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पतंजलि योगसूत्र [अध्याय दो] साधनपाद | YogSutra of Patanjali Chapter- 2

पतंजलि योगसूत्र द्वितीय अध्याय साधनपाद | Patanjali Yog Sutra Chapter- 2 Sadhanpad


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तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः ॥ १ ॥


सूत्रार्थ-तपस्या, अध्यात्मशास्त्रों के पठन-पाठन और ईश्वर में समस्त कर्मफलों के समर्पण को क्रियायोग कहते हैं।


व्याख्या- पिछले अध्याय में जिन सब समाधियों की बात कही गयी है, उन्हें प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। इसलिए हमें धीरे धीरे विभिन्न सोपानों में से होते हुए उन सब समाधियों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना होगा। इसके पहले सोपान को क्रियायोग कहते हैं। इसका शब्दार्थ है - कर्म के सहारे योग की ओर बढ़ना। हमारी देह मानो एक रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथि है और आत्मा रथी है। यह गृहस्वामी, यह राजा, यह मनुष्य की आत्मा रथ में सवार है। यदि घोड़े बड़े तेज हों और लगाम खिंची न रहे, यदि बुद्धिरूपी सारथी उन घोड़ों को संयत करना न जाने, तो रथ की दुर्दशा हो जाएगी। पर यदि इन्द्रियरूपी घोड़े अच्छी तरह से संयत रहें और मनरूपी लगाम बुद्धिरूपी सारथी के हाथों अच्छी तरह थमी रहे, तो वह रथ ठीक अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है। 


अब यह समझ में आ जाएगा कि इस तपस्या शब्द- का अर्थ क्या है। तपस्या शब्द का अर्थ है- इस शरीर और इन्द्रियों को चलाते समय लगाम अच्छी तरह थामे रहना, उन्हें अपनी इच्छानुसार काम न करने देकर अपने वश में किये रहना। उसके बाद है स्वाध्याय या पठन-अध्ययन। यहाँ पठन का तात्पर्य क्या है? नाटक, उपन्यास या कहानी की पुस्तक का पठन नहीं, वरन् उन ग्रन्थों का पठन, जो यह शिक्षा देते हैं कि आत्मा की मुक्ति कैसे होती है। फिर स्वाध्याय से तर्क या वाद-विवाद की पुस्तक का पठन नहीं समझना चाहिए। जो योगी हैं, वे तो वाद-विवाद करके तृप्त हो चुके रहते हैं; वाद-विवाद में उनकी कोई रुचि नहीं रह जाती। वे पठन-अध्ययन करते हैं, केवल अपनी धारणाओं को दृढ़ करने के लिए। शास्त्रीय ज्ञान दो प्रकार के हैं। एक है वाद (जो तर्क -युक्ति और विचारात्मक है), और दूसरा है सिद्धान्त (मीमांसात्मक)। 


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अज्ञानावस्था में मनुष्य प्रथमोक्त प्रकार के शास्त्रीय ज्ञान के अनुशीलन में प्रवृत्त होता है; वह तर्कयुद्ध के समान है - प्रत्येक वस्तु के सब पहलू देखकर विचार करना; इस विचार का अन्त होने पर वह किसी एक मीमांसा या सिद्धान्त पर पहुँचता है। किन्तु केवल सिद्धान्त पर पहुँचने से ही नहीं हो जाता। इस सिद्धान्त के बारे में मन की धारणा दृढ़ करना होगा। शास्त्र तो अनन्त हैं और समय अल्प है; अतः ज्ञानप्राप्ति का रहस्य है - सब वस्तुओं का सारभाग ग्रहण करना । उस सारभाग को ग्रहण करो और उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करो। भारत में एक पुरानी किंवदन्ती है कि यदि तुम किसी राजहंस के सामने एक कटोरा भर पानी मिला हुआ दूध रख दो, तो वह दूध पी लेगा और पानी छोड़ देगा। उसी प्रकार ज्ञान का जो अंश आवश्यक है, उसे लेकर असार भाग को हमें फेंक देना चाहिए। पहले-पहल बुद्धि की कसरत आवश्यक होती है। 


अन्धे के समान कुछ भी ले लेने से नहीं बनता। पर जो योगी हैं, वे इस युक्ति - तर्क की अवस्था को पार करके एक ऐसे सिद्धान्त पर पहुँच चुके हैं, जो पर्वत के समान अचल-अटल है। इसके बाद उनका सारा प्रयत्न उस सिद्धान्त के दृढ़ करने में होता है। वे कहते हैं, वाद-विवाद मत करो; यदि कोई तुम्हें वाद-विवाद करने को बाध्य करे, तो चुप रहो। किसी वाद-विवाद का जवाब न देकर शान्तभाव से वहाँ से चले जाओ; क्योंकि वाद-विवाद द्वारा मन केवल चंचल ही होता है। वाद-विवाद की आवश्यकता थी केवल बुद्धि को तेज करने के लिए; जब वह सम्पन्न हो चुका, तब और उसे बेकार चंचल करने की क्या जरूरत ? बुद्धि तो एक दुर्बल यन्त्र मात्र है, वह हमें केवल इन्द्रियों के घेरे में रहनेवाला ज्ञान दे सकती है। 


पर योगी इन्द्रियों के परे जाना चाहते हैं, अतएव उनके लिए बुद्धि चलाने की और कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। उन्हें इस विषय में पक्का विश्वास हो चुका है, अतएव वे वाद-विवाद नहीं करते, चुपचाप रहते हैं; क्योंकि वाद-विवाद करने से मन समता से च्युत हो जाता है, चित्त में एक हलचल मच जाती है; और चित्त की ऐसी हलचल उनके लिए एक विघ्न ही है। यह सब वाद-विवाद, युक्ति-तर्क केवल प्रारम्भिक अवस्था के लिए है। इस युक्ति-तर्क के अतीत और भी उच्चतर तत्त्वसमूह हैं। सारे जीवन भर केवल विद्यालय के बच्चों के समान वाद-विवाद या तर्क-वितर्क समिति लेकर ही रहना पर्याप्त नहीं है। ईश्वर में कर्मफल अर्पित करने का तात्पर्य है-कर्म के लिए स्वयं कोई प्रशंसा या निन्दा न लेकर इन दोनों को ही ईश्वर को समर्पित कर देना और शान्ति से रहना



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समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ॥ २ ॥ 


सूत्रार्थ- समाधि की सिद्धि के लिए और क्लेशजनक विघ्नों को क्षीण करने के लिए (इस क्रियायोग की आवश्यकता है) ।


व्याख्या - हममें से अनेकों ने मन को लाड़-प्यार के लड़के के समान कर डाला है। वह जो कुछ चाहता है, उसे वही दे दिया करते हैं। इसीलिए क्रियायोग का सतत अभ्यास आवश्यक है, जिससे मन को संयत करके अपने वश में लाया जा सके। इस संयम के अभाव में ही योग के सारे विघ्न उपस्थित होते हैं और उनसे फिर क्लेश की उत्पत्ति होती है। उन्हें दूर करने का उपाय है-क्रियायोग द्वारा मन को वशीभूत कर लेना, उसे अपना कार्य न करने देना।


अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः ॥ ३॥


सूत्रार्थ- अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता) - (ये पाँचों) क्लेश हैं।


व्याख्या- ये ही पंचक्लेश हैं, ये पाँच बन्धनों के समान हमें इस संसार में बाँध रखते हैं। इनमें से अविद्या ही कारण है और शेष चार क्लेश इसके कार्य हैं। यह अविद्या ही हमारे दुःख का एकमात्र कारण है। भला और किसकी शक्ति है, जो हमें इस प्रकार दुःख में रख सके ? आत्मा तो नित्य आनन्दस्वरूप है। उसे अज्ञान-भ्रम-माया के सिवा और कौन दुःखी कर सकता है ? आत्मा के ये समस्त दुःख केवल भ्रम मात्र हैं।


अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ॥ ४ ॥ 


सूत्रार्थ- अविद्या ही उन शेष चार का उत्पादक क्षेत्रस्वरूप है। ये कभी लीनभाव से, कभी सूक्ष्मभाव से, कभी अन्य वृत्ति के द्वारा विच्छित्र अर्थात् अभिभूत होकर और कभी प्रकाशित होकर रहते हैं।


व्याख्या- अविद्या ही अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश का कारण है। ये संस्कारसमूह विभिन्न मनुष्यों के मन विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं। कभी कभी वे प्रसुप्त रूप से रहते हैं। तुम लोग अनेक समय 'शिशु के समान 'भोला' - यह वाक्य सुनते हो; परन्तु सम्भव है, इस शिशु के भीतर ही देवता या असुर का भाव विद्यमान हो, जो धीरे धीरे समय पाकर प्रकाशित होगा। योगी में पूर्व कर्मों के फलस्वरूप ये संस्कार सूक्ष्म भाव से रहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था में रहते हैं और योगी उन्हें दबाकर रख सकते हैं। 


उनमें उन संस्कारों को प्रकाशित न होने देने की शक्ति रहती है। कभी कभी कुछ प्रबल संस्कार अन्य कुछ संस्कारों को कुछ समय तक के लिए दबाकर रखते हैं, किन्तु ज्योंही वह दबा रखनेवाला कारण चला जाता है, त्योंही वे पहले के संस्कार फिर से उठ जाते हैं। इस अवस्था को विच्छिन्न कहते हैं। अन्तिम अवस्था का नाम है उदार । इस अवस्था में संस्कारसमूह अनुकूल परिस्थितियों का सहारा पाकर बड़े प्रबल भाव से शुभ या अशुभ रूप से कार्य करते रहते हैं।


अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या ॥ ५ ॥ 


सूत्रार्थ- अनित्य, अपवित्र, दुःखकर और आत्मा से भिन्न पदार्थ में (क्रमशः) नित्य, पवित्र, सुखकर और आत्मा की प्रतीति 'अविद्या' है।


व्याख्या- इन समस्त संस्कारों का एकमात्र कारण है अविद्या । हमें पहले यह जान लेना होगा कि यह अविद्या क्या है। हम सभी सोचते हैं, "मैं शरीर हूँ-शुद्ध, ज्योतिर्मय, नित्य, आनन्दस्वरूप आत्मा नहीं।" यह अविद्या है। हम लोग मनुष्य को शरीर के रूप में ही देखते और जानते हैं। यह महान् भ्रम है।


दृग्दर्शन शक्त्योरेकात्मतैवास्मिता ॥ ६ ॥


सूत्रार्थ- वृक्-शक्ति और दर्शनशक्ति का एकीभाव ही अस्मिता है। 


व्याख्या– आत्मा ही यथार्थ द्रष्टा है; वह शुद्ध, नित्य पवित्र, अनन्त और अमर है। और दर्शनशक्ति अर्थात् उसके व्यवहार में आनेवाले यन्त्र कौन-कौनसे हैं? चित्त, बुद्धि अर्थात् निश्चयात्मिका वृत्ति, मन और इन्द्रियाँ - ये उसके यन्त्र हैं, ये सब बाह्य जगत् को देखने के लिए उसके यन्त्रस्वरूप हैं और उसकी इन सब के साथ एकरूपता को अस्मिताप कहते हैं। हम कहा करते हैं, 'मैं मन हूँ', क्रुद्ध हुआ हूँ', 'मैं सुखी हूँ । पर सोचो तो सही, हम कैसे क्रुद्ध हो सकते हैं, कैसे किसी के प्रति घृणा कर सकते हैं ? आत्मा के साथ हमें अपने को अभिन्न समझना चाहिए। 


आत्मा का तो कभी परिणाम नहीं होता। यदि आत्मा अपरिणामी हो, तो वह कैसे इस क्षण सुखी, और दूसरे ही क्षण दुःखी हो सकती है ? वह निराकार, अनन्त और सर्वव्यापी है। उसे कौन परिणामी बना सकता है ? आत्मा सर्व प्रकार के नियमों के परे है। उसे कौन विकृत कर सकता है ? संसार में कोई भी, आत्मा पर किसी प्रकार का कार्य नहीं कर सकता। तो भी हम लोग अज्ञानवश अपने आप को मनोवृत्ति के साथ एकरूप कर लेते हैं और सोचा करते हैं कि हम सुख या दुःख का अनुभव कर रहे हैं।


सुखानुशयी रागः||७||


सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ति सुख के आधार पर रहती है, उसे राग कहते हैं। 


व्याख्या- हम किसी किसी विषय में सुख पाते हैं। जिसमें हम सुख पाते हैं, मन एक प्रवाह के समान उसकी ओर प्रवाहित होता है। सुखकेन्द्र की ओर दौड़नेवाले मन के इस प्रवाह को ही राग या आसक्ति कहते हैं। हम जिस विषय में सुख नहीं पाते, उधर हमारा मन कभी भी आकृष्ट नहीं होता। हम लोग कभी कभी नाना प्रकार की विचित्र चीजों में सुख पाते हैं, तो भी राग की जो परिभाषा दी गयी है, वह सर्वत्र ही लागू होती है। हम जहा सुख पाते हैं वहीं आकृष्ट हो जाते हैं।


दुःखानुशयी द्वेषः ॥ ८ ॥


सूत्रार्थ- जो मनोवृत्ती दुःख के आधार पर रहती है, उसे द्वेष कहते हैं। 


व्याख्या - जिसमें हम दुःख पाते हैं. उसे तत्क्षण त्याग देने का प्रयत्न करते हैं।


स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः ॥ ९ ॥


सूत्रार्थ- जो (पहले के मृत्यु के अनुभवों से) स्वभावतः चला आ रहा है एवं जो विवेकशील पुरुषों में भी विद्यमान देखा जाता है, वह अभिनिवेश अर्थात् जीवन के प्रति ममता है।


