप' कहते थे वह तुम्हारा निम्नतम प्रकाश है; अगर कर सको तो अपने को उच्चतर भाव में प्रकाशित करो। एक बात हम सब को सदैव याद रखनी चाहिए और वह यह कि हम सब कुछ कर सकते हैं। कभी 'नहीं' मत कहना, "मैं नहीं कर सकता" यह कभी न कहना। ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि तुम अनन्तस्वरूप हो। तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश काल भी कुछ नहीं हैं। तुम्हारी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, तुम सर्वशक्तिमान हो। अब तक जो कुछ कहा गया है, अवश्य वह केवल नीति का मूल सूत्र है।
हमें सिद्धान्त की कोटि से उतरकर जीवन की विशेष विशेष अवस्थाओं में इसका प्रयोग करना पड़ेगा। हमें देखना होगा कि किस प्रकार यह वेदान्त हमारे दैनिक जीवन में, नागरिक जीवन में, ग्राम्य जीवन में, प्रत्येक जाति के जीवन में प्रत्येक जाति के घरेलू कामकाजों में परिणत किया जा सकता है। कारण, यदि धर्म मनुष्य को प्रत्येक अवस्था में सहायता नहीं दे सकता तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं— फिर तो वह केवल कुछ व्यक्तियों के लिए मतवाद मात्र ही हुआ। धर्म यदि समग्र मानवजाति का कल्याण करना चाहता है तो वह इस प्रकार का होना उचित है कि मनुष्य हर समय उसका सहारा ले सके- गुलामी हो या आजादी, महा अपवित्रता हो या अत्यन्त पवित्रता, सभी समय वह मानवजाति की समान भाव से सहायता कर सके। केवल तभी वेदान्त के सब तत्त्व अथवा धर्म के सब आदर्श उन्हें आप किसी भी नाम से पुकारिये काम में आ सकेंगे।
आत्मविश्वासरूप आदर्श ही मानवजाति के लिए सब से अधिक कल्याणप्रद हो सकता है। यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और वह कार्यरूप में परिणत हो जाता तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत् में जितना दुःख कष्ट है उसका अधिकांश कट जाता। समग्र मानवजाति के इतिहास में सभी श्रेष्ठ नर नारियों के बीच में यदि कोई भावविशेष फलीभूत हुआ है तो वह है यही आत्मविश्वास वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे श्रेष्ठ बनेंगे और वे बने भी। मनुष्य कितनी ही अवनति की अवस्था में क्यों न हो, एक समय ऐसा अवश्य आता हैं जब उसे इस अवस्था से विरक्त होकर उन्नति की चेष्टा करनी पड़ती है। उस समय वह अपने ऊपर विश्वास करना सीखता है। किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है।
हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतना क्यों घूमते फिरें? मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है, वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थित तथा अभाव के कारण ही है यह थोड़ी खोज करने से ही समझ में आ सकता है। इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है। मैंने अपने जीवन में ही इसे देखा है और अभी भी देखता हूँ और जितनी आयु बढ़ती जा रही है उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है। जिसमें आत्मविश्वास नहीं है वही नास्तिक है। प्राचीन धर्म में कहा गया है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है।
नूतन धर्म कहता है, जो आत्मविश्वास नहीं रखता वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस क्षुद्र 'मै' को लेकर नहीं है, कारण वेदान्त एकत्ववाद की शिक्षा देता है। इस विश्वास का अर्थ है-सब के प्रति विश्वास, कारण, तुम सभा शुद्धस्वरूप, हो। आत्मप्रीति का अर्थ है सब प्राणियों में प्रीति, समस्त पशु पक्षियों में प्रीति, सब वस्तुओं में प्रीति, क्योंकि तुम उनसे भिन्न तो नहीं हो। इस महान विश्वास के बल पर ही समस्त जगत् की उन्नति होगी। यह मेरी ध्रव धारणा है। वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है जो साहस के साथ कह सकता है, मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ;क्या तुम लोग जानते हो कि तुम्हारी इसी देह के भीतर कितनी शक्ति, कितनी क्षमता अब भी छिपी पड़ी है ? मनुष्य के अन्दर जो जो वस्तुएँ छिपी पड़ी हैं, उन सबका ज्ञान किस वैज्ञानिक ने प्राप्त किया है? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर रहता है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का अति सामान्य अंश ही प्रकाशित हुआ है। अतएव, तुम कैसे अपने को जबरदस्ती दुर्बल कहते हो? ऊपर से दिखनेवाली इस अवनति के पीछे क्या है, तुम यह जानते हो? तुम्हारे अन्दर क्या है, क्या तुम जानते हो? तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का अपार सागर।
