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पतंजलि योगसूत्र तृतीय अध्याय विभूतिपाद | Patanjali Yoga Sutras Chapter-3

पांतजल योगसूत्र तृतीय अध्याय विभूतिपाद ,पतंजलि योगसूत्र तृतीय अध्याय विभूतिपाद | Patanjali Yoga Sutras Chapter-3, अब हम विभूतिपाद में आते हैं।

पातंजल योगसूत्र ( मूल संस्कृत सूत्र, सूत्रार्थ और व्याख्या सहित ) व्याख्याकार स्वामी विवेकानन्द(Patanjali Yogasutra (with original Sanskrit sutras, sutras and explanation) explanatory Swami Vivekananda

पांतजल योगसूत्र तृतीय अध्याय विभूतिपाद

अब हम विभूतिपाद में आते हैं।

 देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ १ ॥

सूत्रार्थ- चित्त को किसी विशेष वस्तु में धारण करके रखने का नाम है धारणा । 

व्याख्या -जब मन शरीर के भीतर या उसके बाहर किसी वस्तु के साथ संलग्न होता है और कुछ समय तक उसी तरह रहता है, तो उसे धारणा कहते हैं ।

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तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥२॥

सूत्रार्थ- वह वस्तुविषयक ज्ञान निरन्तर एक रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान कहते हैं।

व्याख्या - मान लो, मन किसी एक विषय को सोचने का प्रयत्न कर रहा है, किसी एक विशेष स्थान में जैसे, मस्तक के ऊपर अथवा हृदय आदि में अपने को पकड़ रखने का प्रयत्न कर रहा है। यदि मन शरीर के केवल उस अंश के द्वारा संवेदनाओं को ग्रहण करने में समर्थ होता है, शरीर के दूसरे भागों के द्वारा नहीं, तो उसका नाम धारणा है; और जब वह अपने को कुछ समय तक उसी अवस्था में रखने में समर्थ होता है, तो उसका नाम है ध्यान।

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ ३ ॥ 

सूत्रार्थ- वही (ध्यान) जब समस्त बाहरी उपाधियों को छोड़कर अर्थ मात्र को ही प्रकाशित करता है, तब उसे समाधि कहते हैं।

व्याख्या- जब ध्यान में वस्तु का रूप या बाहरी भाग परित्यक्त हो जाता है, तभी यह समाधि-अवस्था आती है। मान लो, मैं इस पुस्तक के बारे में ध्यान कर रहा हूँ और सोचो, मैं उसमें चित्तसंयम करने में सफल हो गया। तब केवल, बिना किसी रूप में प्रकाशित, अर्थ नामक आभ्यन्तरिक संवेदनाएँ ही मेरे ज्ञान में आने लगती हैं। ध्यान की इस अवस्था को समाधि कहते हैं।

त्रयमेकत्र संयमः ॥ ४ ॥

सूत्रार्थ- इन तीनों का जब एक साथ अर्थात् एक ही किया जाता है, तब उसे संयम कहते हैं। वस्तु के सम्बन्ध में अभ्यास  किया जाता है, तब उसे संयम कहते है। 

व्याख्या - जब कोई व्यक्ति अपने मन को किसी निर्दिष्ट वस्तु की ओर ले जाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकता है, और फिर उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी आकार से अलग करके बहुत समय तक रख सकता है, तभी समझना चाहिए कि संयम हुआ। अर्थात् धारणा, ध्यान और समाधि, ये तीनों क्रमशः एक के बाद एक, किसी एक वस्तु के ऊपर होने पर एक संयम हुआ। तब उस वस्तु का बाहरी आकार न जाने कहाँ चला जाता है, मन में केवल इसका अर्थ मात्र उद्भासित होता रहता है।

तज्जयात् प्रज्ञालोकः ॥५॥

सूत्रार्थ - इसको जीत लेने से ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है। 

व्याख्या - जब कोई मनुष्य इस संयम के साधन में सफल हो जाता है, तब सारी शक्तियाँ उसके हाथ में आ जाती हैं। यह संयम ही योगी के ज्ञानलाभ का प्रधान यन्त्रस्वरूप है। ज्ञान के विषय अनन्त हैं। वे स्थूल, स्थूलतर, स्थूलतम और सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम आदि नाना विभागों में विभक्त हैं। इस संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए, और जब स्थूल का ज्ञान प्राप्त होने लगे, तब थोड़ा थोड़ा करके सोपान-क्रम से सूक्ष्मतर वस्तु पर उसका प्रयोग करना चाहिए।

तस्य भूमिषु विनियोगः ॥६॥

सूत्रार्थ - उस (संयम) का प्रयोग सोपान-क्रम से करना चाहिए। 

व्याख्या- जल्दबाजी मत करना। यह सूत्र इस प्रकार हमें सावधान कर दे रहा है

त्रयमन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः ॥७॥

सूत्रार्थ - पहले कहे गये (साधनों) की अपेक्षा ये तीनों (साधन अधिक) अन्तरंग हैं। 

व्याख्या- इनके पहले, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की बात कही गयी है। वे धारणा, ध्यान और समाधि की अपेक्षा बहिरंग है। इन धारणा आदि अवस्थाओं को प्राप्त करने पर मनुष्य सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् अवश्य हो सकता है, पर सर्वज्ञता अथवा सर्वशक्तिमत्ता तो मुक्ति नहीं है। केवल इन तीन प्रकार के साधनों द्वारा मन निर्विकल्प अर्थात् परिणामशून्य नहीं हो सकता; इन त्रिविध साधनों का अभ्यास होने पर भी देहधारण का बीज रह जाता है। जब वह बीज, जैसा कि योगी कहते हैं, मून दिया जाता है, तभी उसकी पुनः वृक्ष उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ये सिद्धियाँ उस बीज को कभी भून नहीं सकतीं। 

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तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य ॥ ८ ॥

सूत्रार्थ- पर वे (धारणा आदि तीनों) भी निर्बीज (समाधि) की तुलना में बहिरंग (साधन) हैं।