व्याख्या - जीवन के प्रति यह ममता जीव मात्र में प्रकट रूप से देखी जाती है। इस पर भविष्य-जीवनसम्बन्धी सिद्धान्तों को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। मनुष्य ऐहिक जीवन से इतना प्यार करता है कि उसकी यह आकांक्षा रहती है कि वह भविष्य में भी जीवित रहे। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इस युक्ति का कोई विशेष मूल्य नहीं हैं - पर इसमें सब से आश्चर्यजनक बात तो यह है कि पाश्चात्यों के मतानुसार इस जीवन के प्रति ममता से भविष्य-जीवन की जो सम्भावना सूचित होती है, वह केवल मनुष्य के—बारे में सत्य है, दूसरे प्राणियों के बारे में नहीं। भारत में, पूर्वसंस्कार और पूर्वजीवन को प्रमाणित करने के लिए यह अभिनिवेश एक युक्तिस्वरूप हुआ है। 


मान लो, यदि समस्त ज्ञान हमें प्रत्यक्ष अनुभूति से प्राप्त हुए हों, तो यह निश्चित है कि हमने जिसका कभी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं किया, उसकी कल्पना भी कभी नहीं कर सकते, अथवा उसे समझ भी नहीं सकते।मुर्गी के बच्चे अण्डे में से बाहर आते ही दाना चुगना आरम्भ कर देते हैं। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि यदि कभी मुर्गी के द्वारा बतख का अण्डा सेया गया, तो बतख का बच्चा अण्डे में से बाहर आते ही पानी में चला जाता है, और उसकी मुर्गी-माँ इधर सोचती है कि शायद बच्चा पानी में डूब गया। यदि प्रत्यक्ष-अनुभूति ही ज्ञान का एकमात्र उपाय हो, तो इन मुर्गी के बच्चे ने कहाँ से दाना चुगना सीखा? अथवा बतख के इन बच्चों ने यह कैसे जाना कि पानी उनका स्वाभाविक स्थान है? यदि तुम कहो कि वह जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) मात्र है, तो उससे कुछ भी बोध नहीं होता; वह तो केवल एक शब्द का प्रयोग मात्र हुआ - वह कोई स्पष्टीकरण तो है नहीं। 


यह जन्मजात प्रवृत्ति क्या है ? हम लोगों में भी ऐसी बहुतसी जन्मजात-प्रवृत्तियाँ हैं। उदाहरणार्थ, तुममें से अनेक महिलाएँ पियानो बजाती हैं; तुमको अवश्य स्मरण होगा, जब तुमने पहले-पहल पियानो सीखना आरम्भ किया था, तब तुमको सफेद और काले परदों पर एक के बाद दूसरे पर कितनी सावधानी के साथ उँगलियाँ रखनी पड़ती थीं, किन्तु कुछ वर्षों अभ्यास के बाद अब शायद तुम किसी मित्र के साथ बातचीत भी करती रहती हो और साथ ही तुम्हारी उँगलियाँ भी पियानो पर अपने आप चलती रहती हैं। अर्थात् वह अब तुम लोगों की जन्मजात - प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गया है - वह तुम लोगों के लिए अब पूर्ण रूप से स्वाभाविक हो गया है। हम जो अन्य कार्य करते हैं, उनके बारे में भी ठीक ऐसा ही है। 


अभ्यास से वह सब जन्मजात प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो जाता है, स्वाभाविक हो जाता है। और जहाँ तक हम जानते हैं, आज जिन क्रियाओं को हम स्वाभाविक या जन्मजात - प्रवृत्तियों से उत्पन्न कहते हैं, वे सब पहले तर्कपूर्वक ज्ञान की क्रियाएँ थीं और अब निम्नभावापन्न होकर इस प्रकार स्वाभाविक हो पड़ी हैं। योगियों की भाषा में, जन्मजात - प्रवृत्ति तर्क की निम्नभावापन्न क्रमसंकुचित अवस्था मात्र है। तर्कजन्य ज्ञान क्रमसंकुचित होकर स्वाभाविक संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है। अतएव यह बात पूर्णरूपेण युक्तिसंगत है कि हम इस जगत् में जिसे जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह तर्कजन्य ज्ञान की संकुचित निम्नावस्था मात्र है। 


पर चूँकि यह तर्क प्रत्यक्ष-अनुभूति बिना नहीं हो सकता, इसलिए समस्त जन्मजात-प्रवृत्तियाँ पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। मुर्गी के बच्चे चील से डरते हैं, बतख के बच्चे पानी पसन्द करते हैं, ये दोनो पूर्व प्रत्यक्ष-अनुभूतियों के फल हैं। अब प्रश्न यह है कि यह अनुभूति जीवात्मा की है, अथवा केवल शरीर की ? बतख अभी जो कुछ अनुभव कर रही है, वह उस बतख के पूर्वजों की अनुभूति से आया है, अथवा वह उसकी अपनी प्रत्यक्ष- -अनुभूति है ? आधुनिक वैज्ञानिक कहते हैं, वह केवल उसके शरीर का धर्म है; पर योगी कहते हैं कि वह मन की अनुभूति है, जो शरीर के माध्यम से संचारित होकर आ रही है। इसी को पुनर्जन्मवाद कहते हैं।


हमने पहले देखा है कि हमारा समस्त ज्ञान- प्रत्यक्ष, तर्कजन्य या जन्मजात - एकमात्र प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप मार्ग के माध्यम से होकर ही आ सकता है; और जिसे हम जन्मजात - प्रवृत्ति कहते हैं, वह हमारी पूर्व क्ष - अनुभूति का फल है, वह पूर्वानुभूति ही आज अवनत होकर प्रत्यक्ष- जन्मजात-प्रवृत्ति के रूप में परिणत हो गयी है और यह जन्मजात-प्रवृत्ति फिर से तर्कजन्य ज्ञान में उन्नत हो जाती है। सारे संसार भर में यही क्रिया चल रही है। इसी पर भारत में पुनर्जन्मवाद की एक प्रधान युक्ति आधारित हुई है। पूर्वानुभूत बहुतसे भय के संस्कार कालान्तर में इस जीवन के प्रति ममता के रूप में परिणत हो जाते हैं। 


यही कारण है कि बालक बिलकुल बचपन से अपने आप डरता रहता है, क्योंकि उसके मन में दुःख का पूर्वानुभूतिजनित संस्कार विद्यमान है। अत्यन्त विद्वान् मनुष्यों में भी- जो जानते हैं कि यह शरीर एक दिन चला जाएगा, जो कहते हैं कि 'आत्मा की मृत्यु नहीं, हमारे तो सैकड़ों शरीर हैं, अतएव भय किस बात का'- ऐसे विद्वान् पुरुषों में भी, उनकी सारी विचारजनित धारणाओं के बावजूद हम इस जीवन के प्रति प्रगाढ़ ममता देखते हैं। जीवन के प्रति यह ममता कहाँ से आयी ? हमने देखा है कि यह हमारे लिए जन्मजात या स्वाभाविक हो गयी है। 


योगियों की दार्शनिक भाषा में कह सकते हैं कि वह संस्कार के रूप में परिणत हो गयी है। ये सारे संस्कार सूक्ष्म (तनू) और गुप्त (प्रसुप्त) होकर मन के भीतर मानो सोये हुए पड़े हैं। मृत्यु के ये सब पूर्व-अनुभव - वे सभी संस्कार जिन्हें हम जन्मजात-प्रवृत्ति कहते हैं - मानो अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि में पहुँच गये हैं। वे चित्त में ही वास करते हैं। वे वहाँ निष्क्रिय रूप से अवस्थान करते हों, ऐसी बात नहीं, वरन् भीतर ही भीतर कार्य करते रहते हैं।


स्थूल रूप में प्रकाशित चित्तवृत्तियों को हम समझ सकते हैं और उनका अनुभव कर सकते हैं; उनका दमन अधिक सुगमता से किया जा सकता है। पर इन सब सूक्ष्मतर संस्कारों का दमन कैसे होगा? उन्हें कैसे दबाया जाए? जब मैं क्रुद्ध होता हूँ, तब मेरा सारा मन मानो क्रोध की एक बड़ी तरंग में परिणत हो जाता है। मैं वह अनुभव कर सकता हूँ, उसे देख सकता हूँ, उसे मानो हाथ में लेकर हिला-डुला सकता हूँ, उसके साथ अनायास ही, जो इच्छा हो, वही कर सकता हूँ, उसके साथ लड़ाई कर सकता हूँ; पर यदि मैं मन के अत्यन्त गहरे प्रदेश में न जा सकूँ, तो कभी भी मैं उसे जड़ से उखाड़ने में सफल न हो सकूँगा। 


कोई मुझे दो कड़ी बातें सुना देता है, और मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा खून गरम होता जा रहा है। उसके और भी कुछ कहने पर मेरा खून उबल उठता है और मैं अपने आपे से बाहर हो जाता हूँ, क्रोधवृत्ति के साथ मानो अपने को एक कर लेता हूँ। जब उसने मुझे सुनाना आरम्भ किया था, उस समय मुझे अनुभव हो रहा था कि मुझमें क्रोध आ रहा है। उस समय क्रोध अलग था और मैं अलग; किन्तु जब मैं क्रुद्ध हो उठा, तो मैं ही मानो क्रोध में परिणत हो गया। इन वृत्तियों को जड़ से, उनकी सूक्ष्मावस्था से ही उखाड़ना पड़ेगा; वे हमारे ऊपर कार्य कर रही हैं, यह समझने के पहले ही उन पर संयम करना पड़ेगा। 


संसार के अधिकांश मनुष्यों को तो इन वृत्तियों की सूक्ष्मावस्था के अस्तित्व तक का पता नहीं। जिस अवस्था में ये वृत्तियाँ अवचेतन अर्थात् ज्ञान की निम्न भूमि से थोड़ी थोड़ी करके उदित होती हैं, उसी को वृत्ति की सूक्ष्मावस्था कहते हैं। जब किसी सरोवर की तली से एक बुलबुला ऊपर उठता है, तब हम उसे देख नहीं पाते: केवल इतना ही नहीं, जब वह सतह के बिलकुल नजदीक आ जाता है, तब भी हम उसे देख नहीं पाते; पर जब वह ऊपर उठकर फूट जाता है और एक लहर फैला देता है, तभी हम उसका अस्तित्व जान पाते हैं। 


इसी प्रकार जब हम इन वृत्तियों को उनकी सूक्ष्मावस्था में ही पकड़ सकेंगे, तभी हम उन्हें रोकने में समर्थ हो सकेंगे। उनके स्थूल रूप धारण करने के पहले ही यदि हम उनको पकड़ न सके, उनको संयत न कर सके, तो फिर किसी भी वासना पर सम्पूर्ण रूप से जय प्राप्त कर सकने की आशा नहीं। वासनाओं को संयत करने के लिए हमें उनके मूल में जाना पड़ेगा। तभी हम उनके बीज तक को दग्ध कर डालने में सफल होंगे। जैसे भुने हुए बीज जमीन में बो देने पर फिर अंकुरित नहीं होते, उसी प्रकार ये वासनाएँ भी फिर कभी उदित न होंगी।


ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः ॥ १०॥


सूत्रार्थ- उन सूक्ष्म संस्कारों को प्रतिप्रसव यानी प्रतिलोम परिणाम के द्वारा (अर्थात् अपनी कारणावस्था में विलीन करने के साधन द्वारा) नाश करना पड़ता है।


व्याख्या-ध्यान के द्वारा जब चित्तवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं, तब सूक्ष्म संस्कार बच रहते हैं। उनको नष्ट करने का उपाय क्या है ? उन्हें प्रतिप्रसव अर्थात् प्रतिलोम-परिणाम के द्वारा नष्ट करना पड़ता है। प्रतिलोम-परिणाम का अर्थ है - कार्य का कारण में लय । चित्तरूप कार्य जब समाधि के द्वारा अस्मितारूप अपने कारण में लीन हो जाता है, तभी चित्त के साथ ये सब संस्कार भी नष्ट हो जाते हैं। केवल ध्यान ये सब सूक्ष्म संस्कार नष्ट नहीं कर सकता।


ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ।। १ १॥


सूत्रार्थ- ध्यान के द्वारा उनकी (स्थूल) वृत्तियाँ नष्ट करनी पड़ती हैं। 


व्याख्या - ध्यान ही इन बड़ी तरंगों की उत्पत्ति को रोकने का एक महान उपाय है। ध्यान के द्वारा मन की ये वृत्तिरूप लहरें दब जाती हैं। यदि तुम दिन पर दिन, मास पर मास, वर्ष पर वर्ष, इस ध्यान का अभ्यास करो-जब तक वह तुम्हारे स्वभाव में न भिद जाए, जब तक तुम्हारी इच्छा न करने पर भी वह ध्यान आप से आप आने लगे,–तो क्रोध, घृणा आदि वृत्तियाँ संयत हो जाएँगी।'


क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ॥ १२॥


सूत्रार्थ- ये सब पूर्वोक्त क्लेश ही कर्मसंस्कारों के समुदाय की जड़ हैं; वर्तमान या भविष्य में होनेवाले जीवन में ये फल प्रसव करते हैं। 


