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वैर का अंत: मुंशी प्रेमचंद कहानी | Vair Ka Ant Premchand Stories in Hindi

वैर का अंत Premchand Stories | प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां | Munshi Premchand Stories in Hindi


Vair Ka Ant Munshi Premchand Stories: रामेश्वरराय अपने बड़े भाई के शव को खाट से नीचे उतारते हुए छोटे भाई से बोला- तुम्हारे पास कुछ रुपये हों तो लाओ, दाह-क्रिया की फिक्र करें, मैं तो बिलकुल खाली हाथ हूं.


छोटे भाई का नाम विश्वेश्वरराय था। वह एक जमींदार का कारिंदा था, आमदनी अच्छी थी। बोला, आधे रुपये मुझसे ले लो। आधे तुम निकालो।


रामे.– मेरे पास रुपये नहीं हैं।


विश्वे.- तो फिर इनके हिस्से का खेत रेहन रख दो।


रामे.- तो जाओ, कोई महाजन ठीक करो। देर न लगे।


विश्वेश्वरराय ने अपने एक मित्र से कुछ रुपये उधार लिये, उस वक्त का काम चला। पीछे फिर कुछ रुपये लिये, खेत की लिखा-पढ़ी कर दी। कुल पांच बीघे जमीन थी। 300 रु. मिले। गांव के लोगों का अनुमान है कि क्रिया-कर्म में मुश्किल से 100 रु. उठे होंगे; पर विश्वेश्वरराय ने षोडशी के दिन 301 रु. का लेखा भाई के सामने रख दिया। रामेश्वरराय ने चकित हो कर पूछा- सब रुपये उठ गये ?


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विश्वे.- क्या मैं इतना नीच हूं कि मरनी के रुपयों में भी कुछ उठा रखूंगा ! किसको यह धन पचेगा।


रामे.- नहीं, मैं तुम्हें बेईमान नहीं बनाता, खाली पूछता था।


विश्वे.– कुछ शक हो तो जिस बनिये से चीजें ली गयी हैं, उससे पूछ लो। 


साल-भर के बाद एक दिन विश्वेश्वरराय ने भाई से कहा- रुपये हों तो लाओ, खेत छुड़ा लें।


रामे.– मेरे पास रुपये कहां से आये ? घर का हाल तुमसे छिपा थोड़े ही है।


विश्वे.- तो मैं सब रुपये देकर जमीन छुड़ाये लेता हूं। जब तुम्हारे पास रुपये हों, तो आधा दे कर अपनी आधी जमीन मुझसे ले लेना।


रामे.- अच्छी बात है छुड़ा, लो।


तीस साल गुजर गये। विश्वेश्वरराय जमीन को जोतता रहा; उसे खाद-गोबर से खूब सजाया। उसने निश्चय कर लिया था कि अब यह जमीन न छोडूंगा। मेरा तो इस पर मौरूसी हक हो गया। अदालत से भी कोई नहीं ले सकता। रामेश्वरराय ने कई बार यत्न किया कि रुपये दे कर अपना हिस्सा ले लें; पर 30 साल में वे कभी 150 रु. जमा न कर सके।


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मगर अब रामेश्वरराय का बड़ा लड़का जागेश्वर कुछ संभल गया था। वह गाड़ी लादने का काम करने लगा था और इस काम में उसे अच्छा नफा भी होता था। उसे अपने हिस्से की रात-दिन चिंता लगी रहती थी। अंत में उसने रात-दिन श्रम करके यथेष्ट धन बटोर लिया और एक दिन चाचा से बोला-काका, अपने रुपये ले लीजिए, मैं अपना नाम चढ़वा लूं।


विश्वे.- अपने बाप के तुम्हीं चतुर बेटे नहीं हो। इतने दिनों तक कान न हिलाये, जब मैंने जमीन को सोना बना लिया तब हिस्सा बटाने चले हो। 


रामे.- तुमने जमीन को सोना बना दिया तो उसका नफा भी तो उठाया। मैं तुमसे मांगने तो नहीं गया।


विश्वे.- तो अब जमीन न मिलेगी।


रामे- भाई का हक मार कर कोई सुखी नहीं रहता।


विश्वे.- जमीन मेरी है, भाई की नहीं है। जागे. तो आप सीधे न दीजिएगा !


