Type Here to Get Search Results !

दृष्टि दान: रबिन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानी

Rabindranath Tagore (Thakur) ki Shreshtha Kahaniyan: "दृष्टि दान" टैगोर की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं। यह "दृष्टि दान" कहानी रवीन्द्र बाबू की श्रेष्ठ कहानियों का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द-सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता, अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं। तो आइये पढ़ते है -दृष्टि दान रबिन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानी 


दृष्टि दान-hindi story| hindi kahaniyan | रबिन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानी


दृष्टि-दान:रबीन्द्रनाथ टैगोर श्रेष्ठ कहानियां 


सुना है कि आजकल बहुत-सी भारतीय लड़कियों को अपनी कोशिश से अपने लिए पति चुनना और संग्रह करना पड़ता है। मैंने भी ऐसा ही किया है, किन्तु देवता की मदद से। मैं बचपन ही से बहुत से व्रत-उपवास और शिव-पूजा करती आई हूँ। 


मैं पूरे आठ बरस की भी न हो पाई थी कि मेरा ब्याह हो गया। किन्तु शायद पहले जन्म के पाप के कारण मैं अपने अच्छे पति को पाकर भी पूरा न पा सकी। माता त्रिनयनी ने मेरी दोनों आखें ले ली। उन्होंने मुझे जीवन के अन्तिम क्षण तक पति को देखते रहने का सुख नहीं दिया। 


बचपन से ही मेरी अग्नि-परीक्षा शुरू हुई। चौदहवां साल पूरा भी न हो पाया कि मैंने एक मरा हुआ बच्चा जना, और खुद भी लगभग मौत के पास पहुंच गई। किन्तु जीवन में जिसे दुख भोगने हैं, भला वह मर कैसे सकती है? जो दिया जलने के लिए पैदा हुआ है, उसमें तेल कम नहीं होता, वह तो रात-भर जलकर फिर बुझता है। 


मरते-मरते बच तो गई, किन्तु देह की कमजोरी, मानसिक दुख या और किसी भी कारण से हो, मेरी आंखों में दर्द शुरू हो गया, और आखें खराब होने लगी। 


मेरे पति उन दिनों डाक्टरी पढ़ रहे थे। नई विद्या सीखने के उत्साह में इलाज करने का कोई मौका हाथ लगते ही वे निहायत खुश हो जाते । मेरी आखें खराब होने लगी तो उन्होंने खुद ही मेरा इलाज करना शुरू कर दिया। 


मेरे बड़े भाई साहब उस साल वकालत की परीक्षा देने के लिए ला कालेज में पढ़ रहे थे। उन्होंने एक दिन आकर मेरे पति से कहा, "तुम यह कर क्या रहे हो, भाई? कुमुद को अन्धी ही कर डालोगे क्या? किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?'


Read More 


मेरे पति ने कहा, “अच्छा डाक्टर आकर नया इलाज क्या करेगा? दवा वगैरह तो सब मालूम ही है।" 


भाई साहब को कुछ गुस्सा-सा आ गया, बोले, "तब तो फिर तुममें और तुम्हारे कालेज के प्रिंसिपल में कोई फर्क ही नहीं!" 


पति ने कहा, “तुम कानून पढ़ रहे हो, डाक्टरी का तुम क्या जानो! जब तुम ब्याह कर चुकोगे तब तुमसे मैं पूछूगा कि तुम्हारी पत्नी की जायदाद पर अगर कोई मुकदमा चला बैठे, तो तब तुम क्या मेरी सलाह पर चलोगे?"


में मन-ही-मन सोच रही थी कि 'राजा-राजाओं की लड़ाई में बेचारे सिपाहियों की शामत है। मेरे पति के साथ भइया की खटपट हो गई, पर दोनों ओर से चोट मुझ ही पर पड़ने लगी। मैंने सोचा, 'मायकेवालों ने जब मुझे दान ही कर दिया है, तब फिर मेरे बारे में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इन सब बातों में वे क्यों पड़ते हैं? मेरी बीमारी और तन्दुरुस्ती, मेरा सुख और दुख, सबकुछ मेरे पति का ही तो है।' 


