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खून सफेद: प्रेमचंद सर्वश्रेष्ठ कहानी | Khoon Safed Premchand Best Story

आज हम आपके लिए लेकर आए ही प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां में से एक 'खून सफेद', तो आइये पढ़ते है Best Stories of Premchand Khoon Safed  


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कहानी - मुंशी प्रेमचंद


खून सफेद: प्रेमचंद की कहानी Khoon Safed Premchand Best Story


चेत का महीना था, लेकिन वे खलिहान, जहां अनाज की ढेरियां लगी रहती थीं, पशुओं के शरणस्थल हुए थे, जहां घरों से फाग और बसंत की अलाप सुनायी पड़ती है, वहां आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूंद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाये, खरीफ की फसल बो दी, लेकिन इंद्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार में लुटा दिया था। पौधे उगे, बढ़े और सूख गये। गोचर भूमि में घास न जमी! बादल आते, घटायें उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जायगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटायें थीं। 


किसानों ने बहुतेरे जप-तप किये, ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाये, बलिदान किये, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गये, लेकिन इंद्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी, बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए धूल उड़ रही थी। दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखायी देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बरतन गिरवी रखे, और अंत में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आयी और अब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा तब जन्मभूमि पर जान देने वाले किसान बाल-बच्चों को लेकर मजदूरी करने निकल पड़े। अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जा कर जमे। जहां जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।


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संध्या का समय था। जादोराय थका-मांदा आ कर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला-दरखास्त नामंजूर हो गयी। यह कहते-कहते वह आंगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आंतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। घर में जो कुछ विभूति थी-गहने, कपड़े, बरतन, भांडे सब पेट में समा गये। गांव का साहूकार भी पतिव्रत स्त्रियों की भांति आंखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरखास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजूर हो गयी, आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया। 


देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आंखों में आंसू उमड़ आये। पति दिनभर का थका-मांदा घर आया है। उसे क्या खिलावे? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लायी। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा तब वह उसे क्या खाने को देगी? उसने आज कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दुःख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है। घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीन-हीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती। 


हठात् उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आ कर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रातःकाल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था, और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाइयों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया, उसकी ओर दुःखभरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गयी और हृदय पीड़ा आंखों में न समा सकी। 


दूसरे दिन यह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पुरुषों के चित्त से अभिमान और स्त्री की आंख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। लेकिन हा पापी पेट, तू सब कुछ कर सकता है! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा ये सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं में छिप जाते हैं। 


प्रभात का समय था। वे दोनों विपत्ति के सताये घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। दोनों की आंखें आंसुओं से भरी थीं। देवकी रोती थी। जादोराय चुपचाप था। गांव के दो-चार आदमियों से रास्ते में भेंट भी हुई, किन्तु किसी ने इतना भी न पूछा कि कहां जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का बास न था। 


जब ये लोग लालगंज पहुंचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा, मीलों तक आदमी ही आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुःख के चिह्न झलक रहे थे।


बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढांचे जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। मानो वह मरघट भूमि थी, जहां मुर्दे अपने हाथों अपनी कब्रें खोद रहे थे। बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सब के सब ऐसे निराश और विवश होकर काम में लगे हुए थे मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है। इस आफत में न कोई किसी का मित्र था न हितू दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं, जिनका कर्ता मनुष्य है। प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रों की भांति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वरप्रदत्त गुण कभी हमारा गला नहीं छोड़ता। 


आठ दिन बीत गये थे। संध्या समय काम समाप्त हो चुका था। डेरे से कुछ दूर आम का एक बाग था। वहीं एक पेड़ के नीचे जादोराय और देवकी बैठे हुए थे। दोनों ऐसे कृश हो रहे थे कि उनकी सूरत नहीं पहिचानी जाती थी। अब वह स्वाधीन कृषक नहीं रहे। समय के हेरफेर से आज दोनों मजदूर बने बैठे हैं। 


जादोराय ने बच्चे को जमीन पर सुला दिया। उसे कई दिन से बुखार आ रहा है। कमल सा चेहरा मुरझा गया। देवकी ने धीरे से हिलाकर कर कहा-बेटा! आंखें खोलो। देखो सांझ हो गयी।

 

साधो ने आंखें खोल दीं, बुखार उत्तर गया था। बोला- क्या हम घर आ गये मां? 


