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पतंजलि योगसूत्र [ प्रथम अध्याय] समाधिपाद | Patanjali YogaSutras Chapter-1

Yoga Sutras of Patanjali | पतंजलि योगसूत्र  प्रथम अध्याय  समाधिपाद


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अथ योगानुशासनम् ॥ १॥


सूत्रार्थ - अब योग की व्याख्या करते हैं।


 योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥ २ ॥ 


सूत्रार्थ - चित्त को विभिन्न वृत्तियों अर्थात् आकारों में परिणत होने से रोकना ही योग है।


व्याख्या- यहाँ बहुतसी बातें समझाने की आवश्यकता है। पहले हमें यह समझ लेना होगा कि यह चित्त और ये वृत्तियाँ क्या हैं। मेरी ये आँखें हैं। आँखें वास्तव में नहीं देखतीं। यदि मस्तिष्क में स्थित दर्शनेन्द्रिय या दर्शनशक्ति को नष्ट कर दो, तो भले ही तुम्हारी आँखें रहें, आँखों की पुतलियाँ भी साबूत रहें और आँख के ऊपर जिस छबि के प्रड़ने से दर्शन होता है, वह भी रहे, पर फिर भी आँखें देख न सकेंगी। अतः आँख दर्शन का गौण यन्त्र मात्र हुई। वह वास्तव में दर्शनेन्द्रिय नहीं है। दर्शनेन्द्रिय तो मस्तिष्क के अन्तर्गत स्नायुकेन्द्र में अवस्थित है। 


अतएव हमने देखा कि दर्शनक्रिया के लिए केवल दो आँखें ही पर्याप्त नहीं हैं। कभी कभी मनुष्य आँखें खुली रखकर सो जाता है। वस्तु का चित्र आँखों पर बना हुआ है, दर्शनेन्द्रिय भी है, पर और एक तीसरी वस्तु की आवश्यकता है-और वह है मन। मन को इन्द्रिय के साथ संयुक्त रहना चाहिए। अतः दर्शनक्रिया के लिए चक्षुरूप बहिर्यन्त्र, मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र और मन -ये तीन चीजें चाहिए। कभी कभी ऐसा होता है कि रास्ते से गाड़ियाँ दौड़ती हुई निकल जाती हैं, पर तुम उन्हें सुन नहीं पाते। क्यों? इसलिए कि तुम्हारा मन श्रवणेन्द्रिय के साथ संयुक्त नहीं रहता। 


अतएव, प्रत्येक अनुभव-क्रिया के लिए पहले तो बाहर का यन्त्र, उसके बाद इन्द्रिय, और तृतीयतः, इन दोनों के साथ मन का योग चाहिए। मन विषय के अभिघात से उत्पन्न हुई संवेदना को और भी अन्दर ले जाकर निश्चयात्मिका बुद्धि के सामने पेश करता है। तब बुद्धि से प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के साथ अहंभाव जाग उठता है। फिर क्रिया और प्रतिक्रिया का यह मिश्रण पुरुष अर्थात् यथार्थ आत्मा के सामने लाया जाता है। 


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तब वह पुरुष इस मिश्रण को एक (ससीम) वस्तु के रूप में अनुभव करता है। पाँचों इन्द्रिय, मन, निश्चयात्मिका बुद्धि और अहंकार को मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं। ये सब मन के उपादानस्वरूप चित्त के भीतर होनेवाली भिन्न भिन्न प्रक्रियाएँ हैं। चित्त में उठनेवाली विचारतरंगों को वृत्ति (भँवर) कहते हैं। अब प्रश्न यह है कि यह विचार है क्या चीज ? गुरुत्वाकर्षण या विकर्षण-शक्ति के समान विचार भी एक शक्ति है। 


प्रकृति के अक्षय शक्तिभण्डार से चित्त नामक करण कुछ शक्ति को ग्रहण कर लेता है, अपने में आत्मसात् कर लेता है और उसे विचार के रूप में बाहर भेजता है। यह शक्ति हमें खाद्यान्न के जरिये प्राप्त होती है और इस खाद्यान्न से शरीर गति आदि की शक्ति प्राप्त करता है। दूसरी अर्थात् सूक्ष्मतर शक्तियों को वह विचार के रूप में बाहर भेजता है। अतएव मन चेतन नहीं है; फिर भी वह चेतन-सा प्रतीत होता है। क्यों ? इसलिए कि चेतन आत्मा उसके पीछे है। 


तुम ही एकमात्र चेतन पुरुष हो-मन तो केवल एक करण अर्थात् यन्त्र मात्र है, जिसके द्वारा तुम बाह्य जगत् की उपलब्धि करते हो। इस पुस्तक की ही बात लो: बाहर इसका पुस्तकरूपा अस्तित्व नहीं है। बाहर वस्तुतः जो है, वह तो अज्ञात और अज्ञेय है। वह केवल संकेत देनेवाला कारण मात्र है। जैसे पानी में एक पत्थर फेंकने पर पानी प्रवाहाकार में बँटकर उस पत्थर पर प्रतिघात करता है, ठीक वैसे ही वह अज्ञात वस्तु जाकर मन में आघात प्रदान करती है, और मन से पुस्तक के रूप में एक प्रतिक्रिया होती है। 


यथार्थ बहिर्जगत् तो संकेत देनेवाला कारण मात्र है, जिससे मानसिक प्रतिक्रिया होती है। एक पुस्तक का रूप, हाथी का रूप या मनुष्य का रूप बाहर कोई अस्तित्व नहीं रखता; हम जो कुछ जानते हैं वह बाहर के संकेत से होनेवाली हमारी मानसिक प्रतिक्रिया मात्र है। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है, "संवेदना की नित्य सम्भाव्यता का नाम जड़ पदार्थ है।" बाहर जो है, वह है केवल इस प्रतिक्रिया को उत्पन्न करनेवाला संकेत मात्र। 


उदाहरणार्थ, मोती की एक सीप को लो। तुम लोग जानते हो, मोती किस तरह पैदा होता है। कोई पराश्रयी कीटाणु सीप में घुस जाता है और उसमें क्षोभ उत्पन्न करने लगता है। इससे वह सीप उस कीटाणु के चारों ओर 'एनामेल' के समान एक प्रकार का लेप-सा डालने लगती है। बस, उसी से मोती तैयार होता है। यह सारा अनुभवात्मक जगतू मानो हमारे अपने उस लेप के समान है, और यथार्थ जगत् मानो केन्द्र के रूप में कीटाणु है।

 

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सामान्य मनुष्य उसे कभी समझ न सकेगा. क्योंकि जब कभी वह उसे समझने की कोशिश करता है, त्योंही वह बाहर मानो अपना लेप डालने लगता है,और बस, अपने उस लेप को ही देखता है। अब हम समझे कि वृत्ति का सच्चा अर्थ क्या है। मनुष्य का जो असल स्वरूप है, वह मन के अतीत है। मन तो उसके हाथों एक यन्त्रस्वरूप है। उसी का चैतन्य इस मन के माध्यम से अनुम्रवित हो रहा है। जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टारूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है। जब मनुष्य इस मन को बिलकुल त्याग देता है, तो उस मन का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अब समझ में आया कि चित्त का क्या तात्पर्य है । वह मन का उपादानस्वरूप है, और वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें और तरंगें हैं। ज्यों ही बाहर के कुछ कारण उस पर कार्य करने लगते हैं, त्योंही वह तरंगरूप धारण कर लेता है। हम जिसे जगत् कहते हैं, वह तो इन वृत्तियों की समष्टि मात्र है।


हम लोग सरोवर की तली को नहीं देख सकते, क्योंकि उसकी तह छोटी छोटी लहरों से व्याप्त रहती है। उस तली की झलक मिलना तभी सम्भव है, जब ये सारी लहरें शान्त हो जाएँ और पानी स्थिर हो जाए। यदि पानी गेंदला हो, या सारे समय उसमें हलचल होती रहे, तो वह तली कभी दिखाई न देगी। पर यदि पानी निर्मल हो और उसमें एक भी लहर न रहे, तब हम उस तली को अवश्य देख सकेंगे। यह चित्त मानो उस सरोवर के समान है और हमारा असल स्वरूप मानो उसकी तली है; वृत्तियाँ उस पर उठनेवाली लहरें हैं। 


फिर यह भी देखा जाता है कि यह मन तीन प्रकार की अवस्थाओं में रहता है। एक है तम की अर्थात् अन्धकारमय अवस्था, जैसा कि हम पशुओं और अत्यन्त मूर्खों में पाते हैं। ऐसे मन की प्रवृत्ति केवल औरों को क्षति पहुँचाने में ही होती है; मन की इस अवस्था में और दूसरा कोई विचार ही नहीं सूझता । दूसरा है- रज अर्थात् मन की क्रियाशील अवस्था, हैं- जिसमें केवल प्रभुत्व और भोग की इच्छा रहती है। उस समय यही भाव रहता है कि मैं शक्तिमान् होऊँगा और दूसरों पर प्रभुत्व करूँगा। तीसरा है-सत्त्व अर्थात् मन की गम्भीर और शान्त अवस्था, जिसमें समस्त तरंगें शान्त हो जाती हैं और मानस-सरोवर का जल निर्मल हो जाता है। 


यह कोई जड़ावस्था नहीं है, प्रत्युत यह तो तीव्र क्रियाशील अवस्था है। शान्त होना शक्ति की महत्तम अभिव्यक्ति है। क्रियाशील होना तो सहज है। बस, लगाम ढीली कर दो, तो घोड़े स्वयं तुम्हें भगा ले जाएँगे। यह तो कोई भी कर सकता है; पर शक्तिमान् पुरुष तो वह है, जो इन तेज घोड़ों को थाम सके। किसमें अधिक शक्ति लगती है- लगाम ढीली कर देने में अथवा उसे थामे रखने में ? शान्त मनुष्य और मन्द बुद्धिवाले मनुष्य एक समान नहीं हैं। सत्त्व को कहीं मन्द बुद्धि या आलस्य न समझ बैठना। शान्त मनुष्य वह है, जो मन की इन लहरों को अपने वश में लाने में समर्थ हुआ है। क्रियाशीलता निम्नतर शक्ति की अभिव्यक्ति है और शान्त भाव उच्चतर शक्ति की ।


यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फिर से प्राप्त करने के लिए सतत चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रखती हैं। उसका दमन करना, उसकी इस बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकना और उसे लौटाकर उस चैतन्यघन पुरुष के पास ले जानेवाले रास्ते पर लाना- यही योग का पहला सोपान है; क्योंकि केवल इसी उपाय से चित्त अपने यथार्थ रास्ते पर आ सकता है।


यद्यपि उच्चतम से लेकर निम्नतम तक सभी प्राणियों में यह चित्त विद्यमान है, तथापि केवल मनुष्यशरीर में ही हम उसे बुद्धिरूप में विकसित देख पाते हैं। जब तक यह चित्त बुद्धि का रूप धारण नहीं कर लेता, तब तक उसके लिए इन सब विभिन्न सोपानों में से होते हुए लौटकर आत्मा को मुक्त करना सम्भव नहीं। यद्यपि गाय या कुत्ते के भी मन है पर उनके लिए सद्योमुक्ति असम्भव है; क्योंकि उनका चित्त अभी बुद्धि का रूप धारण नहीं कर सकता।


यह चित्त अवस्थाभेद से बहुतसे रूप धारण करता है, जैसे- क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। क्षिप्त में मन चारों ओर बिखर जाता है और कर्मवासना प्रबल रहती है। इस अवस्था में मन की प्रवृत्ति केवल सुख और दुःख इन दो भावों में ही प्रकाशित होने की होती है। मूढ़ अवस्था तमोगुणात्मक है और इसमें मन की प्रवृत्ति केवल औरों का अनिष्ट करने में होती है। विक्षिप्त (क्षिप्त से विशिष्ट) अवस्था वह है, जब मन अपने केन्द्र की ओर जाने का प्रयत्न करता है। यहाँ पर टीकाकार कहते हैं कि विक्षिप्त अवस्था देवताओं के लिए स्वाभाविक है और क्षिप्त तथा मूढ़ावस्था असुरों के लिए। एकाग्र अवस्था तभी होती है, जब मन निरुद्ध होने के लिए प्रयत्न करता है। और निरुद्ध अवस्था ही हमें समाधि में ले जाती है।


 तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ॥ ३ ॥


 सूत्रार्थ - -उस समय (अर्थात् इस निरोध की अवस्था में) द्रष्टा (पुरुष) अपने (अपरिवर्तनशील) स्वरूप में अवस्थित रहता है।


व्याख्या - ज्योंही लहरें शान्त हो जाती हैं और पानी स्थिर हो जाता है, त्योंही हम सरोवर की तली को देख पाते हैं। मन के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझो। जब यह शान्त हो जाता है, तब हम देख पाते हैं कि अपना असल स्वरूप क्या है, फिर हम उन तरंगों के साथ अपने आपको एकरूप नहीं कर लेते, वरन् अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।


 वृत्तिसारूप्यमितरत्र ॥४॥


सूत्रार्थ - (इस निरोध की अवस्था को छोड़कर) दूसरे समय में द्रष्टा वृत्ति के साथ एकरूप होकर रहता है।


व्याख्या- उदाहरणार्थ, मान लो, किसी ने मेरी निन्दा की। बस, वह मेरे में एक वृत्ति उठा देता है और मैं उसके साथ अपने आपको एकरूप कर मन देता हूँ। इसका परिणाम होता है - दुःख ।


वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः ॥ ५॥ 


सूत्रार्थ- वृत्तियाँ पाँच प्रकार की हैं - (कुछ) क्लेशयुक्त और (कुछ) क्लेशशून्य।


 प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः ॥ ६ ॥


सूत्रार्थ - (वे हैं) प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति- अर्थात् सत्यज्ञान, भ्रमज्ञान, शब्दभ्रम, निद्रा और स्मृति।