उस दिन मेरे इस मामूली-से आंख के इलाज को लेकर भाई साहब के साथ मेरे पति का मनमुटाव-सा हो गया। एक तो वैसे ही मेरी आंखों से पानी गिरता था, और फिर तो मेरी वह आंसुओं की धारा और भी बढ़ गई। इसका असल कारण मेरे पति या भाई साहब दोनों में से कोई भी न समझ पाए। 


मेरे पति के कालेज चले जाने पर, एक दिन शाम को, अचानक भाई साहब आ गए डाक्टर लेकर। डाक्टर ने परीक्षा करके कहा, "सावधानी से इलाज न हुआ और इसी तरह बदपरहेजी होती रही, तो ताज्जुब नहीं कि आँखों से ही हाथ धोना पड़े।' डाक्टर ने दवा लिख दी और भाई साहब ने उसी वक्त दवा मंगाने के लिए आदमी भेज दिया।


डाक्टर के चले जाने पर मैने भाई साहब से कहा, "भइया, तुम्हारे में पैरों पड़ती हूँ, मेरा जो इलाज हो रहा है उसमें तुम अब किसी तरह की रुकावट मत डालो। 


बचपन ही से मैं भाई साहब से खूब डरा करती थी। उनसे मैं इस तरह मुह खोलकर बात कर सकी, मेरे लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी। किन्तु मैंने यह खूब अच्छी तरह समझ लिया था कि मेरे पति से छिपाकर भइया जो मेरा इलाज करा रहे हैं, मेरे लिए यह अशुभ के सिवा शुभ हर्गिज नहीं हो सकता। भाई साहब को भी मेरी इस ढिठाई से शायद कुछ अचम्भा हुआ। वे कुछ देर चुप रहकर, खूब सोच-विचारकर, अन्त में बोले, “अच्छा, अब में डाक्टर नहीं लाऊंगा। लेकिन, जो दवा मंगाई है उसे ठीक तरीके से ले लेना, फिर देखा जाएगा। 


दवा आने पर मुझे उसकी सेवन-विधि समझाकर भाई साहब चले गए। 


पति के कालेज से वापस आने के पहले ही मैंने दवा की शीशी, डिबिया, फुरफुती वगैरह सब उठाकर अपने आंगन के कुएं में फेंक दी। 


भाई साहब के साथ मानो कुछ विरोध करके ही पति ने दूने उत्साह से मेरी आंखों का इलाज करना शुरू कर दिया। वे सुबह-शाम दोनों वक्त दवा बदलने लगे। आंखों पर पट्टी बांधी, चश्मा लगाया, बूंद-बूंद दवा डाली, पाउडर लगाया, बदबूदार मछली का तेल पीया, भीतर का खाया-पीया और अंतड़ियां तक सब बाहर निकल आने लगी, उसे भी सहा। पति पूछते, “अब कैसी मालूम होती हैं? मैं कहती, “अच्छी ही हैं, फायदा है।' और मैं भीतर से भी महसूस करने की कोशिश किया करती कि मुझे आराम हो रहा है। जब ज्यादा पानी गिरने लगता तो सोचती कि पानी का निकल जाना ही अच्छा है और जब पानी गिरना बन्द हो जाता तो सोचती कि 'अब तो आराम हुआ ही समझो।'


किन्तु कुछ दिन बाद दर्द असह्य हो उठा, आंखों से धुंधला दीखने लगा, और सिर में तो ऐसा दर्द होने लगा कि उससे में बहुत ही दुखी और परेशान हो गई। मेरे पति भी शायद कुछ शर्मिन्दा-से मालूम हुए। और इतने दिन बाद अब वे किस बहाने से डाक्टर बुलावे, कुछ तय न कर सके। 


मेने उनसे कहा, 'भाई साहब की बात रखने के लिए एक बार किसी डाक्टर को दिखाने में हर्ज क्या है? भाई साहब नाराज हो गए हैं, इससे मेरा जो दुख पा रहा है। इलाज तो तुम्ही करोगे, फिर भी एक डाक्टर का रहना अच्छा है।


पति ने कहा, "तुम ठीक कह रही हो। 


और फिर, उसी दिन वे एक अंगरेज डाक्टर को बुला लाए। दोनों में अगरेजी में क्या बातचीत हुई, सो मैं नहीं कह सकती, लेकिन इतना में समझ गई कि साहब ने मेरे पति को कुछ डाटा-फटकारा, और वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े रहे। 