घर की याद आ गयी। देवकी की आंखें डबडबा आयीं। उसने कहा-नहीं बेटा तुम अच्छे हो जाओगे तो घर चलेंगे उठ कर देखो कैसा अच्छा बाग है। 


साधो मां के हाथों के सहारे उठा और बोला-मां मुझे बड़ी भूख लगी है, लेकिन तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। मुझे क्या खाने को दोगी? 


देवकी के हृदय में चोट लगी, पर धीरज धर के बोली-नहीं बेटा, तुम्हारे खाने को मेरे पास सब कुछ है। तुम्हारे दादा पानी लाते हैं तो मैं नरम नरम रोटियां अभी बनाये देती हूं। 


साधो ने मां की गोद में सिर रख लिया और बोला-मां! मैं न होता तो तुम्हें इतना दुःख तो न होता। यह कह कर वह फूट-फूट कर रोने लगा। यह वही बेसमझ बच्चा है, जो दो सप्ताह पहिले मिठाइयों के लिए दुनिया सिर पर उठा लेता था। दुःख और चिंता ने कैसा अनर्थ कर दिया है। यह विपत्ति का फल है। कितना दुःखपूर्ण, करुणाजनक व्यापार है। 


इसी बीच कई आदमी लालटेन लिये हुए वहां आये। फिर गाड़ियां आयीं। उन पर डेरे और खेमे लदे हुए थे। दम के दम में वहां खेमे गड़ गये। सारे बाग में चहल-पहल नजर आने लगी। देवकी रोटियां सेंक रही थी, साधो धीरे-धीरे उठा और आश्चर्य से देखता हुआ एक डेरे के नकदीक जा कर खड़ा हो गया! 


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पादरी मोहनदास खेमे से बाहर निकले तो साधो उन्हें खड़ा दिखायी दिया। उसकी सूरत पर उन्हें तरस आ गया। प्रेम की नदी उमड़ आयी। बच्चे को गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बैठा दिया और तब उसे बिस्कुट और केले खाने को दिये। लड़के ने अपनी जिन्दगी में इन स्वादिष्ट चीजों को कभी न देखा। बुखार की बेचैन करने वाली भूख अलग मार रही थी। उसने खूब मनभर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखते हुए पादरी साहब के पास जा कर बोला-तुम हमको रोज ऐसी चीजें खिलाओगे। 


पादरी साहब इस भोलेपन पर मुस्करा के बोले-मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें हैं। इस पर साधोराय ने कहा- अब मैं रोज तुम्हारे पास आऊंगा। मां के पास ऐसी अच्छी चीजें कहां? वह तो मुझे चने की रोटियां खिलाती है। 


उधर देवकी ने रोटियां बनायीं और साधो को पुकारने लगी। साधो ने मां के पास जा कर कहा-मुझे साहब ने अच्छी- अच्छी चीजें खाने को दी हैं। साहब बड़े अच्छे हैं। 


देवकी ने कहा-मैंने तुम्हारे लिए नरम-नरम रोटियां बनायी हैं। आओ तुम्हें खिलाऊं। 


साधो बोला-अब मैं न खाऊंगा। साहब कहते थे कि मैं तुम्हें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खिलाऊंगा। मैं अब उनके साथ रहा करूंगा। मां ने समझा कि लड़का हंसी कर रहा है। उसे छाती से लगा कर बोली- क्यों बेटा, हमको भूल जाओगे? देखो मैं तुम्हें कितना प्यार करती हूं। 


साधो तुतला कर बोला-तुम तो मुझे रोज चने की रोटियां दिया करती हो। तुम्हारे पास तो कुछ नहीं है। साहब मुझे केले और आम खिलावेंगे। यह कह कर वह फिर खेमे की और भागा और रात को वहीं सो रहा! 