व्याख्या - इसी कारण निर्बीज समाधि के साथ तुलना करने पर इनको भी बहिरंग कहना पड़ेगा। संयम-लाभ होने पर ही हम वस्तुतः सर्वोच्च समाधि-अवस्था की प्राप्ति नहीं कर लेते, वरन् एक निम्नतर अवस्था में अवस्थित रहते हैं। उस अवस्था में यह परिदृश्यमान जगत् विद्यमान रहता है, और सब सिद्धियाँ भी ।

व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ 

निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणामः ॥ ९॥

सूत्रार्थ- जब व्युत्थान-संस्कार अर्थात् मन की चंचलता का अभिभव (दमन) और निरोध-संस्कार अर्थात् संयम का आविर्भाव हो जाता है, उस समय चित्त निरोध नामक संस्कार के अनुगत होता है, तथा उसे निरोध-परिणाम कहते हैं।

व्याख्या- इसका तात्पर्य यह है कि समाधि की पहली अवस्था में मन की समस्त वृत्तियाँ निरुद्ध अवश्य होती हैं, किन्तु सम्पूर्ण रूप से नहीं, क्योंकि वैसा होने पर तो किसी प्रकार की वृत्ति ही न रह जाती। मान लो, मन में एक ऐसी वृत्ति उठी है, मन की इन्द्रिय की ओर ले जा रही है, और योगी उस वृत्ति को संयत करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस अवस्था में उस संयम को भी एक वृत्ति कहना पड़ेगा। एक लहर मानो दूसरी लहर द्वारा रोकी गयी है, अतः वह समस्त लहरों की निवृत्तिरूप समाधि नहीं है, क्योंकि वह संयम भी एक लहर है। फिर भी, जिस अवस्था में मन में तरंग के बाद तरंग उठती रहती है, उसकी अपेक्षा यह निम्नतर समाधि उस उच्चतर समाधि के अधिक समीपवर्ती हैं।

तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात् ॥१०॥

सूत्रार्थ- अभ्यास के द्वारा इसका प्रवाह स्थिर होता है।

व्याख्या -प्रतिदिन नियमित रूप से अभ्यास करने पर यह मन के नियत संयम का प्रवाह स्थिर हो जाता है, और तब मन को सदैव एकाग्रशील रहने की क्षमता प्राप्त होती है।

सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः ॥ ११ ॥ 

सूत्रार्थ- सब प्रकार के विषयों का चिन्तन करने की वृत्ति का क्षय हो जाना और किसी एक ही ध्येय-विषय का चिन्तन करनेवाली एकाग्रता-शक्ति का उदय हो जाना - यह चित्त का समाधि-परिणाम है।

व्याख्या -मन सर्वदा ही नाना प्रकार के विषय ग्रहण कर रहा है, सदैव सब प्रकार की वस्तुओं में जा रहा है। फिर मन की ऐसी भी एक उच्चतर अवस्था है, जब वह केवल एक ही वस्तु को ग्रहण करके अन्य सब वस्तुओं को छोड़ दे सकता है। इस एक वस्तु को ग्रहण करने का फल है समाधि ।

शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः ॥ १२ ॥

सूत्रार्थ -जब मन शान्त और उदित अर्थात् अतीत और वर्तमान दोनों अवस्थाओं में ही तुल्य-प्रत्यय हो जाता है, अर्थात् दोनों को ही एक साथ ग्रहण कर सकता है, तब उसे चित्त का एकाग्रता परिणाम कहते हैं।

व्याख्या -मन एकाग्र हुआ है, यह कैसे जाना जाए ? मन के एकाग्र हो जाने पर समय का कोई ज्ञान न रहेगा। जितना ही समय का ज्ञान जाने लगता है, हम उतने ही एकाग्र होते जाते हैं। हम अपने दैनिक जीवन में भी देखते हैं। कि जब हम कोई पुस्तक पढ़ने में तल्लीन रहते हैं, तब समय की ओर हमारा बिलकुल ध्यान नहीं रहता। जब हम पढ़कर उठते हैं, तो अचरज करने लगते हैं। कि इतना समय बीत गया! सारा समय मानो एकत्र होकर वर्तमान में एकीभूत हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य आकर जितना ही एकीभूत होते जाते हैं, मन उतना ही एकाग्र होता जाता है।

एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः ॥ १३ ॥ 

सूत्रार्थ- इसी से भूतों में और इन्द्रियों में होनेवाले धर्म-परिणाम, लक्षण-परिणाम और अवस्था - परिणाम- इन तीनों की व्याख्या की जा चुकी।

व्याख्या -पीछे के तीन सूत्रों में चित्त के निरोध आदि परिणामों की जो बात कही गयी है, उसके द्वारा भूतों और इन्द्रियों के धर्म, लक्षण और अवस्था-रूप तीन प्रकार के परिणामों की भी व्याख्या कर दी गयी। मन लगातार वृत्ति के रूप में परिणत हो रहा है, यह मन का धर्मरूप परिणाम है। वह अतीत, वर्तमान और भविष्य इन तीन कालों के भीतर से होकर चल रहा है, यह मन का लक्षणरूप परिणाम है। कभी निरोधसंस्कार प्रबल और व्युत्थानसंस्कार दुर्बल हो जाता है, तो कभी ठीक इसका उल्टा होता है; यह मन का अवस्थारूप परिणाम है। मन के इन तीन परिणामों के समान भूतों और इन्द्रियों के भी त्रिविध परिणाम समझना चाहिए। जैसे, सोने का पिण्ड जब अपना पिण्डरूप धर्म छोड़कर कंगन और झुमके में परिणत हो जाता है, तब उसे धर्म-परिणाम कहते हैं। जब इसी घटना को हम काल की दृष्टि से देखते हैं अर्थात् उसके वर्तमान, अतीत और भविष्य अवस्थारूप परिणामों को देखते हैं, तब उसे लक्षण-परिणाम कहते हैं। फिर उनके नवीनत्व, पुरातनत्व आदि अवस्थारूप परिणामों को अवस्था - परिणाम कहते हैं !