विश्वे.- न सीधे दूंगा, न टेढ़े से दूंगा। अदालत करो।


जागे.- अदालत करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है; पर इतना कहे देता हूं कि जमीन चाहे मुझे न मिले; पर आपके पास भी न रहेगी।


विश्वे - यह धमकी जा कर किसी और को दो।


जागे.- फिर यह न कहियेगा कि भाई हो कर वैरी हो गया।


विश्वे – एक हजार गांठ में रख कर तब जो कुछ जी में आये, करना।


जागे.– मैं गरीब आदमी हजार रुपये कहां से लाऊंगा; पर कभी-कभी भगवान् दीनों पर दयालु हो जाते हैं।


विश्वे. मैं इस डर से बिल नहीं खोद रहा हूं।


रामेश्वरराय तो चुप ही रहा पर जागेश्वर इतना क्षमाशील न था। वकीलों से बातचीत की। वह अब आधी नहीं; पूरी जमीन पर दांत लगाए हुए था।


मृत सिद्धेश्वरराय के एक लड़की तपेश्वरी थी। अपने जीवन काल में वे उसका विवाह कर चुके थे। उसे कुछ मालूम ही न था कि बाप ने क्या छोड़ा और किसने लिया। क्रिया- कर्म अच्छी तरह हो गया, वह इसी में खुश थी। षोडशी में आई थी, फिर ससुराल चली गयी। 30 वर्ष हो गये, न किसी ने बुलाया, न वह मैके आयी। ससुराल की दशा भी अच्छी न थी। पति का देहांत हो चुका था। लड़के भी अल्प वेतन पर नौकर थे। जागेश्वर ने अपनी फूफी को उभारना शुरू किया। वह उसी को मुद्दई बनाना चाहता था।


तपेश्वरी ने कहा- बेटा, मुझे भगवान् ने जो दिया है, उसी में मगन जमीन न चाहिए। मेरे पास अदालत करने को धन नहीं है। 


जागे.- रुपये मैं लगाऊंगा, तुम खाली दावा कर दो।


तपे.- भैया तुम्हें लड़ाकर किसी काम का न रखेंगे।


जागे.- यह नहीं देखा जाता कि वे जायदाद लेकर मजे उड़ावें और हम मुंह ताकें। मैं अदालत का खर्च दे दूंगा। इस जमीन के पीछे बिक जाऊंगा, पर उनका गला न छोडूंगा।


तपे. अगर जमीन मिल भी गयी तो तुम अपने रुपयों के एवज में ले लोगे, मेरे हाथ क्या लगेगा? मैं भाई से क्यों बुरी बनूं ? 


जागे. जमीन आप ले लीजिएगा, मैं केवल चचा साहब का घमंड तोड़ना चाहता हूं।


तपे.- अच्छा, जाओ, मेरी तरफ से दावा कर दो।


जागेश्वर ने सोचा, जब चचा साहब की मुट्ठी से जमीन निकल आयेगी तब मैं दस- पांच रुपये साल पर इनसे ले लूंगा। इन्हें अभी कौड़ी नहीं मिलती। जो कुछ मिलेगा, उसी को बहुत समझेंगी। दूसरे दिन दावा कर दिया। मुंसिफ के इजलास में मुकदमा पेश हुआ। विश्वेश्वरराय ने सिद्ध किया कि तपेश्वरी सिद्धेश्वरी राय की कन्या ही नहीं है। गांव के आदमियों पर विश्वेश्वर का दबाव था। सब लोग उससे रुपये-पैसे उधार ले जाते थे। मामले- मुकदमे में उनसे सलाहें लेते थे। सब ने अदालत में बयान किया कि हम लोगों ने कभी भी तपेश्वरी को नहीं देखा। सिद्धेश्वर के कोई लड़की ही न थी। जागेश्वर ने बड़े-बड़े वकीलों से पैरवी करायी, बहुत धन खर्च किया, लेकिन मुंसिफ ने उसके विरुद्ध फैसला सुनाया। बेचारा हताश हो गया। विश्वेश्वर की अदालत में सबसे जान-पहचान थी। जागेश्वर को जिस काम के लिए मुट्ठियों रुपये खर्च करने पड़ते थे, उसे विश्वेश्वर मुरौवत में करा लेता था।


जागेश्वर ने अपील करने का निश्चय किया। रुपये न थे, गाड़ी-बैल बेच डाले। अपील हुई। महीनों मुकदमा चला। बेचारा सुबह से शाम तक कचहरी के अमलों और वकीलों की खुशामद किया करता। रुपये भी उठ गये, महाजनों से ऋण लिया। अब की उसकी डिग्री हो गयी। पांच सौ का बोझ सिर पर हो गया था, पर अब जीत ने आंसू पोंछ दिये।