“आत्मा वा अरे श्रोतव्यः"- इस आत्मा के बारे में पहले सुनना चाहिए। दिनरात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा हो।दिनरात यही भाव तुम्हें व्याप्त किये रहे; जब तक कि वह तुम्हारे रक्त की प्रत्येक बूंद में और तुम्हारी प्रत्येक नस-नस में समा जाय। सम्पूर्ण शरीर को एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो "मैं अज, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशतिमान्, नित्य ज्योति मंय आत्मा हूं ”–दिनरात यही चिन्ता करते रहो; जब तक कि यह भाव तुम्हारे प्राणों में भिद नहीं जाता। इसी का ध्यान करते रहो - इस भाव में विभोर होने पर ही तुम प्रकृत कर्म करने में समर्थ हो सकोगे। 'हृदय पूर्ण होने पर मुँह बात करता है हृदय पूर्ण होने पर हाथ भी काम करते है। अतएव इस प्रकार की अवस्था में ही यथार्थ कार्य सम्पूर्ण हो सकेगा। अपने को इस आदर्श के भाव से ओतप्रोत कर डालो- जो कुछ करो, पहले, उसके सम्बन्ध में उत्तम रूप से सोचो।
तब इस चिन्ताशक्ति के प्रभाव से तुम्हारे सम्पूर्ण कर्म परिवर्तित होकर उन्नत देवभावापन्न हो जायेंगे। अगर 'जड़' शक्तिशाली है तो 'विचार' सर्वशक्तिमान् है। उसी विचार, उसी ध्यान को लेकर अपने को सर्वशक्तिमत्ता और महत्त्व के भाव से पूर्ण बना लो। ईश्वरेच्छा से यदि कुसंस्कार पूर्णभाव तुम्हारे अन्दर प्रवेश न कर पाते तो अच्छा होता। ईश्वरकृपा से यदि हम लोग इस कुसंस्कार के प्रभाव तथा दुर्बलता और नीचता के भाव से परिवेष्टित न होते तो कैसा अच्छा होता! ईश्वरेच्छा से यदि मनुष्य अपेक्षाकृत सहज उपाय द्वारा उच्चतम, महत्तम सत्यसमुदाय में पहुँच सकता तो कैसा अच्छा होता! किन्तु उसे इन सब में से होकर ही जाना पड़ता है; जो लोग तुम्हारे पीछे आ रहे हैं, उनके लिए रास्ता अधिक दुर्गम न बनाओ।
ये सब बातें मनुष्य को प्रायः भयानक प्रतीत होती हैं । मैं जानता हुँ, बहुत से लोग ये सब उपदेश सुनकर भयभीत हो जाते हैं, किन्तु जो वास्तविक अभ्यास करना चाहते हैं उनके लिए यही पहला अभ्यास है। अपने को अथवा दूसरे को कभी दुर्बल मत कहना है। यदि कर सको तो मनुष्य का कल्याण करो, पर किसी का अनिष्ट न करो। अपने हृदय के अन्दर से यह समझ लो कि तुम्हारे ये क्षुद्र क्षुद्र भाव एवं काल्पनिक पुरुषों के सामने घुटने टेककर तुम्हारा रोना या प्रार्थना करना केवल कुसंस्कार है। मुझे एक ऐसा उदाहरण बताओ जहाँ बाहर से इन प्रार्थनाओं का उत्तर मिला हो।जो भी उत्तर पाते हो वह अपने हृदय से ही। तुम लोगों में से बहुतों का विश्वास है कि भूत नहीं है, किन्तु अन्धकार में जाते ही तुम लोगों का शरीर कछ काप-सा जाता है।
इसका कारण यह है कि बिलकुल बचपन से ही हम लोगों के सिर में यह सब भय घुसा दिया गया है। किन्तु हमें यह अभ्यास करना पड़ेगा कि समाज का भय, संसार के कहने-सुनने का भय, बन्धु-बान्धवों की घृणा का भय, प्रिय अन्धविश्वासों के नष्ट होने का भय यह सब हम दूसरों के मस्तिष्क में नहीं घुसायेंगे। इस प्रवृत्ति को जीत लो। केवल विश्वब्रह्माण्ड का एकत्व औरआत्मविश्वास छोड़, धर्म के विषय में और क्या सिखाना है? शिक्षा केवल इतनी ही देनी है। लाखों साल से मनुष्य यही चेष्टा करता आ रहा है और अभी भी कर रहा है। तुम लोग भी यही शिक्षा देते हो, यह हम जानते हैं। सब ओर से हम यही शिक्षा पाते हैं। केवल दर्शन और मनोविज्ञान ही नहीं, जड विज्ञान भी यही घोषणा करता है। क्या ऐसा एक वैज्ञानिक दिखा सकते हो जो आज जगत् का एकत्ववाद अस्वीकृत कर दे? आज कौन जगत् के अनेकत्ववाद के प्रचार का साहस कर सकता है?
