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राजयोग [प्रथम अध्याय] हिन्दी में अवतरणिका | Swami Vivekanand Rajyog Chapter-1

स्वामी विवेकानन्द- राजयोग प्रथम अध्याय अवतरणिका


राजयोग प्रथम अध्याय अवतरणिका RajYog First Chapter-Avatarnika


हमारे समस्त ज्ञान स्वानुभूति पर आधारित हैं। जिसे हम आनुमानिक ज्ञान कहते हैं, और जिसमें हम सामान्य से सामान्यतर या सामान्य से विशेष तक पहुँचते हैं, उसकी बुनियाद स्वानुभूति है। जिनको निश्चित विज्ञान कहते हैं, उनकी सत्यता सहज ही लोगों की समझ में आ जाती है, क्योंकि वे प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं- "तुम स्वयं यह देख लो कि यह बात सत्य है अथवा नहीं, और तब उस पर विश्वास करो।" वैज्ञानिक तुमको किसी भी विषय पर विश्वास कर बैठने को न कहेंगे। उन्होंने स्वयं कुछ विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उन पर विचार करके कुछ सिद्धान्तों पर पहुँचे हैं। जब वे अपने उन सिद्धान्तों पर हमसे विश्वास करने के लिए कहते हैं, तब जनसाधारण की अनुभूति पर उनके सत्यासत्य के निर्णय का भार छोड़ देते हैं। प्रत्येक निश्चित विज्ञान की एक सामान्य आधारभूमि है और उससे जो सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं, इच्छा करने पर कोई भी उनका सत्यासत्य तत्काल समझ ले सकता है। अब प्रश्न यह है, धर्म की ऐसी सामान्य आधारभूमि कोई है भी या नहीं? हमें इसका उत्तर देने के लिए 'हाँ' और 'नहीं', दोनों कहने होंगे। 


संसार में धर्म के सम्बन्ध में सर्वत्र ऐसी शिक्षा मिलती है कि धर्म केवल श्रद्धा और विश्वास पर स्थापित है, और अधिकांश स्थलों में तो वह भिन्न भिन्न मतों की समष्टि मात्र है। यही कारण है कि धर्मों के बीच केवल लड़ाई-झगड़ा दिखाई देता है। ये मत फिर विश्वास पर स्थापित हैं। कोई कोई कहते हैं कि बादलों के ऊपर एक महान् पुरुष है, वही सारे संसार का शासन करता है, और वक्ता महोदय केवल अपनी बात के बल पर ही मुझसे इसमें विश्वास करने को कहते हैं। मेरे भी ऐसे अनेक भाव हो सकते हैं, जिन पर विश्वास करने के लिए मैं दूसरों से कहता हूँ; और यदि वे कोई युक्ति चाहें, इस विश्वास का कारण पूछें, तो मैं उन्हें युक्ति तर्क देने में असमर्थ हो जाता हूँ। इसीलिए आजकल धर्म और दर्शन-शास्त्रों की इतनी निन्दा सुनी जाती है। 


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प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का मानो यही मनोभाव है — ‘अहो, ये धर्म कुछ मतों के गट्टे भर हैं। उनके सत्यासत्य विचार का कोई एक मापदण्ड नहीं; जिसके जी में जो आया, बस, वही बक गया!' किन्तु ये लोग चाहे जो कुछ सोचें, वास्तव में धर्मविश्वास की एक सार्वभौमिक भित्ति है – वही विभिन्न देशों के विभिन्न सम्प्रदायों के भिन्न भिन्न मतवादों और सब प्रकार की विभिन्न धारणाओं को नियमित करती है। उन सब के मूल में जाने पर हम देखते हैं कि वे सभी सार्वजनिक अनुभूति पर प्रतिष्ठित हैं। 


पहली बात तो यह कि यदि तुम पृथ्वी के भिन्न भिन्न धर्मों का जरा विश्लेषण करो, तो तुमको ज्ञात हो जाएगा कि वे दो श्रेणियों में विभक्त हैं। कुछ की शास्त्रभित्ति है, और कुछ की शास्त्रभित्ति नहीं। जो शास्त्रभित्ति पर स्थापित हैं, वे सुदृढ़ हैं, उन धर्मों के माननेवालों की संख्या भी अधिक है। जिनकी शास्त्रभित्ति नहीं है, वे धर्म प्रायः लुप्त हो गये हैं। कुछ नये उठे अवश्य हैं, पर उनके अनुयायी बहुत थोड़े हैं। फिर भी उक्त सभी सम्प्रदायों में यह मतैक्य दीख पड़ता है कि उनकी शिक्षा विशिष्ट व्यक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव मात्र हैं। 