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विश्वेश्वर राय ने हाईकोर्ट में अपील की। जागेश्वर को अब कहीं से रुपये न मिले। विवश होकर अपने हिस्से की जमीन रेहन रखी। फिर घर बेचने की नौबत आयी। यहां तक कि स्त्रियों के गहने भी बिक गये। अंत में हाईकोर्ट से भी उसकी जीत हो गयी। आनंदोत्सव में बची-खुची पूंजी भी निकल गयी। एक हजार पर पानी फिर गया। हां, संतोष यही था कि ये पांचों बीघे मिल गये। तपेश्वरी क्या इतनी निर्दय हो जायेगी कि थाली मेरे सामने से खींच लेगी ?


लेकिन खेतों पर अपना नाम चढ़ते ही तपेश्वरी की नीयत बदली। उसने एक दिन गांव में आकर पूछ-ताछ की तो मालूम हुआ कि पांचों बीघे 100 रु. में उठ सकते हैं। लगान केवल 25 रु. था, 75 रु. साल का नफा था। इस रकम ने उसे विचलित कर दिया। उसने असामियों को बुला कर उनके साथ जमीन का बंदोबस्त कर दिया। जागेश्वरराय हाथ मला रह गया। आखिर उससे रहा न गया। बोला - फूफी जी, आपने जमीन तो दूसरों को दे दी, अब मैं कहां जाऊं।


तपे.– बेटा, पहले अपने घर में दिया जला कर तब मस्जिद में जलाते हैं। इतनी जगह मिल गयी, तो मैके से नाता हो गया, नहीं तो कौन पूछता।


जागे – मैं तो उजड़ गया।


तपे.― जिस लगान पर और लोग ले रहे हैं, उसमें दो-चार रुपये कम करके तुम्हीं क्यों नहीं ले लेते ?


जागे.– मैं ऐसा समझता तो इस झगड़े में ही न पड़ता।


तपेश्वरी तो दो-चार दिन में बिदा हो गयी। रामेश्वरराय पर वज्रपात-सा हो गया। बुढ़ापे में मजदूरी करनी पड़ी। मान-मर्यादा से हाथ धोया। रोटियों के लाले पड़ गये। बाप-बेटे दोनों प्रात:काल से संध्या तक मजदूरी करते, तब कहीं आग जलती। दोनों में बहुधा तकरार हो जाती। रामेश्वरराय सारा अपराध बेटे के सिर रखता। जागेश्वर कहता, आपने मुझे रोका होता तो मैं क्यों इस विपत्ति में फंसता । उधर विश्वेश्वरराय ने महाजनों को उकसा दिया। साल भर भी न गुजरने पाया था कि बेचारे निराधार हो गए। जमीन निकल गयी, घर नीलाम हो गया, दस-बीस पेड़ थे, वे भी नीलाम हो गये। चौबे जी दुबे न बने, दरिद्र हो गये। इस पर विश्वेश्वरराय के ताने और भी गजब ढाते। यह विपत्ति का सबसे नोकदार कांटा था। आतंक का सबसे निर्दय आघात था।


दो साल तक इस दुःखी परिवार ने जितनी मुसीबतें झेलीं, यह उन्हीं का दिल जानता है। कभी पेट भर भोजन न मिला। हां, इतनी आन थी कि नीयत नहीं बदली। दरिद्रता ने सब कुछ किया, पर आत्मा का पतन न कर सकी। कुल-मर्यादा में आत्मरक्षा की बड़ी शक्ति होती है। 


एक दिन संध्या समय दोनों आदमी बैठे आग ताप रहे थे कि सहसा एक आदमी ने आ कर कहा-ठाकुर, चलो, विश्वेश्वरराय तुम्हें बुलाते हैं।


रामेश्वर ने उदासीन भाव से कहा- मुझे क्यों बुलावेगा ? मैं उसका कौन होता हूं? कोई उपद्रव खड़ा करना चाहता है ?