पहले के सूत्रों में जिन सब समाधियों की बात कही गयी है, उनका उद्देश्य यह है कि योगी मन के परिणामों पर इच्छापूर्वक क्षमता प्राप्त कर सके। उससे पूर्वोक्त संयमशक्ति प्राप्त होती है।

शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी ॥ १४ ॥

सूत्रार्थ - शान्त (अतीत), उदित (वर्तमान) और अव्यपदेश्य (अब तक व्यक्त न हुए) धर्म जिसमें अवस्थित हैं, वह धर्मी है।

व्याख्या - धर्मी उसे कहते हैं, जिस पर काल और संस्कार कार्य कर रहे हैं, जिसमें सतत परिणाम हो रहा है और जो हरदम व्यक्त भाव धारण कर रहा

क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतुः ॥ १५ ॥

सूत्रार्थ - भिन्न भिन्न परिणाम होने का कारण है, क्रम की भिन्नता (पूर्वापर पार्थक्य) ।

परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् ॥ १६ ॥

सूत्रार्थ - पूर्वोक्त तीन परिणामों में चित्तसंयम करने से अतीत और अनागत (भविष्य) का ज्ञान उत्पन्न होता है।

व्याख्या - पहले संयम की जो परिभाषा दी गयी है, हम उसे न भूलें। जब मन वस्तु के बाहरी भाग को छोड़कर उसके आभ्यन्तरिक भावों के साथ अपने को एकरूप करने की उपयुक्त अवस्था में पहुँच जाता है, जब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणा करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुँच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है , तब उसे संयम कहते हैं। इस अवस्था को प्राप्त करके यदि योगी भूत और भविष्य जानने की इच्छा करें, तो उन्हें केवल संस्कार के परिणामों में संयम का प्रयोग करना होगा। कुछ संस्कार वर्तमान अवस्था में कार्य कर रहे हैं, कुछ का भोग समाप्त हो चुका है और कुछ अभी भी फल प्रदान करने के लिए संचित है। इन सभी में संयम का प्रयोग करके वे भूत और भविष्य सब जान लेते हैं।

शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभाग-

संयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम् ॥१७॥

सूत्रार्थ - शब्द, अर्थ और प्रत्यय (ज्ञान) - इनकी, आपस में अध्यास हो जाने के कारण, जो संकरावस्था हो रही है, उसके विभागों में संयम करने से समस्त प्राणियों की वाणी का ज्ञान (हो जाता है) ।

व्याख्या - शब्द से उस बाह्य विषय का बोध होता है, जो मन में किसी वृत्ति को जागृत कर देता है। अर्थ कहने से वह आन्तरिक स्पन्दन समझना चाहिए, जो इन्द्रिय-मार्ग के माध्यम से मस्तिष्क में पहुँचता है और बाह्य संवेदना को मन में पहुँचा देता है। ज्ञान कहने से मन की उस प्रतिक्रिया को समझना चाहिए, जिससे विषयानुभूति होती है। इन तीनों के मिश्रित होने से ही हमारे इन्द्रियग्राह्य विषय उत्पन्न होते हैं। मान लो, मैंने एक शब्द सुना, पहले बाहर एक कम्पन हुआ, तत्पश्चात् श्रवणेन्द्रिय द्वारा मन एक आन्तरिक संवेदना पहुँचायी गयी, उसके बाद मन ने प्रतिक्रिया की, और मैं उस शब्द को जान सका। 

मैंने यह जो उस शब्द को जाना है, वह तीन पदार्थों का मिश्रण हैं पहला, कम्पन; दूसरा, संवेदना; और तीसरा, प्रतिक्रिया । साधारणतः ये तीन व्यापार पृथक नहीं किये जा सकते, पर अभ्यास के द्वारा योगी उनको पृथक् कर सकते हैं। जब मनुष्य इनको अलग करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, तब वह फिर जिस किसी शब्द में संयम का प्रयोग करे, वह उसी क्षण उस अर्थ को समझ सकता है, जिसको प्रकाशित करने के लिए वह शब्द उच्चारित हुआ है, फिर वह शब्द चाहे मनुष्य द्वारा किया गया हो, चाहे अन्य किसी प्राणी द्वारा।

संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ॥ १८ ॥

सूत्रार्थ - संस्कारों को प्रत्यक्ष कर लेने से पूर्वजन्म का ज्ञान (हो जाता है)। 

व्याख्या - हम जो कुछ अनुभव करते हैं, वह समस्त हमारे चित्त में तरंग के रूप में आया करता है। वह फिर चित्तरूपी सरोवर की तली में चला जाता है। और क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता जाता है। वह बिलकुल नष्ट नहीं हो जाता। वह वहाँ जाकर अत्यन्त सूक्ष्मभाव से रहता है। यदि हम उस तरंग को फिर से ऊपर ला सकें, तो वही स्मृति कहलाती है। अतएव योगी यदि मन के इन सब पूर्वसंस्कारों में संयम कर सकें, तो वे पूर्वजन्म की बातें स्मरण करना आरम्भ कर देंगे।

प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम् ॥ १९ ॥

सूत्रार्थ-दूसरे के शरीर में जो चिह्न हैं, उनमें संयम करने से उस व्यक्ति के मन का ज्ञान (हो जाता है) ।

व्याख्या - प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कुछ विशिष्ट चिह्न रहते हैं, जिनके द्वारा उसको दूसरे व्यक्तियों से पृथक् करके पहचाना जाता है। जब योगी किसी मनुष्य के इन विशेष चिह्नों में संयम करते हैं, तब वे उस मनुष्य के मन का स्वभाव जान लेते हैं।

न च तत् सालम्बनं तस्याविषयीभूतत्वात् ॥ २०॥

सूत्रार्थ - किन्तु उस चित्त का अवलम्बन क्या है, यह वे नहीं जान सकते, क्योंकि वह उनके संयम का विषय नहीं है।