ईसाई तुमसे अपने धर्म पर, ईसा पर, ईसा के अवतारत्व पर, ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व पर और उस आत्मा की भविष्य उन्नति की सम्भवनीयता पर विश्वास करने को कहता है। यदि मैं उससे इस विश्वास का कारण पूछँ, तो वह कहता है, “यह मेरा विश्वास है।” किन्तु यदि तुम ईसाई धर्म के मूल में जाओ, तो देखोगे कि वह भी प्रत्यक्ष अनुभूति पर स्थापित है। ईसा ने कहा है, "मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं।” उनके शिष्यों ने भी कहा है, "हमने ईश्वर का अनुभव किया है।” - आदि आदि।  


बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है। बुद्धदेव की प्रत्यक्ष अनुभूति पर यह धर्म स्थापित है। उन्होंने कुछ सत्यों का अनुभव किया था। उन्होंने उन सब को देखा था, वे उन सत्यों के संस्पर्श में आये थे, और उन्हीं का उन्होंने संसार में प्रचार किया। हिन्दुओं के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है; उनके शास्त्रों में कुछ सत्यों 'ऋषि' नाम से सम्बोधित किये जानेवाले ग्रन्थकर्ता कह गये हैं, "हमने कुछ सत्यों के अनुभव किये हैं।" और उन्हीं का वे संसार में प्रचार कर गये हैं। अतः यह स्पष्ट है कि संसार के समस्त धर्म उस प्रत्यक्ष अनुभव पर स्थापित हैं, जो ज्ञान की सार्वभौमिक और सुदृढ़ भित्ति है। सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था। 


उन सभी ने आत्मदर्शन किया था; अपने अनन्त स्वरूप का ज्ञान सभी को हुआ था, सब ने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये। भेद इतना ही है कि इनमें से अधिकांश धर्मों में , विशेषतः आजकल, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है, और वह यह कि 'इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे, बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर विश्वास भर कर लेना होगा।' इस बात को मैं पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ। यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की हैं, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी। एकरूपता ही प्रकृति का एक बड़ा नियम है। एक बार जो घटित हुआ है, वह पुनः घटित हो सकता है। 


इसीलिए योगविद्या के आचार्यगण कहते हैं कि धर्म पूर्वकालीन अनुभवों पर केवल स्थापित ही नहीं, वरन् इन अनुभवों से स्वयं सम्पन्न हुए बिना कोई भी धार्मिक नहीं हो सकता। जिस विद्या के द्वारा ये अनुभव प्राप्त होते हैं, उसका नाम है योग। धर्म के सत्यों का जब तक कोई अनुभव नहीं कर लेता, तब तक धर्म की बात करना ही वृथा है। भगवान् के नाम पर इतनी लड़ाई, विरोध और झगडा क्यों? भगवान् के नाम पर जितना खून बहा है, उतना और किसी कारण से नहीं। ऐसा क्यों? इसीलिए कि कोई भी व्यक्ति मूल तक नहीं गया। 


सब लोग पूर्वजों के कुछ आचारों का अनुमोदन करके ही सन्तुष्ट थे। वे चाहते थे कि दूसरे भी वैसा ही करें। जिन्हें आत्मा की अनुभूति या ईश्वरसाक्षात्कार न हुआ हो, उन्हें यह कहने का क्या अधिकार है कि आत्मा या ईश्वर है? यदि ईश्वर हो, तो उसका साक्षात्कार करना होगा; यदि आत्मा नामक कोई चीज हो, तो उसकी उपलब्धि करनी होगी।अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। एक ओर, आजकल के विद्वान् कहलानेवाले मनुष्यों के मन का भाव यह है कि धर्म, दर्शन और एक परम पुरुष का अनुसन्धान, यह सब निष्फल है; और दूसरी ओर, जो अर्धशिक्षित हैं, उनका मनोभाव ऐसा जान पड़ता है कि धर्म, दर्शन आदि की वास्तव में कोई बुनियाद नहीं उनकी इतनी ही उपयोगिता है कि वे संसार के मंगलसाधन की बलशाली प्रेरक शक्तियाँ हैं। 


यदि लोगों का ईश्वर की सत्ता में विश्वास रहेगा, तो वे सत् और नीतिपरायण बनेंगे और इसीलिए अच्छे नागरिक होंगे। जिनके ऐसे मनोभाव हैं, इसके लिए उनको दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे धर्म के सम्बन्ध में जो शिक्षा पाते हैं, वह केवल सारशून्य, अर्थहीन अनन्त शब्दसमष्टि पर विश्वास मात्र है। उन लोगों से शब्दों पर विश्वास करके रहने के लिए कहा जाता है; क्या ऐसा कोई कभी कर सकता है? यदि मनुष्य द्वारा यह सम्भव होता, तो मानवप्रकृति पर मेरी तिल मात्र श्रद्धा न रहती। मनुष्य चाहता है सत्य। वह सत्य का स्वयं अनुभव करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, हृदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है, वेद कहते हैं, 'तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा तमोजाल छिन्न-भिन्न हो जाता है और सारी वक्रता सीधी हो जाती है।' 


भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।। -मुण्डकोपनिषद् , 


अर्थ: ‘हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधामनिवासियो, सुनो – मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का रास्ता पा लिया है। जो समस्त तम के पार है, उसको जानने पर ही वहाँ जाया जा सकता है- मुक्ति का और कोई दूसरा उपाय नहीं। 


इस सत्य को प्राप्त करने के लिए, राजयोग विद्या मानव के समक्ष यथार्थ व्यावहारिक और साधनोपयोगी वैज्ञानिक प्रणाली रखने का प्रस्ताव करती है। पहले तो, प्रत्येक विद्या के अनुसन्धान और साधन की प्रणाली पृथक् पृथक् है। यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होने की इच्छा करो और बैठे बैठे केवल 'खगोलशास्त्र खगोलशास्त्र' कहकर चिल्लाते रहो, तो तुम कभी खगोलशास्त्र के अधिकारी न हो सकोगे। रसायनशास्त्र के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है; उसमें भी एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा; प्रयोगशाला में जाकर विभिन्न द्रव्यादि लेने होंगे, उनको एकत्र करना होगा, उन्हें उचित अनुपात में मिलाना होगा, फिर उनको लेकर उनकी परीक्षा करनी होगी, तब कहीं तुम रसायनवित हो सकोगे। 


यदि तुम खगोलशास्त्रज्ञ होना चाहते हो, तो तुम्हें वेधशाला में जाकर दूरबीन की सहायता से ताराओं और ग्रहों का पर्यवेक्षण करके उनके विषय में आलोचना करनी होगी, तभी तुम खगोलशास्त्रज्ञ हो सकोगे। प्रत्येक विद्या की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। मैं तुम्हें सैकड़ों उपदेश दे सकता हूँ, परन्तु तुम यदि साधना न करो, तो तुम कभी धार्मिक न हो सकोगे। सभी युगों में, सभी देशों में, निष्काम, शुद्धस्वभाव साधु महापुरुष इसी सत्य का प्रचार कर गये हैं। संसार का हित छोड़कर अन्य कोई कामना उनमें नहीं थी। उन सभी लोगों ने कहा है कि इन्द्रियाँ हमें जहाँ तक सत्य का अनुभव करा सकती हैं, हमने उससे उच्चतर सत्य प्राप्त कर लिया है, और वे उसकी परीक्षा के लिए तुम्हें बुलाते हैं। वे कहते हैं, "तुम एक निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर सरल भाव से साधना करते रहो, और यदि यह उच्चतर सत्य प्राप्त न हो, तो फिर भले ही कह सकते हो कि इस उच्चतर सत्य के सम्बन्ध की बातें केवल कपोलकल्पित है। पर हाँ, इससे पहले इन उक्तियों की सत्यता को बिलकुल अस्वीकृत कर देना किसी तरह युक्तिपूर्ण नहीं है।" अतएव निर्दिष्ट साधनप्रणाली लेकर श्रद्धापूर्वक साधना करना हमारे लिए आवश्यक हैं, और तब प्रकाश अवश्य आएगा।


कोई ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम साधारणीकरण की सहायता लेते हैं। और साधारणीकरण घटनाओं के पर्यवेक्षण पर आधारित है। हम पहले घटनावली का पर्यवेक्षण करते हैं, फिर उनका साधारणीकरण करते हैं और फिर उनसे अपने सिद्धान्त या मतामत निकालते हैं। हम जब तक यह प्रत्यक्ष नहीं कर लेते कि हमारे मन के भीतर क्या हो रहा है और क्या नहीं, तब तक हम अपने मन के सम्बन्ध में, मनुष्य की आभ्यन्तरिक प्रकृति के सम्बन्ध में मनुष्य के विचार के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जान सकते। 


बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके हैं पर अन्तर्जगत् के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं। किन्तु फिर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पर्यवेक्षण आवश्यक है। उचित विश्लेषण के बिना विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल भित्तिहीन अनुमान में परिणत हो जाता है। इसी कारण, उन थोड़े से मनस्तत्त्वान्वेषियों को छोड़कर, जिन्होंने पर्यवेक्षण करने के उपाय जान लिये हैं, शेष सब लोग चिरकाल से परस्पर केवल विवाद ही करते आ रहे हैं। 