डाक्टर के चले जाने पर, मैंने अपने पति का हाथ पकड़कर कहा, तुम तो न जाने कहां से एक गवार गोरे गधे को पकड़ लाए, किसी देशी डाक्टर को लाते। मेरी आँखों की बीमारी को गोरा डाक्टर क्या तुमसे भी ज्यादा समझ सकता है। 


पति ने कुछ सकोच के साथ ही कहा, "आंखों में नश्तर कराना पड़ेगा। 


मैने जरा गुस्सा लाकर कहा, “नश्तर कराना होगा, यह तो तुम खुद ही जानते थे, सिर्फ तुमने मुझसे छिपा रखा था। तुम क्या समझते हो कि मैं नश्तर से डरती हूँ? 


उनका संकोच दूर हो गया। वे बोले "आंखों में नश्तर लगाने की बात सुनकर न डरे, मरदों में ऐसे बहादुर कितने निकलेंगे?" 


मैंने मजाक में कहा, “अजी, मरदों की बहादुरी तो सिर्फ औरतों के सामने ही है। 


उसी क्षण उनके चेहरे पर फीकी गम्भीरता छा गई, बोले, "ठीक कह रही हो तुम। मरदों में सिर्फ घमंड- ही-घमंड है।"


मैंने उनकी गम्भीरता को फूंक से उड़ाते हुए कहा, "अजी, घमंड में भी तो तुम लोग औरतों से बाजी नहीं मार सकते। उसमें भी अन्त में हमारी ही जीत होती है। 


इस बीच में भाई साहब भी आ गए। मैंने उन्हें अकेले में ले जाकर कहा, "भाई साहब, तुम्हारे उस डाक्टर की दवा से अब तक मेरी आंखें कुछ-कुछ अच्छी हो रही थीं, पर एक दिन भूल से पीने की दवा आंखों में डालने और लगाने की दवा पी जाने से आंखों की यह हालत हो गई कि डाक्टर कहते हैं, आंखों में नश्तर लगवाना पड़ेगा।" 


भाई साहब ने कहा, "मैं तो समझता था कि तेरे पति का इलाज चल रहा है। इसी से मैं गुस्से में इतने दिनों से आया नहीं।' 


मैंने कहा, "नहीं तो। मैं छिपे-छिपे उसी डाक्टर की दवा ले रही थी। कहीं वे नाराज न हो जाएं, इस डर से उनसे कहा नहीं मैंने" 


'स्त्री' का जन्म लेकर इतना झूठ बोलना पड़ता है कि जिसकी हद नहीं। भाई साहब का मन भी नहीं दुखा सकती, और पति के यश को भी ज्यों-का-त्यों रखना मेरे लिए लाजिमी है। मां होकर बच्चे को भी बहलाना पड़ता है, और स्त्री होकर बच्चे के बाप को भी खुश रखना पड़ता है। उफ, स्त्रियों के लिए इतने छल-छन्द की जरूरत होती है! 


इस छल-छन्द का नतीजा यह हुआ कि अन्धी होने के पहले मैं अपने भाई और पति का मिलन देख सकी। भाई ने सोचा कि 'छिपे-छिपे इलाज करने से यह गड़बड़ी हुई', और पति ने सोचा कि 'शुरू में ही अगर वे मेरे भाई की बात मान लेते तो ऐसा होता ही क्यों! यह सोचकर दोनों भारी दिल से भीतर-ही-भीतर क्षमाप्रार्थी-से होकर आपस में एक-दूसरे के बहुत ही करीवी हो गए। मेरे पति भाई साहब की सलाह लेने लगे, और भाई साहब भी बड़े विनय के साथ सब विषयों में मेरे पति की राय पर ही भरोसा करने लगे। 


अन्त में दोनों की सलाह से एक दिन एक अंगरेज डाक्टर ने आकर मेरी वाईं आंख में नश्तर लगाया। कमजोर आंख उस नश्तर की चोट को झेल न सकी, और उसकी रही-सही मामूली ज्योति भी सहसा जाती रही। उसके बाद बची हुई दाहिनी आंख भी धीरे-धीरे अन्धकार से ढंक गई। वचपन में ब्याह के दिन 'शुभदृष्टि' के समय जो चन्दन-चर्चित जवान मूर्ति मेरी आंखों के सामने पहले-पहल प्रकट हुई थी, मेरे लिए उस पर हमेशा के लिए परदा पड़ गया। 


एक दिन मेरे प्राणनाथ ने मेरे पलंग के पास बैठकर कहा, “अब मैं तुम्हारे सामने अपनी झूठी बड़ाई न करूंगा- तुम्हारी आंखें मैंने ही ले ली!' 