व्याख्या- कर्माशय का अर्थ है, समस्त संस्कारों की समष्टि। हम जो भी कार्य करते हैं, वह चित्तरूपी सरोवर में एक लहर उठा देता है। हम सोचते हैं कि इस काम के समाप्त होते ही वह लहर भी चली जाएगी; पर वास्तव में वैसा नहीं होता। वह तो बस, सूक्ष्म आकार भर धारण कर लेती है, पर रहती वहीं है। ज्योंही हम उस कार्य को स्मरण में लाने का प्रयत्न करते हैं, त्योंही वह फिर से उठ जाती है और लहररूप धारण कर लेती है। इससे यह स्पष्ट है कि वह मन .के ही भीतर छिपी हुई थी; यदि ऐसा न होता, तो स्मृति ही सम्भव न होती । 


तएव हर एक कार्य, हर एक विचार, वह चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ, मन के गहरे प्रदेश में जाकर सूक्ष्मभाव धारण कर लेता है और वहीं संचित रहता है। शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के विचार को क्लेश कहते हैं, क्योंकि योगियों के मतानुसार दोनों से ही अन्त में दुःख उत्पन्न होता है। इन्द्रियों से जो सुख मिलता है, वह अन्त में दुःख ही लाता है; क्योंकि भोग से और अधिक भोग की तृष्णा होती है और इसका अनिवार्य फल होता है - दुःख । मनुष्य की वासना का कोई अन्त नहीं; वह लगातार वासना पर वासना रचता जाता है, और जब ऐसी अवस्था में पहुँचता है, जहाँ उसकी वासना पूर्ण नहीं होती, तो फल होता है-दुःख । इसीलिए योगी शुभ या अशुभ समस्त संस्कारों की समष्टि को क्लेश कहते हैं; ये क्लेश आत्मा की मुक्ति में बाधक होते हैं।


हमारे सारे कार्यों के सूक्ष्म मूलस्वरूप संस्कारों के बारे में भी ऐसा ही समझना चाहिए। वे कारणस्वरूप होकर इहजीवन अथवा परजीवन में फल प्रसव करते हैं। विशेष स्थलों में ये संस्कार, विशेष प्रबल रहने के कारण बहुत शीघ्र अपना फल दे देते हैं; अत्युत्कट पुण्य या पाप कर्म इहजीवन में ही अपना फल सामने ला देता है। योगी कहते हैं कि जो मनुष्य इहजीवन में ही अत्यन्त प्रबल शुभ संस्कार उपार्जित कर सकते हैं, उन्हें मृत्यु तक बाट जोहने कीआवश्यकता नहीं होती, वे तो इसी जीवन में अपने शरीर को देवशरीर में परिणत कर सकते हैं। योगियों के ग्रन्थों में इस प्रकार के कई दृष्टान्तों का उल्लेख मिलता है।

 

ये व्यक्ति अपने शरीर के उपादान तक को बदल डालते हैं। ये लोग अपने शरीर के परमाणुओं को ऐसे नये ढंग से ठीक रच लेते हैं कि उनको फिर और कोई बीमारी नहीं होती, और हम लोग जिसे मृत्यु कहते हैं, वह भी उनके पास नहीं फटक सकती। ऐसी घटना न होने का तो कोई कारण नहीं है। शरीरशास्त्र के अनुसार भोजन का अर्थ है -सूर्य से शक्तिग्रहण। वह शक्ति पहले वनस्पति में प्रवेश करती है, उस वनस्पति को कोई पशु खा लेता है, फिर उस पशु को कोई मनुष्य। इसे वैज्ञानिक भाषा में व्यक्त करना हो, तो कहना पड़ेगा कि हमने सूर्य से कुछ शक्ति ग्रहण करके उसे अपने अंगीभूत कर लिया। 


यदि यही बात हो, तो इस शक्ति को अपने अन्दर लेने के लिए केवल एक ही तरीका क्यों रहना चाहिए? पौधे हमारी तरह शक्तिग्रहण नहीं करते; और हम जिस प्रकार शक्तिसंग्रह करते हैं, धरती उस प्रकार नहीं करती। पर तो भी सभी किसी न किसी प्रकार से शक्तिसंग्रह करते ही हैं। योगियों का कहना है कि वे केवल मन की शक्ति के द्वारा शक्तिसंग्रह कर सकते हैं। वे कहते हैं कि हम बिना किसी साधारण उपाय का अवलम्बन किये ही यथेच्छ शक्ति भीतर ले सकते हैं। जैसे एक मकड़ी अपने ही उपादान से जाला बनाकर उसमें बद्ध हो जाती है और जाले के तन्तुओं का सहारा लिये बिना कहीं नहीं जा सकती, उसी प्रकार हमने भी अपने ही उपादान से इस स्नायुजाल की सृष्टि की है और अब उस स्नायुमार्ग का बिना अवलम्बन किये कोई काम ही नहीं कर सकते। योगी कहते हैं, हम क्यों उसमें बद्ध हों ?


इस तत्त्व को और एक उदाहरण देकर समझाया जा सकता है। हम पृथ्वी के किसी भी भाग में विद्युत्-शक्ति भेज सकते हैं; पर उसके लिए हमें तार की जरूरत पड़ती है। किन्तु प्रकृति तो बिना तार के ही बड़े परिमाण में यह शक्ति भेजती रहती है। हम भी वैसा क्यों न कर सकेंगे ? हम चारों ओर मानस-विद्युत् भेज सकते हैं। हम जिसे मन कहते हैं, वह बहुत कुछ विद्युत्-शक्ति के ही सदृश है। स्नायु के भीतर जो तरल पदार्थ है, उसमें थोड़ी विद्युत्-शक्ति है, क्योंकि विद्युत् के समान उसके भी दोनों ओर दो विपरीत शक्तियाँ दिखाई पड़ती हैं, तथा विद्युत् के अन्यान्य सब धर्म उसमें भी देखे जाते हैं। इस विद्युत्-शक्ति को अभी हम केवल स्नायुओं में से ही प्रवाहित कर सकते हैं। 


पर प्रश्न यह है कि स्नायुओं की सहायता लिये बिना ही हम मानस - विद्युत् को क्यों नहीं प्रवाहित कर सकेंगे ? योगी कहते हैं, हाँ, यह पूरी तरह सम्भव है; और सम्भव ही नहीं, वरन् इसे कार्य में भी परिणत किया जा सकता है। और जब तुम इसमें कृतकार्य हो जाओगे, तब सारे संसार भर में अपनी इस शक्ति को परिचालित करने में समर्थ हो जाओगे। तब तुम किसी स्नायु-यन्त्र की सहायता लिये बिना ही किसी भी स्थान में, किसी भी शरीर द्वारा कार्य कर सकोगे। जब तक आत्मा इस स्नायु-यन्त्ररूप प्रणाली के भीतर से काम करती रहती है, हम कहते हैं कि मनुष्य जीवित है, और जब इन यन्त्रों का कार्य बन्द हो जाता है, तो कहते हैं कि मनुष्य मर गया। 


पर जब मनुष्य इस प्रकार के स्नायु-यन्त्र की सहायता से, या बिना उसकी सहायता के भी, कार्य करने में समर्थ हो जाता है, तब उसके लिए जन्म और मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता। संसार में जितने शरीर हैं, वे सब तन्मात्राओं से बने हुए हैं, उनमें भेद है केवल तन्मात्राओं के विन्यास की प्रणाली में । यदि तुम्हीं उस विन्यास के कर्ता हो, तो तुम इच्छानुसार शरीर की रचना कर सकते हो। यह शरीर तुम्हारे सिवाय और किसने बनाया है ? अन्न कौन खाता है? यदि कोई और तुम्हारे लिए भोजन करता रहे, तो तुम अधिक दिन जीवित न रहोगे। उस अन्न से रुधिर भी कौन तैयार करता है? अवश्य तुम्हीं । 


उस रुधिर को शुद्ध करके कौन धमनियों में प्रवाहित करता है ? तुम्हीं । हम शरीर के मालिक हैं और उसमें वास करते हैं। उसका किस प्रकार पुनर्गठन किया जाए, बस, इसी ज्ञान को हम खो बैठे हैं। हम स्वभाव से अवनत, भ्रष्ट हो गये हैं। हम शरीर के परमाणुओं की विन्यासप्रणाली भूल गये हैं। अतः आज हम जिसे यन्त्रवत् किये जा रहे हैं, उसी को अब जान-बूझकर करना होगा। हमीं तो मालिक हैं - कर्ता हैं, अतः हमीं को इस विन्यासप्रणाली को नियमित करना होगा। और जब हम इसमें सफल हो जाएँगे, तब अपनी इच्छानुसार शरीर का पुनर्गठन कर लेंगे, और तब हमारे लिए जन्म, मृत्यु, आधि-व्याधि कुछ भी न रह जाएगा।


सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः ॥ १३ ॥


सूत्रार्थ- ( मन में इस संस्काररूप) मूल के विद्यमान रहने तक उसका फल भोग (मनुष्य आदि विभिन्न) जाति, (भिन्न भिन्न) आयु और सुख-दुःख के भोग (के रूप में) होता रहता है।


व्याख्या - संस्काररूप जड़ अर्थात् कारण भीतर विद्यमान रहने के कारण वे ही व्यक्तभाव धारण कर फल के रूप में परिणत होते हैं। कारण का नाश होकर कार्य अर्थात् फल का उदय होता है, फिर कार्य सूक्ष्मभाव धारण कर बाद के कार्य का कारणस्वरूप होता है। वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है; बीज फिर बाद के वृक्ष की उत्पत्ति का कारण होता है। हम इस समय जो कुछ कर्म कर रहे हैं, वे समस्त पूर्वसंस्कार के फलस्वरूप हैं। ये ही कर्म फिर संस्कार के रूप में परिणत होकर भावी कार्य के कारण हो जाएँगे। बस, इसी प्रकार कार्य-कारण-प्रवाह चलता रहता है। इसीलिए यह सूत्र कहता है कि कारण विद्यमान रहने से उसका फल या कार्य अवश्यमेव होगा। 


यह फल पहले जाति के रूप में प्रकाशित होता है - कोई लोग मनुष्य होंगे, तो कोई देवता, कोई पशु, तो कोई असुर। फिर, जीवन में इस कर्म के विविध परिणाम होते हैं। एक मनुष्य पचास वर्ष जीवित रहता है, तो दूसरा सौ वर्ष, और कोई दो वर्ष के बाद ही चल बसता है। यह जो आयु की विभिन्नता है, वह पूर्व कर्म द्वारा ही नियमित होती है। फिर इसी प्रकार, किसी को देखने पर प्रतीत होता है कि मानो सुखभोग के लिए ही उसका जन्म हुआ है-यदि वह वन में भी चला जाए, तो वहाँ भी सुख मानो उसके पीछे पीछे जाता है। और कोई दूसरा व्यक्ति ऐसा होता है कि उसके पीछे दुःख मानो छाया के समान लगा रहता है। यह सब उनके अपने अपने पूर्व कर्मों का फल है। योगियों के मतानुसार पुण्यकर्म सुख लाते हैं और पापकर्म दुःख। जो मनुष्य कुकर्म करता है, वह क्लेश के रूप में अपने कर्म का फल अवश्य भोगता है।


तेह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ १४॥


सूत्रार्थ- वे (जाति, आयु और भोग) हर्ष और शोकरूप फल के देनेवाले होते हैं, क्योंकि उनके कारण हैं पुण्य और पाप कर्म।


परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ||१५||


सूत्रार्थ–परिणाम-काल में परिणाम (नतीजा) रूप जो दुःख है, भोग-काल में भोग में विघ्न होने की आशंकारूप जो दुःख है, अथवा सुख के संस्कार से उत्पन्न होनेवाला तृष्णारूप जो दुःख है-उस सब का जन्मदाता होने के कारण, तथा गुणवृत्तियों में अर्थात् सत्त्व, रज और तम में परस्पर विरोध होने के कारण विवेकी पुरुष के लिए सब दुःखरूप ही है।


व्याख्या- योगी कहते हैं कि जिनमें विवेकशक्ति है, जिनमें थोड़ीसी भी अन्तर्दृष्टि है, वे सुख और दुःख देनेवाली सर्वविध वस्तुओं के अन्तस्तल तक को देख लेते हैं और जान लेते हैं कि ये सुख और दुःख आपस में मानो गुँथे हुए हैं, एक ही दूसरे में परिणत हो जाता है और इनसे संसार में कोई भी अछूता नहीं रहता - ये सब के पास आते हैं। विवेकी पुरुष देखते हैं कि मनुष्य सारा जीवन मृगजल के पीछे दौड़ता रहता है और कभी अपनी वासनाओं को पूर्ण नहीं कर पाता। एक समय महाराज युधिष्ठिर ने कहा था, 'जीवन में सब से आश्चर्यजनक घटना तो यह है कि हम प्रतिक्षण प्राणियों को कालकवलित होते देखते हैं, फिर भी सोचते हैं कि हम कभी नहीं मरेंगे।' 


चारों ओर मूर्खों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमीं एकमात्र पण्डित हैं। चारों ओर सब प्रकार के अस्थायी अनुभवों से घिरे रहकर हम सोचते हैं कि हमारा प्यार ही एकमात्र स्थायी प्यार है। यह कैसे हो सकता है? प्यार भी स्वार्थ से भरा है। योगी कहते हैं, 'अन्त में हम देखेंगे कि दोस्तों का प्रेम, सन्तान का प्रेम, यहाँ तक कि पति-पत्नी का प्रेम भी धीरे धीरे क्षीण होकर नाश को प्राप्त हो जाता है।' नाश ही इस संसार का धर्म है - यह किसी भी वस्तु को अछूता नहीं रखता। जब मनुष्य संसार की समस्त वासनाओं में, यहाँ तक कि प्यार में भी निराश हो जाता है, तभी क्षण भर के लिए यह भाव स्फुरित होता है कि यह संसार भी कैसा भ्रम है, कैसा स्वप्न के समान है ! तभी वैराग्य की एक किरण उसके हृदय में फैलती है, तभी वह जगदतीत सत्ता की झलक पाता है। 