व्याख्या - ऊपर के सूत्र में शरीर के चिह्नों में संयम की जो बात कही गयी है, उसके द्वारा उस व्यक्ति के मन में उस समय क्या चल रहा है, यह नहीं जाना जा सकता। उसको जानने के लिए तो दो बार संयम करने की आवश्यकता होगी ; पहले, शरीर के लक्षणों में, और उसके बाद मन में। तब योगी उस व्यक्ति के मन के समस्त भाव जान सकेंगे।

कायरूपसंयमात् तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे

चक्षुःप्रकाशासंयोगेऽन्तर्धानम् ॥ २१ ॥

सूत्रार्थ - शरीर के रूप में संयम कर लेने से जब उस रूप को अनुभव करने की शक्ति रोक ली जाती है, तब आँख की प्रकाश-शक्ति के साथ उसका संयोग न रहने के कारण योगी अन्तर्धान हो जाते हैं।

व्याख्या -मान लो, कोई योगी इस कमरे में खड़े हैं। वे आपातदृष्टि से सब के सामने से अन्तर्धान हो सकते हैं। वे वास्तव में अन्तर्धान हो जाते हों, सो बात नहीं; पर हाँ, कोई उन्हें देख न सकेगा, बस, इतना ही। शरीर का रूप और शरीर – इन दोनों को मानो वे अलग अलग कर डालते हैं। जब योगी ऐसी - एकाग्रता-शक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे वस्तु के रूप और उस वस्तु को एक दूसरे से अलग कर डालते हैं, तभी इस प्रकार की अन्तर्धान-शक्ति उन्हें प्राप्त होती है। रूप और उस रूपवान् वस्तु के पार्थक्य में संयम का प्रयोग करने से उस रूप को अनुभव करने की शक्ति में मानो एक बाधा पड़ती है; क्योंकि रूप और उस रूपविशिष्ट वस्तु के परस्पर संयुक्त होने पर ही हमें उस वस्तु का ज्ञान होता है।

एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तम् ॥ २२ ॥

सूत्रार्थ - इसके द्वारा ही शब्द आदि के अन्तर्धान होने की अर्थात् शब्द आदि को दूसरों को इन्द्रियगोचर न होने देने की भी व्याख्या कर दी गयी।

सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्त-

ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा ॥ २३ ॥

सूत्रार्थ- शीघ्र फल उत्पन्न करनेवाला और देर से फल देनेवाला-ऐसे दो प्रकार के कर्म होते हैं। इनमें संयम करने से, अथवा अरिष्ट नामक मृत्युलक्षणों से भी, योगी देहत्याग का ठीक समय जान लेते हैं।

व्याख्या - जब योगी अपने कर्म में - अर्थात् अपने मन के उन संस्कारों में, जिनका कार्य आरम्भ हो गया है तथा उनमें, जिनका कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ है - संयम का प्रयोग करते हैं, तब वे उन संस्कारों के द्वारा, जिनका कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ है, यह ठीक जान लेते हैं कि उनकी मृत्यु कब होगी। किस समय, किस दिन, कितने बजे, यहाँ तक कि कितने मिनट पर उनकी मृत्यु होगी - यह सब उन्हें ज्ञात हो जाता है। हिन्दू लोग मृत्यु की इस निकटता को जान लेना विशेष आवश्यक समझते हैं, क्योंकि गीता में यह उपदेश है कि मृत्युसमय के विचार परवर्ती जीवन को निर्धारित करने के लिए विशेष समर्थ हैं।

मैत्र्यादिषु बलानि ॥ २४ ॥ 

सूत्रार्थ - मैत्री आदि गुणों (१1३३) में संयम करने से वे सब गुण अत्यन्त प्रबल भाव धारण करते हैं।

बलेषु हस्तिबलादीनि ॥ २५ ॥

सूत्रार्थ - हाथी आदि प्राणियों के बल में संयम का प्रयोग करने से योगी के शरीर में उन उन प्राणियों के सदृश बल आ जाता है।

व्याख्या - जब योगी यह संयम-शक्ति प्राप्त कर लेते हैं, तब यदि वे बल की इच्छा करें, तो हाथी के बल में संयम का प्रयोग करके वे हाथी के समान बल प्राप्त कर लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य में अनन्त शक्ति निहित है। यदि वह उपाय जानता हो, तो वह उस शक्ति का इच्छानुसार व्यवहार कर सकता है। योगी ने उसे प्राप्त करने की विद्या खोज निकाली है। 

प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानम् ॥ २६ ॥ 

सूत्रार्थ – महाज्योति (१।३६) में संयम करने से सूक्ष्म, व्यवधानयुक्त और दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है

व्याख्या - हृदय में जो महाज्योति है, उसमें संयम करने से योगी अत्यन्त दूरवर्ती वस्तु को भी देख सकते हैं। यदि कोई वस्तु पहाड़ के अन्तराल में रहे, तो उसे भी वे देख लेते हैं, और अत्यन्त सूक्ष्म वस्तुओं का भी उन्हें ज्ञान हो जाता है।

भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥ २७ ॥

सूत्रार्थ - सूर्य में संयम करने से सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान (हो जाता है) । 

चन्द्रे ताराव्यूहज्ञानम् ॥ २८||

सूत्रार्थ - चन्द्रमा में (संयम करने से) तारासमूह का ज्ञान (हो जाता है)। 

ध्रुवे तद्गतिज्ञानम् ॥ २९॥

सूत्रार्थ - ध्रुव तारे में (संयम करने से) ताराओं की गति का ज्ञान (हो जाता है)।

नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम् ॥ ३० ॥

सूत्रार्थ - नाभिचक्र में (संयम करने से) शरीर की बनावट का ज्ञान (हो जाता) है। 

कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः ॥ ३१||

सूत्रार्थ - कण्ठकूप में (संयम करने से) भूख और प्यास की निवृत्ति हो जाती है। 

व्याख्या - अत्यन्त भूखा मनुष्य यदि कण्ठनली में चित्त का संयम कर सके, तो उसकी भूख शान्त हो जाती है।कूर्मनाड्यां स्थैर्यम् ॥ ३२॥