 प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि ॥७॥


सूत्रार्थ - प्रत्यक्ष अर्थात् साक्षात् अनुभव, अनुमान और आगम अर्थात् विश्वस्त लोगों के वाक्य-  (ये तीन) प्रमाण हैं।


व्याख्या - जब हमारी दो अनुभूतियाँ आपस में विरोधी नहीं होतीं तब उसे हम प्रमाण कहते हैं। मान लो, मैंने कुछ सुना, यदि वह पहले अनुभव की हुई किसी बात का खण्डन करे, तो मेरे भीतर उसके विरुद्ध तर्क-वितर्क होने लगते हैं और मैं उस पर विश्वास नहीं करता। प्रमाण के फिर तीन प्रकार हैं। साक्षात् अनुभव या प्रत्यक्ष-यह एक प्रकार का प्रमाण है। यदि हम किसी प्रकार आँख और कान के भ्रम में न पड़े हों, तो हम जो कुछ देखते या अनुभव करते हैं, उसे प्रत्यक्ष कहा जाएगा। मैं इस दुनिया को देखता हूँ; बस, यह उसके अस्तित्व का पर्याप्त प्रमाण है। दूसरा है अनुमान -लक्षण से लक्ष्य वस्तु पर आना। तुमने कोई संकेत देखा और उससे तुम उस लक्ष्य वस्तु पर आ गये, जिसका कि वह संकेत है।


तीसरा है आप्तवाक्य-योगियों अर्थात् सत्यद्रष्टा ऋषियों की प्रत्यक्ष अनुभूति। हम सभी ज्ञान की प्राप्ति के लिए सतत संघर्ष कर रहे हैं; पर तुम्हें और मुझे उसके लिए कठोर संघर्ष करना पड़ता है; दीर्घ- काल तक विचाररूप क्लान्तिकर रास्ते से होकर अग्रसर होना पड़ता है; किन्तु विशुद्ध-सत्त्व योगी इन सब के पार चले गये हैं। उनके मनश्चक्षु के सामने भूत, भविष्य और वर्तमान सब एक हो गये हैं, उनके लिए वे सब मानो एक पाठ्यपुस्तक के समान हैं। हम लोगों को ज्ञानलाभ के लिए जिस क्लान्तिकर प्रणाली में से होकर जाना पड़ता है, उनके लिए उसकी फिर और आवश्यकता नहीं रह जाती। उनका वाक्य ही प्रमाण है, क्योंकि वे अपने भीतर ही सारे ज्ञान की उपलब्धि करते हैं। ऐसे व्यक्ति ही पवित्र शास्त्रग्रन्थों के प्रणेता हैं, और इसीलिए शास्त्र प्रमाण हैं। 


यदि वर्तमान समय में ऐसे मनुष्य कोई हों, तो उनकी बात भी अवश्य प्रमाण होगी। दूसरे दार्शनकों ने इस आप्त के बारे में बहुतसे तर्कवितर्क किये हैं। उनका प्रश्न है कि आप्तवाक्य को सत्य क्यों माना जाए? इसका उत्तर यह है कि वह उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति है। यदि वह पहले किये हुए अनुभव की विरोधी न हो, तो मैं जो कुछ देखता हूँ, वह प्रमाण है और तुम भी जो कुछ देखते हो, वह प्रमाण है। ठीक इसी तरह इन्द्रियों के भी अतीत एक ज्ञान है; और जब कभी यह ज्ञान युक्ति और मनुष्य की पूर्व-अनुभूति का खण्डन नहीं करता, तब वह भी प्रमाण है। यदि कोई पागल इस कमरे में घुस आए और कहने लगे, 'मैं चारों ओर देवदूत देख रहा हूँ', तो वह प्रमाण न कहा जाएगा। पहले तो, वह ज्ञान सत्य होना चाहिए। दूसरे, वह पहले के किसी ज्ञान का खण्डन न करे। और तीसरे, वह उस मनुष्य के चरित्र पर आधारित हो। 


मैंने बहुतों को यह कहते सुना है कि मनुष्य का चरित्र उतने महत्त्व का नहीं है, जितना कि उसके शब्द; वह क्या कहता है, बस, उसी को पहले सुनो। अन्य विषयों के सम्बन्ध में यह बात भले ही सत्य हो, पर धर्म के सम्बन्ध में तो यह सम्भव नहीं। एक व्यक्ति दुष्ट स्वभाववाला होता हुआ भी ज्योतिष के बारे में कुछ आविष्कार कर सकता है, पर धर्म के बारे में बात अलग है; क्योंकि कोई भी अपवित्र मनुष्य धर्म के यथार्थ सत्य को किसी काल में प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव, सब से पहले हमें देखना होगा कि जो व्यक्ति अपने आपको आप्त कहकर ढिंढोरा पीटता है, वह पूर्णतया निःस्वार्थ और पवित्र है अथवा नहीं। दूसरे, उसने अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति की है या नहीं। 


तीसरे, वह जो कुछ कहता है, वह मनुष्यजाति के किसी पूर्वज्ञान या पूर्व अनुभव का खण्डन तो नहीं करता। आविष्कृत कोई भी नया सत्य पूर्वकालीन किसी सत्य का खण्डन नहीं करता, वरन् वह तो पूर्वसत्य के साथ पूरी तरह मेल खाता है। और चौथे, दूसरों के लिए उस सत्य की प्राप्ति करना सम्भव होना चाहिए। यदि कोई मनुष्य कहे कि मुझे एक दर्शन हुआ है और साथ ही यह भी बोले कि उसे मैं ही देख सकता हूँ-और किसी के वश की वह बात नहीं, तो मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। प्रत्येक मनुष्य स्वयं प्रत्यक्ष उपलब्धि करके यह देख सके कि वह सत्य है या नहीं। फिर, जो व्यक्ति अपना ज्ञान बेचता फिरता है, वह आप्त नहीं है। ये सब शर्तें अवश्य पूरी होनी चाहिए। 


तुम्हें पहले देखना होगा कि वह व्यक्ति पवित्र और निःस्वार्थ है, उसमें धन-सम्पत्ति या नाम-यश की तृष्णा नहीं है। दूसरे, उसके जीवन से यह प्रकट होना चाहिए कि वह अतिचेतन भूमि पर पहुँच गया है। तीसरे, उसे हम लोगों को ऐसा कुछ देना चाहिए, जो हम इन्द्रियों से न पा सकते हों और जो संसार के कल्याण के लिए हो। साथ ही, वह किसी दूसरे सत्य का खण्डन न करे; यदि वह दूसरे वैज्ञानिक सत्यों का खण्डन करता हो, तो उसे तुरन्त त्याग दो। और चौथे, वह व्यक्ति किसी सत्य की ठेकेदारी न करे, अर्थात् वह ऐसा न कहे कि इस सत्य में मेरा ही अधिकार है, किसी दूसरे का नहीं। 


वह अपने जीवन में उसी को कार्यरूप में परिणत करके दिखाए, जो दूसरों के लिए भी प्राप्त करना सम्भव हो। अतएव, प्रमाण तीन प्रकार के हुए प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों की अनुभूति, अनुमान, और आप्तवाक्य। मैं इस 'आप्त' शब्द का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं कर सकता। इसे प्रेरणाप्राप्त (inspired) शब्द द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह प्रेरणा बाहर से आती है, और यहाँ जिस ज्ञान की बात हो रही है, वह भीतर से आता है। इसका शाब्दिक अर्थ है - "जिन्होंने पाया है।"


 विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम् ॥ ८ ॥


सूत्रार्थ - विपर्यय का अर्थ है मिथ्याज्ञान, जो उस वस्तु के यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं है।


व्याख्या - दूसरे प्रकार की वृत्ति है- एक वस्तु में किसी दूसरे वस्तु की भ्रान्ति, जैसे शक्ति में रजत का भ्रम। इसे विपर्यय कहते हैं।


शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः ॥ ९ ॥


सूत्रार्थ- यदि किसी शब्द से सूचित वस्तु का अस्तित्व न रहे, तो उस शब्द से जो एक प्रकार का ज्ञान उठता है, उसे विकल्प अर्थात् शब्दजात भ्रम कहते हैं।


व्याख्या - विकल्प नामक और एक प्रकार की वृत्ति है। कोई बात हम सुनते हैं, और उसके अर्थ पर शान्तभाव से विचार न कर झट से एक सिद्धान्त गढ़ लेते हैं। यह चित्त की कमजोरी का लक्षण है। अब संयमवाद अच्छी तरह समझ में आ सकेगा। मनुष्य जितना कमजोर होता है, उसकी संयम की शक्ति उतनी ही कम रहती है। तुम अपने आपको सदा इस संयम की कसौटी पर कसो। जब तुममें क्रोध या दुःखित होने का भाव आए, तो उस समय विचार करके देखना कि यह कैसे हो रहा है; यह कैसे है कि कोई खबर तुम्हारे पास आते ही तुम्हारे मन को वृत्तियों में परिणत किये दे रही है।


अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निदा ॥ १० ॥


सूत्रार्थ- जो वृत्ति शून्यभाव का अवलम्बन करके रहती है, उसे निद्रा कहते हैं। 


व्याख्या- और एक प्रकार की वृत्ति का नाम है निद्रा (स्वप्न और सुषुप्ति)। हम जब जाग उठते हैं, तब हम जान पाते हैं कि हम सो रहे थे। केवल अनुभूत विषय की ही स्मृति हो सकती हैं। हम जिसका अनुभव नहीं करते, उस विषय की हमें कोई स्मृति नहीं आ सकती। हर एक प्रतिक्रिया मानो चित्तरूपी सरोवर की एक तरंग है। अब, यदि निद्रां में मन की किसी प्रकार की वृत्ति न रहती, तो उस अवस्था में हमें भावात्मक या अभावात्मक कोई भी अनुभूति न होती। अतः हम उसका स्मरण भी नहीं कर पाते। हम जो निद्रावस्था का स्मरण कर सकते हैं, उसी से यह प्रमाणित हो जाता है कि निद्रावस्था में मन में एक प्रकार की तरंग थी। स्मृति भी एक प्रकार की वृत्ति है।


अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः ॥११॥


सूत्रार्थ – अनुभव किये हुए विषयों का मन से लोप न होना (और संस्कारवश - उनका ज्ञान के स्तर पर आ उठना) स्मृति कहलाता है।


व्याख्या–ऊपर जिन चार प्रकार की वृत्तियों के बारे में कहा गया है, उनमें से प्रत्येक से स्मृति आ सकती है। मान लो, तुमने एक शब्द सुना। यह शब्द चित्तरूपी सरोवर में फेंके गये एक पत्थर के समान है; उससे एक छोटीसी लहर पैदा हो जाती है और यह लहर फिर बहुतसी छोटी छोटी लहरों को उत्पन्न करती है। यही स्मृति है। निद्रा में भी यह घटना होती रहती है। जब निद्रा नामक लहरविशेष चित्त के अन्दर स्मृतिरूप लहरें उत्पन्न कर देती है, तब उसे स्वप्न कहते हैं। जाग्रत् अवस्था में जिसे स्मृति कहते हैं, निद्राकाल में उसी प्रकार की वृत्ति को स्वप्न कहते हैं।


 अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥


सूत्रार्थ- अभ्यास और वैराग्य से उन (वृत्तियों) का निरोध होता है। 


व्याख्या - इस वैराग्य को प्राप्त करने के लिए यह विशेष रूप से आवश्यक है कि मन निर्मल, सत् और विवेकशील हो। अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है? प्रत्येक कार्य से मानो चित्तरूपी सरोवर के ऊपर एक तरंग खेल जाती है। यह कम्पन कुछ समय बाद नष्ट हो जाता है। फिर क्या शेष रहता है ? - केवल संस्कारसमूह। मन में ऐसे बहुतसे संस्कार पड़ने पर वे इकट्ठे होकर आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि “आदत ही द्वितीय स्वभाव है।” केवल द्वितीय स्वभाव नहीं, वरन् वह 'प्रथम' स्वभाव भी है-मनुष्य का समस्त स्वभाव इस आदत पर निर्भर रहता है। हमारा अभी जो स्वभाव है, वह पूर्व-अभ्यास का फल है। 


यह जान सकने से कि सब कुछ अभ्यास का ही फल है, मन में शान्ति आती है; क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव केवल अभ्यासवश हुआ हो, तो हम चाहें, तो किसी भी समय उस अभ्यास को नष्ट भी कर सकते हैं। हमारे मन में जो विचारधाराएँ बह जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना एक एक चिह्न या संस्कार छोड़ जाती है। हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरूप है। जब कोई विशेष वृत्तिप्रवाह प्रबल होता है, तब मनुष्य उसी प्रकार का हो जाता है। जब अच्छा भाव प्रबल होता है, तब मनुष्य अच्छा हो जाता है। यदि बुरा भाव प्रबल हो, तो मनुष्य बुरा हो जाता है। यदि आनन्द का भाव प्रबल हो, तो मनुष्य सुखी होता है। बुरी आदतों का एकमात्र प्रतिकार है - उनकी विपरीत आदतें । 


हमारे चित्त में जितनी बुरी आदतें संस्कारबद्ध हो गयी हैं, उन्हें अच्छी आदतों द्वारा नष्ट करना होगा। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो; असत् संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का - कुछ आदतों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये आदतें नयी और अच्छी आदतों से दूर की जा सकती हैं। चरित्र बस, पुनःपुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनःपुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है। 


तत्र स्थितौ यत्नोऽऽभ्यासः ॥ १३ ॥


सूत्रार्थ- उन (वृत्तियों) को पूर्णतया वश में रखने के लिए जो सतत प्रयत्न है, उसे अभ्यास कहते हैं।


व्याख्या- अभ्यास किसे कहते हैं? मन को दमन करने की चेष्टा अर्थात् प्रवाहरूप में उसकी बाहर जाने की प्रवृत्ति को रोकने की चेष्टा हीं अभ्यास है। 