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इस संसार को छोड़ने पर ही संसारातीत तत्त्व हृदय में उद्भासित होता है; इस संसार के में आसक्त रहते तक यह कभी सम्भव नहीं होता। ऐसे कोई महात्मा नहीं सुख हुए, जिन्हें अपनी महानता को प्राप्त करने के लिए इन्द्रिय-सुख और भोग त्यागना न पड़ा हो। दुःख का कारण है - प्रकृति की विभिन्न शक्तियों का आपस में विरोध। प्रत्येक अपनी अपनी ओर खींचती है, और इस प्रकार स्थायी सुख असम्भव हो जाता है।


हेयं दुःखमनागतम् ॥ १६॥


सूत्रार्थ- जो दुःख अभी तक नहीं आया, उसका त्याग करना चाहिए। 


व्याख्या -कर्म का कुछ अंश हम पहले ही भोग चुके हैं, कुछ अंश हम वर्तमान में भोग रहे हैं, और शेष अंश भविष्य में फल प्रदान करेगा। हमने जिसका भोग कर लिया है, वह तो अब समाप्त हो चुका। हम वर्तमान में जिसका भोग कर रहे हैं, उसका भोग तो हमें करना ही पड़ेगा; केवल जो कर्म भविष्य में फल देने के लिए बच रहा है, उसी पर हम जय प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् उसका नाश कर सकते हैं। इसीलिए हमें अपनी पूरी शक्ति उस कर्म के नाश के लिए प्रयुक्त कर देनी चाहिए, जिसने अभी तक कोई फल पैदा नहीं किया है। संस्कारों पर विजय पाने के लिए उन्हें उनके कारणों में पर्यवसित करना होगा - पतंजलि के इस कथन का यही अभिप्राय है।


द्रष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः ॥ १७ ॥


सूत्रार्थ- यह दुःख जो हेय है, अर्थात् जिसका त्याग करना होगा, उसका कारण है द्रष्टा और दृश्य का संयोग।


व्याख्या- द्रष्टा कौन है? - मनुष्य की आत्मा-पुरुष । दृश्य क्या है ?-मन से लेकर स्थूल भूत तक सारी प्रकृति। इस पुरुष और मन के संयोग से ही समस्त सुख-दुःख उत्पन्न हुए हैं। तुम्हें याद होगा, इस योगदर्शन के मतानुसार पुरुष शुद्धस्वरूप है; ज्योंही वह प्रकृति के साथ संयुक्त होता है और प्रकृति में प्रतिबिम्बित होता है, त्योंही वह सुख अथवा दुःख का अनुभव करता हुआ प्रतीत होता है


प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् ॥ १८ ॥ 


सूत्रार्थ- प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, भूत और इन्द्रियाँ जिसका (प्रकट) स्वरूप है, (पुरुष के) भोग और मुक्ति के लिए ही जिसका प्रयोजन है, वह दृश्य है।


व्याख्या- दृश्य अर्थात् प्रकृति भूतों और इन्द्रियों से निर्मित है; भूत कहने से स्थूल, सूक्ष्म सब प्रकार के भूतों का बोध होता है, जो सारी प्रकृति का निर्माण करते है, और इन्द्रिय से आँख आदि समस्त इन्द्रियाँ तथा मन आदि का भी बोध होता है। उनके धर्म तीन प्रकार हैं; जैसे-प्रकाश, कार्य और स्थिति यानी जड़त्व; इन्हीं को दूसरे शब्दों में सत्त्व, रज और तम कहते हैं। समग्र प्रकृति का उद्देश्य क्या है ? यही कि पुरुष समस्त भोगों का अनुभव प्राप्त करे। पुरुष मानो अपने महान् ईश्वरीय भाव को भूल गया है। इस सम्बन्ध में एक बड़ी सुन्दर कहानी है:


किसी समय देवराज इन्द्र शूकर बनकर कीचड़ में रहते थे, उनके एक शूकरी थी - उस शूकरी से उनके बहुतसे बच्चे पैदा हुए थे। वे बड़े सुख से समय बिताते थे। कुछ देवता उनकी यह दुरवस्था देखकर उनके पास आकर बोले, "आप देवराज हैं, समस्त देवगण आपके शासन के अधीन हैं। फिर आप यहाँ क्यों हैं ?" परन्तु इन्द्र ने उत्तर दिया, “मैं बड़े मजे में हूँ। मुझे स्वर्ग की परवाह नहीं ; यह शूकरी और ये बच्चे जब तक हैं, तब तक स्वर्ग आदि कुछ भी नहीं चाहिए।” देवगण तो यह सुनकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये - उन्हें कुछ सूझ न पड़ा। कुछ दिनों बाद उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि वे एक के बाद एक सब बच्चों को मार डालेंगे। जब सभी बच्चे मार डाले गये, तो इन्द्र कातर होकर विलाप करने लगे। 


तब देवताओं ने इन्द्र की शूकर-देह को भी चीर डाला। तब तो इन्द्र उस शूकर-देह से बाहर होकर हँसने लगे और सोचने लगे, 'मैं भी कैसा भयंकर स्वप्न देख रहा था ! कहाँ मैं देवराज, और कहाँ इस शूकर-जन्म को ही एकमात्र जन्म समझ बैठा था; यही नहीं, वरन् सारा संसार शूकर- देह धारण करे, ऐसी कामना कर रहा था!' पुरुष भी बस,इसी प्रकार प्रकृति के साथ मिलकर भूल जाता है कि वह शुद्ध और अनन्तस्वरूप हैं। पुरुष को अस्तित्ववान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह स्वयं अस्तित्वस्वरूप है। आत्मा को ज्ञानवान् नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है। वह प्रेम नहीं करता, वह स्वयं प्रेमस्वरूप है। 


आत्मा को अस्तित्ववान्, ज्ञानवान् अथवा प्रेममय कहना सर्वथा भूल है। प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व पुरुष के गुण नहीं, वे तो उसका स्वरूप हैं। जब वे किसी वस्तु में प्रतिबिम्बित होते हैं, तब चाहो तो उन्हें उस वस्तु के गुण कह सकते हो। किन्तु वे पुरुष के गुण नहीं हैं, वे तो उस महान् आत्मा, उस अनन्त पुरुष का स्वरूप हैं, जिसका न जन्म है, न मृत्यु और जो अपनी महिमा में विराजमान है। किन्तु वह यहाँ तक स्वरूपभ्रष्ट हो गया है कि यदि तुम उसके पास जाकर कहो कि तुम शूकर नहीं हो, तो वह चिल्लाने लगता है और काटने दौड़ता है।


इस माया के बीच, इस स्वप्नमय जगत् के बीच हमारी भी ठीक वहीं दशा हो गयी है। यहाँ है केवल रोना, केवल दुःख, केवल हाहाकार! अजीब तमाशा है यहाँ का ! यहाँ सोने के कुछ गोले लुढ़का दिये जाते हैं और बस, सारा संसार उनके लिए पागलों के समान दौड़ पड़ता है। तुम कभी भी किसी नियम से बद्ध नहीं थे। प्रकृति का बन्धन तुम पर किसी काल में नहीं था। योगी तुम्हें यही शिक्षा देते हैं; धैर्यपूर्वक इसको सीखो । योगी यह दिखा देते हैं कि पुरुष किस प्रकार इस प्रकृति के साथ अपने को मिलाकर – अपने को मन और जगत् के साथ एकरूप करके अपने आप को दुःखी समझने लगता है। योगी यह भी कहते हैं कि अनुभव के माध्यम से ही इस दुःखमय संसार से छुटकारा पाने का उपाय है। 


ये सब अनुभव प्राप्त तो करना ही होगा, अतएव जितनी जल्दी वह कर लिया जाए, उतना ही शुभ है। हमने अपने आपको इस जाल में फँसा लिया है, हमें इसके बाहर आना होगा। हम स्वयं इस फन्दे में फँस गये हैं, और अब अपने ही प्रयत्न से उससे मुक्ति प्राप्त करनी पड़ेगी। अतएव, पति-पत्नी-सम्बन्धी, मित्रसम्बन्धी तथा और भी जो सब छोटी छोटी प्रेम की आकांक्षाएँ हैं, सभी का अनुभव पा लो । यदि अपना स्वरूप तुम्हें सदा याद रहे, तो तुम शीघ्र ही निर्विघ्न इसके पार हो जाओगे। यह कभी न भूलना कि यह अवस्था बिलकुल अल्प समय के लिए है और हमें इसके भीतर से बाध्य होकर जाना पड़ रहा है। 


भोग-सुख-दुःख का यह अनुभव ही - हमारा एकमात्र महान् शिक्षक है, लेकिन स्मरण रहे, ये सब केवल अनुभव मात्र हैं; वे क्रमशः हमें एक ऐसी अवस्था में ले जाते हैं, जहाँ संसार की समस्त वस्तुएँ बिलकुल तुच्छ हो जाती हैं। तब पुरुष विश्वव्यापी विराट् के रूप में प्रकाशित हो जाता है और तब यह सारा विश्व सिन्धु में एक बिन्दुसा प्रतीत होने लगता है और अपनी ही इस क्षुद्रता के कारण - इस शून्यता के कारण- न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। सुख-दुःख का भोग तो हमें करना ही पड़ेगा, पर स्मरण रहे, हम अपना चरम लक्ष्य कभी न भूलें


विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥ १९॥


सूत्रार्थ- विशेष (भूतेन्द्रिय), अविशेष (तन्मात्रा, अस्मिता), केवल चिह्नमात्र (महत्) और चिह्नशून्य (प्रकृति) - ये चार (सत्त्वादि) गुणों की अवस्थाएँ हैं।


व्याख्या- यह पहले कहा जा चुका है कि योगशास्त्र सांख्यदर्शन पर आधारित है; यहाँ पर फिर से सांख्यदर्शन के ब्रह्माण्डविज्ञान का स्मरण कर लेना आवश्यक है। सांख्य के अनुसार प्रकृति ही जगत् का निमित्त और उपादान कारण है। यह प्रकृति तीन प्रकार के उपादानों से निर्मित है-सत्त्व, रज और तम । तम पदार्थ केवल अन्धकारस्वरूप हैं; जो कुछ अज्ञानात्मक और जड़ या भारी है, सभी तमोमय है। रज क्रियाशक्ति है। और सत्त्व स्थिर एवं प्रकाशस्वभाव है। सृष्टि के पूर्व प्रकृति जिस अवस्था में रहती है, उसे अव्यक्त, अविशेष या अविभक्त कहते हैं; इसका तात्पर्य यह कि इस अवस्था में नाम-रूप का कोई भेद नहीं रहता, इस अवस्था में ये तीनों पदार्थ पूर्ण साम्यभाव से रहते हैं। 


उसके बाद जब यह साम्यावस्था नष्ट होकर वैषम्यावस्था आती है, तब ये तीनों उपादान अलग अलग रूप से परस्पर मिश्रित होते रहते हैं और उसका फल है यह जगत्। प्रत्येक मनुष्य में भी ये तीन उपादान विद्यमान हैं। जब सत्त्व प्रबल होता है, तब ज्ञान का उदय होता है; रज प्रबल होने पर क्रिया की वृद्धि होती है; और तम प्रबल होने पर अन्धकार, आलस्य और अज्ञान आते हैं। सांख्य के अनुसार, त्रिगुणमयी प्रकृति का सर्वोच्च प्रकाश है महत् या बुद्धितत्त्व - उसे सर्वव्यापी या सार्वजनीन बुद्धितत्त्व कहते हैं। जिसका प्रत्येक मानवबुद्धि एक अंश मात्र है। सांख्य मनोविज्ञान के अनुसार, मन और बुद्धि में विशेष भेद है। 


मन का काम है केवल विषय के आघात से उत्पन्न संवेदनाओं को भीतर ले जाकर एकत्र करना और उन्हें बुद्धि अर्थात् व्यष्टि या व्यक्तिगत महत् के पास पहुँचा देना। बुद्धि उन सब विषयों का निश्चय करती है। महत् से अहंतत्त्व और अहंतत्त्व से सूक्ष्म भूतों की उत्पत्ति होती है। ये सूक्ष्म भूत फिर परस्पर मिलकर इन बाहरी स्थूल भूतों में परिणत होते हैं; उसी से इस स्थूल जगत् की उत्पत्ति होती है। सांख्यदर्शन का मत है कि बुद्धि से लेकर पत्थर के एक टुकड़े तक सभी एक ही पदार्थ से उत्पन्न हुए हैं, उनमें जो भेद है, वह केवल उनकी सूक्ष्मता और स्थूलता में ही है। 