राजयोग विद्या पहले मनुष्य को उसकी अपनी आभ्यन्तरिक अवस्थाओं के पर्यवेक्षण का इस प्रकार उपाय दिखा देती है। मन ही उस पर्यवेक्षण का यन्त्र है। मनोयोग की शक्ति का सही सही नियमन कर जब उसे अन्तर्जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है और तब उसके प्रकाश से हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है। मन की शक्तियाँ इधर उधर बिखरी हुई प्रकाश की किरणों के समान हैं। जब उन्हें केन्द्रीभूत किया जाता है, तब वे सब कुछ आलोकित कर देती हैं। यही ज्ञान का हमारा एकमात्र उपाय है। बाह्य जगत् में हो अथवा अन्तर्जगत् में, लोग इसी को काम में ला रहे हैं। 


पर वैज्ञानिक जिस सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति का प्रयोग बहिर्जगत् में करता है, मनस्तत्त्वान्वेषी उसी का मन पर करते हैं। इसके लिए काफी अभ्यास आवश्यक है। बचपन से हमने केवल बाहरी वस्तुओं में मनोनिवेश करना सीखा है, अन्तर्जगत में मनोनिवेश करने की शिक्षा नहीं पायी। इसी कारण हममें से अधिकांश आभ्यन्तरिक क्रिया विधि की निरीक्षणशक्ति खो बैठे हैं। मन को अन्तर्मुखी करना, उसकी बहिर्मुखी गति को रोकना, उसकी समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत कर, उस मन के ही ऊपर उनका प्रयोग करना, ताकि वह अपना स्वभाव समझ सके, अपने आपको विश्लेषण करके देख सके एक अत्यन्त कठिन कार्य है। पर इस विषय में वैज्ञानिक प्रथा के अनुसार अग्रसर होने के लिए यही एकमात्र उपाय है। 


इस तरह के ज्ञान की उपयोगिता क्या है? पहले तो, ज्ञान स्वयं ज्ञान का सर्वोच्च पुरस्कार है। दूसरे, इसकी उपयोगिता भी है। यह हमारे समस्त दुःखों का हरण करेगा। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्यपूर्ण और नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर मृत्युभय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएँ फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। 


इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता। रसायनवित् अपनी प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रीभूत करके, जिन वस्तुओं का विश्लेषण करता है, उन पर प्रयोग करता है, और इस प्रकार वह उनके रहस्य जान लेता है। खगोलशास्त्रज्ञ अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके दूरबीन के भीतर से आकाश में प्रक्षिप्त करता है, और बस, त्याही सूर्य, चन्द्र और ताराएँ अपने अपने रहस्य उसके निकट खोल देती हैं। मैं जिस विषय पर बातचीत कर रहा हूँ, उस विषय में मैं जितना मनोनिवेश कर सकूँगा, उतना ही उस विषय का गूढ़ तत्त्व तुम लोगों के निकट प्रकट कर सकूँगा। तुम लोग मेरी बात सुन रहे हो । तुम लोग जितना इस विषय में मनोनिवेश करोगे , उतनी ही मेरी बात की स्पष्ट रूप से धारणा कर सकोगे । 


मन की शक्तियों को एकाग्र करने के सिवा अन्य किस तरह संसार में ये समस्त ज्ञान उपलब्ध हुए हैं? यदि प्रकृति के द्वार को कैसे खटखटाना चाहिए, -उस पर कैसे आघात देना चाहिए, केवल यह ज्ञात हो गया, तो बस, प्रकृति अपना सारा रहस्य खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता एकाग्रता से ही आती है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही रहस्य है। 


मन को बाहरी विषय पर स्थिर करना अपेक्षाकृत सहज है। मन स्वभावतः बहिर्मुखी है। किन्तु धर्म, मनोविज्ञान, अथवा दर्शन के विषय में ऐसा नहीं है। यहाँ तो ज्ञाता और ज्ञेय (विषयी और विषय) एक हैं। यहाँ प्रमेय ( विषय ) एक अन्दर की वस्तु है -मन ही यहाँ प्रमेय है। मनस्तत्त्व का अन्वेषण करना ही यहाँ प्रयोजन है, और मन ही मनस्तत्त्व के अन्वेषण का कर्ता है। हमें मालूम है कि मन की एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ हो रहा है, उसे देख सकता है इसको अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति कह सकते हैं। 


मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ फिर साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति होकर बाहर खड़ा हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ; वह जान सुन रहा हूँ। तुम एक ही समय काम और चिन्तन दोनों कर रहे हो, परन्तु तुम्हारे मन का एक और अंश मानो बाहर खड़े होकर तुम जो कुछ चिन्तन कर रहे हो, उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उनका प्रयोग करना होगा। जैसे सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के सामने घने अन्धकारमय स्थान भी अपने गुप्त तथ्य खोल देते हैं, उसी तरह यह एकाग्र मन अपने सब अन्तरतम रहस्य प्रकाशित कर देगा। 


तब हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुँचेंगे। तभी हमको सही सही धर्मप्राप्ति होगी। तभी, आत्मा है या नहीं, जीवन केवल इस सामान्य जीवितकाल तक ही सीमित है अथवा अनन्तकालव्यापी है और संसार में कोई ईश्वर है या नहीं, यह सब हम स्वयं देख सकेंगे। सब कुछ हमारे ज्ञानचक्षुओं के सामने उद्भासित हो उठेगा। राजयोग हमें यही शिक्षा देना चाहता है। इसमें जितने उपदेश हैं, उन सब का उद्देश्य, प्रथमतः, मन की एकाग्रता का साधन है, इसके बाद है- उसके गम्भीरतम प्रदेश में कितने प्रकार के भिन्न भिन्न कार्य हो रहे हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना; और तत्पश्चात् उनसे साधारण सत्यों को निकालकर उनसे अपने एक सिद्धान्त पर उपनीत होना। 


इसीलिए राजयोग की शिक्षा किसी धर्मविशेष पर आधारित नहीं है। तुम्हारा धर्म चाहे जो हो तुम चाहे आस्तिक हो या नास्तिक, यहूदी या बौद्ध या ईसाई इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, तुम मनुष्य हो, बस, यही पर्याप्त है। प्रत्येक मनुष्य में धर्मतत्त्व का अनुसन्धान करने की शक्ति है, उसे उसका अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति का, किसी भी विषय से क्यों न हो, कारण पूछने का अधिकार है, और उसमें ऐसी शक्ति भी है कि वह अपने भीतर से ही उन प्रश्नों के उत्तर पा सके। पर हाँ, उसे इसके लिए कुछ कष्ट उठाना पड़ेगा। 


अब तक हमने देखा, इस राजयोग की साधना में किसी प्रकार के विश्वास की आवश्यकता नहीं। जब तक कोई बात स्वयं प्रत्यक्ष न कर सको, तब तक उस पर विश्वास न करो- राजयोग यही शिक्षा देता है। सत्य को प्रतिष्ठित करने के लिए अन्य किसी सहायता की आवश्यकता नहीं। क्या तुम कहना चाहते हो कि जाग्रत् अवस्था की सत्यता के प्रमाण के लिए स्वप्न अथवा कल्पना की सहायता की जरूरत है? नहीं, कभी नहीं। इस राजयोग की साधना में दीर्घ काल और निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। इस अभ्यास का कुछ अंश शरीरसंयम विषयक है, परन्तु इसका अधिकांश मनःसंयमात्मक है। 


हम क्रमशः समझेंगे, मन और शरीर में किस प्रकार का सम्बन्ध है। यदि हम विश्वास करें कि मन शरीर की केवल एक सूक्ष्म अवस्थाविशेष है और मन शरीर पर कार्य करता है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। शरीर के अस्वस्थ होने पर मन भी अस्वस्थ हो जाता है, शरीर स्वस्थ रहने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी रहता है। जब किसी व्यक्ति को क्रोध आता है, तब उसका मन अस्थिर हो जाता है। मन की अस्थिरता के कारण शरीर भी पूरी तरह अस्थिर हो जाता है। अधिकांश लोगों का मन शरीर के सम्पूर्ण अधीन रहता है। असल में उनके मन की शक्ति बहुत थोड़े परिमाण में विकसित हुई रहती है। 


अधिकांश मनुष्य पशु से बहुत थोड़े ही उन्नत हैं, क्योंकि अधिकांश स्थलों में तो उनकी संयम की शक्ति पशु-पक्षियों से कोई विशेष अधिक नहीं। हममें मन के निग्रह की शक्ति बहुत थोड़ी है। मन पर यह अधिकार पाने के लिए, शरीर और मन पर आधिपत्य लाने के लिए कुछ बहिरंग साधनाओं की दैहिक साधनाओं की आवश्यकता है। शरीर जब पूरी तरह अधिकार में आ जाएगा, तब मन को हिलाने डुलाने का समय आएगा। इस तरह मन जब बहुत कुछ वश में आ जाएगा, तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकेंगे, उसकी वृत्तियों को एकमुखी होने के लिए मजबूर कर सकेंगे। 