स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः ॥१४॥


सूत्रार्थ - दीर्घकाल तक परम श्रद्धा के साथ (उस परमपद की प्राप्ति के लिए) सतत चेष्टा करने से वह (अभ्यास) दृढभूमि (अर्थात दृढ़ अवस्थावाला) हो जाता है।


व्याख्या - यह संयम एक दिन में नहीं आता, इसके लिए तो दीर्घकाल तक निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है।


 दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ॥१५॥


सूत्रार्थ- देखे और सुने हुए विषयों के प्रति तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देनेवाले में जो एक अपूर्व भाव आता है, जिससे वह समस्त विषय-वासनाओं का दमन करने में समर्थ होता है, उसे वैराग्य या अनासक्ति कहते हैं।


व्याख्या- दो प्रेरक शक्तियाँ हमारे सारे कार्यों की नियामक हैं। एक है। हमारा अपना अनुभव और दूसरा है, दूसरों का अनुभव। ये दो शक्तियाँ हमारे मानस सरोवर में नाना प्रकार की तरंगें पैदा करती रहती हैं। इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध लढाई ठानने और मन को वश में रखने के लिए हमें वैराग्यरूपी शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इन दोनों का त्याग ही हमारा अभीष्ट है। मान लो, मैं एक सड़क से जा रहा हूँ। एक मनुष्य आता है और मेरी घड़ी छीन लेता है। यह मेरा निजी अनुभव हुआ। यह मैं स्वयं देखता हूँ। 


वह तुरन्त मेरे चित्त में एक तरंग उत्पन्न कर देता है, जो क्रोध का आकार ले लेती है। अब मुझे चाहिए कि मैं उस भाव को न आने दूँ। यदि मैं उसे न रोक सका, सकूँ, तो फिर मुझमें है ही क्या ? कुछ भी नहीं। यदि मैं रोक तभी समझा जाएगा कि मुझमें वैराग्य है। फिर, संसारी लोगों का अनुभव हमें सिखाता है कि विषय-भोग ही जीवन का चरम लक्ष्य है। ये सब हमारे लिए भयानक प्रलोभन हैं। उन सब के प्रति पूर्णतया उदासीन हो जाना और उन सब से प्रभावित होकर मन को तद्रूप वृत्ति के आकार में परिणत न होने देना ही वैराग्य है। 


स्वयं अपने अनुभव किये हुए और दूसरों के अनुभव किए हुए विषयों से हममें जो दो प्रकार की कार्यप्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें दबाना और इस प्रकार चित्त को उनके वश में नहीं आने देना ही वैराग्य कहलाता है। वे सब मेरे अधीन रहें, मैं उनके अधीन न होऊँ इस प्रकार के मनोबल को वैराग्य कहते हैं, और यह वैराग्य ही मुक्ति का एकमात्र उपाय है। 


तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ।। १६ ।।


सूत्रार्थ- जो (वैराग्य) पुरुष के (असल स्वरूप के) ज्ञान से आता है और जो गुणों का भी सर्वथा त्याग कर देता है, वह परवैराग्य है।


व्याख्या- वैराग्य की शक्ति का उच्चतम विकास तो तब होता है, जब वह गुणों के प्रति हमारी आसक्ति भी दूर हटा देता है। पहले हमें समझ लेना होगा कि यह पुरुष या आत्मा क्या है, ये गुण क्या हैं। योगशास्त्र के मत से, यह सारी प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। ये गुण हैं-तम, रज और सत्त्व। ये तीनों गुण बाह्य जगत् में क्रमशः तम (अन्धकार) या जड़ता, आकर्षण या विकर्षण और उन दोनों का सामंजस्य, इन तीन प्रकारों में प्रकाशित होते हैं। प्रकृति की सारी वस्तुएँ, यह सारा का सारा प्रपंच ही इन तीनों शक्तियों के विभिन्न मेल से उत्पन्न हुआ है। 


सांख्यमतवालों ने प्रकृति को विविध तत्त्वों में विभक्त किया है; मनुष्य की आत्मा इन सब के परे, प्रकृति के भी परे है; वह संसार के जंजाल को और भी बढ़ाना - अन्त में दुःख को और भी तीव्र करना। देख पाते हैं, वह सभी प्रकृति में आत्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। प्रकृति स्वयं जड़ है। यह स्मरण रखना चाहिए कि मन भी प्रकृति शब्द के अन्तर्भूत है, वह प्रकृति के भीतर की वस्तु है। हमारे जो कुछ विचार हैं, वे सब के सब प्रकृति के ही अन्तर्गत हैं। विचार से लेकर सब से स्थूलतम जड़ पदार्थ तक सभी प्रकृति के अन्तर्गत हैं – प्रकृति की विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं। 


इस प्रकृति ने मनुष्य की आत्मा को आवृत कर रखा है, और जब वह अपने इस आवरण को हटा लेती है, तब आत्मा आवरणमुक्त हो अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। पन्द्रहवें सूत्र में जिस वैराग्य की बात बतलायी गयी है, जिसके द्वारा समस्त विषयों को अर्थात् प्रकृति को वश में लाया जाता है, वह आत्मा के प्रकाशित होने में सब से बड़ा सहायक है। अगले सूत्र में समाधि या पूर्ण एकाग्रता के लक्षण का वर्णन किया गया है। यह समाधि ही योगी का चरम लक्ष्य है।


वितर्कविचारानन्दास्मितानुगमात् सम्प्रज्ञातः ॥१७॥


सूत्रार्थ- वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता - इन चारों के सम्बन्ध से युक्त (जो समाधि है, वह) सम्प्रज्ञात या सम्यक् ज्ञानपूर्वक समाधि कहलाती है।


व्याख्या-समाधि दो प्रकार की है। एक है सम्प्रज्ञात और दूसरी असम्प्रज्ञात। इस सम्प्रज्ञात समाधि में प्रकृति को वश में करने की समस्त शक्तियाँ आती हैं। सम्प्रज्ञात समाधि के चार प्रकार हैं। इसके प्रथम प्रकार को सवितर्क समाधि कहते हैं। सब समाधियों में ही मन को अन्य सब विषयों से हटाकर विशिष्ट विषय के ध्यान में पुनःपुनः नियुक्त करना पड़ता है। इस तरह के विचार या ध्यान के विषय दो प्रकार के हैं। एक तो, चौबीस जड़ तत्त्व और दूसरा, चेतन पुरुष। योग का यह अंश सम्पूर्णतया सांख्यदर्शन पर आधारित है। 


इस सांख्यदर्शन के बारे में मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ। तुम्हें शायद याद होगा कि मन, बुद्धि और अहंकार की एक साधारण आधारभूमि है, जिसे चित्त कहते हैं। चित्त से ही उनकी उत्पत्ति हुई है। यह चित्त प्रकृति की विभिन्न शक्तियों को लेकर उन्हें विचार के रूप में परिणत करता है। फिर यह भी अवश्य स्वीकार करना होगा कि शक्ति और जड़ पदार्थ दोनों का कारणस्वरूप एक और वस्तु है, जहाँ पर वे दोनों एक हैं। 


यह अव्यक्त कहलाता है - वह सृष्टि के पूर्व प्रकृति की अनभिव्यक्त अवस्था है। उसमें एक कल्प के बाद सारी प्रकृति लौट आती है, फिर दूसरे कल्प में उससे पुनः सब प्रादुर्भूत होते हैं। इन सब के अतीत चैतन्यघन पुरुष विद्यमान है। ज्ञान ही वास्तविक शक्ति है। किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त होने पर ही हम उस पर अपना अधिकार चलाने में समर्थ होते हैं। इसी प्रकार, जब हमारा मन इन सब विभिन्न तत्त्वों पर ध्यान करने लगता है, तो उन पर अधिकार प्राप्त करता जाता है। जिस प्रकार की समाधि में बाह्य स्थूल भूत ही ध्यान के विषय होते हैं, उसे सवितर्क कहते हैं। वितर्क का अर्थ है प्रश्न, और सवितर्क का अर्थ है प्रश्न के साथ-मानो उन स्थूल भूतों से पूछना, जिससे वे अपने अन्तर्गत सत्य और अपनी सारी शक्ति अपने ऊपर ध्यान करनेवाले पुरुष को दे दें - इसी को सवितर्क कहते हैं। किन्तु सिद्धियाँ प्राप्त करने से ही मुक्ति नहीं मिल जाती।


वे तो भोग के लिए साधन मात्र हैं। पर यहाँ, इस जीवन में यथार्थ भोगसुख है ही नहीं। संसार में यही सब से पुराना उपदेश है कि यहाँ भोगसुख का अन्वेषण वृथा है; पर मनुष्य के लिए इसे समझना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जब वह सचमुच यह पाठ सीख लेता है, तब इस जगत्-प्रपंच से अतीत होकर मुक्त हो जाता है। जिन्हें साधारणतः सिद्धियाँ कहते हैं, उनको प्राप्त करने का अर्थ है दुनियादारी तथा संसार के जंजाल को और भी बढ़ाना- अन्त में दुःख को और भी तीव्र करना। यह सत्य है कि विज्ञान की दृष्टि को अपनाते हुए पतंजलि ने इस योगशास्त्र की सम्भावना को स्वीकार किया हैं, पर साथ ही वे इन सब सिद्धियों के प्रलोभन से हमें सावधान करते रहने में भी कभी नहीं चूके।


फिर, उसी ध्यान में जब उन भूतों को देश और काल से अलग करके उनके स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, तब उस समाधि को निर्वितर्क समाधि कहते हैं। जब और एक कदम आगे बढ़कर तन्मात्राओं को ध्यान का विषय बनाया जाता है और उन्हें देश-काल के अन्तर्गत समझकर उन पर ध्यान किया जाता है, तब उसे सविचार समाधि कहते हैं। फिर जब इसी समाधि में देश-काल के अतीत जाकर उन सूक्ष्म भूतों के स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, तब उसे निर्विचार समाधि कहते हैं। इसके बाद का कदम वह है, जिसमें सूक्ष्म और स्थूल, दोनों प्रकार के भूतों का चिन्तन छोड़कर अन्तःकरण को ध्यान का विषय बनाया जाता है। 


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जब अन्तःकरण को रज और तम इन दोनों गुणों से रहित सोचा जाता है, तब उसे आनन्द समाधि कहते हैं। जब स्वयं मन ध्यान का विषय होता है, जब ध्यान बिलकुल परिपक्व और एकाग्र होता जाता है, जब स्थूल और सूक्ष्म भूतों की समस्त भावनाएँ त्याग दी जाती हैं, और जब अन्य सब विषयों से पृथक् होकर अहंकार की केवल सत्त्वावस्था ही शेष रहती है, तब उसे अस्मिता समाधि कहते हैं। जिस मनुष्य ने इस अवस्था की प्राप्ति कर ली है, उसे वेदों में 'विदेह' कहा गया है। ऐसा व्यक्ति स्वयं का स्थूल देह से रहित रूप में चिन्तन कर सकता है, पर तो भी उसे स्वयं को एक सूक्ष्म शरीरधारी के रूप में सोचना ही पड़ता है। जो लोग इस अवस्था में रहते हुए, उस परमध्येय की प्राप्ति बिना किये, प्रकृति में लीन हो जाते हैं, उन्हें प्रकृतिलय कहते हैं; पर जो लोग वहाँ पर भी नहीं रुकते हैं, वे ही चरम लक्ष्य-मुक्ति-प्राप्त करते हैं।


विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः ॥ १८ ॥


सूत्रार्थ- दूसरे प्रकार की समाधि में समस्त मानसिक क्रियाओं के विराम का सतत अभ्यास किया जाता है, (उसमें व्युत्थान-प्रत्ययहीन) संस्कार मात्र ही शेष रहता है।


व्याख्या –यही वह पूर्ण अतिचेतन असम्प्रज्ञात समाधि है, जो हमें मुक्त कर देती है। पहले जिस समाधि की बात कही गयी है, वह हमें मुक्ति नहीं दे सकती - आत्मा को मुक्त नहीं कर सकती। भले ही कोई मनुष्य समस्त शक्तियाँ प्राप्त कर ले, पर तो भी उसका पतन हो सकता है। जब तक आत्मा प्रकृति के परे नहीं चली जाती, तब तक पतन का भय बना ही रहता है। यद्यपि इसकी साधनप्रणाली बहुत सरल मालूम होती है, पर इसे प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। यह साधनप्रणाली ऐसी है कि इसमें स्वयं मन पर ध्यान करना पड़ता है, और जब कभी कोई विचार उठता है तो तत्क्षण उसे दबा देना पड़ता है; मन के अन्दर किसी प्रकार के विचार को स्थान न देकर उसे सम्पूर्णतया शून्य कर देना पड़ता है। 


जब हम सचमुच यह करने में समर्थ हो जाएँगे, तो बस, उसी क्षण हम मुक्त हो जाएँगे। जो लोग पूर्वसाधना या पूर्व तैयारियाँ किये बिना ही मन को शून्य करने का प्रयत्न करते हैं, उनका मन अज्ञानात्मक तमोगुण से आवृत हो जाता है, और वह उनके मन को आलसी एवं अकर्मण्य कर देता है, यद्यपि वे सोचते हैं कि वे मन को शून्य कर रहे हैं। इसके साधन में सचमुच समर्थ होना उच्चतम शक्ति की अभिव्यक्ति है - मन को शून्य करने में समर्थ होना यानी संयम की चरमावस्था प्राप्त कर लेना है। 


जब इस असम्प्रज्ञात या अतिचेतन अवस्था की प्राप्ति हो जाती है, तब यह समाधि निर्बीज हो जाती है। समाधि के निर्बीज होने का तात्पर्य क्या है ? सम्प्रज्ञात समाधि में चित्तवृत्तियों का केवल दमन भर होता है, पर तब भी वे संस्कार या बीजाकार में विद्यमान रहती हैं। अवसर पाते ही वे पुनः तरंगाकार प्रकट हो जाती हैं। पर जब संस्कारों को भी निर्मूल कर दिया जाता है, जब मन को भी लगभग नष्ट कर दिया जाता है, तब समाधि निर्बीज हो जाती है; तब मन में ऐसा कोई संस्कार-बीज नहीं रह जाता, जिससे यह जीवनलता फिर से लहलहा सके, जिससे यह अविराम जन्म-मृत्यु का चक्र और भी घूम सके।