मालूम हुआ, उनका गला भर आया है। मैंने दोनों हाथों से उनका दाहिना हाथ दवाकर कहा, "अच्छा किया, तुम्हारी चीज तुमने ले ली। सोचो तो जरा, अगर किसी डाक्टर के इलाज से मेरी आंखें जाती रहतीं, तो उससे मुझे क्या तसल्ली मिलती! होनहार जबकि मिटती ही नहीं, तो आंखें तो मेरी कोई वचा ही नहीं सकता था, वे आंखें तुम्हारे हाथ से गईं, मेरे अन्धेपन का सबसे बड़ा सुख तो यही है! जब पूजा के फूल घट गए थे, तो स्वयं रामचन्द्र अपने देवता को अपनी आंखें निकालकर चढ़ाने को तैयार हो गए थे। मैंने अपने देवता को अपनी दृष्टि दी है, इससे बढ़कर सौभाग्य मेरे लिए और क्या हो सकता है! तुम्हें अपनी आंखों से जब जो अच्छा लगे, मुझसे कह दिया करना, उसे मैं तुम्हारी आंखों-देखा प्रसाद जानकर मन में रख लिया करूंगी।" 


मैं इतनी बातें नहीं कह सकी थी, मुंह से इस तरह की बातें शायद कही भी नहीं जा सकतीं। हां, सिर्फ इन बातों को मैं बहुत दिनों तक मन में विचारती रही हूं। बीच-बीच में ऐसी थकावट आती थी कि मेरी उस निष्ठा का तेज भी मन्द पड़ जाता। मैं अपने को वंचित, दुखित और दुर्भाग्य में जलती हुई अभागिनी समझने लगती, और तब मैं अपने मन से ये सब बातें कहला लेती। मैं अपनी इस शान्ति और भक्ति की सहायता से अपने को दुख से भी ऊंचा रखने की कोशिश करती रहती। उस दिन बातों-ही-बातों में और कुछ-कुछ चुप रहकर अपने मन के भाव को सायद मैं उन्हें किसी तरह समझा सकी थी। 


उन्होंने कहा,"कुमुद, अपनी मूर्खता से मैं जो कुछ तुम्हारा नष्ट कर पुकार उसे अब मैं तुम्हें वापस नहीं दे सकता, किन्तु जहाँ तक मेरा बसच लेगा , तुम्हारी आँखों की कमी दूर करने के लिए मैं हमेशा तुम्हारे साथ साथ रहूगा।


मेने कहा," यह कोई काम की बात नहीं हुई। तुम अपनी घर-गृहस्थी को अंधों का अस्पताल बना रखोगे, यह मैं हरगिज़ न होने दूंगी। तुम्हें दूसरा ब्याह करना ही होगा।' 


किसलिए दूसरा ब्याह करना जरूरी है, इस बात को विस्तार से कहने के पहले ही मेरा गला रुक-सा आया। जरा खासकर, जरा कुछ संभाल, में कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने में मेरे पति ठंडी सांस छोड़ने के साथ बोल उठे, 'मैं मूर्ख हूं, किन्तु दम्भी नहीं हूं, कुमू! मैंने अपने हाथों से अन्धा बनाया है तुम्हें, उस पर सिर्फ अन्धी होने की वजह से तुम्हें छोड़कर अगर में दूसरा ब्याह करू, तो अपने इष्टदेव गोपीनाथ की सौगन्ध खाकर कहता हूँ, मैं ब्रह्म हत्या और पितृ-हत्या के पाप का पातकी होऊ।"


इतनी बड़ी सौगन्ध उन्हें मैं हरगिज न खाने देती, उन्हें मैं बीच ही में रोक देती; किन्तु, मेरे आंसू उस समय छाती फाड़कर, कंठ दबाकर, आंखों में आकर झरना चाहते थे, मैं उन्हें रोकने में ही लगी हुई थी, मुंह से कुछ निकाल ही न सकी। उन्होंने जो कुछ कहा, उसे मैं परम आनन्द के और चरम सुख के बहाव से तकिये में मुंह छिपाकर रोने लगी। मैं अन्धी हूं, फिर भी वे मुझे नहीं छोड़ेंगे! दुख की तरह मुझे अपने हृदय में छिपा रखेंगे! इतना सुहाग, इतना सौभाग्य मैं नहीं चाहती, पर मन जो सुनकर स्वार्थी ठहरा! 