सूत्रार्थ- कूर्मनाड़ी में (संयम करने से) शरीर की स्थिरता होती है। 

व्याख्या–जब वे साधना करते हैं, तब उनका शरीर चंचल नहीं होता।

मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम् ॥ ३३ ॥

सूत्रार्थ – मस्तक के ऊर्ध्वभाग से निकलनेवाली ज्योति में (संयम करने से) सिद्धपुरुषों के दर्शन होते हैं।

व्याख्या– यहाँ सिद्ध का तात्पर्य भूतयोनि की अपेक्षा थोड़ी उच्च योनि से है। जब योगी अपने सिर के ऊपरी भाग मन का संयम करते हैं, तब वे इन सिद्धों के दर्शन करते हैं। यहाँ पर 'सिद्ध' शब्द से मुक्त पुरुष नहीं समझना चाहिए।प्रातिभाद्वा सर्वम् ॥ ३४ ॥

सूत्रार्थ अथवा प्रातिभ ज्ञान उत्पन्न होने से समस्त (ज्ञान प्राप्त हो जाता है)। 

व्याख्या - प्रातिभ ज्ञान अर्थात् प्रतिभाशक्ति अर्थात् पवित्रता के द्वारा लब्ध ज्ञानविशेष के प्राप्त हो जाने पर बिना किसी प्रकार के संयम के ही समस्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है। जब मनुष्य उच्च प्रतिभाशक्ति प्राप्त कर लेता है, तब उसे इस महान् आलोक की प्राप्ति हो जाती है। उसके ज्ञान से समस्त प्रकाशित हो जाता है। बिना किसी प्रकार का संयम किये ही उसे आप से आप समस्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

हृदये चित्तसंवित्॥३५॥

सूत्रार्थ - हृदय में (संयम करने से) मनोविषयक ज्ञान (प्राप्त हो जाता है)। 

सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तसंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषाद् भोगः 

परार्थत्वादन्यस्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानम् ॥ ३६ ॥

सूत्रार्थ – पुरुष और सत्त्व (बुद्धि) अत्यन्त पृथक् हैं - उनके विवेक के अभाव से ही भोग होता है। वह भोग परार्थ है अर्थात् पुरुष के लिए है। सत्त्व (बुद्धि) की एक दूसरी अवस्था का नाम है स्वार्थ; उसमें संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। 

व्याख्या-पुरुष और बुद्धि वास्तव में सर्वथा भिन्न हैं; ऐसा होने पर भी पुरुष बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर उसके साथ अपने को अभिन्न समझता है और उसी से अपने को सुखी या दुःखी अनुभव करता रहता है। बुद्धि की इस अवस्था को परार्थ कहते हैं, क्योंकि उसके सारे भोग अपने लिए नहीं, वरन् पुरुष लिए होते हैं। इसके सिवा बुद्धि की और एक अवस्था है-उसका नाम है स्वार्थ। जब बुद्धि सत्त्वप्रधान होकर अत्यन्त निर्मल हो जाती है और उसमें पुरुष विशेष रूप से प्रतिबिम्बित होता है, तब वह बुद्धि अन्तर्मुखी होकर केवल पुरुष का अवलम्बन करती है। इस 'स्वार्थ' में संयम करने से पुरुष का ज्ञान होता है। केवल पुरुष का अवलम्बन करनेवाली बुद्धि में संयम करने को कहने का तात्पर्य यह है कि शुद्ध पुरुष ज्ञाता होने के कारण कभी ज्ञान का विषय नहीं बन सकता।

ततः प्रातिभश्रवणवेदनादर्शास्वादवार्ता जायन्ते ॥ ३७॥ 

सूत्रार्थ – उससे प्रातिभ ज्ञान और (अलौकिक) श्रवण, स्पर्श, दर्शन, स्वाद एवं वार्ता (घ्राण) – ये (छह सिद्धियाँ) प्रकट होती हैं।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ॥ ३८ ॥

सूत्रार्थ-ये (छहों सिद्धियाँ) समाधि में उपसर्ग (विघ्न) हैं, पर व्युत्थान (संसार - अवस्था) में सिद्धिस्वरूप हैं।

व्याख्या -योगी जानते हैं कि संसार के सभी भोग पुरुष और मन के संयोग द्वारा होते हैं। यदि वे इस सत्य में कि 'आत्मा और प्रकृति एक दूसरे से पृथक् वस्तु हैं' चित्त का संयम कर सकें, तो उन्हें पुरुष का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उससे विवेकज्ञान उदित होता है। जब वे इस विवेक को प्राप्त कर लेते हैं, तब उन्हें प्रातिभ ज्ञान अर्थात् अत्यन्त उच्च कोटि का दिव्य आलोक प्राप्त . होता है। पर ये सब सिद्धियाँ उस उच्चतम लक्ष्य अर्थात् उस पवित्रस्वरूप आत्मा के ज्ञान और मुक्ति की प्रतिबन्धकस्वरूप हैं। ये सब तो मानो रास्ते में प्राप्त होनेवाली चीजें भर हैं। यदि योगी इन सिद्धियों का परित्याग कर दें, तभी वे उस उच्चतम ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। यदि वे इनमें अटक जाएँ, तो फिर उनकी उन्नति रुक जाती है।

बन्धकारणशैथिल्यात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य

परशरीरावेशः ॥ ३९॥

सूत्रार्थ - जब बन्धन का कारण शिथिल हो जाता है और योगी चित्त क प्रचार-स्थानों को (अर्थात् शरीरस्थ नाड़ीसमूह को जान लेते हैं, तब वे दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकते हैं।