तुम लोग पूछ सकते हो कि वह फिर ऐसी कौनसी अवस्था है, जहाँ मन नहीं, जिसमें कोई ज्ञान नहीं ? जिसे हम ज्ञान कहते हैं, वह तो उस अतिचेतन अवस्था की तुलना में एक निम्नतर अवस्था मात्र है। यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि किसी विषय की सर्वोच्च और सर्वनिम्न अवस्थाएँ प्रायः एक ही प्रकार की मालूम होती हैं। ईथर (आकाशतत्त्व) का कम्पन निम्नतम होने से उसे अन्धकार कहते हैं, मध्य कोटि का होने से आलोक और फिर उसका उच्चतम कम्पन भी अन्धकार के समान दिखता है। इसी प्रकार, अज्ञान सब से निम्नावस्था है और ज्ञान मध्यावस्था। और इस ज्ञान के भी परे एक उच्च अवस्था है। पर अज्ञानावस्था और ज्ञानातीत अवस्था, दोनों देखने में एक ही समान हैं। हम जिसे ज्ञान कहते हैं, वह एक उत्पन्न द्रव्य है - एक मिश्र पदार्थ है, वह यथार्थ सत्य नहीं है।


प्रश्न उठ उठता है, इस उच्चतर समाधि के लगातार अभ्यास का फल क्या होगा? इस अभ्यास के पहले अस्थिरता और जड़त्व की ओर हमारे मन की जो गति थी, इस अभ्यास से वह तो नष्ट होगी ही, साथ ही सत्प्रवृत्ति का भी नाश हो जाएगा। बिना साफ किये हुए सोने में, मल निकालने के लिए कोई रासायनिक वस्तु मिलाने पर जो कुछ होता है, यहाँ भी ठीक वैसा ही होता है। जब खान से निकाली हुई अपरिष्कृत धातु को गलाया जाता है, तब जो रासायनिक पदार्थ उसके साथ मिलाये जाते हैं, वे भी उसके मैल के साथ गल जाते हैं। इसी प्रकार, पूर्वोक्त समाधि के सतत अभ्यास से जो संयमशक्ति प्राप्त होती है, उससे पहले की असत्-प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और अन्त में सत्-प्रवृत्तियाँ भी। 

इस तरह सत् और असत्, दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों के निरोध से आत्मा सब प्रकार के बन्धनों से विमुक्त हो जाती है और अपनी महिमा में, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् एवं सर्वज्ञ रूप से अवस्थित रहती है। तब मनुष्य जान पाता है कि न कभी उसका जन्म था, न मृत्यु; न उसे कभी इहलोक की जरूरत थी, न परलोक की। तब वह जान पाता है कि न वह कहीं से आया था, न कहीं गया; वह तो प्रकृति थी, जो यहाँ-वहाँ आवागमन कर रही थी, और प्रकृति की यह हलचल ही आत्मा में प्रतिबिम्बित हो रही थी। काँच से, प्रतिबिम्बित होकर प्रकाश दीवाल पर पड़ता है और हिलता डुलता है। दीवाल मूर्ख के समान शायद सोचती हो कि मैं ही हिल-डुल रही हूँ। ठीक ऐसा ही हम सब के बारे में भी है; चित्त ही लगातार इधर-उधर जा रहा है, अपने को नाना रूपों में परिणत कर रहा हैं, पर हम लोग सोचते हैं कि हमीं ये विभिन्न रूप धारण कर रहे हैं। 


असम्प्रज्ञात समाधि के अभ्यास से यह सारा अज्ञान दूर हो जाएगा। जब वह मुक्त आत्मा कोई आदेश देगी - भिखारी की भाँति प्रार्थना करेगी या माँगेगी नहीं, वरन् आदेश देगी - तब वह जो कुछ चाहेगी, सब तुरन्त पूर्ण हो जाएगा; वह जो कुछ इच्छा करेगी, वही करने में समर्थ होगी। सांख्यदर्शन के मतानुसार ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। यह दर्शन कहता है कि जगत् का कोई ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह हो तो अवश्य वह एक आत्मा ही होना चाहिए, और आत्मा या तो बद्ध होगी या मुक्त। जो आत्मा प्रकृति के अधीन है, प्रकृति ने जिस पर अपना आधिपत्य जमा लिया है, वह भला कैसे सृष्टि कर सकेगी ? वह तो स्वयं एक दास है। 


और दूसरी ओर, यदि आत्मा मुक्त हो, तो वह क्यों इस जगत्-प्रपंच की रचना करेगी, क्यों इस पूरे संसार की क्रिया आदि का संचालन करेगी ? उसकी तो कोई अभिलाषा नहीं रह सकती, अतः उसके सृष्टि या जगत्-शासन आदि करने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। द्वितीयतः यह सांख्यदर्शन कहता है कि ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है, प्रकृति को मानने से ही जब सभी का स्पष्टीकरण हो जाता है, तो फिर किसी ईश्वर को लाने की आवश्यकता क्या ? कपिल मुनि कहते हैं कि बहुतसे व्यक्ति ऐसे हैं, जो सिद्धावस्था के नजदीक जाकर भी विभूति-लाभ की वासना पूर्णतया छोड़ने में समर्थ न होने के कारण योगभ्रष्ट हो जाते हैं। 


उनका मन कुछ काल तक प्रकृति में लीन होकर रहता है; जब वे पुनः पैदा होते हैं, तब प्रकृति के मालिक होकर आते हैं। यदि इन्हें ईश्वर कहो, तो ऐसे ईश्वर अवश्य हैं। हम सभी एक समय ऐसा ईश्वरत्व प्राप्त करेंगे। सांख्यदर्शन के मतानुसार, वेद में जिस ईश्वर की बात कही गयी है, वह ऐसी ही एक मुक्तात्मा का वर्णन मात्र है। इसके अतिरिक्त जगत् का अन्य कोई नित्यमुक्त, आनन्दमय सृष्टिकर्ता नहीं है। दूसरी ओर, योगीगण कहते हैं, "नहीं, ईश्वर है; अन्य सभी आत्माओं से, सभी पुरुषों अलग एक विशेष पुरुष है; वह समग्र सृष्टि का नित्य प्रभु है, वह नित्यमुक्त है और सभी गुरुओं का गुरुस्वरूप है।" सांख्यमतवाले जिन्हें प्रकृतिलय कहते हैं, योगीगण उनका भी अस्तित्व स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि ये योगभ्रष्ट योगी हैं। कुछ समय तक के लिए उनकी चरम लक्ष्य की ओर की गति में बाधा होती है, और उस समय वे जगत् के अंशविशेष के अधिपतिरूप से अवस्थान करते हैं।


 भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम् ॥ १९ ॥


सूत्रार्थ - (यह समाधि यदि परवैराग्य के साथ अनुष्ठित न हो, तो) वही देवताओं और प्रकृतिलीनों की पुनरुत्पत्ति का कारण है।


व्याख्या - भारतीय धर्मप्रणालियों में देवता कुछ उच्च पदविशेषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। भिन्न भिन्न जीवात्मा एक के बाद एक इन पदों की पूर्ति करते हैं। पर इनमें से कोई भी पूर्ण नहीं है।


 श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ २०॥


सूत्रार्थ - दूसरों को श्रद्धा अर्थात् विश्वास, वीर्य अर्थात् मन का तेज, स्मृति, समाधि अर्थात् एकाग्रता और प्रज्ञा अर्थात् सत्य वस्तु के विवेक से (यह समाधि) प्राप्त होती है।


व्याख्या-जो लोग देवतापद या किसी कल्प के शासनकर्ता होने की भी कल्पना नहीं करते, उन्हीं की बात कही जा रही है। वे मुक्ति प्राप्त करते हैं। 


तीव्रसंवेगानामासन्नः ॥ २१॥


सूत्रार्थ - जिनकी साधना की गति तीव्र है, उनके लिए (यह योग) शीघ्र (सिद्ध) हो जाता है।


मृदुमध्याधिमात्रत्वात् ततोऽपि विशेषः ॥ २२ ॥ 


सूत्रार्थ -साधना की हल्की, मध्यम और उच्च मात्रा के अनुसार योगियों की सिद्धि में भी भेद हो जाता है।


 ईश्वरप्रणिधानाद्वा ॥ २३॥


सूत्रार्थ अथवा ईश्वर के प्रति भक्ति से भी (समाधि सिद्ध होती है।)। 


क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ॥ २४॥ 


सूत्रार्थ - दुःख, कर्म, कर्मफल और वासना के सम्बन्ध से रहित पुरुषविशेष ईश्वर (परम नियन्ता) है।


व्याख्या - हमें यहाँ फिर से स्मरण करना होगा कि पातंजल योगदर्शन सांख्यदर्शन पर आधारित है। भेद केवल इतना है कि सांख्यदर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, जब कि योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। ईश्वर को मानने पर भी योगीगण ईश्वरसम्बन्धी सृष्टिकर्तृत्व आदि विविध भावों की कोई बात नहीं उठाते। योगियों के ईश्वर से जगत् के सृष्टिकर्ता ईश्वर का बोध नहीं होता। वेद के मतानुसार ईश्वर जगत्-स्रष्टा है। चूँकि जगत् में सामंजस्य देखा जाता है, अतः जगत् अवश्य एक इच्छाशक्ति की ही अभिव्यक्ति होगा।योगीगण ईश्वर का अस्तित्व स्थापित करने के लिए एक नये प्रकार की युक्ति काम में लाते हैं। वे कहते हैं :


तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्वबीजम् ॥ २५ ॥


सूत्रार्थ - औरों में जिस सर्वज्ञत्व का बीज मात्र रहता है, वही उनमें निरतिशय अर्थात् अनन्त भाव धारण करता है।


व्याख्या - मन को सदैव अति बृहत् और अति क्षुद्र, इन दो चरम भावों के भीतर ही घूमना पड़ता है। तुम एक ससीम देश की बात भले ही सोचो, पर वही भावना तुम्हारे भीतर असीम देश का भाव भी जगा देगी। यदि आँखें बन्द करके तुम एक छोटेसे देश के बारे में सोचो, तो देखोगे, इस छोटेसे देशरूप वृत्त के साथ ही उसके चारों ओर अमर्यादित विस्तारवाला एक दूसरा वृत्त भी है। काल के बारे में भी ठीक यही बात है। मान लो, तुम एक सेकण्ड समय के बारे में सोच रहे हो। 


तो उसके साथ ही साथ तुमको अनन्त काल की भी बात सोचनी पड़ेगी। ज्ञान के बारे में भी ठीक ऐसा ही समझना चाहिए। मनुष्य में ज्ञान का केवल बीजभाव है; पर इस क्षुद्र ज्ञान बात मन में लाने के साथ ही अनन्त ज्ञान के बारे में भी सोचना पड़ेगा। इस प्रकार हमारे मन की गठन से ही यह बिलकुल स्पष्ट है कि एक अनन्त ज्ञान है। इस अनन्त ज्ञान को ही योगीगण ईश्वर कहते हैं।


 स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ॥ २६ ॥


सूत्रार्थ - वह प्राचीन गुरुगणों का भी गुरु है, क्योंकि वह काल से सीमित नहीं है। 


व्याख्या - यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है, पर उसे एक दूसरे ज्ञान के द्वारा जागृत करना पड़ता है। यद्यपि जानने की शक्ति हमारे अन्दर ही विद्यमान है, फिर भी हमें उसे जगाना पड़ता है। और योगियों के मतानुसार, ज्ञान को इस प्रकार जगाना अर्थात् ज्ञान का उन्मेष एक दूसरे ज्ञान के सहारे ही हो सकता है। अचेतन जड पदार्थ ज्ञान का विकास कभी नहीं करा सकता - केवल ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है, उसको जगाने के लिए ज्ञानी पुरुषों का हमारे पास होना सदैव आवश्यक है। यही कारण है कि इन गुरुओं की आवश्यकता सदा ही बनी रही है। 


जगत् कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ। उनकी सहायता बिना कोई भी ज्ञान नहीं आ सकता। ईश्वर सारे गुरुओं का भी गुरु है, क्योंकि ये सब गुरु कितने ही उन्नत क्यों न रहे हों, वे देवता या स्वर्गदूत ही क्यों न रहे हों, पर वे सब के सब बद्ध थे और काल से सीमित थे; किन्तु ईश्वर काल से आबद्ध नहीं है। योगियों के दो विशेष सिद्धान्त हैं। एक तो यह कि सान्त वस्तु की भावना करते ही मन बाध्य होकर अनन्त की भी बात सोचेगा, और यदि उस मानसिक अनुभूति का एक भाग सत्य हो, तो उसका दूसरा भाग भी अवश्यमेव सत्य होगा। क्यों ? इसलिए कि जब दोनों उस एक ही मन की अनुभूतियाँ हैं, तो दोनों अनुभूतियों का मूल्य समान ही होगा। 


मनुष्य का ज्ञान अल्प है अर्थात् मनुष्य अल्पज्ञ है-इसी से जाना जाता है कि ईश्वर का ज्ञान अनन्त है, ईश्वर अनन्त ज्ञानसम्पन्न है। यदि हम इन दोनों अनुभूतियों में से एक ग्रहण करें, तो दूसरे को भी क्यों न ग्रहण करेंगे ? युक्ति तो कहती है – या तो दोनों को मान लो या फिर दोनों को ही छोड़ दो। यदि मैं विश्वास करूँ कि मनुष्य अल्प ज्ञानसम्पन्न है, तो मुझे यह भी अवश्य मानना पड़ेगा कि इसके पीछे कोई असीम ज्ञानसम्पन्न पुरुष है। दूसरा सिद्धान्त यह है कि गुरु बिना कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता। 