राजयोगी के मतानुसार यह सम्पूर्ण बहिर्जगत् अन्तर्जगत् या सूक्ष्म जगत् का स्थूल विकास मात्र है। सभी स्थलों में सूक्ष्म को कारण और स्थूल को कार्य समझना होगा। इस नियम से, बहिर्जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण। इसी हिसाब से स्थूल जगत् की परिदृश्यमान शक्तियाँ आभ्यन्तरिक सूक्ष्मतर शक्तियों का स्थूल भाग मात्र हैं। जिन्होंने इन आभ्यन्तरिक शक्तियों का आविष्कार करके उन्हें इच्छानुसार चलाना सीख लिया है, वे सम्पूर्ण प्रकृति को वश में कर सकते हैं। सम्पूर्ण जगत् को वशीभूत करना और सारी प्रकृति पर अधिकार हासिल करना इस बृहत् कार्य को ही योगी अपना कर्तव्य समझते हैं। वे एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं, जहाँ, हम जिन्हें ' प्रकृति के नियम ' कहते हैं, वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते, जिस अवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं। तब वे आभ्यन्तरिक और बाह्य समस्त प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं। मनुष्यजाति की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है। 


इस प्रकृति को वशीभूत करने के लिए भिन्न भिन्न जातियाँ भिन्न भिन्न प्रणालियों का सहारा लेती है। जैसे एक ही समाज के भीतर कुछ व्यक्ति बाह्य प्रकृति को और कुछ अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही भित्र भिन्न जातियों में कोई कोई जातियाँ बाह्य प्रकृति को, तो कोई कोई अन्तःप्रकृति को वशीभूत करने का प्रयत्न करती हैं। किसी के मत से अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वशीभूत हो जाता है; फिर दूसरों के मत से, बाह्य प्रकृति को वशीभूत करने पर सब कुछ वश में आ जाता है। 


इन दो सिद्धान्तों के चरम भावों को देखने पर यह प्रतीत होता है कि दोनों ही सिद्धान्त सही है; क्योंकि यथार्थतः प्रकृति में बाह्य और आभ्यन्तर जैसा कोई भेद नहीं। यह केवल एक काल्पनिक विभाग विभाग का कोई अस्तित्व ही नहीं, और यह कभी था भी नहीं। बहिर्वादी और अन्तर्वादी जब अपने अपने ज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य एक ही स्थान पर पहुँच जाएँगे। जैसे भौतिक विज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरम सीमा पर ले जाएँगे, तो अन्त में उन्हें दार्शनिक होना होगा, उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे, वह वास्तव में कल्पना मात्र है वह एक दिन बिलकुल विलीन हो जाएगी। 


जिससे यह बहु उत्पन्न हुआ है, जो एक पदार्थ बहु रूपों में प्रकाशित हुआ है, उसका निर्णय करना ही समस्त विज्ञान का मुख्य उद्देश्य और लक्ष्य है। राजयोगी कहते हैं, हम पहले अन्तर्जगत का ज्ञान प्राप्त करेंगे, फिर उसी के द्वारा बाह्य और आन्तर उभय प्रकृति को वशीभूत कर लेंगे। प्राचीन काल से ही लोग इसके लिए प्रयत्नशील रहे हैं।भारतवर्ष में इसकी विशेष चेष्टा होती रही है, परन्तु दूसरी जातियों ने भी इस ओर कुछ प्रयत्न किये हैं। पाश्चात्य देशों में लोग इसको रहस्य या गुप्त विद्या सोचते थे; जो लोग इसका अभ्यास करने जाते थे, उन पर अघोरी, जादूगर, ऐन्द्रजालिक आदि अपवाद लगाकर उन्हें जला दिया अथवा मार डाला जाता था। भारतवर्ष में अनेक कारणों से यह विद्या ऐसे व्यक्तियों के हाथ पड़ी, जिन्होंने इसका ९ ० प्रतिशत अंश नष्ट कर डाला और शेष को गुप्त रीति से रखने की चेष्टा की। आजकल पश्चिमी देशों में, भारतवर्ष के गुरुओं की अपेक्षा निकृष्टतर अनेक गुरु नामधारी व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं। भारतवर्ष के गुरु फिर भी कुछ जानते थे, पर ये आधुनिक व्याख्याकार तो कुछ भी नहीं जानते। 