पादरी मोहनदास का पड़ाव वहां तीन दिन रहा। साधो दिन भर उन्हीं के पास रहता। साहब ने उसे मीठी दवाइयां दीं। उसका बुखार जाता रहा। वह भोले-भाले किसान यह देखकर साहब को आशीर्वाद देने लगे। लड़का भला-चंगा हो गया और आराम से है। साहब को परमात्मा सुखी रखे। उन्होंने बच्चे की जान रख ली। 


चौथे दिन रात को ही वहां से पादरी साहब ने कूच किया। सुबह को जब देवकी उठी तो साधो का वहां पता न था। उसने समझा, कहीं टपके ढूंढ़ने गया होगा, किन्तु थोड़ी देर देख कर उसने जादोराय से कहा-लल्लू यहां नहीं है। उसने भी यही कहा- यहीं-कहीं टपके ढूंढ़ता होगा। 


लेकिन जब सूरज निकल आया और काम पर चलने का वक्त हुआ तब जादोराय को कुछ संशय हुआ। उसने कहा- तुम यहीं बैठी रहना, मैं अभी उसे लिये आता हूं। 


जादोराय ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अन्त में जब दस बज गये तो निराश लौट आया। साधो न मिला, यह देखकर देवकी ढाढ़े मार कर रोने लगी। 


फिर दोनों अपने लाल की तलाश में निकले। अनेक विचार चित्त में आने लगे। देवकी को पूरा विश्वास था कि साहब ने उस पर कोई मंत्र डाल कर वश में कर लिया। लेकिन जादो को इस कल्पना के लेने में कुछ संदेह बच्चा इतनी दूर अनजान रास्ते पर अकेले नहीं जा सकता। फिर दोनों गाड़ी के पहियों और घोड़े की टापों के निशान देखते चले जाते थे। यहां तक कि वे एक सड़क पर आ पहुंचे। वहां गाड़ी के बहुत से निशान थे। उस विशेष लीक की पहचान न हो सकती थी। घोड़े के टाप भी एक झाड़ी की तरफ जा कर गायब हो गये। आशा का सहारा टूट गया। दोपहर हो गयी। दोनों धूप के मारे बेचैन और निराशा से पागल हो रहे थे। वहीं एक वृक्ष की छाया में बैठ गये। देवकी विलाप करने लगी। जादोराय ने उसे समझाना शुरू किया। 


जब जरा धूप की तेजी कम हुई तो दोनों फिर आगे चले। किन्तु अब आशा की जगह निराशा साथ थी। घोड़े के टापों के साथ उम्मीद का धुंधला निशान गायब हो गया था। 


शाम हो गयी। इधर-उधर गायों-बैलों के झुंड निर्जीव से पड़े दिखायी देते थे। यह दोनों दुखिया हिम्मत हार कर एक पेड़ के नीचे टिक रहे। उसी वृक्ष पर मैने का एक जोड़ा बसेरा लिये था। उनका नन्हा-सा शावक आज ही एक शिकारी के चंगुल में फंस गया था। दोनों दिन भर उसे खोजते फिरे। इस समय निराश हो कर बैठ रहे। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक दिखायी देती थी, इसलिए वे बेचैन थे। 


तीन दिन तक ये दोनों खोये हुए लाल की तलाश करते रहे। दाने से भेंट नहीं, प्यास से बेचैन होते तो दो-चार घूंट पानी गले से नीचे उतार लेते। 


आशा की जगह निराशा का सहारा था। दुःख और करुणा के सिवाय और कोई वस्तु नहीं। किसी बच्चे के पैरों के निशान देखते तो उनके दिलों में आशा तथा भय की लहरें उठने लगती थीं। 


लेकिन प्रत्येक पग उन्हें अभीष्ट स्थान से दूर लिये जाता था।


इस घटना को हुए चौदह वर्ष बीत गये। इन चौदह वर्षों में सारी काया पलट गयी। चारों और रामराज्य दिखायी देने लगा। इंद्रदेव ने कभी उस तरह अपनी निर्दयता न दिखायी और न जमीन ने ही। उमड़ी हुई नदियों की तरह अनाज की ढेकियाँ भर चलीं। उजड़े हुए गांव बस गये। मजदूर किसान बन बैठे और किसान जायदाद की तलाश में नजरें दौड़ाने लगे। वही चैत के दिन थे। खलिहानों में अनाज के पहाड़ खड़े थे। भाट और भिखमंगे किसानों की बढ़ती के तराने गा रहे थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे दिन और आधी रात तक गाहकों का जमघट बना रहता था। दरजी को सिर उठाने की फुरसत न थी। इधर-उधर दरवाजों पर घोड़े हिनहिना रहे थे। देवी के पुजारियों को अजीर्ण हो रहा था। जादोराय के दिन भी फिरे। उसके घर पर छप्पर की जगह खपरैल हो गया। 


दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बंधी हुई है। वह अब अपनी बहली पर सवार होकर बाजार जाया करता है। उसका बदन अब उतना सुडौल नहीं है। पेट पर इस सुदशा का विशेष प्रभाव पड़ा है और बाल भी सफेद हो चले हैं। देवकी की गिनती भी गांव की बूढ़ी औरतों में होने लगी है। व्यावहारिक बातों में उसकी बड़ी पूछ हुआ करती है।जब वह किसी पड़ोसिन के घर जाती है तो वहां की बहुएं भय के मारे थरथराने लगती हैं। उसके कटु-वाक्य, तीव्र आलोचना की सारे गांव में धाक बंधी हुई है। महीन कपड़े अब उसे अच्छे नहीं लगते, लेकिन गहनों के बारे में वह इतनी उदासीन नहीं है। 


उसके जीवन का दूसरा भाग इससे कम उज्ज्वल नहीं। उनकी दो संताने हैं। लड़का माधोसिंह अब खेती-बारी के काम में बाप की मदद करता है। लड़की का नाम शिवगौरी है। वह भी मां को चक्की पीसने में सहायता दिया करती है और खूब गाती है। बर्तन धोना उसे पसंद नहीं, लेकिन चौका लगाने में निपुण है। गुड़ियों के ब्याह करने से उसका जी कभी नहीं भरता। आये दिन गुड़ियों के विवाह होते रहते हैं। हां, इनमें किफायत का पूरा ध्यान रहता है। खोये हुए साधो की याद अभी तक बाकी है। उसकी चर्चा नित्य हुआ करती है और कभी बिना रुलाये नहीं रहती। देवकी कभी-कभी सारे दिन उस लाड़ले बेटे की सुध में अधीर रहा करती है।


सांझ हो गयी थी। बैल दिन भर के थके-मांदे सिर झुकाये चले आते थे। पुजारी ने ठाकुरद्वारे में घंटा बजाना शुरू किया। आजकल फसल के दिन हैं। रोज पूजा होती है। जादोराय खाट पर बैठे नारियल पी रहे थे। शिवगौरी रास्ते में खड़ी उन बैलों को कोस रही थी, जो उसके भूमिस्थ विशाल भवन का निरादार करके उसे रौंदते चले जाते थे। घड़ियाल और घंटे की आवाज सुनते ही जादोराय भगवान का चरणामृत लेने के लिए उठे ही थे कि उन्हें अकस्मात् एक नवयुवक दिखायी पड़ा, जो भुंकते हुए कुत्तों को दुत्कारता बाइसिकल को आगे बढ़ाता हुआ चला आ रहा था।उसने उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। जादोराय ने गौर से देखा और तब दोनों एक दूसरे से लिपट गये। माधो भौचक होकर बाइसिकल को देखने लगा। शिवगौरी रोती हुई घर में भागी और देवकी से बोली-दादा को साहब ने पकड़ लिया है। देवकी घबरायी हुई बाहर आयी। साधो उसे देखते ही उसके पैरों पर गिर पड़ा। देवकी लड़के को छाती से लगाकर रोने लगी। गांव में मर्द, औरतें और बच्चे सब जमा हो गये। मेला-सा लग गया।