आजकल के दार्शनिकों का जो कथन हैं कि मनुष्य का ज्ञान उसके स्वयं के भीतर से उत्पन्न होता है, यह सच है; सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर ही विद्यमान है, पर उस ज्ञान के विकास के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। हम गुरु बिना कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। अब बात यह है कि यदि मनुष्य, देवता अथवा कोई स्वर्गदूत हमारे गुरु हों, तो वे भी तो ससीम हैं; फिर उनसे पहले उनके गुरु कौन थे ? हमें मजबूर होकर यह चरम सिद्धान्त स्थिर करना ही होगा कि एक ऐसे गुरु हैं जो काल के द्वारा सीमाबद्ध या अवच्छिन्न नहीं हैं। उन्हीं अनन्त ज्ञानसम्पन्न गुरु को, जिनका आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, ईश्वर कहते हैं।


 तस्य वाचकः प्रणवः ॥२७॥


 सूत्रार्थ - प्रणव अर्थात् ओंकार उसका वाचक (प्रकाशक) है।


व्याख्या- तुम्हारे मन में जो भी भाव उठता है, उसका एक प्रतिरूप शब्द भी रहता है; इस शब्द और भाव को अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु के बाहरी भाग को शब्द और अन्तर्भाग को विचार या भाव कहते हैं। कोई भी व्यक्ति विश्लेषण के बल से विचार को शब्द से अलग नहीं कर सकता। बहुतों का मत है- कुछ लोग एक साथ बैठकर यह स्थिर करने लगे. कि किस भाव के लिए कौनसे शब्द का प्रयोग किया जाए, और इस प्रकार भाषा की उत्पत्ति हो गयी। किन्तु यह प्रमाणित हो चुका है कि यह मत भ्रमात्मक है। जब से मनुष्य विद्यमान है, तब से शब्द और भाषाएँ रही हैं। 


अब प्रश्न यह है कि एक भाव और एक शब्द में परस्पर क्या सम्बन्ध है। यद्यपि हम देखते हैं कि एक भाव के साथ एक शब्द का रहना अनिवार्य है, तथापि ऐसा नहीं कि एक भाव और एक शब्द में परस्पर क्या सम्बन्ध है। यद्यपि हम देखते हैं कि एक भाव के साथ एक शब्द का रहना अनिवार्य है, तथापि ऐसा नहीं कि एक भाव एक ही शब्द द्वारा प्रकाशित हो। बीस विभिन्न देशों में भाव एक ही होने पर भी भाषाएँ बिलकुल भिन्न भिन्न हो सकती हैं। प्रत्येक भाव को प्रकट करने के लिए एक न एक शब्द की आवश्यकता अवश्य होगी, किन्तु इन शब्दों का एक ही ध्वनिविशिष्ट होना कोई आवश्यक नहीं। विभिन्न देशों में भिन्न भिन्न ध्वनिविशिष्ट शब्दों का व्यवहार होगा। इसीलिए टीकाकार ने कहा है, “यद्यपि भाव और शब्द का परस्परसम्बन्ध स्वाभाविक है तथापि एक ध्वनि और एक भाव के बीच एक नितान्त अलंघनीय सम्बन्ध ही रहे, ऐसी कोई बात नहीं।"यद्यपि ये सब ध्वनियाँ भिन्न भिन्न होती हैं, तो भी ध्वनि और भाव का परस्परसम्बन्ध स्वाभाविक है। 


यदि वाच्य और वाचक के बीच यथार्थ सम्बन्ध रहे, तभी यह कहा जा सकता है कि भाव और ध्वनि के बीच परस्परसम्बन्ध है। यदि ऐसा न हो, तो वह वाचक शब्द कभी सर्वसाधारण के उपयोग में नहीं आ सकता। वाचक वाच्यपदार्थ का प्रकाशक होता है। यदि वह वाच्यवस्तु पहले से अस्तित्व में रहे, और हम यदि पुनःपुनः परीक्षा द्वारा यह देखें कि उस वाचक शब्द ने उस वस्तु को अनेक बार सूचित किया है, तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि उस वाच्य और वाचक के बीच एक यथार्थ सम्बन्ध है। यदि वे वाच्यपदार्थ न भी रहें, तो भी हजारों मनुष्य उनके वाचकों के द्वारा ही उनका ज्ञान प्राप्त करेंगे। पर हाँ, वाच्य और वाचक के बीच एक स्वाभाविक सम्बन्ध रहना अनिवार्य है। 

ऐसा होने पर, ज्योंही उस वाचकशब्द का उच्चारण किया जाएगा, त्योंही वह उस वाच्यपदार्थ की बात मन में ला देगा। सूत्रकार कहते हैं, ओंका र ईश्वर का वाचक है। सूत्रकार ने विशेष रूप से 'ॐ' शब्द का ही उल्लेख क्यों किया है ? 'ईश्वर' '-इस भाव को व्यक्त करने के लिए तो सैकड़ों शब्द हैं। एक भाव के साथ हजारों शब्दों का सम्बन्ध रहता है। 'ईश्वर' – इस भाव का सैकड़ों शब्दों के साथ सम्बन्ध हैं और उनमें से प्रत्येक ही तो ईश्वर का वाचक है। फिर उन्होंने 'ॐ' को ही क्यों चुना? हाँ, ठीक है; पर वैसा होने पर भी उन शब्दों में से एक सामान्य शब्द चुन लेना चाहिए। उन सारे वाचकों का एक सामान्य आधार निकालना होगा, और जो वाचकशब्द सब का सामान्य वाचक होगा, वही सर्वश्रेष्ठ समझा जाएगा, और वास्तव में वही उसका यथार्थ वाचक होगा। किसी ध्वनि के लिए हम कण्ठनली और तालु का ध्वनि के आधाररूप में व्यवहार करते हैं। 


क्या ऐसी कोई भौतिक ध्वनि है, जिसकी कि अन्य सब ध्वनियाँ अभिव्यक्ति हैं, जो स्वभावतः ही दूसरी सब ध्वनियों को समझा सकती है? हाँ, 'ओम्' (अउम्) ही वह ध्वनि है; वही सारी ध्वनियों की भित्तिस्वरूप है। उसका प्रथम अक्षर 'अ' सभी ध्वनियों का मूल है - वह सारी ध्वनियों की कुंजी के समान है, वह जिह्वा या तालु के किसी अंश को स्पर्श किये बिना ही उच्चारित होता है। 'म्' ध्वनि-शृंखला की अन्तिम ध्वनि है, उसका उच्चारण करने में दोनों ओठों को बन्द करना पडता है। और 'उ' ध्वनि जिह्वा के मूल लेकर मुख के मध्यवर्ती ध्वनि के आधार की अन्तिम सीमा तक मानो ढुलकता आता है। इस प्रकार 'ॐ' शब्द के द्वारा ध्वनि-उत्पादन की सम्पूर्ण क्रिया प्रकट हो जाती है। अतएव वही स्वाभाविक वाचकध्वनि है, वही सब विभिन्न ध्वनियों की जननीस्वरूप है।


 जितने प्रकार के शब्द उच्चारित हो सकते हैं - हमारी ताकत में जितने प्रकार के शब्द के उच्चारण की सम्भावना है, 'ओम्' उन सभी का सूचक है। यह सब तात्त्विक चर्चा छोड़ देने पर भी, हम देखते हैं कि भारतवर्ष में जितने सारे विभिन्न धर्मभाव हैं, यह ओंकार उन सब का केन्द्रस्वरूप है, वेद के सब विभिन्न धर्मभाव इस ओंकार का ही अवलम्बन किये हुए हैं। अब प्रश्न यह है कि इसके साथ अमेरिका, इंग्लैण्ड और अन्यान्य देशों का क्या सम्बन्ध है। उत्तर यह है सब देशों में इस ओंकार का व्यवहार हो सकता है। कारण, भारत में धर्म के विकास की प्रत्येक अवस्था में - उसके प्रत्येक सोपान में ओंकार को अपनाया गया है, उसका आश्रय लिया गया है और वह ईश्वरसम्बन्धी सारे विभिन्न भावों को व्यक्त करने के लिए व्यवहृत हुआ है।


अद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, भेदवादी, यहाँ तक कि नास्तिकों ने भी अपने उच्चतम आदर्श को प्रकट करने के लिए इस ओंकार का अवलम्बन किया था। मानवजाति के अधिकांश के लिए यह ओंकार उनकी अपनी धार्मिक स्पृहा का एक प्रतीक बन गया है। अंग्रेजी गॉड (God) शब्द को लो। यह जिस भाव को प्रकट करता है, वह कोई अधिक दूर तक नहीं जा सकता। यदि तुम उसके अतिरिक्त अन्य कोई भाव उस शब्द से व्यक्त करने की इच्छा करो, तो तुम्हें उसमें विशेषण लगाना पड़ेगा जैसे सगुण (personal), निर्गुण (impersonal), निर्विशेष (absolute), आदि आदि। अन्य दूसरी भाषाओं में ईश्वरवाचक जो सब शब्द हैं, उनके बारे में भी यही बात होती है, उनमें बहुत कम भाव प्रकट करने की शक्ति है; किन्तु 'ॐ' शब्द में ये सभी प्रकार के भाव विद्यमान हैं। अतएव सर्वसाधारण को उसका ग्रहण करना चाहिए।


तज्जपस्तदर्थ भावनम् ॥ २८॥


सूत्रार्थ- इस (ओंकार) का जप और उसके अर्थ का ध्यान (समाधिलाभ का उपाय है)।


व्याख्या- जप अर्थात् बारम्बार उच्चारण की आवश्यकता क्या है ? हम संस्कारविषयक मतवाद को न भूले होंगे। हमें स्मरण होगा कि समस्त संस्कारों की समष्टि हमारे मन में विद्यमान है। ये संस्कार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अव्यक्त भाव धारण करते हैं। पर वे बिलकुल लुप्त नहीं हो जाते, वे मन के अन्दर ही रहते हैं, और ज्योंही उन्हें यथोचित उद्दीपना मिलती है, बस, त्योंही वे चित्तरूपी सरोवर की सतह पर उठ आते हैं। परमाणु- कम्पन कभी बन्द नहीं  होता।


जब यह सारा संसार नाश को प्राप्त होता है, तब सब बड़े बड़े कम्पन या प्रवाह लुप्त हो जाते हैं; सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, सभी लय को प्राप्त हो जाते हैं; पर कम्पन परमाणुओं में बच रहते हैं। इन बड़े बड़े ब्रह्माण्डों में जो कार्य होता है, प्रत्येक परमाणु वही कार्य करता है। ठीक ऐसा ही चित्त के बारे में भी है। चित्त में होनेवाले सब कम्पन अदृश्य अवश्य हो जाते हैं, फिर भी परमाणु  के कम्पन के समान उनकी सूक्ष्म गति अक्षुण्ण बनी रहती है, और ज्योंही उन्हें कोई संवेग मिलता है, बस, त्योंही वे पुनः बाहर आ जाते हैं।अब हम समझ सकेंगे कि जप अर्थात् बारम्बार उच्चारण का तात्पर्य क्या है। हम लोगों के अन्दर जो आध्यात्मिक संस्कार हैं, उन्हें विशेष रूप से उद्दीप्त करने में यह प्रधान सहायक है। “क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका। भवति भवार्णवतरणे नौका।"- साधुओं का एक क्षण का भी सत्संग भवसागर पार होने के लिए नौकास्वरूप है। 


संत्संग की ऐसी जबरदस्त शक्ति है। बाह्य सत्संग की जैसी शक्ति बतलायी गयी है, वैसी ही आन्तरिक सत्संग की भी है। इस ओंकार का बारम्बार जप करना और उसके अर्थ का मनन करना ही आन्तरिक सत्संग है। जप करो और उसके साथ उस शब्द के अर्थ का ध्यान करो। ऐसा करने से, देखोगे, हृदय में ज्ञानालोक - आएगा और आत्मा प्रकाशित हो जाएगी।'ॐ' शब्द पर मनन तो करोगे ही, पर साथ ही उसके अर्थ पर भी मनन करो। कुसंग छोड़ दो; क्योंकि पुराने घाव के चिह्न अभी भी तुममें बने हुए हैं; उन पर कुसंग की गर्मी लगने भर की देर है कि बस, वे फिर से ताजे हो उठेंगे। ठीक इसी प्रकार हम लोगों में जो उत्तम संस्कार हैं, वे भले ही अभी अव्यक्त हों, पर सत्संग से वे फिर से जागृत हो जाएँगे - व्यक्त भाव धारण कर लेंगे। संसार में सत्संग से पवित्र और कुछ भी नहीं है, क्योंकि सत्संग से ही शुभ संस्कार चित्तरूपी सरोवर की तली से ऊपरी सतह पर उठ आने के लिए उन्मुख होते हैं।


ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च ॥ २९ ॥


सूत्रार्थ - उससे अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है और (योग के) विघ्नों का नाश होता है।


व्याख्या - इस ओंकार के जप और चिन्तन का पहला फल यह देखोगे कि क्रमशः अन्तर्दृष्टि विकसित होने लगेगी और योग के मानसिक एवं शारीरिक विघ्नसमूह दूर होते जाएँगे। योग के ये विघ्न क्या हैं ?