व्याख्या - योगी एक देह में क्रियाशील रहते हुए भी अन्य किसी मृत देह में प्रवेश करके उसे गतिशील कर सकते हैं। इसी प्रकार, वे किसी जीवित शरीर में प्रवेश करके उस व्यक्ति के मन और इन्द्रियों को निरुद्ध कर सकते हैं, तथा उस समय तक के लिए उस शरीर के माध्यम से कार्य कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष के विवेक को प्राप्त करने पर ही ऐसा करना उनके लिए सम्भव होता है। यदि वे दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की इच्छा करें, तो उस शरीर में संयम का प्रयोग करने से ही वह सिद्ध हो जाएगा, क्योंकि उनके मतानुसार, उनकी आत्मा हीं सर्वव्यापी नहीं है, वरन् उनका मन भी सर्वव्यापी है। उनका मन उस सर्वव्यापी (समष्टि) मन का एक अंश मात्र है। पर अभी वह इस शरीर के स्नायुओं के माध्यम से ही काम कर सकता है; किन्तु जब योगी इन स्नायविक प्रवाहों से अपने को मुक्त कर लेते हैं, तब वे दूसरे शरीर के द्वारा भी काम कर सकते हैं।

उदानजयाज्जलपङ्ककण्टकादिष्वसङ्ग उत्क्रान्तिश्च ॥४०॥

सूत्रार्थ - उदान नामक स्नायविक शक्तिप्रवाह पर जय प्राप्त कर लेने से योगी के शरीर से पानी या कीचड़ का संयोग नहीं होता, वे काँटों पर चल सकते हैं और इच्छामृत्यु होते हैं।

व्याख्या - उदान नामक जो स्नायविक शक्तिप्रवाह फेफड़े और शरीर के मारे ऊपरी भाग को चलाता है, उस पर जब योगी जय प्राप्त कर लेते हैं, तब वे अत्यन्त हल्के हो जाते हैं। ये फिर जल में नहीं डूबते, काँटों पर या तलवार की धार पर वे अनायास चल सकते हैं, आग में खड़े रह सकते हैं और इच्छा मात्र से ही इस शरीर को छोड़ दे सकते हैं।

समानजयात्प्रज्वलनम् ॥ ४१॥

सूत्रार्थ- समान स्नायविक शक्तिप्रवाह को जीत लेने से (उनका शरीर) दीप्तिमान हो जाता है।

व्याख्या - वे जब कभी इच्छा करते हैं, तभी उनके शरीर से ज्योति बाहर निकल आती है।

श्रोत्राकाशयोः सम्बन्धसंयमाद्दिव्यं श्रोत्रम् ॥४२॥ 

सूत्रार्थ- कान और आकाश का जो परस्पर सम्बन्ध है, उसमें संयम करने से दिव्य कर्ण प्राप्त होता है।

व्याख्या- आकाशतत्त्व और उसका अनुभव करने का यन्त्रस्वरूप कान - इनमें संयम करने से योगी दिव्य कर्ण प्राप्त करते हैं, जिससे वे सब कुछ सुन सकते हैं। अत्यन्त दूर कोई बातचीत या शब्द होने पर भी वे उसे सुन सकते हैं।

कायाकाशयोः सम्बन्धसंयमाल्लघुतूल

समापत्तेश्चाकाशगमनम् ॥ ४३ ॥

सूत्रार्थ - शरीर और आकाश के सम्बन्ध में चित्तसंयम करने से और (रुई आदि) हल्की वस्तु में संयम करने से योगी आकाश में गमन कर सकते हैं।

व्याख्या- आकाश ही इस शरीर का उपादान है; आकाश ने ही एक प्रकार से विकृत होकर इस शरीर का रूप धारण किया है। यदि योगी शरीर के उपादानभूत उस आकाशधातु में संयम का प्रयोग करें, तो वे आकाश के समान हल्के हो जाते हैं और जहाँ इच्छा हो, वायु में से होकर जा सकते हैं। ऐसा ही दूसरी बातों के सम्बन्ध में भी है।

बहिरकल्पिता वृत्तिर्महाविदेहा ततः प्रकाशावरणक्षयः ॥ ४४ ॥ 

सूत्रार्थ - शरीर के बाहर मन की जो यथार्थ वृत्ति या धारणा है, उसका नाम है महाविदेहा; उसमें संयम का प्रयोग करने से, प्रकाश का जो आवरण है, वह नष्ट हो जाता है।

व्याख्या - अज्ञानवश मन सोचता है कि वह इस देह में से कार्य कर रहा है। यदि मन सर्वव्यापी हो, तो हम केवल एक ही प्रकार के स्नायुओं द्वारा क्यों आबद्ध रहेंगे, इस अहं को एक ही शरीर में सीमाबद्ध करके क्यों रखेंगे? ऐसा करने का तो कोई कारण नहीं दिखता। योगी अपने इस अहंभाव को, जहाँ कहीं इच्छा हो, वहीं अनुभव करना चाहते हैं। अहंभाव के चले जाने पर इस देह में जो मानसिक तरंग उठती है, उसे 'अकल्पिता' या 'महाविदेहा' वृत्ति कहते हैं। जब योगी उसमें संयम करने में सफल होते हैं, तब प्रकाश के सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं और समस्त अन्धकार एवं अज्ञान नष्ट हो जाने के कारण सब कुछ उन्हें चैतन्यमय प्रतीत होता है

स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वसंयमाद्भूतजयः ॥ ४५ ॥

सूत्रार्थ - भूतों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थवत्त्व- इन पाँच प्रकार की अवस्थाओं में संयम करने से पाँचों भूतों पर विजय प्राप्त हो जाती है। 

व्याख्या - योगी समस्त भूतों में संयम करते हैं- पहले, स्थूल भूतों में और फिर उसके बाद उनकी अन्य सूक्ष्म अवस्थाओं में। बौद्धों एक सम्प्रदाय में यह संयम विशेष रूप से प्रचलित है। वे मिट्टी का एक लोंदा लेकर उसमें संयम का प्रयोग करते हैं, फिर क्रमशः, वह जिन सूक्ष्म भूतों से निर्मित हुआ है, उन्हें देखना शुरू करते हैं। जब वे उसकी समस्त सूक्ष्म अवस्थाओं के बारे में जान लेते हैं, तब वे उस भूत पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा ही अन्य सब भूतों के बारे में भी समझना चाहिए। योगी उन सभी पर जय प्राप्त कर सकते हैं।

ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च ॥४६॥ 

सूत्रार्थ - उससे अणिमा आदि सिद्धियों का आविर्भाव होता है, कायसम्पत् की प्राप्ति होती है और सारे शारीरिक धर्मों से बाधा नहीं होती।

व्याख्या - इसका तात्पर्य यह है कि योगी अष्ट सिद्धियों की प्राप्ति कर लेते हैं। वे अपने को इच्छानुसार परमाणु के समान छोटा या पर्वत के समान बड़ा कर सकते हैं। वे अपने को पृथ्वी के समान भारी और वायु के समान हल्का कर सकते हैं; वे जहाँ चाहें, जा सकते हैं; जिस पर चाहें, प्रभुत्व कर सकते हैं; जिस पर चाहें, विजय प्राप्त कर सकते हैं। सिंह उनके पैरों के पास मेमने के समान शान्तभाव से बैठा रहेगा, और वे जो भी चाहें, उनकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी।

रूपलावण्यबलवज्रसंहननत्वानि कायसम्पत् ॥ ४७ ॥

सूत्रार्थ - रूप, लावण्य, बल और वज्र के समान दृढ़ता-ये कायसम्पत् हैं। 

व्याख्या - तब शरीर अविनाशी हो जाता है, कोई भी वस्तु उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचा सकती। यदि योगी स्वयं इच्छा न करें, तो दुनिया की कोई भी ताकत उनके शरीर का नाश नहीं कर सकती। “कालदण्ड को भग्न करके वे इस जगत् में शरीर लेकर वास करते हैं।” वेदों में कहा है कि ऐसे व्यक्ति को बीमारी, मृत्यु या अन्य कोई क्लेश नहीं होता।

ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमादिन्द्रियजयः || ४८ ||

सूत्रार्थ- इन्द्रियों की बाह्य पदार्थ की ओर गति, उससे उत्पन्न ज्ञान, इस ज्ञान से विकसित अहं प्रत्यय, इन्द्रियों के त्रिगुणमयत्व और उनके भोगदातृत्व इन पाँचों में संयम करने से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती है।

व्याख्या - बाह्य वस्तु की अनुभूति के समय इन्द्रियाँ मन से बाहर जाकर विषय की ओर दौड़ती है, तभी ज्ञान होता है। इस कार्य में अस्मिता भी सर्वदा साथ रहती है। जब योगी उनमें तथा अन्य दोनों में भी क्रमशः संयम का प्रयोग करते हैं, तब वे इन्द्रियों पर जय प्राप्त कर लेते हैं। जो कोई वस्तु तुम देखते या अनुभव करते हो-जैसे एक पुस्तक- उसे लेकर उसमें संयम का प्रयोग करो। उसके बाद पुस्तक के रूप में जो ज्ञान है, उसमें; फिर जिस अहंभाव के द्वारा उस पुस्तक का दर्शन होता है, उसमें संयम करो। इस अभ्यास से समस्त इन्द्रियाँ विजित हो जाती हैं।

ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च ॥ ४९ ॥

सूत्रार्थ - उस (इन्द्रियजय) से शरीर को मन के सदृश गति, शरीर के बिना भी विषयों का अनुभव करने की शक्ति और प्रकृति पर विजय – ये तीनों सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

व्याख्या- जैसे भूतजय से कायसम्पत् की प्राप्ति होती है, वैसे ही इन्द्रियजय से उपर्युक्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं

सर्वज्ञातृत्वं च ॥५०॥

सूत्रार्थ - सत्त्व (बुद्धि) और पुरुष के परस्पर पार्थक्य-ज्ञान में संयम करने से सब वस्तुओं पर अधिष्ठातृत्व और सर्वज्ञातृत्व प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या - जब हम प्रकृति पर जय प्राप्त कर लेते हैं तथा पुरुष और प्रकृति का भेद अनुभव कर लेते हैं अर्थात् जान लेते हैं कि पुरुष अविनाशी, पवित्र और पूर्णस्वरूप है, तब सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है

तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् ॥५१॥

सूत्रार्थ - इन सब (सिद्धियों) को भी त्याग देने से दोष का बीज नष्ट हो जाता है, और उससे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।

व्याख्या-तब योगी कैवल्य की प्राप्ति कर लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। जब वे सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता इन दोनों को भी त्याग देते हैं, तब वे सारे प्रलोभनों का, यहाँ तक कि देवताओं द्वारा दिये गये प्रलोभनों का भी, अतिक्रमण कर सकते हैं। जब योगी इन सब अद्भुत शक्तियों को प्राप्त करके भी उन्हें त्याग देते हैं, तब वे चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में ये शक्तियाँ हैं क्या ? - केवल अभिव्यक्तियाँ। स्वप्न की अपेक्षा उनमें भला कौनसी श्रेष्ठता है ? सर्वशक्तिमत्ता भी तो एक स्वप्न है। वह केवल मन पर निर्भर रहती है। जब तक मन का अस्तित्व है, तभी तक सर्वशक्तिमत्ता सम्भव हो सकती है; पर हमारा लक्ष्य तो मन के भी अतीत है।

स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् ॥ ५२ ॥ 

सूत्रार्थ - देवताओं द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उसमें आसक्त होना या आनन्द का अनुभव करना उचित नहीं है, क्योंकि उससे पुनः अनिष्ट होना सम्भव है।