इन सारी योगप्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसी का अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसा ही है- जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्यस्पृहा मानव मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है। किन्तु वास्तव में यह एक महाविज्ञान है। चार हजार वर्ष से भी पहले यह आविष्कृत हुआ था। तब से भारतवर्ष में यह प्रणालीबद्ध होकर वर्णित और प्रचारित होता रहा है। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि व्याख्याकार जितना आधुनिक है, उसका भ्रम भी उतना ही अधिक है; और लेखक जितना प्राचीन है, उसने उतनी ही अधिक युक्तियुक्त बात कही है। आधुनिक लेखकों में ऐसे अनेक हैं, जो नाना प्रकार की रहस्यात्मक और अद्भुत अद्भुत बातें कहा करते हैं। इस प्रकार, जिनके हाथ यह शास्त्र पड़ा, उन्होंने समस्त शक्तियाँ अपने अधिकार में कर रखने की इच्छा से इसको महागोपनीय बना डाला और युक्तिरूप प्रभाकर का पूर्ण आलोक इस पर नहीं पड़ने दिया। 


मैं पहले ही कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ प्रचार कर रहा हूँ, उसमें गुह्य नाम की कोई चीज नहीं है। मैं जो कुछ थोड़ा सा जानता हूँ, वही तुमसे कहूँगा। जहाँ तक यह युक्ति से समझाया जा सकता है, वहाँ तक समझाने की कोशिश करूँगा। परन्तु मैं जो नहीं समझ सकता, उसके बारे में कह दूँगा, “ शास्त्र का यह कथन है।" अन्धविश्वास करना ठीक नहीं। अपनी विचारशक्ति और युक्ति काम में लानी होगी। यह प्रत्यक्ष करके देखना होगा कि शास्त्र में जो कुछ लिखा है, वह सत्य है या नहीं। भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो, ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा। इसमें गुप्त रखने की कोई बात नहीं, किसी विपत्ति की भी आशंका नहीं। इसमें जहाँ तक सत्य है, उसका सब के समक्ष राजपथ पर प्रकट रूप से प्रचार करना आवश्यक है। यह सब किसी प्रकार छिपा रखने की चेष्टा करने से अनेक प्रकार की महान् विपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। 


कुछ और अधिक कहने के पहले मैं सांख्य दर्शन के सम्बन्ध में कुछ कहूँगा। इस सांख्य दर्शन पर पूरा राजयोग आधारित है। सांख्य दर्शन के मत से किसी विषय के ज्ञान की प्रणाली इस प्रकार है- प्रथमतः विषय के साथ चक्षु आदि बाह्य करणों का संयोग होता है। ये चक्षु आदि बाहरी करण फिर उसे मस्तिष्कस्थित अपने अपने केन्द्र अर्थात् इन्द्रियों के पास भेजते हैं; इन्द्रियाँ मन के निकट, और मन उसे निश्चयात्मिका बुद्धि के निकट ले जाता है, तब पुरुष या आत्मा उसका ग्रहण करता है। फिर जिस सोपानक्रम में से होता हुआ वह विषय अन्दर आया था, उसी में से होते हुए लौट जाने की पुरुष मानो उसे आज्ञा देता है। इस प्रकार विषय गृहीत होता है। 


पुरुष को छोड़कर शेष सब जड़ हैं। पर आँख आदि बाहरी करणों की अपेक्षा मन सूक्ष्मतर भूत से निर्मित है। मन जिस उपादान से निर्मित है, उसी से तन्मात्रा नामक सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। उनके स्थूल हो जाने पर परिदृश्यमान भूतों की उत्पत्ति होती है। यही सांख्य का मनोविज्ञान है। अतएव बुद्धि और परिदृश्यमान स्थूल भूत में अन्तर केवल स्थूलता के तारतम्य में है। एकमात्र पुरुष या आत्मा ही चेतन है। मन तो मानो आत्मा के हाथों एक यन्त्र है। उसके द्वारा आत्मा बाहरी विषयों को ग्रहण करती है। मन सतत परिवर्तनशील है, इधर से उधर दौड़ता रहता है, कभी सभी इन्द्रियों से लगा रहता है, तो कभी एक से, और कभी किसी भी इन्द्रिय से संलग्न नहीं रहता। मान लो, मैं मन लगाकर एक घड़ी की टिकटिक सुन रहा हूँ। ऐसी दशा में आँखें खुली रहने पर भी मैं कुछ देख न पाऊँगा। इससे स्पष्ट समझ में आ जाता है कि मन जब श्रवणेन्द्रिय से लगा था, तो दर्शनेन्द्रिय से उसका संयोग न था। 