वह सब कुसंस्कार मात्र है। केवल प्राण ही विद्यमान है, एक ही जगत् विद्यमान है और वही हम लोगों के सामने अनेकवत् प्रतीत होता है, जिस प्रकार स्वप्न देखते समय एक के बाद दूसरा स्वप्न आता है। स्वप्न में जो देखा जाता है वह सत्य तो नहीं है। एक स्वप्न के बाद दूसरा स्वप्न दिखायी पड़ता है विभिन्न दृश्य तुम्हारी आँखों के सामने उद्भासित होते रहते हैं। इसी प्रकार इस जगत् के सम्बन्ध में भी है। इस समय यह पन्द्रह आने दुःखरूप और एक आना सुखरूप जान पड़ता है।
शायद कुछ दिन बाद ही यह पन्द्रह आने सुखरूप प्रतीत होगा तब हम इसे स्वर्ग कहेंगे। किन्तु सिद्ध होने पर उसकी एक ऐसी अवस्था आयेगी जब यह सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच हम लोगों के सामने से अन्तहित हो जायेगा- वह ब्रह्मरूप में प्रतीत होगा और हमें आत्मा का भी ब्रह्मरूप में अनुभव होगा। अतएव, लोक अनेक नहीं हैं, जीवन अनेक नहीं हैं। यह बहुत्व उस एकत्व का ही विकास मात्र है। केवल वह 'एक' ही अपने को बहुरूप में प्रकाशित कर रहा है- जड़ अथवा चेतन में, मन या चिन्तन-शक्ति में अथवा अन्य किसी भी रूप में। प्रथम कर्तव्य है- इस तत्त्व की अपने अतएव, हम लोगों का को तथा दूसरों को शिक्षा देना।
जगत् इस महान् आदर्श की घोषणा से प्रतिध्वनित हो सब कुसंस्कार दूर हों। दुर्बल मनुष्यों को यही सुनाते रहो- लगातार सुनाते रहो- 'तुम शुद्धस्वरूप हो, उठो, जागृत हो जाओ। हे महान्, यह नींद तुम्हें शोभा नहीं देती। उठो, यह मोह तुम्हें भाता नहीं। तुम अपने को दुर्बल और दुःखी समझते हो? हे सर्वशक्तिमान् उठो, जागृत हो ओ, अपना स्वरूप प्रकाशित करो। तुम अपने को पापी समझते हो, वह तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। 'जगत् से यही कहते रहो, अपने से यही कहते रहो- देखो, इसका क्या शुभफल होता है; देखो कैसी बिजली जैसी शक्ति से सम्पूर्ण तत्त्व प्रकाशित होता है, और सब कुछ कैसे परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य जाति से यही कहते रहो- उसे उसकी शक्ति दिखा दो। ऐसा होने से ही हमारे दैनिक जीवन में उसका फल मिलता रहेगा।
जिसे हम विवेक या सदसत्-विचार कहते हैं उसका अपने जीवन के प्रतिक्षण में एवं प्रत्येक कार्य में उपयोग करने की क्षमता प्राप्त करने के लिए हमें सत्य की कसोटी जान लेनी चाहिए- और वह है पवित्रता तथा एकत्व का ज्ञान।जिससे एकत्व हो, जिससे मिलन हो, वही सत्य है। प्रेम सत्य है, क्योंकि वह मिलन सम्पादक है; घृणा असत्य है, क्योंकि वह बहुत्व विधायक- पृथक्-कारक है। घृणा ही तुमसे मुझे पृथक् करती है- अतएव, वह अन्याय और असत्य है; यह एक विनाशिनी शक्ति है, यह अलग अलग करती है- नाश करती है।