सूक्ष्म कारण है और स्थूल कार्य। सांख्यदर्शन के अनुसार, पुरुष समग्र प्रकृति के परे है, वह जड़ नहीं है। पुरुष बुद्धि, मन, तन्मात्रा या स्थूल भूत, इनमें से किसी के भी सदृश नहीं है। वह सर्वथा अलग है, उसका स्वभाव सम्पूर्णतः भिन्न है। इससे वे यह सिद्धान्त स्थिर करते हैं कि पुरुष को अवश्य मृत्युरहित, अजर और अमर होना चाहिए, क्योंकि वह किसी प्रकार संघात का परिणाम नहीं है। और जो किसी प्रकार संघात का परिणाम नहीं है, उसका कभी नाश भी नहीं हो सकता। ये पुरुष या आत्मा असंख्य हैं।


अब हम इस सूत्र का तात्पर्य कि गुणों की विशेष, अविशेष, केवल चिह्नमात्र और चिह्नशून्य – ये चार अवस्थाएँ हैं, समझ सकेंगे। 'विशेष' शब्द स्थूल भूतों को लक्ष्य करता है - जिनकी हम इन्द्रियों से उपलब्धि कर सकते हैं।'अविशेष' का अर्थ है सूक्ष्म भूत-तन्मात्रा; इन तन्मात्राओं की उपलब्धि साधारण मनुष्य नहीं कर सकते। किन्तु पतंजलि कहते हैं, 'यदि तुम योग का अभ्यास करो, तो कुछ दिनों बाद तुम्हारी अनुभव-शक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी की तुम सचमुच तन्मात्राओं को भी देख सकोगे।' तुम लोगों ने सुना होगा कि हरएक मनुष्य की अपनी एक प्रकार की ज्योति होती है, प्रत्येक प्राणी में से एक प्रकार का प्रकाश बाहर निकलता रहता है। 


पतंजलि कहते हैं, योगी ही उसे देखने में समर्थ होते हैं। हममें से सभी उसे नहीं देख पाते; फिर भी जिस प्रकार फूल में से सदैव फूल की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुस्वरूप तन्मात्राएँ बाहर निकलती रहती हैं, जिनके द्वारा हम उसकी गन्ध ले सकते हैं, उसी प्रकार हमारे शरीर से भी ये तन्मात्राएँ सतत निकल रही हैं। प्रतिदिन हमारे शरीर से शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्तिराशि बाहर निकलती रहती है। अतएव हम जहाँ भी जाएँगे, वहीं वातावरण इन तन्मात्राओं से पूर्ण रहेगा। इसका असल रहस्य न जानते हुए भी, इसी से मनुष्य के मन में अनजाने मन्दिर, गिरजा आदि बनाने का भाव आया है। भगवान् को भजने के लिए मन्दिर बनाने की क्या आवश्यकता थी? क्यों, कहीं भी तो ईश्वर की उपासना की जा सकती थी। 


फिर यह सब मन्दिर आदि क्यों ? इसका कारण यह है कि स्वयं इस रहस्य को न जानने पर भी, मनुष्य के मन में स्वाभाविक रूप से ऐसा उठा था कि जहाँ पर लोग ईश्वर की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है। लोग प्रतिदिन वहाँ जाया करते हैं; और मनुष्य जितना ही वहाँ आते-जाते हैं, उतना ही वे पवित्र होते जाते हैं और साथ ही वह स्थान भी अधिकाधिक पवित्र होता जाता है। यदि किसी मनुष्य के मन में उतना सत्त्वगुण नहीं है, और यदि वह भी वहाँ जाए, तो वह स्थान उस पर भी अपना असर डालेगा और उसके अन्दर सत्त्वगुण का उद्रेक कर देगा। अब हम समझ सकेंगे किं मन्दिर और तीर्थ आदि इतने पवित्र क्यों माने जाते हैं। पर यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि साधु व्यक्तियों के समागम के ऊपर ही उस स्थान की पवित्रता निर्भर रहती है। किन्तु सारी गड़बड़ी तो यही है कि मनुष्य उसका मूल उद्देश्य भूल जाता है और भूलकर गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहता है। 


पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र बनाते हैं, उसके बाद उस स्थान की पवित्रता स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है। यदि उस स्थान में सदा असाधु व्यक्तियों का ही आवागमन रहे, तो वह स्थान अन्य स्थानों के समान ही अपवित्र बन जाएगा। इमारत के गुण से नहीं, वरन् मनुष्य के गुण से ही मन्दिर पवित्र माना जाता है, पर इसी को हम सदा भूल जाते हैं। इसीलिए अधिक सत्त्वगुणसम्पन्न साधु-सन्त चारों ओर यह सत्त्वगुण बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रात-दिन प्रबल प्रभाव डाल सकते हैं। मनुष्य यहाँ तक पवित्र हो सकता है कि उसकी वह पवित्रता मानो बिलकुल मूर्त हो जाती है और जो कोई व्यक्ति उस साधु पुरुष के संस्पर्श में आता है, वही पवित्र हो जाता है।


अब देखें, ‘चिह्नमात्र' का अर्थ क्या है। चिह्नमात्र कहने से बुद्धि (महत्तत्त्व) का बोध होता है; वह प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति है; उसी से दूसरी सब वस्तुएँ अभिव्यक्त हुई हैं। गुणों की अन्तिम अवस्था का नाम है 'अलिंग' या चिह्नशून्य । यहीं पर आधुनिक विज्ञान और समस्त धर्मों में एक भारी अन्तर देखा जाता है। प्रत्येक धर्म में यह एक साधारण सत्य देखने में आता है। कि यह जगत् चैतन्यशक्ति से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर हमारे समान कोई व्यक्तिविशेष है या नहीं, यह विचार छोड़कर केवल मनोविज्ञान की दृष्टि से ईश्वरवाद का तात्पर्य यह है कि चैतन्य ही सृष्टि की आदि वस्तु है; उसी से स्थूल भूत का प्रकाश हुआ है। 


किन्तु आधुनिक दार्शनिकगण कहते हैं कि चैतन्य सृष्टि की आखिरी वस्तु है। अर्थात् उनका मत यह है कि अचेतन जड़ वस्तुएँ धीरे धीरे प्राणी रूप में परिणत हुई हैं, ये प्राणी क्रमशः उन्नत होते होते मनुष्यरूप धारण करते हैं। वे कहते हैं, यह बात नहीं है कि जगत् की सब वस्तुएँ चैतन्य से प्रसूत हुई हैं, वरन् चैतन्य ही सृष्टि की आखिरी वस्तु है। यद्यपि धर्म एवं विज्ञान के सिद्धान्त इस प्रकार आपस में ऊपर से विरुद्ध प्रतीत होते हैं, तथापि इन दोनों सिद्धान्तों को ही सत्य कहा जा सकता है। एक अनन्त शृंखला या श्रेणी लो, जैसे क-ख-क-ख - क ख आदि; अब प्रश्न यह है कि इसमें ‘क’ पहले है या 'ख' ? यदि तुम इस शृंखला को क-ख क्रम से लो, तो ‘क' को प्रथम कहना पड़ेगा, पर यदि तुम उसे ख-क से शुरू करो, तो 'ख' को आदि मानना होगा। 


अतः हम उसे जिस दृष्टि से देखेंगे, वह उसी प्रकार प्रतीत होगा। चैतन्य अनुलोम-परिणाम को प्राप्त होकर स्थूल भूत का आकार धारण करता है, स्थूल भूत फिर विलोम परिणाम से चैतन्यरूप में परिणत होता है, और इस प्रकार क्रम चलता रहता है। सांख्य और अन्य सब धर्मों के आचार्यगण भी चैतन्य को ही प्रथम स्थान देते हैं। उससे वह शृंखला इस प्रकार का रूप धारण करती है कि पहले चैतन्य और पीछे भूत। वैज्ञानिक भूत को पहले लेकर कहते हैं कि पहले भूत और पीछे चैतन्य । पर ये दोनों ही उसी एक शृंखला की बात कहते हैं। किन्तु भारतीय दर्शन इस चैतन्य और भूत दोनों के परे जाकर उस पुरुष या आत्मा का साक्षात्कार करता है, जो ज्ञान के भी अतीत है। यह ज्ञान तो मानो उस ज्ञानस्वरूप आत्मा से उधार लिये हुए आलोक के समान है।


द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः ॥२०॥


सूत्रार्थ- द्रष्टा केवल चैतन्य मात्र है; यद्यपि वह स्वयं पवित्रस्वरूप है, तो भी वह बुद्धि के भीतर से देखा करता है।


व्याख्या- यहाँ पर भी सांख्यदर्शन की बात कही जा रही है। हमने पहले देखा है, सांख्यदर्शन का यह मत है कि अत्यन्त क्षुद्र पदार्थ से लेकर बुद्धि तक सभी प्रकृति के अन्तर्गत है, किन्तु पुरुष (आत्माएँ) इस प्रकृति के बाहर हैं, इन पुरुषों के कोई गुण नहीं है। तब फिर आत्मा क्योंकर सुखी या दुःखी होती है? केवल बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर वह वैसी प्रतीयमान होती है। जैसे स्फटिक के एक टुकड़े के पास एक लाल फूल रखने पर वह स्फटिक लाल दिखाई देता है, उसी प्रकार हम जो सुख या दुःख अनुभव कर रहे हैं, वह वास्तव में प्रतिबिम्ब मात्र है; वस्तुतः आत्मा में यह सब कुछ भी नहीं है।


आत्मा प्रकृति से सम्पूर्णतः पृथक् वस्तु है। प्रकृति एक वस्तु है और आत्मा दूसरी-सम्पूर्ण पृथक् और सर्वदा पृथक्। सांख्य कहते हैं कि ज्ञान एक यौगिक पदार्थ है, उसका ह्रास और वृद्धि दोनों हैं, वह परिवर्तनशील है; शरीर के समान उसमें भी परिणाम होता है; शरीर के जो सब धर्म हैं, उसके भी प्रायः वैसे ही धर्म हैं। नख का शरीर के साथ जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही देह का ज्ञान के साथ। नख शरीर का एक अंशविशेष है, उसे सैकड़ों बार काट डालने पर भी शरीर बचा रहेगा। ठीक इसी प्रकार, यह शरीर सैकड़ों बार नष्ट होने पर भी ज्ञान युग-युगान्तर तक बचा रहेगा। तो भी यह ज्ञान कभी अविनाशी नहीं हो सकता, क्योंकि वह परिवर्तनशील है, उसका ह्रास है, वृद्धि है। और जो परिवर्तनशील हैं, वह कभी अविनाशी नहीं हो सकता। 


यह ज्ञान एक सृष्ट पदार्थ है, और इसी से यह स्पष्ट है कि इसके परे, इससे श्रेष्ठ एक दूसरा पदार्थ अवश्य है। सृष्ट पदार्थ कभी मुक्त नहीं हो सकता; भूत के साथ संश्लिष्ट प्रत्येक वस्तु प्रकृति के अन्तर्गत है और इसीलिए वह चिरकाल के लिए बद्ध है। तो फिर यथार्थ में मुक्त है कौन? जो कार्य-कारण-सम्बन्ध के अतीत है, वही वास्तव में मुक्त है। यदि तुम कहो कि मुक्ति की यह धारणा भ्रमात्मक है, तो मैं कहूँगा कि यह बद्धभाव भी भ्रमात्मक है। हमारे ज्ञान में ये दोनों ही भाव सदैव वर्तमान हैं; वे आपस में एक दूसरे के आश्रित हैं; एक के न रहने से दूसरा भी नहीं रह सकता। उनमें से एक भाव यह है कि हम बद्ध हैं। मान लो, हमारी इच्छा हुई कि हम दीवार के बीच में से होकर चले जाएँ। हम चेष्टा करते हैं और हमारा सिर दीवार से टकरा जाता है; तब हम देख पाते हैं कि हम उस दीवार द्वारा सीमाबद्ध हैं। 


पर साथ ही हम अपनी इच्छाशक्ति को भी देखते हैं और सोचते हैं कि इस इच्छाशक्ति को हम जहाँ चाहें लगा सकते हैं। पग पग पर हम अनुभव करते हैं कि ये दो विरोधी भाव हमारे सामने आ रहे हैं। हमें विश्वास करना पड़ता है कि हम मुक्त हैं, पर इधर प्रतिक्षण हम यह भी देखते हैं कि हम मुक्त नहीं हैं। इन दोनों में से यदि एक भाव भ्रमात्मक हो, तो दूसरा भी भ्रमात्मक होगा, और यदि एक सत्य हो, तो दूसरा भी सत्य होगा, क्योंकि दोनों ही अनुभवरूप एक ही नींव पर स्थापित हैं। योगी कहते हैं कि ये दोनों भाव सत्य हैं। बुद्धि तक लेने से हम सचमुच बद्ध हैं, पर आत्मा की दृष्टि से हम मुक्त हैं। मनुष्य का यथार्थ स्वरूप आत्मा या पुरुष-कार्य-कारणवाद के है। 


आत्मा का यह मुक्त स्वभाव ही भूत के विभिन्न स्तरों में से – बुद्धि, मन आदि नाना रूपों में से प्रकाशित हो रहा है। वह इसी की ज्योति है, जो सभी के माध्यम से प्रकाशित हो रही है। बुद्धि का अपना कोई चैतन्य नहीं है। प्रत्येक इन्द्रिय का मस्तिष्क में एक एक केन्द्र है। समस्त इन्द्रियों का एक ही केन्द्र नहीं है, वरन् प्रत्येक का केन्द्र अलग अलग है। तो फिर हमारी ये अनुभूतियाँ कहाँ जाकर एकत्व को प्राप्त होती हैं ? यदि मस्तिष्क में वे एकत्व को प्राप्त होतीं, तो आँख, कान, नाक सभी का एक ही केन्द्र रहता; पर हम निश्चित रूप से जानते हैं कि वैसा नहीं है- प्रत्येक के लिए अलग अलग केन्द्र है। फिर भी मनुष्य एक ही समय में देख और सुन सकता है। 