इतने में दूसरा आदमी दौड़ा हुआ आकर बोला-ठाकुर, जल्दी चलो, विश्वेश्वरराय की दशा अच्छी नहीं है।


विश्वेश्वरराय को इधर कई दिनों से खांसी बुखार की शिकायत थी, लेकिन शत्रुओं के विषय में हमें किसी अनिष्ट की शंका नहीं होती। रामेश्वर और जागेश्वर कभी कुशल- समाचार पूछने भी न गये। कहते, उनसे क्या हुआ है। अमीरों को धन का रोग होता है। जब आराम करने को जी चाहा, पलंग पर लेट रहे, दूध में साबूदाना उबाल कर मिश्री मिला कर खाया और फिर उठ बैठे। विश्वेश्वरराय की दशा अच्छी नहीं है, यह सुनकर भी दोनों जगह से न हिले। रामेश्वरराय ने कहा-दशा को क्या हुआ है ? आराम से पड़ा बातें तो कर रहा है। 


जागे.- किसी बैद-हकीम को बुलाने भेजना चाहते होंगे। शायद बुखार तेज हो गया हो।


रामे.- यहां किसे इतनी फुरसत है ? सारा गांव तो उसका हितू है, जिसे चाहे भेज दे।


जागे.- हर्ज ही क्या है। जा कर सुन आऊं?


रामे.- जा कर थोड़े उपले बटोर लाओ, चूल्हा चले, फिर जाना। ठकुरसोहाती करनी आती तो आज यह दशा न होती।


जागेश्वर ने टोकरी उठायी और हाट की तरफ चला कि इतने में विश्वेश्वरराय के घर से रोने की आवाजें आने लगीं। उसने टोकरी फेंक दी और दौड़ा हुआ चाचा के घर में जा पहुंचा। देखा तो उन्हें लोग चारपाई से नीचे उतार रहे थे। जागेश्वर को ऐसा जान पड़ा, मेरे मुंह में कालिख लगी हुई है। वह आंगन से दालान में चला आया और दीवार में मुंह छिपाकर रोने लगा। युवावस्था आवेशमय होती है; क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी हो जाती है। 


विश्वेश्वरराय के तीन बेटियां थीं। उनके विवाह हो चुके थे। तीन पुत्र थे, वे अभी छोटे थे। सबसे बड़े की उम्र 10 वर्ष से अधिक न थी। माता भी जीवित थी। खानेवाले तो चार थे, कमानेवाला कोई न था। देहात में जिसके घर में दोनों जून चूल्हा जले, वह धनी समझा जाता है। उसके धन का अनुमान करने में भी अत्युक्ति से काम लिया जाता है। लोगों का विचार था कि विश्वेश्वरराय ने हजारों रुपये जमा कर लिये हैं; पर वहां वास्तव में कुछ न था। आमदनी पर सबकी निगाह रहती है, खर्च को कोई नहीं देखता। उन्होंने लड़कियों के विवाह खूब दिल खोल कर किये थे। भोजन-वस्त्र में, मेहमानों और नातेदारों के आदर- सत्कार में उनकी सारी आमदनी गायब हो जाती थी। अगर गांव में अपना रोब जमाने के लिए। दो-चार सौ रुपयों का लेन-देन कर लिया था, तो कई महाजनों का कर्ज भी था। यहां तक कि छोटी लड़की के विवाह में अपनी जमीन भी गिरों रख दी थी।


सालभर तक तो विधवा ने ज्यों-त्यों करके बच्चों का भरण-पोषण किया। गहने बेच कर काम चलाती रही; पर जब यह आधार भी न रहा तब कष्ट होने लगा। निश्चय किया कि तीनों लड़कों को तीनों कन्याओं के पास भेज दूं। रही अपनी जान, उसकी क्या चिंता। तीसरे जून भी पाव भर आटा मिल जायगा तो दिन कट जायेंगे। लड़कियों ने पहले तो भाइयों को प्रेम से रखा; किन्तु तीन महीने से ज्यादा कोई न रख सकी। उनके घरवाले चिढ़ते थे और अनाथों को मारते थे। लाचार हो माता ने लड़कों को बुला लिया।


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छोटे-छोटे लड़के दिन-दिन भर भूखे रह जाते। किसी को कुछ खाते देखते तो घर में जा कर मां से मांगते। फिर मां से मांगना छोड़ दिया। खाने वाले ही के सामने जा कर खड़े हो जाते और क्षुधित नेत्रों से देखते। कोई तो मुट्ठी भर चबेना निकाल कर दे देता; पर प्रायः लोग दुत्कार देते थे।