प्रेम मिलाता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है। सभी एक हो जाते हैं- माँ सन्तान के साथ एकत्व प्राप्त करती है, परिवार नगर के साथ एकत्व प्राप्त करता है, यहाँ तक कि सम्पूर्ण जगत् ही पशु-पक्षियों के साथ एकीभूत हो जाता है, क्योंकि प्रेम ही वास्तविक अस्तित्व है, प्रेम ही स्वयं भगवान् है और यह सभी कुछ प्रेम का ही विभिन्न विकास है - प्रेम ही स्पष्ट या अस्पष्ट है, किन्तु रूप से प्रकाशित है। प्रभेद केवल मात्रा के तारतम्य वास्तव में सभी कुछ प्रेम का ही प्रकट रूप है। अतएव हम लोगों को यह देखना चाहिए कि हमारे कर्म बहुत्व-विधायक हैं अथवा एकत्व-सम्पादक। यदि वे बहुत्व- विधायक हैं तो उनका त्याग करना होगा और यदि वे एकत्व सम्पादक हैं तो उन्हें सत्कर्म समझना चाहिए। इसी प्रकार चिन्ता के सम्बन्ध में भी सोचना चाहिए। देखना चाहिए कि वह बहुत्व विधायक है या एकत्व-सम्पादक; पहचानना चाहिए कि वह आत्मा को आत्म से मिलाकर एक महान् शक्ति उत्पन्न करती है या नहीं। यदि करती है तो ऐसी चिन्ता का पोषण करना चाहिए- यदि नहीं करती तो उसको पापचिन्ता कहकर उसका परित्याग करना पड़ेगा।
वैदान्तिक नीतिविज्ञान का सार यही है- वह किसी अज्ञय वस्तु के ऊपर निर्भर नहीं है अथवा वह कुछ अज्ञेय भी नहीं सिखाता है, किन्तु सेन्ट पाल ने जिस प्रकार रोमवासियों से कहा था, उस प्रकार कहता हूँ “ जिसे तुम अज्ञेय मानकर उपासना करते हो मैं उसी के सम्बन्ध में तुम्हें शिक्षा दे रहा हूँ। मैं इस कुर्सी का ज्ञान पा रहा हूँ, किन्तु इस कुर्सी को जानने से पहले मुझे अपने 'मैं' का ज्ञान होता है, उसके बाद कुर्सी का। इस आत्मा के द्वारा ही इस कुर्सी का ज्ञान होता है इस आत्मा के द्वारा ही मैं तुम्हारा ज्ञान पाता हूँ- सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान पाता हूँ। अतएव आत्मा को अज्ञात कहना केवल प्रलाप है। आत्मा को हटा लो, सम्पूर्ण जगत् ही उठ जायेगा- आत्म के द्वारा ही सम्पूर्ण ज्ञान होता है अतएव यही सबसे अधिक ज्ञात है। यही 'तुम' हो जिसको तुम 'मैं' कहते हो। तुम लोग यह सोचकर आश्चर्य करते हो कि मेरा 'मैं' भला तुम्हारा 'मैं' कैसे हो सकता है, तुम्हें आश्चर्य होता है कि यह सान्त 'मैं' किस प्रकार अनन्त असीमस्वरूप हो सकता है?