इसी से प्रतीत होता है कि इस बुद्धि के पीछे अवश्य एक एकत्व होना चाहिए। बुद्धि सदैव मस्तिष्क के साथ सम्बद्ध है; किन्तु इस बुद्धि के भी पीछे इकाईस्वरूप पुरुष विद्यमान है, जहाँ विविध संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ संयुक्त होकर एकीभाव को प्राप्त होती हैं। आत्मा ही वह केन्द्र है, जहाँ समस्त भिन्न भिन्न इन्द्रिय-अनुभूतियाँ जाकर एकीभूत होती हैं। यह आत्मा मुक्तस्वभाव है और उसका यह मुक्तस्वभाव ही तुम्हें प्रतिक्षण कह रहा है कि तुम मुक्त हो। लेकिन भ्रम में पड़कर तुम उस मुक्त स्वभाव को प्रतिक्षण बुद्धि और मन के साथ मिला दे रहे हो। 


तुम उस मुक्त स्वभाव को बुद्धि पर आरोपित करते हो और दूसरे ही क्षण देखते हो कि बुद्धि मुक्त स्वभाव नहीं है। तुम फिर उस मुक्त स्वभाव को देह पर आरोपित करते हो, और प्रकृति तुम्हें तुरन्त बता देती है कि तुम फिर से भूल रहे हो; मुक्ति देह का धर्म नहीं है। यही कारण है कि हमारी मुक्ति और बन्धन ये दो प्रकार की अनुभूतियाँ एक ही समय देखने में आती हैं। योगी मुक्ति और बन्धन दोनों का विचार करते हैं, और उनका अज्ञानान्धकार दूर हो जाता है। वे जान लेते हैं कि पुरुष मुक्तस्वभाव है, ज्ञानघन है; वह बुद्धिरूप उपाधि के भीतर से इस सान्त ज्ञान के रूप में प्रकाशित हो रहा है, बस, इसी दृष्टि से वह बद्ध है।


तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा ॥ २१ ॥


सूत्रार्थ- ( उक्त) दृश्य अर्थात् प्रकृति का स्वरूप (यानी विभिन्न रूपों में परिणाम ) उस (द्रष्टा, चिन्मय पुरुष) के ही (भोग तथा मुक्ति के) लिए है।


व्याख्या-  प्रकृति का अपना कोई प्रकाश नहीं है। जब तक पुरुष उसके पास उपस्थित रहता है, तभी तक वह प्रकाशमय प्रतीत होती है। लेकिन यह प्रकाश उधार लिया हुआ है, जैसे चन्द्रमा का प्रकाश प्रतिबिम्बित है, सूर्य से लिया गया है। योगियों के मतानुसार, सारा व्यक्त जगत् प्रकृति से उत्पन्न हुआ है; पर प्रकृति का अपना कोई उद्देश्य नहीं है, केवल पुरुष को मुक्त करना ही उसका प्रयोजन है।


कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् ॥ २२॥ 


सूत्रार्थ- जिन्होंने उस परम पद को प्राप्त कर लिया है, उनके लिए प्रकृति का नाश हो जाने पर भी प्रकृति नष्ट नहीं होती; क्योंकि वह दूसरों के लिए साधारण है।


व्याख्या - यह ज्ञात करा देना ही कि आत्मा प्रकृति से सम्पूर्ण स्वतन्त्र है, प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य है। जब आत्मा यह जान लेती है, तब प्रकृति उसे और किसी प्रकार प्रलोभित नहीं कर सकती। जो लोग मुक्त हो गये हैं, केवल उन्हीं के लिए यह सारी प्रकृति बिलकुल उड़ जाती है। पर ऐसे करोड़ों लोग हमेशा ही रहेंगे, जिनके लिए प्रकृति कार्य करती रहेगी । 


स्वस्वामिशक्त्योः स्वरूपोपलब्धिहेतुः संयोगः ॥२३॥


सूत्रार्थ - दृश्य (प्रकृति) और उसके स्वामी (द्रष्टा पुरूष)- )- इन दोनों की शक्ति के (भोग्यत्व और भोक्तृत्व-रूप) स्वरूप की उपलब्धि का हेतु संयोग है।


व्याख्या- इस सूत्र के अनुसार, जब आत्मा प्रकृति के साथ संयुक्त होती है, तभी इस संयोग के कारण दोनों की क्रम से द्रष्टृत्व और दोनों शक्तियों का प्रकाश होता है। तभी यह सारा जगत्-प्रपंच विभिन्न रूपों में दृश्यत्व इन व्यक्त होता रहता है। अज्ञान ही इस संयोग का हेतु है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि हमारे दुःख या सुख का कारण है-शरीर के साथ अपना संयोग कर लेना। यदि मुझे यह निश्चित रूप ज्ञान रहता कि मैं शरीर नहीं हूँ, तो मुझे ठण्ड, गरमी या और किसी बात का ख्याल नहीं रहता। यह शरीर एक समवाय या संहति मात्र है। यह कहना भूल है कि मेरा शरीर अलग है, तुम्हारा शरीर अलग और सूर्य एक पृथक् पदार्थ है। यह सारा जगत् जड़पदार्थ के एक महासमुद्र समान है। उस महासमुद्र में तुम एक बिन्दु हो, मैं एक दूसरा बिन्दु हूँ और सूर्य एक तीसरा । हम जानते हैं कि यह भूत सदा ही भिन्न भिन्न रूप धारण कर रहा है। आज जो सूर्य का उपादान बना हुआ है, कल वही हमारे शरीर के उपादान के रूप में परिणत हो सकता है।


तस्य हेतुरविद्या ॥ २४ ॥


सूत्रार्थ- उस संयोग का कारण है अविद्या अर्थात् अज्ञान।

 

व्याख्या- हमने अज्ञान के कारण अपने को एक निर्दिष्ट शरीर में आबद्ध करके अपने दुःख का रास्ता खोल रखा है। यह धारणा कि "मैं शरीर हूँ”, एक भ्रम मात्र है। यह भ्रम ही हमें सुखी या दुःखी करता है। अज्ञान से उत्पन्न इस भ्रम से ही हम शीत, उष्ण, सुख, दुःख आदि का अनुभव कर रहे हैं। हमारा कर्तव्य है. इस भ्रम के पार चले जाना। किस - तरह इसे कार्य में परिणत करना होगा, यह योगी दिखला देते हैं। यह प्रमाणित हो चुका है कि मन की एक विशेष अवस्था में देह-बोध बिलकुल नहीं रह जाता-उस समय शरीर भले ही दग्ध होता रहे, पर जब तक मन की वह अवस्था रहती है, तब तक मनुष्य किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं करता। पर हो सकता है, मन की ऐसी उच्चावस्था अचानक एक क्षण के लिए आँधी के समान आए, और दूसरे ही क्षण चली जाए। किन्तु यदि हम इस अवस्था को योग के द्वारा, ठीक शास्त्रीय ढंग से प्राप्त करें, तो हम सदैव आत्मा को शरीर से पृथक रख सकते हैं।


तदभावात् संयोगाभावो हानं तद्दृशेः कैवल्यम् ॥ २५॥


सूत्रार्थ-उस (अज्ञान) का अभाव होते ही (पुरुष प्रकृति के संयोग का अभाव ( हो जाता है। यही) हान (अज्ञान का परित्याग) है (और) वही द्रष्टा की कैवल्यपद में अवस्थिति है।


व्याख्या- योगशास्त्र के मतानुसार, आत्मा अविद्या के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गयी है; प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों का एकमात्र लक्ष्य है। प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं। 


योगी मनःसंयम के द्वारा इस चरम लक्ष्य में पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। जब तक हम प्रकृति के हाथ से अपना उद्धार नहीं कर लेते, तब तक हम गुलाम हैं; प्रकृति जैसा कहती है, हम उसी प्रकार चलने को लाचार होते हैं। योगी यह दावा करते हैं कि जो मन को वशीभूत कर सकते हैं, वे भूत को भी वशीभूत कर लेते हैं। अन्तःप्रकृति बाह्य प्रकृति की अपेक्षा कहीं उच्चतर है, और उस पर अधिकार जमाना - उस पर जय प्राप्त करना अत्यधिक कठिन है। इसीलिए जो अन्तःप्रकृति को वशीभूत कर सकते हैं, सारा जगत् उनके वशीभूत हो जाता है। वह उनका दास हो जाता है। राजयोग प्रकृति को इस तरह वश में लाने का उपाय दिखला देता है। हम बाह्य जगत् में जिन सब शक्तियों के साथ परिचित हैं, उनकी अपेक्षा उच्चतर शक्तियों को वश में लाना पड़ेगा।


यह शरीर मन का एक बाह्य आवरण मात्र है। शरीर और मन दो अलग अलग वस्तुएँ नहीं हैं, वे तो सीप और उसके खोल के समान हैं। वे एक ही दो विभिन्न अवस्थाएँ हैं। सीप के भीतर का जन्तु बाहर से नाना प्रकार के उपादान लेकर उस खोल को तैयार करता है। उसी प्रकार मन नामक यह वस्तु की आन्तरिक सूक्ष्म शक्तिसमूह भी बाहर से स्थूल भूत को लेकर उससे इस शरीररूपी ऊपरी खोल को तैयार कर रहा है। अतः हम यदि अन्तर्जगत् पर जयलाभ कर सकें, तो बाह्य जगत् को जीतना फिर बड़ा आसान हो जाएगा। फिर, ये दो शक्तियाँ अलग अलग नहीं हैं। ऐसी बात नहीं है कि कुछ शक्तियाँ भौतिक हैं और कुछ मानसिक । जैसे यह दृश्यमान भौतिक जगत् सूक्ष्म जगत् की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है, उसी प्रकार भौतिक शक्तियाँ भी सूक्ष्म शक्तियों की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है।


विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपायः ॥ २६ ॥ 


सूत्रार्थ- निरन्तर विवेक का अभ्यास ही अज्ञानानाश का उपाय है।


व्याख्या- सारी साधना का यथार्थ लक्ष्य है यह सदसद्विवेक - यह जानना कि पुरुष प्रकृति से भिन्न है; यह विशेष रूप से जानना कि पुरुष जड़पदार्थ भी नहीं है और मन भी नहीं, और चूँकि वह प्रकृति भी नहीं है, इसलिए उसका किसी प्रकार का परिणाम असम्भव है। केवल प्रकृति में ही सर्वदा परिवर्तन हो रहा है, उसी का सदैव संश्लेषण-विश्लेषण हो रहा है। जब निरन्तर अभ्यास के द्वारा हम विवेकलाभ करेंगे, तब अज्ञान चला जाएगा और पुरुष अपने स्वरूप में अर्थात् सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापी रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा।


तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा ॥ २७ ॥ 


सूत्रार्थ- उनके (ज्ञानी के) विवेकज्ञान के सात उच्चतम सोपान हैं। 


व्याख्या- जब इस ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब मानो वह एक के बाद एक करके सात स्तरों में आता है। और जब उनमें से एक अवस्था आरम्भ हो जाती है, तब हम निश्चित रूप से जान सकते हैं कि हमें अब ज्ञान की प्राप्ति हो रही है। पहली अवस्था आने पर ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जो कुछ जानने का है, जान लिया। मन में तब और किसी प्रकार का असन्तोष नहीं रह जाता। जब तक हमारी ज्ञानपिपासा बनी रहती है, तब तक हम इधर-उधर ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। जहाँ से भी कुछ सत्य मिलने की सम्भावना रहती है, झट वहीं दौड़ जाते हैं। जब वहाँ उसकी प्राप्ति नहीं होती, तब मन अशान्त हो जाता है। 


फिर अन्य दिशा में हम सत्य की खोज में भटकते फिरते हैं। जब तक हम यह अनुभव नहीं कर लेते की समस्त ज्ञान हमारे अन्दर है, जब तक यह दृढ़ धारणा नहीं हो जाती कि कोई भी हमें सत्य की प्राप्ति करने में सहायता नहीं पहुँचा सकता, हमें स्वयं ही अपने आप की सहायता करनी होगी, तब तक सारा सत्यान्वेषण ही वृथा है। जब हम विवेक का अभ्यास आरम्भ करेंगे, तो हमारे सत्य के नजदीक आ जाने का पहला चिह्न यह प्रकाशित होगा कि वह पूर्वोक्त असन्तोष की अवस्था चली जाएगी। हमारी यह निश्चित धारणा हो जाएगी कि हमने सत्य को पा लिया है और यह सत्य के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। तब हम यह जान लेते हैं कि सत्यस्वरूप सूर्य उदित हो रहा है, हमारी अज्ञान-रजनी पर प्रभात की लाली छा रही है। 


और तब, हृदय में आशा भरकर, जब तक वह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक हमें अवश्य अध्यवसायी होना होगा। दूसरी अवस्था में सारे दुःख चले जाएँगे। तब जगत् का बाहरी या भीतरी कोई भी विषय हमें दुःख नहीं पहुँचा सकेगा। तीसरी अवस्था में हमें पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाएगी, अर्थात् हम सर्वज्ञ हो जाएँगे। चौथी अवस्था में विवेक की सहायता से सारे कर्तव्यों का अन्त हो जाएगा। उसके बाद चित्तविमुक्ति की अवस्था आएगी। तब हम समझ सकेंगे कि हमारी सारी विघ्न-बाधाएँ चली गयी हैं। जिस प्रकार किसी पर्वत के शिखर से एक पत्थर के टुकड़े को नीचे लुढ़का देने पर वह फिर ऊपर नहीं जा सकता, उसी प्रकार मन की चंचलता, मनःसंयम की असमर्थता आदि सभी गिर जाएँगे, अर्थात् नष्ट हो जाएँगे। छठी अवस्था में चित्त समझ लेगा कि इच्छा मात्र से ही वह अपने कारण में लीन हो जा रहा है। 