व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्ध-

भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ ३० ॥


सूत्रार्थ – रोग, मानसिक जड़ता, सन्देह, उद्यमशून्यता, आलस्य, विषयतृष्णा, मिष्या अनुभव, एकाग्रता न पाना, और उसे पाने पर भी उससे च्युत हो जाना-ये जो चित्त के विक्षेप हैं, वे ही विघ्न हैं।


व्याख्या - व्याधिः इस जीवनसमुद्र के उस पार जाने के लिए यह शरीर ही एकमात्र नाव है। इसे स्वस्थ रखने के लिए विशेष यत्न करना चाहिए। जिसका शरीर अस्वस्थ है, वह योगी नहीं हो सकता। मानसिक जड़ता आने पर हमारी योगविषयक सारी रुचि खो जाती है। और इस रूचि के अभाव में, साधना करने के लिए न तो दृढ़ संकल्प होगा, न शक्ति ही मिलेगी। इस विषय में हमारा विचारजनित विश्वास कितना भी बलशाली क्यों न रहे, पर जब तक दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि अलौकिक अनुभूतियाँ नही होतीं, तब तक इस विद्या की सत्यता के बारे में बहुतसे संशय उपस्थित होंगे।


जब इन सब का थोड़ा थोड़ा आभास होने लगता है, तब साधक साधनमार्ग में और भी अध्यवसायशील होता जाता है। अनवस्थितत्व : साधन करते करते देखोगे कि कुछ दिन या कुछ सप्ताह तो मन अनायास ही एकाग्र और स्थिर हो जाता है; उस समय ऐसा मालूम होगा कि तुम साधनमार्ग में बहुत शीघ्र उन्नति कर रहे हो। किन्तु अचानक एक दिन देखोगे कि तुम्हारा यह उन्नति-स्रोत बन्द हो गया है, मानो जहाज दलदल में फँस गया हो। पर उससे कहीं हताश मत हो जाना, अध्यवसाय मत खो बैठना। लगे रहो। इस प्रकार उत्थान और पतन में से होते हुए ही उन्नति होती है।


दुःखदौर्मनस्याङ्गमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुवः ॥ ३१॥


सूत्रार्थ -दुःख, मन खराब होना, शरीर हिलना, अनियमित श्वास-प्रश्वास ये सब (चित्त के) विक्षेपों के साथ साथ उत्पन्न होते हैं।


व्याख्या -जब कभी एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, तभी मन और शरीर पूर्ण स्थिरभाव धारण करते हैं। जब साधना ठीक तरीके से नहीं होती, अथवा जब चित्त पर्याप्त संयत नहीं रहता, तभी ये सब विघ्न आ उपस्थित होते हैं। ओंकार के जप और ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण से मन दृढ होता है तथा नया बल प्राप्त होता है। साधनमार्ग में ऐसी स्नायविक चंचलता प्रायः सभी को आती है। उधर तनिक भी ध्यान न दे साधना करते रहो। साधना से ही वे सब चले जाएँगे, और तब आसन स्थिर हो जाएगा।


तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ॥ ३२ ॥


सूत्रार्थ - उनको दूर करने के लिए एक तत्त्व का अभ्यास (करना चाहिए)।


व्याख्या - कुछ समय तक के लिए मन को किसी विशिष्ट विषय के आकार में परिणत करने की चेष्टा करने से पूर्वोक्त विघ्न दूर हो जाते हैं। यह उपदेश अत्यन्त साधारण रूप से दिया गया है। अगले सूत्रों में यही उपदेश विस्तृत रूप से समझाया जाएगा और विशिष्ट ध्येय-विषयों के सम्बन्ध में इस साधारण उपदेश का प्रयोग बतलाया जाएगा। एक ही प्रकार का अभ्यास सब के लिए उपयोगी नहीं हो सकता, इसीलिए विभिन्न उपायों की बात कही गयी है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं यथार्थ अनुभव द्वारा अपने लिए जो उपाय सहायक है, उसे चुन ले सकता है।


 मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां

 भावनातश्चित्तप्रसादनम् ॥ ३३ ॥


सूत्रार्थ- सुख, दुःख, पुण्य और पाप-इन भावों के प्रति क्रमशः मित्रता, दया, आनन्द और उपेक्षा का भाव धारण कर सकने से चित्त प्रसन्न होता है।


व्याख्या - हममें ये चार प्रकार के भाव रहने ही चाहिए। यह आवश्यक है कि हम सब के प्रति मैत्रीभाव रखें, दीन-दुखियों के प्रति दयावान हों, लोगों को सत्कर्म करते देख सुखी हों, और दुष्ट मनुष्य के प्रति उपेक्षा दिखाएँ। इसी प्रकार, जो भी विषय हमारे सामने आते हैं, उन सब के प्रति भी हमारे ये ही भाव रहने चाहिए। यदि कोई विषय सुखकर हो, तो उसके प्रति मित्रता अर्थात् अनुकूल भाव धारण करना चाहिए। इसी तरह, यदि हमारी भावना का विषय दुःखकर हो, तो हमारे अन्तःकरण को उसके प्रति करुणापूर्ण होना चाहिए। 


यदि वह कोई शुभ विषय हो, तो हमें आनन्दित होना चाहिए, तथा अशुभ विषय होने पर उसके प्रति उदासीन रहना ही श्रेयस्कर है। इन सब विभिन्न विषयों के प्रति मन के इस प्रकार विभिन्न भाव धारण करने से मन शान्त हो जाएगा। मन की इस प्रकार के विभिन्न भावों को धारणा करने की असमर्थता ही हमारे दैनिक जीवन की अधिकांश गड़बड़ी एवं अशान्ति का कारण है। मान लो, किसी ने मेरे प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया।तो मैं तुरन्त उसका प्रतिकार करने को उद्यत हो जाता हूँ। और इस प्रकार बदला लेने की भावना ही यह दिखाती है कि हम चित्त को दबा रखने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित होता है, और बस, हम अपनी मन की शक्ति खो बैठते हैं। 


हमारे मन में घृणा अथवा दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है, वह मन की शक्ति का अपचय मात्र है। दूसरी ओर, यदि किसी अशुभ विचार या घृणाप्रसूत कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाए, तो उससे शुभकरी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिए संचित रहती है। यह बात नहीं कि इस प्रकार के संयम से हमारी कोई क्षति होती हो, वरन् उससे तो हमारा आशातीत उपकार ही होता है। जब कभी हम घृणा अथवा क्रोध की वृत्ति को संयत करते हैं, तभी वह हमारे अनुकूल शुभ शक्ति के रूप में संचित होकर उच्चतर शक्ति में परिणत हो जाती है।


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य ॥ ३४ ॥


सूत्रार्थ - अथवा प्राणवायु को बाहर निकालने और धारण करने से भी (चित्त स्थिर होता है)।


व्याख्या - यहाँ पर 'प्राण' शब्द का व्यवहार हुआ है। प्राण ठीक श्वास नहीं है। समग्र जगत् में जो ऊर्जाशक्ति व्याप्त हुई है, उसी का नाम है प्राण। संसार में तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ हिलता-डुलता या कार्य करता है, जिसमें भी जीवन है-वह सब इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। जगत् में जितनी भी शक्तियाँ विद्यमान हैं, उनकी समष्टि को प्राण कहते हैं। कल्प-आरम्भ के पूर्व यह प्राण एक प्रकार से बिलकुल गतिहीन अवस्था में रहता है, और कल्प के शुरू होने पर वह फिर से व्यक्त होना प्रारम्भ करता है। यह प्राण ही गति के रूप में मनुष्यों अथवा अन्य प्राणियों में स्नायविक गति के रूप में प्रकाशित होता है। फिर यही विचार तथा अन्य शक्तियों के रूप में भी प्रकाशित होता है। यह सारा जगत् इस प्राण एवं आकाश की समष्टि है।


मनुष्यदेह के बारे में भी ठीक यही बात जो कुछ तुम देखते हो या अनुभव करते हो, वे सारे पदार्थ आकाश से उत्पन्न हुए हैं और प्राण से सारी विभिन्न शक्तियाँ। इस प्राण को बाहर निकालने और धारण करने का नाम ही प्राणायाम है। योगदर्शन के जनक पंतजलि ने इस प्राणायाम के बारे में कोई विशेष विधान नहीं किया है, परन्तु उनके बाद दूसरे योगियों ने इस प्राणायाम के सम्बन्ध में अनेक तत्त्वों का आविष्कार करके उसकी एक महान् विद्या तैयार कर दी। पतंजलि के मतानुसार यह प्राणायाम चित्तवृत्तिनिरोध के विभिन्न उपायों में से केवल एक उपाय है, परन्तु उन्होंने इस पर कोई विशेष जोर नहीं दिया है। उनका अभिप्राय इतना ही रहा है कि श्वास को बाहर निकालकर फिर से अन्दर खींच लो और कुछ देर तक उसे धारण किये रखो, उससे मन अपेक्षाकृत कुछ स्थिर हो जाएगा। किन्तु बाद में इसी से प्राणायाम नामक एक विशेष विद्या की उत्पत्ति हो गयी। अब हम देखेंगे कि ये सब परवर्ती योगी उसके बारे में क्या कहते हैं।


इस सम्बन्ध में मैंने पहले ही कुछ कहा है, यहाँ पर उसकी कुछ पुनरावृत्ति करने से वह मन में पक्का बैठ जाएगा। पहले तो, यह ध्यान रखना होगा कि यह प्राण ठीक श्वास-प्रश्वास नहीं है; वरन् जिस शक्ति के बल से श्वास-प्रश्वास की गति होती है, जो वस्तुतः श्वास-प्रश्वास की भी जीवनीशक्ति है, वही प्राण है। फिर, यह 'प्राण' शब्द सब इन्द्रियों के लिए भी व्यवहार में लाया जाता है; वे सब की सब प्राण कहलाती हैं; मन को भी प्राण कहा जाता है। अतएव हम देखते हैं कि प्राण का अर्थ है शक्ति । तो भी इसे हम शक्ति नाम नहीं दे सकते, क्योंकि शक्ति तो इस प्राण की अभिव्यक्ति मात्र है। यह प्राण ही शक्ति तथा नाना प्रकार की गति रूप में प्रकाशित होता है। 


चित्तयन्त्रस्वरूप होकर चारों ओर से प्राण को भीतर खींचता है और उससे शरीररक्षा करनेवाली विभिन्न जीवनीशक्तियाँ तथा विचार, इच्छा एवं अन्यान्य सब शक्तियाँ उत्पन्न करता है। पूर्वोक्त प्राणायाम-क्रिया से हम शरीर की समस्त भिन्न भिन्न गतियों को तथा शरीर के अन्तर्गत समस्त भिन्न भिन्न स्नायविक शक्तिप्रवाहों को वश में ला सकते हैं। पहले हम उनको पहचानने लगते हैं, उनका साक्षात् अनुभव करने लगते हैं, और फिर धीरे धीरे उन पर अधिकार प्राप्त करते जाते हैं-उनको वशीभूत करने में सफल होते जाते हैं।


पतंजलि के बाद के इन योगियों के मतानुसार मनुष्यदेह में तीन मुख्य प्राणप्रवाह अर्थात् नाड़ियाँ हैं। वे एक को इड़ा, दूसरे को पिंगला और तीसरे को सुषुम्ना कहते हैं। उनके मतानुसार, पिंगला मेरुदण्ड के दाहिनी ओर विद्यमान है और इड़ा बायीं ओर, और उस मेरुदण्ड के मध्य में से होते हुए सुषुम्ना नाम की एक खोखली नली है। उनके मतानुसार इड़ा और पिंगला, ये दो नाड़ियाँ प्रत्येक मनुष्य में कार्य करती हैं, उनके सहारे ही हमारा जीवन चलता है। सुषुम्ना का कार्य सभी में होना सम्भव अवश्य है, किन्तु असल में योगी के शरीर में ही वह कार्यशील रहती है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि योगी योगसाधना के बल से अपने शरीर को परिवर्तित कर लेते हैं।


तुम जितनी ही साधना करोगे तुम्हारा शरीर उतना ही परिवर्तित होता जाएगा। साधना के पूर्व तुम्हारा शरीर जैसा था, बाद में वैसा नहीं रह जाएगा। यह बात कोई अयौक्तिक नहीं है; युक्ति के द्वारा इसको समझाया जा सकता है। हम जो कुछ नये विचार सोचते हैं, वे मानो हमारे मस्तिष्क में एक नया मार्ग तैयार कर देते हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि मनुष्य-स्वभाव इतना प्रबल रूढ़िवादी या गतानुगतिक क्यों है। मनुष्य-स्वभाव ही ऐसा है कि वह पहले चले हुए रास्ते में ही चलना पसन्द करता है, क्योंकि वह सरल होता है। यदि दृष्टान्त के रूप में हम सोचें कि मन एक सुई के समान है और मस्तिष्क उसके सामने एक कोमल पिण्ड, तो हम देखेंगे की हमारा प्रत्येक विचार मस्तिष्क के अन्दर मानो एक रास्ता - एक लीक तैयार कर देता है; और यदि मस्तिष्क के अन्दर का धूसर पदार्थ उस रास्ते के चारो ओर एक सीमा खड़ी न कर दें, तो वह रास्ता बन्द हो जाएगा।


यदि वह धूसर रंगवाला पदार्थ न रहता, तो हमारी स्मृति ही सम्भव न होती; क्योंकि स्मृति का अर्थ है मानो इन पुराने रास्तों पर से होकर जाना - जो विचार एक बार उठ चुके हैं, उनका मानो पदानुगमन करना। तुम लोगों ने शायद गौर किया होगा, जब कोई व्यक्ति सब लोगों के परिचित कुछ विषयों को लेकर, उन्हीं को घुमा-फिराकर कुछ बोलता है, तो तुम सब अनायास ही उसकी बात समझ लेते हो। इसका कारण बस, इतना ही है कि इस विचार की लीकें या प्रणालियाँ हर एक के मस्तिष्क में विद्यमान हैं, और उन पर से होकर केवल बारम्बार आना-जाना मात्र आवश्यक होता है। परन्तु जब कभी कोई नया विषय हमारे सामने आता है, तब मस्तिष्क में एक नये मार्ग के निर्माण की आवश्यकता होती है; इसीलिए वह विषय उतनी सरलता से समझ में नहीं आता।