किन्तु वास्तव में यही बात सत्य है। सान्त 'मैं' केवल भ्रम मात्र है, गल्प मात्र है। उसी अनन्त के के ऊपर मानो एक आवरण पड़ा हुआ है और उसका कुछ अंश इस 'मैं' रूप में प्रकाशित हो रहा है, किन्तु वास्तव में वह उसी अनन्त का अंश है। यथार्थ में असीम कभी ससीम नहीं होता 'ससीम' केवल बात की बात है। अतएव यह आत्मा नर-नारी, बालक-बालिका, यहाँ तक कि पशु-पक्षी सभी को ज्ञात है। उसको बिना जाने हम क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकते। उस सर्वेश्वर प्रभु को बिना जाने हम लोग एक क्षण भी श्वास-प्रश्वास तक नहीं ले सकते, हम लोगों की गति, शक्ति, चिन्ता, जीवन सब कुछ उसी के द्वारा परिचालित होता है। वेदान्त का ईश्वर सब चीजों की अपेक्षा अधिक ज्ञात है; वह कभी कल्पनाप्रसूत नहीं है।
यदि यह प्रत्यक्ष ईश्वर नहीं है तो फिर प्रत्यक्ष ईश्वर और कौन हो सकता है?- ईश्वर, जो सब प्राणियों में विराजमान है, हमारी इन्द्रियों से भी अधिक सत्य है; मैं जिन्हें सम्मुख देख रहा हूँ, उनसे भी अधिक प्रत्यक्ष ईश्वर और क्या देखना चाहते हो? कारण, तुम्हीं वह सर्वव्यापी, शक्तिमान् ईश्वर हो, और यदि यह हूँ कि तुम वह नहीं हो तो मैं झूठ बोलता हूँ। सारे समय में इसकी अनुभूति करू या न करूं, फिर भी वह सत्य ही है। वे ही एक अखण्ड वस्तुस्वरूप, सर्व वस्तुओं के सम्मिलन स्वरूप, सम्पूर्ण प्राणी और सम्पूर्ण अस्तित्व के सत्यस्वरूप हैं।
वेदान्त का यह सब नीतितत्त्व और भी विस्तारित भाव से कहना पड़ेगा। अतएव थोड़ा सा धैर्य रखना आवश्यक है। पहले ही कह चुका हूँ, हम लोगों को इसकी विस्तृत आलोचना करनी पड़ेगी-विशेष रूप से, जीवन की प्रत्यक्ष घटना में किस प्रकार उसे कार्य में परिणत किया जाय, यह विचार करना है और यह भी देखना है कि किस प्रकार यह आदर्श निम्नतर आदर्शसमूह से क्रमशः विकसित हो रहा है, किस प्रकार इस एकत्व का आदर्श धीरे धीरे विकसित होकर क्रमशः सार्वजनीन प्रेम रूप में परिणत हो रहा है। और इन सब तत्त्वों की आलोचना से हमारा यह उपकार होगा कि हम अनेक प्रकार के भ्रमों में नहीं पड़ेंगे।
प्रश्न यह है कि सारी दुनिया तो धीरे धीरे निम्नतम आदर्श से ऊपर उठने के लिए रुकी नहीं रह सकती; हमारे ऊँचे सोपान पर चढ़ने का फल ही क्या, यदि हम यह सत्य अपनी आनेवाली पीढ़ियों को न दे सकें? इसीलिए इसकी आलोचना हमें विशेष रूप से विस्तार पूर्वक करनी होगी और प्रथमतः उसका ज्ञानभाग-विचारांश विशेष रूप से समझना आवश्यक है, यद्यपि हम जानते हैं कि विचार का विशेष मूल्य नहीं, हृदय की ही सब से बड़ी आवश्यकता है हृदय के द्वारा भगवत्साक्षात्कार होता है, बुद्धि के द्वारा नहीं। बुद्धि केवल जमादार के समान रास्ता साफ कर देती है- वह गौण भाव से हम लोगों की उन्नति की सहायक हो सकती है। बुद्धि पुलिस के समान है- किन्तु समाज के सुन्दर परिचालन के लिए पुलिस का बहुत प्रयोजन नहीं है। उसे केवल गड़बड़ रोकना पड़ता है, अन्याय विवारण करना पड़ता है। विचार शक्ति अर्थात् बुद्धि का कार्य भी इतना ही होता है।
जब इस प्रकार की विचारात्मक पुस्तक तम पढ़ते हो तब वह एक बार पूरी समझ में आने पर, तुम लोग यह सोचते हो कि 'ईश्वरेच्छा से हम बच गये।' इसका कारण यही है कि विचारशक्ति अन्ध है, उसकी अपनी गतिशक्ति नहीं है, उसके हाथ पैर नहीं हैं। हृदय भाव ही वास्तव में कार्य करता है, वह बिजली अथवा उससे भी अधिक वेगगामी पदार्थ की अपेक्षा शीघ्रगामी होता है। अब प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे हृदय है? यदि है तो तुम उसके द्वारा ही ईश्वर को देखोगे। आज तुम्हारा जितरा भी भाव है वही प्रबल होता जायगा उच्च से उच्चतर भावापन्न देवभावापन्न होता रहेगा जब तक कि उसे सम्पूर्ण अनुभव नहीं होगा। बुद्धि यह नहीं कर सकती।" विचित्र रूप से शब्दों की जोड़तोड़, शास्त्र व्याख्या की विभिन्न शैलियाँ केवल पण्डितों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं, मुक्ति के लिए नहीं।”