व्याख्या - और भी बहुतसे विघ्न है। देवता आदि योगी को प्रलोभित करने आते हैं। वे नहीं चाहते कि कोई पूर्ण रूप से मुक्त हो। हम लोग जैसे ईर्ष्यापरायण हैं, वे भी वैसे ही हैं, वरन् कभी कभी तो वे इस बात में हम लोगों से भी आगे बढ़ जाते हैं। वे डरते हैं कि कहीं वे अपने पद को न खो बैठें। जो योगी पूर्ण सिद्ध नहीं होते, वे शरीर त्यागने के बाद देवता बन जाते हैं। वे सीधे रास्ते को छोड़कर मानो बगल के एक रास्ते से चले जाते हैं और इन सब शक्तियों को प्राप्त करते हैं। उनको फिर से जन्म लेना पड़ता है। पर जो इतने शक्तिसम्पन्न हैं कि इन प्रलोभनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वे सीधे उस लक्ष्यस्थल पर पहुँच जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं। 

क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ॥ ५३ ॥

सूत्रार्थ - क्षण और उसके क्रम में संयम करने से विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है। 

व्याख्या - देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर उपाय क्या है? उपाय है विवेक-सदसत्-विचार। इस विवेकज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दिया गया है। 'क्षण' का अर्थ है काल का सूक्ष्मतम अंश । एक क्षण होगा- पहले जो क्षण बीत चुका हैं, और उसके बाद जो क्षण प्रकट -इस लगातार सिलसिले को 'क्रम' कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिए क्षण और उसके क्रम में संयम करना होगा

जातिलक्षणदेशैरन्यताऽ नवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः ॥ ५४ ॥ 

सूत्रार्थ - जाति, लक्षण और देश-भेद से जिन वस्तुओं का भेद न किये जा सकने के कारण जो तुल्य प्रतीत होती हैं, उनको भी इस उपर्युक्त संयम द्वारा अलग करके जाना जा सकता है।

व्याख्या - हम जो दुःख भोगते हैं, वह अज्ञान से, सत्य और असत्य के अविवेक से उत्पन्न होता है। हम सभी बुरे को भला समझते हैं और स्वप्न को वास्तविक। एकमात्र आत्मा ही सत्य है, पर हम यह भूल गये हैं। शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है, पर हम सोचते हैं कि हम शरीर हैं। यह अविवेक ही दुःख का कारण है। और यह अविवेक अविद्या से उत्पन्न होता है। विवेक के उदय के साथ ही बल भी आता है, और तभी हम इस शरीर स्वर्ग तथा देवता आदि की कल्पनाओं को त्यागने में समर्थ होते हैं। जाति, लक्षण और स्थान के द्वारा हम वस्तुओं को अलग करते हैं। उदाहरणार्थ, एक गाय की बात ले लो। गाय का कुत्ते से जो भेद है, वह जातिगत है। और दो गायों में परस्पर भेद हम कैसे करते हैं ? लक्षण के द्वारा। 

फिर दो वस्तुएँ सर्वथा समान होने पर हम स्थानगत भेद के द्वारा उन्हें अलग कर सकते हैं। किन्तु जब वस्तुएँ ऐसी मिली हुई रहती हैं कि अलग करने के ये सब विभिन्न उपाय बिलकुल काम में नहीं आते, तब उपर्युक्त साधनप्रणाली के अभ्यास से लब्ध विवेक के बल से हम उन्हें पृथक् कर सकते हैं। योगियों का उच्चतम दर्शन इस सत्य पर आधारित है कि पुरुष शुद्धस्वभाव एवं नित्य पूर्णस्वरूप है और संसार में वही एकमात्र अयौगिक वस्तु है। शरीर और मन तो यौगिक वस्तुएँ हैं, फिर भी हम सदैव अपने आपको उनके साथ मिला दे रहे हैं। सब से बड़ी गलती यही है कि यह पार्थक्य-ज्ञान नष्ट हो गया है। जब यह विवेकशक्ति प्राप्त होती है, तब मनुष्य देख पाता है कि जगत् की सारी वस्तुएँ, वे फिर बहिर्जगत् की हों, या अन्तर्जगत् की, यौगिक पदार्थ हैं. अतएव वे पुरुष नहीं हो सकतीं।

तारकं सर्वविषय सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ॥ ५५ ॥

सूत्रार्थ - जो विवेकज्ञान समस्त वस्तुओं को तथा वस्तुओं की सब प्रकार की अवस्थाओं को एक साथ ग्रहण कर सकता है, उसे तारकज्ञान कहते हैं।

व्याख्या - इस ज्ञान का नाम तारक इसीलिए है कि यह योगी का जन्ममृत्यु के सागर से तारण करता है। सारी प्रकृति की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य हैं। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। 

सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ॥ ५६ ॥

सूत्रार्थ- जब सत्त्व (बुद्धि) और पुरुष इन दोनों की समानभाव से शुद्धि हो जाती है, तब कैवल्य की प्राप्ति होती है।

व्याख्या - कैवल्य ही हमारा लक्ष्य है। इस लक्ष्यस्थल पर पहुँचने पर आत्मा जान लेती है कि वह सर्वदा ही अकेली थी, उसे सुखी करने के लिए अन्य किसी की भी आवश्यकता न थी। जब तक अपने को सुखी करने के लिए हमें अन्य किसी की आवश्यकता होती है, तब तक हम गुलाम हैं। जब पुरुष जान लेता है कि वह मुक्तस्वभाव है और उसको पूर्ण करने के लिए अन्य किसी की भी जरूरत नहीं, जब वह यह जान लेता है कि यह प्रकृति क्षणिक है, इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है, तभी वह कैवल्य प्राप्त होता है। जब आत्मा जान लेती है कि जगत् छोटे से छोटे परमाणु से लेकर देवता तक किसी पर उसके निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है, तब आत्मा की उस अवस्था को कैवल्य और पूर्णता कहते हैं। जब शुद्धि और अशुद्धि दोनों से मिला हुआ सत्त्व अर्थात् बुद्धि, पुरुष के समान शुद्ध हो जाती है, तब यह कैवल्य प्राप्त हो जाता है, तब वह बुद्धि केवल निर्गुण, पवित्रस्वरूप पुरुष को प्रतिबिम्बित करती है।

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