यही कारण है। मस्तिष्क (मनुष्य नहीं, मस्तिष्क ही) बिना जाने ही किसी नये प्रकार के भाव द्वारा परिचालित होने से इन्कार करता है। वह मानो बलपूर्वक इस नये प्रकार के भाव की गति को रोकने का प्रयत्न करता है। प्राण नये नये मार्ग बनाने का प्रयत्न कर रहा है, और मस्तिष्क उसे करने नहीं देता। बस, यही मनुष्य की रूढ़िवादिता का रहस्य है। मस्तिष्क में ये मार्ग जितने थोड़े परिमाण में होंगे और प्राणरूप सुई उसके भीतर जितनी कम लीकें तैयार करेगी, मस्तिष्क उतना ही रूढ़िवादी होगा, वह उतना ही नये प्रकार के विचार और भाव के विरुद्ध लड़ाई ठानेगा। मनुष्य जितना ही चिन्तनशील होता है, उसके मस्तिष्क के भीतर के मार्ग उतने ही अधिक जटिल होते हैं, और उतनी ही सुगमता से वह नये नये भाव ग्रहण कर सकता है तथा उन्हें समझ सकता है।


प्रत्येक नवीन भाव के सम्बन्ध में ऐसा ही समझना चाहिए। मस्तिष्क में एक नवीन भाव आते ही उसके भीतर एक नया मार्ग तैयार हो जाता है। यही कारण है कि योगाभ्यास के समय हमारे सामने पहले इतनी शारीरिक बाधाएँ आती हैं; (क्योंकि योग सम्पूर्णतया नवीन प्रकार के विचारों एवं भावों की समष्टि है।) इसीलिए हम देखते हैं कि धर्म का वह अंश,जो प्राकृतिक, जागतिक भाव को लेकर व्यस्त रहता है, सर्वसाधारण के लिए बहुत मान्य होता है, और उसका दूसरा अंश अर्थात् दर्शन या मनोविज्ञान, जो केवल मनुष्य के आभ्यन्तरिक प्रकृति को लेकर संलग्न रहता है, वह प्रायशः लोगों द्वारा उपेक्षित होता है।


हमें अपने इस जगत् की व्याख्या स्मरण रखनी चाहिए। हमारा यह जगत् क्या है ? वह तो हमारे ज्ञान के स्तर पर प्रक्षिप्त अनन्त सत्ता मात्र है। अनन्त का केवल कुछ अंश हमारे ज्ञान के भीतर प्रक्षिप्त हुआ है, जिसे हम अपना जगत् कहते हैं। अतएव हमने देखा कि जगत् के अतीत एक अनन्त सत्ता विद्यमान है। और धर्म को इन दोनों को लेकर व्यस्त रहना पड़ता है। अर्थात् यह क्षुद्र पिण्ड, जिसे हम अपना जगत् कहते हैं, और जगत् के अतीत अनन्त सत्ता - ये दोनों ही धर्म के विषय हैं। जो धर्म इन दोनों में से केवल एक को लेकर रहता है, वह अपूर्ण है। धर्म को इन दोनों को ही अपना विषय बनाना चाहिए।


अनन्त का जो भाग हम अपने इस ज्ञान के भीतर से अनुभव करते हैं, जो मानो देश-काल-निमित्तरूप चक्र के भीतर आ पड़ा है, उसको धर्म के जिस अंश ने अपना विषय बनाया है, वह अंश अनायास हमें बोधगम्य हो जाता है, क्योंकि हम तो पहले से ही उसी के अन्दर हैं और लगभग स्मरणातीत काल से ही जगत्-सम्बन्धी भाव से हम परिचित हैं। पर धर्म का वह अंश, जो सीमाहीन अनन्त को लेकर संलग्न रहता है, वह हमारे लिए सर्वथा नवीन है; इसीलिए उसके चिन्तन से मस्तिष्क में नयी लीक तैयार होती रहती है, जिससे सारा शरीर-मन ही मानो उलट-पलट जाता है। यही कारण है कि साधना करते समय साधारण मनुष्य पहले-पहल अपने मार्ग से विच्युत हो जाता है। इन विघ्न-बाधाओं को यथासम्भव कम करने के लिए ही पतंजलि ने इन सब उपायों का आविष्कार किया है, ताकि हम उनमें से ऐसी किसी एक साधनप्रणाली को चुनकर अपना लें, जो हमारे लिए सर्वथा उपयोगी हो।


विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धिनी ॥ ३५ ॥ 


सूत्रार्थ- जिन सब समाधियों में अलौकिक इन्द्रियविषयों की अनुभूति होती है, वे मन की स्थिति का कारण होती हैं।


व्याख्या– यह बात धारणा अर्थात् एकाग्रता से अपने आप आती रहती है; योगी कहते हैं कि यदि नासिका के अग्रभाग में मन को एकाग्र किया जाए, तो कुछ दिनों में ही अद्भुत सुगन्धि का अनुभव होने लगता है। इसी प्रकार जिह्वामूल में मन को एकाग्र करने पर सुन्दर शब्द सुनाई देता है। जिह्वाग्र में ऐसा करने पर दिव्य रसास्वादन होता है। जिह्वा के बीच में संयम करने पर प्रतीत होता है कि मैंने मानो किसी एक वस्तु का स्पर्श किया। तालु में संयम करने पर दिव्य रूप दीख पड़ते हैं। यदि कोई अस्थिरचित्त व्यक्ति इस योग के कुछ साधनों का अवलम्बन करना चाहे और फिर भी उनकी सचाई में सन्दिग्धचित्त हो, तो कुछ दिन साधना करने के बाद, ये सब अनुभूतियाँ होने पर, फिर उसे सन्देह नहीं रहेगा। तब फिर वह अध्यवसाय के साथ साधना करता रहेगा।


विशोका वा ज्योतिष्मती ॥ ३६ ॥


सूत्रार्थ - अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मान पदार्थ के (ध्यान) से भी (समाधि होती है)।


व्याख्या- यह और एक प्रकार की समाधि है। ऐसा ध्यान करो कि हृदय में मानो एक कमल है; उसकी पँखुड़ियाँ अधोमुखी हैं और उसके भीतर से सुषुम्ना गयी है। उसके बाद पूरक करो, फिर रेचक करते समय सोचो कि वह कमल पँखुड़ियों सहित ऊर्ध्वमुखी हो गया है और कमल के भीतर एक महाज्योति विद्यमान है। उस ज्योति का ध्यान करो।


वीतरागविषयं वा चित्तम् ॥ ३७॥


सूत्रार्थ- अथवा जिस हृदय ने इन्द्रियविषयों के प्रति समस्त आसक्ति छोड़ दी है, (उसके ध्यान से भी चित्त स्थिर होता है)।


व्याख्या- किन्हीं महापुरुष या साधु को लो, जो पूर्ण रूप से अनासक्त हों और जिन पर तुम्हारी अत्यन्त श्रद्धा हो । उनके हृदय के बारे में चिन्तन करो। उनका अन्तःकरण सर्वविषयों में अनासक्त हो गया है, अतः उनके अन्तःकरण के बारे में चिन्तन करने पर तुम्हारा अन्तःकरण शान्त हो जाएगा। यदि यह न कर सको, तो और एक उपाय है :


स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा ॥ ३८ ॥


सूत्रार्थ – अथवा स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका- तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी (चित्त प्रशान्त होता है) ।


व्याख्या - कभी कभी मनुष्य ऐसा स्वप्न देखता है कि उसके पास देवता आकर बातचीत कर रहे हैं; वह मानो एक प्रकार से भावावेश में चूर हो गया है; वायु में एक अपूर्व संगीत की ध्वनि बहती हुई चली आ रही है और वह उसे सुन रहा है। उस स्वप्नावस्था में वह आनन्द में मस्त रहता है। जब वह जागता है, तब स्वप्न की वे घटनाएँ उसके मन पर एक गहरी छाप छोड़ जाती हैं। उस स्वप्न को सत्य मानकर उसका ध्यान करो। यदि तुम इसमें भी समर्थ न होओ, तो जो कोई पवित्र वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, उसी का ध्यान करो।


यथाभिमतध्यानाद्वा ॥ ३९ ॥


सूत्रार्थ - अथवा जिसे जो कोई चीज अच्छी लगे, उसी के ध्यान से (समाधि प्राप्त होती है)।


व्याख्या- इससे यह न समझ लेना चाहिए कि किसी बुरी वस्तु का भी ध्यान करने से बनेगा। जो कोई भली वस्तु तुम्हें अच्छी लगे, जो स्थान तुम्हें पसन्द हो, जो दृश्य या जो भाव तुम्हें बहुत अच्छा लगता हो, जिससे तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता हो, उसी का चिन्तन करो।


परमाणुपरममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः ॥४०॥


सूत्रार्थ- इस प्रकार ध्यान करते करते परमाणु से लेकर परम बृहत् पदार्थ तक सभी में योगी के मन की गति अव्याहत हो जाती है।


व्याख्या -मन इस अभ्यास के द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म से लेकर बृहत्तम वस्तु तक सभी पर सुगमता से ध्यान कर सकता है। ऐसा होने पर ये मनोवृत्तिप्रवाह भी धीरे धीरे क्षीण होने लगते हैं।


क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्रात्येषु

तत्स्थतदञ्जनता समापत्तिः ॥ ४१ ॥


सूत्रार्थ - जिन योगी की चित्तवृत्तियाँ इस प्रकार क्षीण हो चुकी हैं (वश में आ चुकी हैं), उनका चित्त उस समय ग्रहीता (आत्मा), ग्रहण (अन्तःकरण और इन्द्रियाँ) और ग्राह्य (पंचभूत और विषयों) में उसी प्रकार एकाग्रता और एकीभाव को प्राप्त होता है, जिस प्रकार शुद्ध स्फटिक (भिन्न भिन्न रंगवाली वस्तुओं के सामने भित्र भिन्न रंग धारण करता है।)


व्याख्या- इस प्रकार लगातार ध्यान करते करते कौनसा फल प्राप्त होता है? हमें यह स्मरण होगा कि पूर्वोक्त एक सूत्र में पतंजलि ने विभिन्न प्रकार की समाधियों का वर्णन किया है। पहली समाधि है स्थूल विषय को लेकर, और दूसरी है सूक्ष्म विषय को लेकर। आगे चलकर, क्रमशः और भी सूक्ष्मतर वस्तुएँ हमारी समाधि का विषय होती जाती हैं, यह भी पहले कहा जा चुका है। इन सब समाधियों के अभ्यास का फल यह है कि हम जितनी सुगमता से स्थूल विषयों का ध्यान कर सकते हैं, उतनी ही सुगमता से सूक्ष्म विषयों का भी। इस अवस्था में योगी तीन वस्तुएँ देखते हैं-ग्रहीता, ग्राह्य और ग्रहण, अर्थात् आत्मा, विषय और मन। हमें ध्यान के लिए तीन प्रकार के विषय दिये गये हैं।


पहला है स्थूल, जैसे- शरीर या भौतिक पदार्थ; दूसरा है सूक्ष्म, जैसे-मन या चित्त; और तीसरा है गुणविशिष्ट पुरुष अर्थात् अस्मिता या अहंकार । यहाँ आत्मा का अर्थ उसके यथार्थ स्वरूप से नहीं है। अभ्यास के द्वारा योगी इन सब ध्यानों में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाते हैं। तब उन्हें ऐसी एकाग्रता-शक्ति प्राप्त हो जाती है कि ज्योंही वे ध्यान करने बैठते हैं, त्योंही अन्य सभी वस्तुओं को मन से हटा दे सकते हैं। वे जिस विषय का ध्यान करते हैं, उस विषय के साथ एक हो जाते हैं। जब वे ध्यान करते हैं, तब वे मानो स्फटिक के एक टुकड़े के समान हो जाते हैं। यह स्फटिक यदि फूल के पास रहे, तो वह फूल के साथ मानो एकरूप हो जाता है। यदि वह फूल लाल हो, तो स्फटिक भी लाल दिखाई देता है, और यदि फूल नीले रंग का हो, तो स्फटिक भी नीला दिखाई देता है।


तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥४२॥


सूत्रार्थ - शब्द, अर्थ और उससे उत्पन्न ज्ञान जब मिश्रित होकर रहते हैं, तब वह सवितर्क अर्थात् वितर्कयुक्त समाधि (कहलाती है।


व्याख्या- यहाँ शब्द का अर्थ है कम्पन। अर्थ का मतलब है वह स्नायविक शक्तिप्रवाह, जो उसे भीतर ले जाता है। और ज्ञान का अर्थ है प्रतिक्रिया । हमने अब तक जितने प्रकार की समाधि की बात सुनी है, पतंजलि उन सभी को सवितर्क कहते हैं। इसके बाद वे हमें क्रमशः और भी उच्चतर समाधियों की शिक्षा देंगे। इन सवितर्क समाधियों में हम विषयी और विषय, इन दोनों को सम्पूर्ण रूप से पृथक् रखते हैं। यह पार्थक्य या भेद शब्द, उसके अर्थ और तत्प्रसूत ज्ञान के मिश्रण से उत्पन्न होता है। पहले तो है बाह्य कम्पन - शब्द; जब वह इन्द्रिय-प्रवाह द्वारा भीतर प्रवाहित होता है, तब उसे अर्थ कहते हैं। उसके बाद चित्त में एक प्रतिक्रिया-प्रवाह आता है; उसे ज्ञान कहा जाता है। जिसे हम बाह्य वस्तु की अनुभूति कहते हैं, वह वस्तुतः इन तीनों की समष्टि मात्र है। हमने अब तक जितने प्रकार की समाधियों की बात सुनी है, उन सब में यह समष्टि ही हमारे ध्यान का विषय होती है। इसके बाद जिस समाधि के बारे में कहा जाएगा, वह अपेक्षाकृत श्रेष्ठ है।


स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ॥ ४३ ॥ 


सूत्रार्थ -जब स्मृति शुद्ध हो जाती है, अर्थात् स्मृति में जब और किसी प्रकार के गुण का सम्पर्क नहीं रह जाता, जब वह केवल ध्येय वस्तु का अर्थ मात्र प्रकाशित करती है, तब उसे निर्वितर्क अर्थात् वितर्कशून्य समाधि कहते हैं।