अन्त में हम देखेंगे कि हम स्वस्वरूप में अवस्थित हैं और इतने दिन तक जगत् में एकमात्र हमीं अवस्थित थे। मन या शरीर के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं था- उनके साथ हमारे युक्त होने की बात तो दूर ही रहे। वे अपना अपना काम आप कर रहे थे; और हमने अज्ञानवश अपने आपको उनसे युक्त कर रखा था। पर हम तो सदा से अकेले ही रहे हैं। इस संसार में केवल हमीं सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापी और सदानन्दस्वरूप हैं। हमारी अपनी आत्मा इतनी पवित्र और पूर्ण है कि हमें और किसी की आवश्यकता नहीं थी। 


हमें सुखी करने के लिए और कुछ भी आवश्यक नहीं था, क्योंकि हमीं सुखस्वरूप हैं। हम देखेंगे कि यह ज्ञान और किसी के ऊपर निर्भर नहीं रहता। जगत् में ऐसा कुछ भी नहीं हैं, जो हमारे ज्ञानालोक से प्रकाशित न हो। यही योगी की अन्तिम अवस्था है। तब योगी धीर और शान्त हो जाते हैं, वे और कोई कष्ट अनुभव नहीं करते, वे फिर कभी अज्ञान-मोह से भ्रान्त नहीं होते, दुःख उन्हें छू नहीं सकता। वे जान लेते हैं कि 'मैं नित्यानन्दस्वरूप, नित्यपूर्णस्वरूप और सर्वशक्तिमान् हूँ।' 


योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः ॥ २८ ॥


सूत्रार्थ- योग के विभिन्न अंगों का अनुष्ठान करते करते जब अपवित्रता का नाश हो जाता है, तब ज्ञान प्रदीप्त हो उठता है; उसकी अन्तिम सीमा है विवेकख्याति।


व्याख्या- अब साधना की बात कही जा रही है। अभी तक जो कुछ कहा गया, वह अपेक्षाकृत उच्चतर है। वह अभी हमसे बहुत दूर है; किन्तु वही हमारा आदर्श है, हमारा एकमात्र लक्ष्य है। उस लक्ष्यस्थल पर पहुँचने के लिए पहले शरीर और मन को संयत करना आवश्यक है। तभी उस आदर्श में हमारी अनुभूति स्थायी हो सकेगी। हमारा लक्ष्य क्या है यह हमने जान लिया है, अब उसे प्राप्त करने के लिए साधना आवश्यक है।


यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यान-

समाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ २९ ॥


सूत्रार्थ-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि-ये आठ (योग के) अंग हैं।


अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥३०॥ 


सूत्रार्थ- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (धोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह का अभाव)- ये पाँच यम कहलाते हैं।


व्याख्या-जो पूर्ण योगी होना चाहते हैं, उन्हें स्त्री-पुरुष भेद का भाव छोड़ देना पड़ेगा। आत्मा के कोई लिंग नहीं है-उसमें न स्त्री है, न पुरुष; तब क्यों वह स्त्री-पुरुष के भेदज्ञान द्वारा अपने आपको कलुषित करे ? बाद में हम और भी अच्छी तरह समझ सकेंगे कि ये सब भाव हमें क्यों बिलकुल छोड़ देने चाहिए। उपहार ग्रहण करनेवाले मनुष्य के मन पर दाता के मन का असर पड़ता है, इसलिए ग्रहण करनेवाले के भ्रष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। दूसरे के पास से कुछ ग्रहण करने से मन की स्वाधीनता चली जाती है और हम मोल लिये हुए गुलाम के समान दाता के अधीन हो जाते हैं। अतएव किसी प्रकार का उपहार ग्रहण करना भी उचित नहीं ।


जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् ॥ ३१॥ 


सूत्रार्थ- ये सब (उक्त यम) जाति, देश, कात और समय यानी उद्देश्य के द्वारा अविच्छिन्न न होने पर सार्वभौम महाव्रत कहलाते हैं।


व्याख्या- ये सब साधन अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रत्येक व्यक्ति के लिए-प्रत्येक पुरुष, स्त्री और बालक के लिए- बिना किसी जाति, देश या अवस्था के भेद से अनुष्ठेय हैं।


शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ ३२ ॥

 

सूत्रार्थ- बाह्य एवं अन्तःशौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (मन्त्रजप या अध्यात्म-शास्त्रों का पठन-पाठन) और ईश्वरोपासना-(ये पाँच) नियम हैं।


व्याख्या-बाह्यशौच अर्थात् शरीर को पवित्र रखना। अपवित्र मनुष्य कभी योगी नहीं हो सकता। इस बाह्यशौच के साथ साथ अन्तःशौच भी आवश्यक है। समाधिपाद के तैंतीसवें सूत्र में जिन धर्मों (गुणों) की बात कही गयी है, उनके पालन से यह अन्तःशीच आता है। यह सत्य है कि बाह्यशौच से अन्तःशौच अधिक उपकारी है, किन्तु दोनों की ही आवश्यकता है; और अन्तःशौच के बिना केवल बाह्यशीच कोई फल उत्पन्न नहीं करता।


वितर्कबाधने प्रतिपक्ष भावनम् ॥ ३३ ॥


सूत्रार्थ- बितर्क अर्थात् योग (यम और नियम) के विरोधी भाव उपस्थित होने पर उनके प्रतिपक्षी विचारों का बारम्बार चिन्तन करना चाहिए।


व्याख्या - ऊपर में जिन सब धर्मों (गुणों) की बात कही गयी है, उनके अभ्यास का यही उपाय है। उदाहरणार्थ, जब मन में क्रोध की एक बड़ी तरंग आती है, तब उसे कैसे वश में लाया जाए ? उसके विपरीत एक तरंग उठाकर । उस समय प्रेम की बात मन में लाओ। कभी कभी ऐसा होता है कि पत्नी अपने पति पर खूब गरम हो जाती है, उसी समय उसका बच्चा वहाँ आ जाता हैं और वह उसे गोद में उठाकर चूम लेती है; इससे उसके मन में बच्चे के प्रति प्रेमरूप तरंग उठने लगती है और वह पहले की तरंग को दबा देती है। प्रेम, क्रोध के विपरीत है। इसी प्रकार जब मन में चोरी का भाव उठे, तो चोरी के विपरीत भाव का चिन्तन करना चाहिए। जब दान ग्रहण करने की इच्छा पैदा हो, तो उसके विपरीत भाव का चिन्तन करना चाहिए।


वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा 


दुःखाज्ञानान्तफला इति प्रतिपक्षभावनम् ॥ ३४ ॥


सूत्रार्थ-वितर्क अर्थात् योग के विरोधी हैं हिंसा आदि भाव (वे तीन प्रकार के होते हैं -) स्वयं किये हुए, दूसरों से करवाये हुए और अनुमोदित किये हुए, इनके कारण हैं-लोभ, क्रोध और मोह; इनमें भी कोई थोड़े परिमाण का, कोई मध्यम परिमाण का और कोई बहुत बड़े परिमाण का होता है; इनके अज्ञान और क्लेशरूप अनन्त फल हैं; इस प्रकार (विचार करना ही) प्रतिपक्ष की भावना है।


व्याख्या- मैं स्वयं यदि कोई झूठ कहूँ, तो उससे जो पाप होता है, उतना ही पाप तब भी होता है, जब मैं दूसरे को झूठ कहने में लगाता हूँ, अथवा दूसरे की किसी झूठ बात का अनुमोदन करता हूँ। वह झूठ भले ही जरासा हो, फिर भी झूठ तो है ही। पर्वत की कन्दरा में भी बैठकर यदि तुम कोई पाप-चिन्तन करो, किसी के प्रति घृणा का भाव पोषण करो, तो वह भी अपने हृदय से ईर्ष्या और घृणा संचित रहेगा, और कालान्तर में फिर से वह तुम्हारे पास किसी दुःख के रूप में आकर तुम पर प्रबल आघात करेगा। यदि तुम का भाव चारों ओर बाहर भेजो, तो वह चक्रवृद्धि व्याजसहित तुम पर आकर गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक न सकेगी। यदि तुमने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही पड़ेगा। यह स्मरण रहने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे।


अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ३५ ॥


सूत्रार्थ-भीतर अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर, उसके निकट सब प्राणी अपना - स्वाभाविक वैरभाव त्याग देते हैं।


व्याख्या– यदि कोई व्यक्ति अहिंसा की चरम अवस्था को प्राप्त कर ले, तो उसके सामने, जो प्राणी स्वभावतः ही हिंस्र हैं, वे भी शान्तभाव धारण कर लेते हैं। उस योगी के सामने शेर और मेमना एक साथ खेलेंगे। इस अवस्था की प्राप्ति होने पर ही समझना कि तुम्हारा अहिंसाव्रत दृढ़प्रतिष्ठित हो गया है।


सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ॥ ३६ ॥


सूत्रार्थ- जब सत्यव्रत हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब कोई कर्म बिना किये ही अपने लिए या दूसरे के लिए कर्म का फल प्राप्त करने की शक्ति योगी में आ जाती है। 


व्याख्या- जब सत्य की यह शक्ति तुममें प्रतिष्ठित हो जाएगी, तब स्वप्न में भी तुम झूठ नहीं कहोगे। तब शरीर, मन और वचन से सत्य ही बाहर आएगा। तब तुम जो कुछ कहोगे, वही सत्य हो जाएगा। यदि तुम किसी से कहो, “तुम कृतार्थ होओ”, तो वह उसी क्षण कृतार्थ हो जाएगा। किसी पीड़ित मनुष्य से यदि कहो, “रोगमुक्त हो जाओ", तो वह उसी समय स्वस्थ हो जाएगा।


अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ॥ ३७॥


सूत्रार्थ-अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाने पर (उस योगी के सामने) सब प्रकार के धन-रत्न प्रकट हो जाते हैं।


व्याख्या- तुम जितना ही प्रकृति से दूर भागोगे, वह उतना ही तुम्हारा अनुसरण करेगी, और यदि तुम उसकी जरा भी परवाह न करो, तो वह तुम्हारी दासी बनकर रहेगी।


ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः ॥ ३८ ॥


सूत्रार्थ- ब्रह्मचर्य की दृढ़ स्थिति हो जाने पर वीर्यलाभ होता है। 


व्याख्या- ब्रह्मचर्यवान मनुष्य के मस्तिष्क में प्रबल शक्ति-महती इच्छाशक्ति-संचित रहती है। ब्रह्मचर्य के बिना और किसी भी उपाय से आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। जितने महान् मस्तिष्कशाली पुरुष हो गये हैं, वे सभी ब्रह्मचर्यवान थे। इसके द्वारा मनुष्यजाति पर आश्चर्यजनक क्षमता प्राप्त की जा सकती है। मानवसमाज के सभी आध्यात्मिक नेतागण ब्रह्मचर्यवान थे – उन्हें सारी शक्ति इस ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त हुई थी। अतएव योगी का ब्रह्मचर्यवान होना अनिवार्य है।


अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ॥ ३९ ॥


सूत्रार्थ- अपरिग्रह के दृढ़प्रतिष्ठित हो जाने पर पूर्वजन्मों की बात स्मृति में उदित हो जाती है।


व्याख्या- जब योगी दूसरों के पास से कोई वस्तु स्वीकार नहीं करते, तब उन पर दूसरों का कोई असर नहीं पड़ता, वे किसी के द्वारा अनुगृहीत नहीं होते और इसलिए वे स्वाधीन एवं मुक्त रहते हैं। उनका मन शुद्ध हो जाता है। दान स्वीकार करने से दाता के पाप भी लेने की सम्भावना रहती है। इस परिग्रह को त्याग देने पर मन शुद्ध हो जाता है; और इससे जो फल प्राप्त होते हैं उनमें पूर्वजन्म की स्मृति का उदित होना प्रथम है। तभी वे योगी सम्पूर्ण रूप से अपने लक्ष्य में दृढ़ होकर रह सकते हैं। वे देख लेते हैं कि इतने दिन तक वे केवल आवागमन कर रहे थे। तब वे दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेते हैं कि इस बार मैं अवश्य मुक्त होऊँगा, मैं अब और आवागमन नहीं करूँगा, प्रकृति का दास नहीं होऊँगा।


शौचात् स्वाङ्गगुगुप्सा पररसंसर्गः ॥४०॥


सूत्रार्थ- शौच के प्रतिष्ठित हो जाने पर अपने शरीर के प्रति घृणा का उद्रेक होता है, दूसरों के साथ संग करने की भी फिर प्रवृत्ति नहीं रहती।