पर पूर्णताप्राप्त मन सभी इन्द्रियों से एक साथ लगाया जा सकता है। उसकी अन्तर्दृष्टि की शक्ति है, जिसके बल से मनुष्य अपने अन्तर के सब से गहरे प्रदेश तक में नज़र डाल सकता है। इस अन्तर्दृष्टि का विकास साधना ही योगी का उद्देश्य है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके भीतर की ओर मोड़कर वे जानना चाहते हैं कि भीतर क्या हो रहा है। इसमें केवल विश्वास की कोई बात नहीं; यह तो दार्शनिकों के मनस्तत्त्व विश्लेषण का फल मात्र है।आधुनिक शरीरविज्ञानवित का कथन है कि आँखें यथार्थतः दर्शनेन्द्रिय नहीं हैं; वह इन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है और समस्त इन्द्रियों के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि मस्तिष्क जिस पदार्थ से निर्मित है, ये केन्द्र भी ठीक उसी पदार्थ से बने हैं। सांख्य भी ऐसा ही कहता है। अन्तर यह है कि सांख्य का सिद्धान्त मनस्तत्त्व पर आधारित है और वैज्ञानिकों का भौतिकता पर। फिर भी दोनों एक ही बात है। हमारे शोध के क्षेत्र इन दोनों के परे हैं।


योगी प्रयत्न करते हैं कि वे अपने को ऐसा सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न कर लें, जिससे वे विभिन्न मानसिक स्थाओं को प्रत्यक्ष कर सकें। समस्त मानसिक प्रक्रियाओं को पृथक् पृथक् रूप से मानस प्रत्यक्ष करना आवश्यक है। इन्द्रियगोलकों पर विषयों का आघात होते ही उससे उत्पन्न हुई संवेदनाएँ उस उस करण की सहायता से किस तरह स्नायु में से होती हुई जाती हैं, मन किस प्रकार उनको ग्रहण करता है, किस प्रकार फिर वे निश्चयात्मिका बुद्धि के पास जाती हैं, तत्पश्चात् किस प्रकार वह पुरुष के पास उन्हें पहुँचाता है- इन समस्त व्यापारों को पृथक् पृथक् रूप से देखना होगा। प्रत्येक विषय की शिक्षा की अपनी एक निर्दिष्ट प्रणाली है। कोई भी विज्ञान क्यों न सीखो, पहले अपने आपको उसके लिए तैयार करना होगा, फिर एक निर्दिष्ट प्रणाली का अनुसरण करना होगा, इसके अतिरिक्त उस विज्ञान के सिद्धान्तों को समझने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। राजयोग के सम्बन्ध में भी ठीक ऐसा ही है। 


भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं। जिससे मन खूब पवित्र रहे, ऐसा भोजन करना चाहिए। तुम यदि किसी अजायबघर में जाओ, तो भोजन के साथ जीव का क्या सम्बन्ध है, यह भलीभाँति समझ में आ जाएगा। हाथी बड़ा भारी प्राणी है, परन्तु उसकी प्रकृति बही शान्त है। और यदि तुम सिंह या बाप के पिंजड़े की ओर जाओ, तो देखोगे, वे बड़े चंचल हैं। इससे समझ में आ जाता है कि आहार का तारतम्य कितना भयानक परिवर्तन कर देता है। हमारे शरीर के अन्दर जितनी शक्तियाँ कार्यशील हैं, वे आहार से पैदा हुई है और यह हम प्रतिदिन प्रत्यक्ष देखते है ।


यदि तुम उपवास करना आरम्भ कर दो, तो तुम्हारा शरीर दुर्बल हो जाएगा, दैहिक शक्तियों का हरास हो जाएगा और कुछ दिनों बाद मानसिक शक्तियाँ भी क्षीण होने लगेंगी। पहले स्मृतिशक्ति जाती रहेगी, फिर ऐसा एक समय आएगा, जब सोचने के लिए भी सामर्थ्य न रह जाएगा किसी विषय पर गम्भीर रूप से विचार करना तो दूर की बात रही। इसीलिए साधना की पहली अवस्था में, भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा: फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा। जब तक पौधा छोटा रहता है, तब तक उसे घेरकर रखते हैं, नहीं तो जानवर उसे चर जाएँ। उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता है। तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त समर्थ है। 


नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः । 

न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ।।

 युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु । 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा । -गीता , ६।१६-७


योगी को अधिक विलास और कठोरता, दोनों ही त्याग देने चाहिए। उनके लिए उपवास करना या देह को किसी प्रकार कष्ट देना उचित नहीं। गीता कहती है, जो अपने को अनर्थक क्लेश देते हैं, वे कभी योगी नहीं हो सकते। अतिभोजनकारी, उपवासशील, अधिक जागरणशील, अधिक निद्रालु अत्यन्त कर्मी अथवा बिलकुल आलसी- इनमें से कोई भी योगी नहीं हो सकता।"


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