व्याख्या-पहले जिस शब्द, अर्थ और ज्ञान की बात कही गयी है, उन तीनों का एक साथ अभ्यास करते करते एक समय ऐसा आता है, जब वे और अधिक मिश्रित नहीं होते; तब हम अनायास ही इन त्रिविध भावों का अतिक्रमण कर सकते हैं। अब पहले हम यही समझने की विशेष चेष्टा करेंगे कि ये तीन क्या हैं। प्रथम चित्त को लो। यह हमेशा याद रखना कि चित्त अर्थात् मनस्तत्त्व की उपमा सरोवर से दी गयी है और स्पन्दन, शब्द या ध्वनि सरोवर के सतह पर आये हुए कम्पन के समान है। तुम्हारे अपने भीतर ही यह स्थिर सरोवर विद्यमान है। मान लो, मैंने 'गाय' शब्द का उच्चारण किया। ज्योंही वह तुम्हारे कान में प्रवेश करता है, त्योंही तुम्हारे चित्तरूपी सरोवर मेंएक कम्पन उठा देता है। 


यह कम्पन ही 'गाय' शब्द से सूचित भाव या अर्थ है। तुम जो सोचते हो कि मैं एक गाय को जानता हूँ, वह केवल तुम्हारे मन के भीतर रहनेवाली एक तरंग मात्र है। वह बाह्य एवं आभ्यन्तर ध्वनि-स्पन्दन की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होती है। उस ध्वनि के साथ वह तरंग भी नष्ट हो जाती है; ध्वनिजनित क्षोभ के बिना तरंग रह ही नहीं सकती। तुम पूछ सकते हो कि जब हम गाय बारे में केवल सोचते हैं, पर बाहर से कोई ध्वनि कानों नहीं पहुँचती, तब भला ध्वनि कहाँ रहती है ? उत्तर यह है कि तब वह ध्वनि तुम स्वयं करते हो। तब तुम अपने मन ही मन 'गाय' शब्द का धीरे धीरे उच्चारण करते रहते हो, और बस, उसी से तुम्हारे भीतर एक तरंग आ जाती है।


ध्वनि के इस संवेग के बिना कोई तरंग नहीं आ सकती; और जब यह संवेग बाहर से नहीं आता, तब भीतर से ही आता है। ध्वनि के साथ ही लहर का भी नाश हो जाता है। तब फिर बच क्या रहता है? तब उस प्रतिक्रिया का परिणाम भर बच रहता है। वही ज्ञान है। हमारे मन के अन्दर ये तीनों इतने दृढ़सम्बद्ध हैं कि हम उन्हें अलग नहीं कर सकते। ज्योंही ध्वनि आती है, त्योंही इन्द्रियाँ स्पन्दित हो उठती हैं और प्रतिक्रिया के रूप में एक तरंग उठ. जाती है। ये तीनों क्रियाएँ एक के बाद एक इतनी शीघ्रता से होती हैं कि उनमें एक को दूसरे से अलग करना अत्यन्त कठिन है। यहाँ जिस समाधि की बात कही गयी है, उसका दीर्घ काल तक अभ्यास करने पर स्मृति - समस्त संस्कारों की आधारभूमि - शुद्ध हो जाती है, और तब हम उनमें से एक-दूसरे को अलग कर सकते हैं। इसी को निर्वितर्क समाधि कहते हैं।


एतयैव सविचारा निर्विचारा च सूक्ष्मविषया व्याख्याता ॥ ४४॥ 


सूत्रार्थ - पूर्वोक्त दो सूत्रों में सवितर्क और निर्वितर्क जिन दो समाधियों की बात कही गयी है, उन्हीं के द्वारा सूक्ष्मतर विषयवाली सविचार और निर्विचार समाधियों की भी व्याख्या कर दी गयी है।


व्याख्या- यहाँ पहले के ही समान समझना चाहिए। भेद केवल इतना है कि पूर्वोक्त दोनों समाधियों के विषय स्थूल हैं और यहाँ वे विषय सूक्ष्म हैं।-


सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम् ॥४५॥ 


सूत्रार्थ- सूक्ष्म विषयों की अवधि प्रधान पर्यन्त है।


व्याख्या- पंच महाभूत और उनसे उत्पन्न समस्त वस्तुओं को स्थूल कहते हैं। सूक्ष्म वस्तु तन्मात्रा से शुरू होती है। इन्द्रिय, मन, अहंकार, महत्तत्त्व (जो समस्त अभिव्यक्ति का कारण है), सत्त्व, रज और तम की साम्यावस्थारूप प्रधान, प्रकृति या अव्यक्त - ये सभी सूक्ष्म वस्तु के अन्तर्गत हैं। केवल पुरुष (अर्थात आत्मा) ही इसके भीतर नहीं आता।


ता एव सबीजः समाधिः ॥ ४६ ॥


सूत्रार्थ - ये सभी सबीज समाधि हैं।


व्याख्या - इन सब समाधियों में पूर्वकर्मों का बीज नष्ट नहीं होता; अतः उनसे मुक्ति प्राप्त नहीं होती। तो फिर उनसे होता क्या है ? यह आगे के सूत्र में बतलाया गया है।


निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः ॥४७॥ 


सूत्रार्थ- निर्विचार समाधि की निर्मलता होने पर चित्त की स्थिति दृढ़ हो जाती है। 


ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा ॥ ४८ ॥ 


सूत्रार्थ - उसमें जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है, उसे ऋतम्भर यानी सत्यपूर्ण ज्ञान कहते हैं।


व्याख्या - अगले सूत्र में इसकी व्याख्या होगी।


श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ॥४९॥ 


सूत्रार्थ- जो ज्ञान विश्वस्त मनुष्यों के वाक्य और अनुमान से प्राप्त होता है, वह सामान्य वस्तुविधयक होता है। जो विषय आगम और अनुमान से उत्पन्न ज्ञान के गोचर नहीं हैं, वे पूर्वोक्त समाधि द्वारा प्रकाशित होते हैं।


व्याख्या- तात्पर्य यह है कि हमें सामान्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव, उस पर आधारित अनुमान और विश्वस्त मनुष्यों के वाक्यों से होता है। 'विश्वस्त मनुष्यों' से योगियों का तात्पर्य है 'ऋषि', और ऋषि का अर्थ है वेदों में लिपिबद्ध मन्त्रों के द्रष्टा । उनके मतानुसार शास्त्रों का प्रामाण्य केवल यह है कि वे विश्वस्त मनुष्यों के वचन हैं। शास्त्र विश्वस्त मनुष्यों के वचन होने पर भी, वे कहते हैं कि केवल शास्त्र हमें आत्मानुभूति कराने में कभी समर्थ नहीं हैं। हम भले ही सारे वेदों को पढ़ डालें, पर तो भी हो सकता है कि हमें किसी तत्त्व की अनुभूति न हो। पर जब हम उनमें वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में उतारते हैं - उनके अनुसार कार्य करते हैं, तब हम ऐसी एक अवस्था में पहुँच जाते हैं, जिसमें शास्त्रोक्त बातों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। जहाँ तर्क, प्रत्यक्ष या अनुमान किसी की भी पहुँच नहीं है, वहाँ आप्तवाक्य की भी कोई उपयोगिता नहीं है। यहीं इस सूत्र का तात्पर्य है।


प्रत्यक्ष उपलब्धि ही यथार्थ धर्म है, वही धर्म का सार है, और शेष सब- उदाहरणार्थ, धर्मसम्बन्धी भाषण सुनना, धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करना, या विचार करना उस उपलब्धि के लिए प्रारम्भिक तैयारियाँ मात्र हैं। वह यथार्थ धर्म नहीं है। केवल किसी मत के साथ बौद्धिक सहमति अथवा असहमति धर्म नहीं है। योगियों का मूलभाव यह है कि जैसे इन्द्रियों के विषयों के साथ हम लोगों का साक्षात् सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार धर्म भी प्रत्यक्ष किया जा सकता है; और इतना ही नहीं, बल्कि वह तो और भी तीव्रतर रूप से उपब्लध हो सकता है। ईश्वर, आत्मा आदि जो सब धर्म के प्रतिपाद्य सत्य हैं, वे बहिरिन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं हो सकते।


मैं आँखों से ईश्वर को नहीं देख सकता, या हाथ से उनका स्पर्श नहीं कर सकता। हम यह भी जानते कि युक्ति-तर्क हमें इन्द्रियों के परे नहीं ले जा सकता; वह तो हमें सर्वथा एक अनिश्चित स्थल में छोड़ आता है। हम भले ही जीवनभर विचार करते रहें, जैसा कि दुनिया हजारों वर्षों से करती आ रही है, पर आखिर उसका फल क्या होता है ? यही कि धर्म के सत्यों को प्रमाणित या अप्रमाणित करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं। हम जिसका इन्द्रियों से प्रत्यक्षतः अनुभव करते हैं, उसी के आधार पर हर्म तर्क, विचार आदि किया करते हैं।


अतः यह स्पष्ट है कि तर्क को इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की इस चारदीवारी के भीतर ही चक्कर काटना पड़ता है; वह उसके परे कभी नहीं जा सकता। अतएव आत्मानुभूति का समस्त क्षेत्र इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे है। योगी कहते हैं कि मनुष्य इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के परे और तर्क के परे भी जा सकता है। मनुष्य में अपनी बुद्धि को भी लाँघ जाने की शक्ति, सामर्थ्य है, और यह शक्ति प्रत्येक प्राणी में, प्रत्येक जन्तु में निहित है। योग के अभ्यास से यह शक्ति जागृत हो जाती है और तब मनुष्य युक्ति-तर्क की साधारण सीमा को पार करता है और तर्क के अगम्य विषयों का साक्षात्कार करता है।


तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबन्धी ॥ ५०॥


सूत्रार्थ-यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात् दूसरे संस्कारों को फिर आने नहीं देता।


व्याख्या- हमने पहले के सूत्र में देखा है कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है- एकाग्रता । हमने यह भी देखा है कि पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सभी ने गौर किया होगा कि ज्योंही तुम लोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्योंही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार भटकने लगते हैं। ज्योंही ईश्वरचिन्तन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय वे उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्योंही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं और तुम्हारे मन को बिलकुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं। इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं ? इसका कारण यही है कि तुम उनको दबाने की चेष्टा कर रहे हो।


और वे अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अगणित है! चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहतें हैं और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिए मानो हमेशा घात में रहते हैं। उन सब को रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आए और दूसरे सब भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियाँ हैं। अतएव जिस समाधि की बात अभी कही गयी है, उसका अभ्यास सब से उत्तम है; क्योंकि वह उन संस्कारों को रोकने में समर्थ है। इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोककर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।


तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥ ५१ ॥


सूत्रार्थ - उसका भी (अर्थात् जो संस्कार अन्य सभी संस्कारों को रोक देता है) निरोध हो जाने पर, सब का निरोध हो जाने के कारण निर्बीज समाधि (हो जाती है)।


व्याख्या- तुम लोगों को यह अवश्य स्मरण है कि आत्मसाक्षात्कार ही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। हम लोग आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाते, क्योंकि इस आत्मा का प्रकृति, मन और शरीर के साथ तादात्म्य हो गया है। अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर को ही आत्मा समझता है। उसकी अपेक्षा कुछ उन्नत मनुष्य मन को ही आत्मा समझता है। किन्तु दोनों ही भूल में हैं। अच्छा, आत्मा इन सब उपाधियों के साथ कैसे एकाकार हो जाती है ? चित्त में ये नाना प्रकार की लहरें (वृत्तियाँ) उठकर आत्मा को आच्छादित कर लेती हैं, और हम इन लहरों में से आत्मा का कुछ प्रतिबिम्ब मात्र देख पाते हैं। 


यही कारण है कि जब क्रोधवृत्तिरूप लहर उठती है, तो हम आत्मा को क्रोधयुक्त देखते हैं। कहते हैं कि हम क्रुद्ध हुए हैं। जब चित्त में प्रेम की लहर उठती है, तो उस लहर में अपने को प्रतिबिम्बित देखकर हम सोचते हैं कि हम प्यार कर रहे हैं। जब दुर्बलतारूप वृत्ति उठती है और आत्मा उसमें प्रतिबिम्बित हो जाती है, तो हम सोचते हैं कि हम कमजोर हैं। ये सब पूर्व संस्कार जब आत्मा के स्वरूप को आच्छादित कर लेते हैं, तभी इस प्रकार के विभिन्न भाव उदित होते रहते हैं। चित्तरूपी सरोवर में जब तक एक भी लहर रहेगी, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप दिखाई नहीं देगा। जब तक समस्त लहरें बिलकुल शान्त नहीं हो जातीं, तब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप कभी प्रकाशित नहीं होगा। इसीलिए पतंजलि ने पहले यह समझाया है कि ये तरंगरूप वृत्तियाँ क्या हैं और बाद में उनको दमन करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय सिखलाया है।


और तीसरी बात यह सिखलायी है कि जैसे एक बृहत् अग्निराशि छोटे छोटे अग्निकणों को निगल लेती है, उसी प्रकार एक लहर को इतनी प्रबल बनाना होगा, जिससे अन्य सब लहरें बिलकुल लुप्त हो जाएँ। जब केवल एक ही लहर बच रहेगी, तब उसका भी निरोध कर देना सहज हो जाएगा। और जब वह भी चली जाती है, तब उस समाधि को निर्बीज समाधि कहते हैं। तब और कुछ भी नहीं बच रहता और आत्मा अपने स्वरूप में, अपनी महिमा में प्रकाशित हो जाती है। तभी हम जान पाते हैं कि आत्मा यौगिक पदार्थ नहीं है, संसार में एकमात्र वही नित्य अयौगिक पदार्थ है; अतएव उसका जन्म भी नहीं है और मृत्यु भी नहीं - वह अमर है, अविनश्वर है, नित्य चैतन्यघन सत्तास्वरूप है।


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