व्याख्या- जब यथार्थ बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के शौच सिद्ध हो जाते हैं, तब शरीर के प्रति उदासीनता आ जाती है-उसे कैसे अच्छा रखें, कैसे वह सुन्दर दिखेगा, ये सब भाव बिलकुल चले जाते हैं। सांसारिक लोग जिसे अत्यन्त सुन्दर मुख कहेंगे, उसमें यदि ज्ञान का कोई चिह्न न हो, तो वहीं योगी के निकट पशु के मुख के समान प्रतीत होगा। संसार के मनुष्य जिस मुख में कोई विशेषता नहीं देखते, उसके पीछे यदि चैतन्य का प्रकाश हो, तो योगी उसे स्वर्गीय मुखश्री कहेंगे। यह देहतृष्णा मानवजीवन के लिए एक अभिशापस्वरूप है। अतः शौचप्रतिष्ठा का पहला लक्षण यह दिखेगा कि तुम शरीर के प्रति उदासीन हो जाओगे - तुम्हारे मन में विचार तक न उठेगा कि तुम्हारे शरीर है भी । जब यह पवित्रता हममें आती है, तभी हम देहभाव के ऊपर उठ सकते हैं।


सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्रयेन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च ॥४१॥


सूत्रार्थ- इसके सिवा (इस शौच से) सत्त्वशुद्धि, सौमनस्य अर्थात् मन का प्रफुल्ल भाव, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता-ये पाँचों भी होते हैं।


व्याख्या- इस शौच के अभ्यास द्वारा सत्त्वपदार्थ का प्राबल्य होता है. और मन एकाग्र एवं प्रफुल्ल हो जाता है। तुम धर्मपथ में अपने अग्रसर होने का प्रथम लक्षण यह देखोगे कि तुम दिन पर दिन बड़े प्रफुल्ल होते जा रहे हो। यदि कोई व्यक्ति विषादयुक्त दिखे, तो वह अजीर्ण का फल भले ही हो, पर धर्म का लक्षण नहीं हो सकता। सुख का भाव ही सत्त्व का स्वाभाविक धर्म है, सात्त्विक मनुष्य के लिए सभी सुखमय प्रतीत होते हैं। अतः जब तुममें यह आनन्द का भाव आता रहे, तो समझना कि तुम योग में उन्नति कर रहे हो। सारे दुःख कष्ट तमोगुण से उत्पन्न होते हैं, अतएव तुम्हें उससे बचकर रहना होगा उसको दूर कर देना होगा। विषादपूर्ण होकर चेहरा उतारे रहना तमोगुण का एक लक्षण है। सबल, दृढ, स्वस्थ, युवक और साहसी मनुष्य ही योगी बनने के योग्य हैं। 


योगों के लिए सभी सुखमय प्रतीत होते हैं; वे जिस किसी मनुष्य को देखते हैं, उसी से उनको आनन्द होता है। यही धार्मिक मनुष्य का चिह्न है। पाप ही कष्ट का कारण है, अन्य किसी कारण से कष्ट नहीं आता। उत्तरा हुआ चेहरा लेकर क्या होगा ? कैसा भयानक दृश्य है वह । ऐसी सूरत लेकर बाहर मत जाना। किसी दिन ऐसा होने पर दरवाजा बन्द करके समय बिता देना । संसार में इस बीमारी को संक्रामित करने का तुम्हें क्या अधिकार है ? जब तुम्हारा मन संयत हो जाएगा, तब तुम पूरे शरीर को वश में रख सकोगे; तब फिर तुम इस यन्त्र के दास नहीं बने रहोगे; यह देहयन्त्र ही तुम्हारा दास होकर रहेगा। तब यह देहयन्त्र आत्मा को खींचकर नीचे की ओर न ले जाकर उसकी मुक्ति में महान् सहायक हो जाएगा।


सन्तोषादनुत्तमः सुखलाभः ॥ ४२ ॥


सूत्रार्थ- सन्तोष से परम सुख प्राप्त होता है।


कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः ॥ ४३ ॥


सूत्रार्थ- तपस्या से जब अशुद्धि का नाश हो जाता है, तब शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है अर्थात् उनमें नाना प्रकार की शक्तियाँ आती हैं।


व्याख्या- तपस्या का फल कभी कभी अचानक दूरदर्शन, दूरश्रवण इत्यादि रूप से प्रकाशित होता है।


स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः ॥ ४४ ॥


सूत्रार्थ- मन्त्र के पुनःपुनः उच्चारण या अभ्यास से इष्टदेवता के दर्शन होते हैं।


व्याख्या- जितने उच्च स्तर के जीव (देवता, ऋषि, सिद्ध) देखने की इच्छा करोगे, उतना ही कठोर अभ्यास करना पड़ेगा।


समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात् ॥ ४५ ॥


सूत्रार्थ- ईश्वर में समस्त अर्पण करने से समाधिलाभ होता है। 


व्याख्या- ईश्वर-समर्पण से समाधि की पूर्णता होती है।


स्थिरसुखमासनम् ॥ ४६ ॥


सूत्रार्थ- स्थिर भाव से सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है। 


व्याख्या- अब आसन की बात कही जाएगी। जब तक तुम स्थिर भाव से बहुत समय तक बैठे रहने में समर्थ नहीं होते, तब तक प्राणायाम एवं अन्य साधनाओं में किसी प्रकार सफल नहीं हो सकोगे। आसन के स्थिर होने का तात्पर्य है - शरीर के अस्तित्व का बिलकुल भान तक न होना। साधारणतः यह देखा जाता है कि ज्योंही तुम चन्द मिनट के लिए बैठते हो, त्योंही शरीर में नाना प्रकार के विकार आने लगते हैं। पर जब तुम स्थूल देहभाव के परे चले जाओगे, तब तुम्हें शरीर का भान तक न रहेगा। 


फिर तुम सुख या दुःख कुछ भी अनुभव नहीं करोगे। जब फिर से तुम्हें शरीर का ज्ञान आएगा, जब तुम - आसन से उठोगे, तो ऐसा लगेगा कि तुमने बहुत समय तक विश्राम किया है। यदि शरीर को सम्पूर्ण विश्राम देना सम्भव हो, तो वह इसी प्रकार हो सकता है। जब तुम इस प्रकार शरीर को अपने अधीन करके उसे दृढ़ रख सकोगे, तब जानना कि तुम्हारी साधना भी दृढ़ हुई है। किन्तु जब शारीरिक विघ्न-बाधाओं विचलित हो जाओगे तब तुम्हारे स्नायु चंचल रहेंगे और तुम किसी भी प्रकार मन को एकाग्र न कर सकोगे।


प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ॥४७॥


सूत्रार्थ- शरीर में एक प्रकार का जो स्वाभाविक प्रयत्न है (अर्थात् चंचलता की ओर शरीर की जो एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है), उसे शिथिल कर देने से और अनन्त के चिन्तन से (आसन स्थिर और सुखकर होता है) ।


व्याख्या- अनन्त के चिन्तन के द्वारा आसन स्थिर हो सकता हैं। हम उस सर्वद्वन्द्वातीत अनन्त (ब्रह्म) के बारे में सरलता से चिन्तन नहीं कर सकते, किन्तु हम अनन्त आकाश के बारे में सोच सकते हैं।


ततो द्वन्द्वानभिघातः ॥ ४८ ॥


सूत्रार्थ- इस प्रकार आसन सिद्ध हो जाने पर, द्वन्द्वपरम्परा और कुछ विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकती।


व्याख्या- द्वन्द्व का अर्थ है शुभ-अशुभ, शीत-उष्ण, आलोक- अन्धकार, सुख-दुःख आदि विपरीत धर्मवाले युग्म । ये सब फिर तुम्हें चंचल नहीं कर सकेंगे।


तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः ॥ ४९ ॥


सूत्रार्थ- उस आसन की सिद्धि होने के बाद श्वास और प्रश्वास दोनों की गति को संयत करना प्राणायाम कहलाता है।


व्याख्या- जब यह आसन सिद्ध हो जाता है, तब इस श्वास-प्रश्वास की गति को संयत करके उस पर जय प्राप्त करना पड़ेगा। अतः अब प्राणायाम का विषय आरम्भ होता है। प्राणायाम क्या है? शरीरस्थित जीवनीशक्ति को वश में लाना। यद्यपि 'प्राण' शब्द बहुधा श्वास के अर्थ में प्रयुक्त होता है, तो भी वास्तव में वह श्वास नहीं है। प्राण का अर्थ है जागतिक समस्त शक्तियों की समष्टि। यह वह शक्ति है, जो प्रत्येक देह में अवस्थित है, और उसका ऊपरी प्रकाश है- फेफडे की यह गति । प्राण जब श्वास को भीतर की ओर खींचता है, तभी यह गति शुरू होती है; प्राणायाम करने के समय हम उसी को संयत करने का प्रयत्न करते हैं। इस प्राण पर अधिकार प्राप्त करने के लिए हम पहले श्वास-प्रश्वास को संयत करना शुरू करते हैं, क्योंकि वही प्राणजय का सब से सरल मार्ग है।


बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः ॥ ५०॥


सूत्रार्थ- बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति के भेद से यह प्राणायाम तीन प्रकार का है; देश, काल और संख्याके द्वारा नियमित तथा दीर्घ या सूक्ष्म होने के कारण उनमें भी फिर नाना प्रकार के भेद हैं।


व्याख्या- यह प्राणायाम तीन प्रकार की क्रियाओं में विभक्त है। पहली - जब हम श्वास को अन्दर खींचते हैं; दूसरी- जब हम उसे बाहर निकालते हैं: तीसरी - जब उसे फेफड़े के भीतर या उसके बाहर रोकते हैं। ये फिर देश, काल और संख्या के अनुसार भिन्न भिन्न रूप धारण करते हैं। देश का अर्थ हैं- प्राण को शरीर के किसी अंशविशेष में आबद्ध रखना। समय का अर्थ है-प्राण को किस स्थान में कितने समय तक रखना होगा, इस बात का ज्ञान; और संख्या का अर्थ है-यह जान लेना कि कितनी बार ऐसा करना होगा। इसीलिए कहाँ पर, कितने समय तक और कितनी बार रेचक आदि करना होगा, इत्यादि कहा जाता है। इस प्राणायाम का फल है उद्घात अर्थात् कुण्डलिनी का जागरण।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः ॥ ५१ ॥

सूत्रार्थ- चौथे प्रकार का प्राणायाम वह है, जिसमें प्राणायाम के समय बाह्य या आभ्यन्तर किसी विषय का चिन्तन किया जाता है। 


व्याख्या- यह चौथे प्रकार का प्राणायाम है। इसमें चिन्तन के साथ दीर्घकाल तक अभ्यास करते रहने से कुम्भक होता है। दूसरे प्राणायामों में चिन्तन का सम्पर्क नहीं रहता।


ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् ॥ ५२ ॥


सूत्रार्थ-उस (प्राणायाम के अभ्यास) से (चित्त के) प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है।


व्याख्या- चित्त में स्वभावतः समस्त ज्ञान भरा है। वह सत्त्व पदार्थ द्वारा निर्मित है, पर रज और तम पदार्थों से ढका हुआ है। प्राणायाम के द्वारा चित्त का यह आवरण हट जाता है।


धारणासु च योग्यता मनसः ॥ ५३ ॥


सूत्रार्थ- ( उसी से ) धारणा में मन की योग्यता भी (होती है)। व्याख्या - यह आवरण हट जाने पर हम मन को एकाग्र करने में समर्थ होते हैं।


स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः ॥ ५४ ॥


सूत्रार्थ- जब इन्द्रियाँ अपने अपने विषय को छोड़कर मानो चित्त का स्वरूप ग्रहण करती हैं, तब उसे प्रत्याहार कहते हैं।


व्याख्या- ये इन्द्रियाँ मन की ही विभिन्न अवस्थाएँ मात्र हैं। मैं एक पुस्तक देखता हूँ। वास्तव में, वह पुस्तक आकृति बाहर नहीं है; वह है। बाहर की कोई चीज उस आकृति को केवल जगा भर देती है; वास्तव में तो वह चित्त में ही है। इन इन्द्रियों के सामने जो कुछ आता है, उसके साथ ये मन में मिश्रित होकर, उसी का आकार धारण कर लेती हैं। यदि तुम चित्त को ये सब विभिन्न आकृतियाँ धारण करने से रोक सको, तभी तुम्हारा मन शान्त होगा और इन्द्रियाँ भी मन के अनुरूप हो जाएँगी। इसी को प्रत्याहार कहते हैं।


ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम् ॥५५॥


 सूत्रार्थ- उस (प्रत्याहार) से इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से जय प्राप्त हो जाती है। 


व्याख्या - जब योगी इन्द्रियों को इस प्रकार बाहरी वस्तु का आकार धारण करने से रोक सकते हैं और चित्त के साथ उन्हें एक करके रखने में सफल होते हैं, तभी इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से जय प्राप्त होती है। और जब इन्द्रियाँ पूरी तरह विजित हो जाती हैं, तब एक एक स्नायु, एक एक मांसपेशी तक हमारे वश में आ जाती है, क्योंकि इन्द्रियाँ ही सब प्रकार की संवेदना और कार्य की केन्द्र हैं। ये इन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय, इन दो भागों में विभक्त हैं। अतः जब इन्द्रियाँ संयत होंगी, तब योगी सब प्रकार के भावों और कार्यों पर जय प्राप्त कर सकेंगे। सारा शरीर ही उनके अधीन हो जाएगा। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर ही मनुष्य देहधारण में आनन्द अनुभव करने लगता है। तभी वह सचमुच कह सकता है, 'मैं धन्य हूँ, जो मेरा जन्म हुआ ! 'जब इन्द्रियों पर ऐसा अधिकार प्राप्त हो जाता है, तभी हम अनुभव कर सकते हैं कि यह शरीर भी सचमुच कैसी अद्भुत चीज है!


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