साधो ने अपने माता-पिता से कहा-मुझ अभागे से जो कुछ अपराध हुआ हो, ये क्षमा कीजिए। मैंने अपनी नादानी से स्वयं बहुत कष्ट उठाये और आप लोगों को भी दुष दिया, लेकिन अब मुझे अपनी गोद में लीजिए। देवकी ने रोकर कहा-जब तुम हमको छोड़ पर जब निराश हो गये कर भागे थे तो हम लोग तुम्हें तीन दिन तक बेदाना-पानी के ढूंढते रहे, तब अपने भाग्य को रोकर बैठ रहे। तब से आज तक ऐसा दिन न गया होगा कि तुम्हारी सुधि न आयी हो। रोते-रोते एक युग बीत गया, अब तुमने खबर ली है। बताओ बेटा! उस दिन कैसे भागे और कहां जा कर रहे? साधो ने लज्जित होकर उत्तर दिया माता जी, अपना हाले क्या कहूं? मैं पहर रात रहे आपके पास से उठ कर भागा। पादरी साहब के पड़ाव का पता शाम ही को पूछ लिया था। बस, पूछता हुआ दोपहर को उनके पास पहुंच गया। साहब ने मुझे पहिले समझाया कि अपने घर लौट जाओ लेकिन जब मैं किसी तरह न माना तो उन्होंने मुझे पूना भेज दिया। मेरी तरह वहां सैकड़ों लड़के थे। वहां बिस्कुट और नारंगियों का भला क्या जिक्र! 


जब मुझे आप लोगों की याद आती, मैं अक्सर रोया करता। मगर बचपन की उम्र थी धीरे-धीरे उन्हीं लोगों से हिल-मिल गया। हां, जब से कुछ होश हुआ और अपना पराया समझने लगा हूं तब से अपनी नादानी पर हाथ मलता रहा हूं। रात-दिन आप लोगों की रट लगी हुई थी। आज आप लोगों के आशीर्वाद से यह शुभ दिन देखने को मिला। दूसरों में बहुत दिन काटे, बहुत दिनों तक अनाथ रहा। अब मुझे अपनी सेवा में रखिए। मुझे अपनी गोद में लीजिए। मैं प्रेम का भूखा हूं। बरसों से मुझे जो सौभाग्य नहीं मिला, वह अब दीजिए। 


गांव के बहुत से बूढ़े जमा थे। उनमें से जगतसिंह बोले-तो क्यों बेटा, तुम इतने दिनों तक पादरियों के साथ रहे। उन्होंने तुमको भी पादरी बना लिया होगा?


साधो ने सिर झुका कर कहा-जी हां, यह तो उनका दस्तूर ही है। 

जगतसिंह ने जादोराय की तरफ देखकर कहा-यह बड़ी कठिन बात है। 


साधो बोला-बिरादरी मुझे जो प्रायश्चित्त बतलायेगी, मैं करूंगा। मुझसे जो कुछ बिरादरी का अपराध हुआ है, नादानी से हुआ है, लेकिन मैं उसका दंड भोगने के लिए तैयार हूं। 


जगतसिंह ने फिर जादोराय की तरफ कनखियों से देखा और गम्भीरता से बोले हिन्दू धर्म में ऐसा कभी नहीं हुआ है। यों तुम्हारें मां-बाप तुम्हें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के हो, मगर बिरादरी कभी इस काम में शरीक न होगी। बोलो जादोराय, क्या कहते हो, कुछ तुम्हारे मन की भी तो सुन लें। 


जादोराय बड़ी द्विविधा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीति थी, दूसरी ओर बिरादरी का भय मारे डालता था। जिस लड़के के लिए रोते-रोते आंखें फूट गयीं, आज वही सामने खड़ा आंखों में आंसू भरे कहता, पिता जी! मुझे अपनी गोद में लीजिए और मैं पत्थर की तरह अचल खड़ा हूं। शोक! इन निर्दयी भाइयों को किस तरह समझाऊं, क्या करूं क्या न करूं। 

लेकिन मां की ममता उमड़ आयी, देवकी से न रहा गया। उसने अधीर होकर कहा मैं अपने लाल को अपने घर रखूंगी और कलेजे से लगाऊंगी। इतने दिनों के बाद मैंने उसे पाया है, अब उसे नहीं छोड़ सकती।


जगतसिंह रुष्ट हो कर बोले-चाहे बिरादरी छूट ही क्यों न जाय? 


देवकी ने भी गरम होकर जवाब दिया-हां, चाहे बिरादरी छूट ही जाय। लड़के वालों ही के लिए आदमी आड़ पकड़ता है। जब लड़का ही न रहा तो भला बिरादरी किस काम आवेगी? 


इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आंखें निकाल कर बोले-ठकुराइन? बिरादरी की तो तुम खूब मर्यादा करती हो। लड़का चाहे किसी रास्ते पर जाय, लेकिन बिरादरी चूं तक न करे! ऐसी बिरादरी कहीं और होगी! हम साफ-साफ कहे देते हैं कि अगर यह लड़का तुम्हारे घर में रहा तो बिरादरी भी बता देगी कि वह क्या कर सकती है? 


जगतसिंह कभी-कभी जादोराय से रुपये उधार लिया करते थे। मधुर स्वर से बोले भाभी! बिरादरी थोड़े ही कहती है कि तुम लड़के को घर से निकाल दो लड़का इतने दिनों के बाद घर आया है, हमारे सिर, आंखों पर रहे। बस, जरा खाने-पीने और छूत छात का बचाव बना रहना चाहिए। बोली, जादो भाई अब बिरादरी को कहां तक दबाना चाहते हो? 


जादोराय ने साधो की तरफ करुणा-भरे नेत्रों से देख कर कहा-बेटा! जहां तुमने हमारे साथ इतना सलूक किया है, वहां जगत भाई की इतनी कही और मान लो। 


साधो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में कहा-क्या मान लूं? यही कि अपनों में गैर बन कर रहूं अपमान सहूं, मिट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध हो जाय! न यह मेरे किए न होगा, मैं इतना निर्लज्ज नहीं हूं। जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाय, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं। चिढ़ कर बोले-इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी । 


साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखायी पड़ी। बोला- मैं आपका लड़का हूं। आपके लड़के की तरह रहूंगा। आपके प्रेम और भक्ति की प्रेरणा मुझे यहां तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूं। अगर यह नहीं है तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहां से भाग जाऊं। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है। देवकी ने रो कर कहा-लल्लू, मैं तुम्हें अब न जाने दूंगी। साधो की आंखें भर आयीं, पर मुस्कुरा कर बोला-मैं तो तेरी थाली में खाऊंगा। 


देवकी ने उसे ममता और प्रेम की दृष्टि से देख कर कहा-मैंने तो तुझे छाती से दूध पिलाया है, तू मेरी थाली में खायगा तो क्या? मेरा बेटा ही तो है, कोई और तो नहीं हो गया! 


साधो इन बातों को सुनकर मतवाला हो गया। इनमें कितना स्नेह, कितना अपनापन था। बोला-मां, आया तो मैं इसी इरादे से था कि अब कहीं न जाऊंगा, लेकिन बिरादरी ने मेरे कारण यदि तुम्हें जाति-च्युत कर दिया तो मुझसे न सहा जायगा। मुझसे इन गंवारों का कोरा अभिमान न देखा जायगा, इसलिए इस वक्त मुझे जब मुझे अवसर मिला करेगा, तुम्हें देख जाया करूंगा। तुम्हारा प्रेम मेरे चित्त से नहीं जा सकता। लेकिन यह असम्भव है कि मैं इस घर में रहूं और अलग खाना खाऊं, अलग बैठूं। इसके लिए मुझे क्षमा करना। 


देवकी घर में से पानी लायी। साधो हाथ-मुंह धोने लगा। शिवगौरी ने मां का इशारा जाने दो।पाया तो डरते डरते साधो के पास गयी। साधो ने आदर-पूर्वक दंडवत की। साधो ने पहिले उन दोनों को आश्चर्य से देखा, फिर अपनी मां को मुस्कराते देख कर समझ गया। दोनों लड़कों को छाती से लगा लिया और तीनों भाई-बहन प्रेम से हंसने-खेलने लगे। मां खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी। 


जलपान करके साधो ने बाइसिकल संभाली और मां-बाप के सामने सिर झुका कर चल खड़ा हुआ। वहीं, जहां से तंग हो कर आया था, उसी क्षेत्र में, जहां कोई अपना न था! देवकी फूट-फूट कर रो रही थी और जादोराय आंखों में आंसू भरे, हृदय में एक ऐंठन-सी अनुभव करता हुआ सोचता था, हाय! मेरे लाल, तू मुझसे अलग हुआ जाता है। ऐसा योग्य और होनहार लड़का हाथ से निकला जाता है और केवल इसलिए कि अब हमारा खून सफेद हो गया है।


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