जाड़ों के दिन थे। खेतों में मटर की फलियां लगी हुई थीं। एक दिन तीनों लड़के एक खेत में घुस कर मटर उखाड़ने लगे। किसान ने देख लिया, दयावान आदमी था। खुद एक बोझा मटर उखाड़ कर विश्वेश्वरराय के घर पर लाया और ठकुराइन से बोला - काकी, लड़कों को डांट दो, किसी के खेत में न जाया करें। जागेश्वरराय उसी समय अपने द्वार पर बैठा चिलम पी रहा था, किसान को मटर लाते देखा। तीनों बालक पिल्लों की भांति पीछे- पीछे दौड़े चले आते थे। उसकी आंखें सजल हो गयीं। घर में जाकर पिता से बोला-चाची के पास अब कुछ नहीं रहा, लड़के भूखों मर रहे हैं।


रामे.- तुम त्रिया चरित्र नहीं जानते। यह सब दिखावा है। जन्म भर की कमाई कहां उड़ गयी ?


जागे.- अपना काबू चलते हुए कोई लड़कों को भूखों नहीं मार सकता।


रामे.- तुम क्या जानो। बड़ी चतुर औरत है।


जाग.- लोग हमीं लोगों को हंसते होंगे।


रामे.- हंसी की लाज है तो जा कर छांह कर लो, खिलाओ-पिलाओ। है दम ! 


जागे.- न भर-पेट खायेंगे, आधे ही पेट सही। बदनामी तो न होगी। चाचा से लड़ाई थी। लड़कों ने हमारा क्या बिगाड़ा है ?


रामे.- वह चुड़ैल तो अभी जीती है न ?


जागेश्वर चला गया। उसके मन में कई बार यह बात आयी थी कि चाची की कुछ सहायता किया करूं, पर उनकी जली-कटी बातों से डरता था। आज से उसने एक नया ढंग निकाला है। लड़कों को खेलते देखता तो बुला लेता, कुछ खाने को दे देता। मजूरों को दोपहर की छुट्टी मिलती है। अब वह इस अवकाश के समय काम करके मजूरी के पैसे कुछ ज्यादा पा जाता। घर चलते समय खाने की कोई-न-कोई चीज लेता जाता और अपने घरवालों की आंख बचा कर उन अनाथों को दे देता। धीरे-धीरे लड़के उससे इतने हिल-मिल गये कि उसे देखते ही ‘भैया-भैया' कह कर दौड़ते, दिन भर उसकी राह देखा करते। पहले माता डरती थी कि कहीं मेरे लड़कों को बहला कर ये महाशय पुरानी अदावत तो नहीं निकालना चाहते। वह लड़कों को जागेश्वर के पास जाने और उससे कुछ ले कर खाने से रोकती; पर लड़के शत्रु और मित्र को बूढ़ों से ज्यादा पहचानते हैं। लड़के मां के मना करने की परवाह न करते, यहां तक कि शनैः-शनैः माता को भी जागेश्वर की सहृदयता पर विश्वास आ गया।


एक दिन रामेश्वरराय ने बेटे से कहा- तुम्हारे पास रुपये बढ़ गये हैं, तो चार पैसे जमा क्यों नहीं करते। लुटाते क्यों हो ? 


जागे.– मैं तो एक-एक कौड़ी की किफायत करता हूं ?


रामे.– जिन्हें अपना समझ रहे हो, वे एक दिन तुम्हारे शत्रु होंगे।


जागे.- आदमी का धर्म भी तो कोई चीज है ! पुराने वैर पर एक परिवार को भेंट नहीं कर सकता। मेरा बिगड़ता ही क्या है, यही न, रोज घंटे-दो घंटे और मेहनत करनी पड़ती है।


रामेश्वर ने मुंह फेर लिया। जागेश्वर घर में गया तो उसकी स्त्री ने कहा-अपने मन की ही करते हो, चाहे कोई कितना ही समझाये ! पहले घर में आदमी दिया जलाता है।


जागे.- लेकिन यह तो उचित नहीं कि अपने घर में दिया की जगह मोमबत्तियां जलाये और मस्जिद को अंधेरा ही छोड़ दे। 


स्त्री-मैं तुम्हारे साथ क्या पड़ी, मानो कुएं में गिर पड़ी। कौन सुख देते हो ? गहने उतार लिये, अब सांस भी नहीं लेते।


जागे.– मुझे तुम्हारे गहने से भाइयों की जान ज्यादा प्यारी है। स्त्री ने मुंह फेर लिया और बोली- वैरी की संतान कभी अपनी नहीं होती है। जागेश्वर ने बाहर जाते हुए उत्तर दिया-वैर का अंत वैरी के जीवन के साथ हो जाता है।


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