तुम लोगों में से जिन्होंने टामस-आ-केम्पिस की 'ईसा-अनुसरण' पुस्तक पढ़ी है वे जानते हैं कि प्रति पृष्ठ में किस प्रकार उन्होंने इस बात पर जोर दिया है। जगत् के प्रायः सभी महापुरुषों ने इसी पर जोर दिया है। विचार आवश्यक है, विचार न करने से हम लोग अनेक भ्रमों में पड़ जाते हैं। विचार शक्ति उसका निवारण करती है, इसके अतिरिक्त विचार की नींव पर और कुछ निर्माण करने की चेष्टा न करना। वह केवल एक गौण सहायक मात्र है, वह अधिक कुछ नहीं कर पाती वास्तविक सहायता भाव से, प्रेम से होती है। तुम क्या किसी दूसरे के लिए हृदय के अन्तस्तल से अनुभव करते हो? यदि तुम करते हो तो तुम्हारे हृदय में एकत्व का भाव बढ़ रहा है। यदि तुम ऐसा नहीं करते तो तुम एक बहुत बड़े बुद्धिजीवी भले ही हो सकते हो, किन्तु तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं केवल शुष्क बुद्धि का स्तूप बने रहोगे; और यदि तुम्हारे हृदय है तो एक पुस्तक न पढ़ सकते पर भी कोई भाषा न जानने पर भी तम ठीक रास्ते पर चल जा रहे हो। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेंगे।
क्या तुमने विश्व के इतिहास में महापुरुषों की शक्ति की कथाएँ नहीं पढ़ीं? यह शक्ति उन्हें कहाँ से मिली? बुद्धि से? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिख छोड़ गया है? अथवा न्याय के कट विचार लेकर कोई पुस्तक लिख गया है? किसी ने ऐसी नहीं किया। वे केवल कुछ थोड़ीसी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे, बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। भाव ही जीवन है, भाव ही बल है, भाव ही तेज है— भाव के बिना कितनी ही बद्धि क्यों न लगाओ, ईश्वर प्राप्ति नहीं होगी।
बुद्धि मानो चलनशक्ति शून्य अंग प्रत्यंग के समान है। जब भाव उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करता है, तभी वह दूसरे के हृदय को स्पर्श करती है। जगत् में सदा से ऐसा ही होता आया है, अतएव यह विषय तुम्हें खूब याद रखना चाहिए। वैदान्तिक नीतितत्त्व में यह एक विशेष काम की बात है, क्योंकि वेदान्त कहता है तुम सब महापुरुष हो- तुम सब को महापुरुष होना ही पड़ेगा। कोई शास्त्र तुम्हारे कार्यों का प्रमाण नहीं, किन्तु तुम्हीं शास्त्रों के प्रमाणस्वरूप हो। कौन शास्त्र सत्य है, यह किस प्रकार जान सकते हो? तुम भी ठीक वैसा ही अनुभव करते हो इसी लिए तो। वेदान्त यही कहता है। जगत् के ईसा और बुद्धगणों के वाक्यों का प्रमाण क्या है? -
यही कि हम तुम भी वैसा ही अनुभव करते हैं इसी कारण हम तुम समझते हैं कि ये सब सत्य हैं। हम लोगों की ईश्वरीय आत्मा उन लोगों की ईश्वरीय आत्मा का प्रमाण है, यहाँ तक कि तुम्हारा ईश्वरत्व ही ईश्वर का भी प्रमाण है।यदि तम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी कोई बात सत्य नहीं। तुम यदि ईश्वर नहीं हो, तो कोई ईश्वर भी नहीं है और कभी होगा भी नहीं। वेदान्त कहता है, इसी आदर्श का अनुसरण करना चाहिए। हम लोगों में से प्रत्येक को ही महापुरुष बनना पड़ेगा और तुम स्वरूपतः वही हो। केवल इतना ही है कि यह 'ज्ञात' हो जाय। यह कभी न सोचना कि आत्मा के लिए कुछ भयानक नास्तिकता है। यदि पाप असम्भव है। ऐसा कहना ही नामक कोई वस्तु है तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि में दुर्बल हूँ अथवा अन्य कोई दुर्बल है।
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