अन्त में, आंसुओं की पहली वर्षा जोरों से हो चुकने के बाद, उनके मुह को अपनी छाती के पास लाकर मैंने कहा, "ऐसी कड़ी सौगन्ध क्यों खाई तुमने? हाय-हाय मैंने क्यों तुम्हें अपने सुख के लिए ब्याह करने को कहा था। सौत से मैं अपना मतलब साधती। आंखों की कमी से तुम्हारा जो काम मुझसे ना होता वह काम मैं उससे करा लेना चाहती थी"


उन्होंने कहा, “काम तो दासी भी कर देती है, जो काम मुझसे न होता वह काम मैं उससे करा लेना चाहती थी।" कुमू! मैं काम के सुभीते के लिए एक दासी के साथ ब्याह करके उसे अपनी इस देवी के साथ एक आसन पर बिठा सकता हूं!" यह कहते हुए उन्होंने मेरा मुंह उठाकर मेरे माथे पर एक चुम्बन रख दिया। उस चुम्बन ने मानो मेरा तीसरा नेत्र खोल दिया। मानो उसी क्षण मेरा देवी के रूप में अभिषेक हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, 'यही अच्छा है। जब अन्धी ही हो चुकी हूँ, तो बाहर की इस घर-गृहस्थी की गृहिणी ही क्यों बनी रहूं! अब तो मैं उससे भी ऊपर रहकर, देवी होकर, पति का मंगल करूंगी। अब झूठ नहीं, छल नहीं, गृहिणी-रमणी के जितने भी छोटेपन हैं, जितने भी छल-छन्द सबको दूर करके, भीतर से, बाहर से बिल्कुल पवित्र हो जाना है मुझे।' 


उस दिन, दिन-भर अपने ही साथ मेरा एक तरह का विरोध चलता रहा। कठिन प्रतिज्ञा में बंधकर मेरे पति हरगिज दूसरा ब्याह न कर सकेंगे, इसका आनन्द भीतर-ही-भीतर मानो मेरे दिल को काटता रहा। उसे किसी भी तरह छुड़ाकर अलग न कर सकी। आज मेरे अन्दर जिस नई देवी ने जन्म लिया है, उसने कहा, 'शायद ऐसा भी दिन आ सकता है कि जब प्रतिज्ञा पालने की अपेक्षा ब्याह करने से तुम्हारे पति का ज्यादा मंगल हो सकता है। किन्तु मेरे अन्दर जो पुरानी औरत थी, उसने कहा, 'इससे क्या, जबकि वे प्रण कर चुके हैं, तब तो ब्याह कर ही नहीं सकते। देवी बोली, 'पर इसमें तुम्हारे खुश होने की तो कोई वजह नहीं।' मानवी ने कहा, 'सब समझती हूं, पर जबकि वे प्रतिज्ञा कर चुके हैं, तो फिर' ... वह इत्यादि। बार-बार वही एक ही बात! तब फिर देवी ने कुछ नहीं कहा, चुप बनी रही, उसने भौंहें चढ़ा लीं। किसी एक भयंकर आशंका के अंधेरे से मेरा सारा मन छा गया। 


मेरे दुखी स्वामी, नौकर-नौकरानियों से मेरा काम करने की मनाही करके, खुद ही मेरा सब काम करने लगे। जरा-जरा-सी बात के लिए इस तरह पति पर निर्भर रहना, पहले तो अच्छा ही लगने लगा। कारण, इसी बहाने उन्हें हर वक्त अपने पास पाती। आंखों से मैं उन्हें देख नहीं सकती थी, इसलिए हमेशा उन्हें अपने पास पाने की हवस बहुत ज्यादा बढ़ गई। पति के चेहरे का जो हिस्सा मेरी आँखों को मिला था, उसे अब अन्य इन्द्रियां आपस में बांटकर अपना हिस्सा बढ़ा लेने की कोशिश करने लगीं। फिर ऐसा हो गया कि मेरे पति अगर बहुत देर तक बाहर किसी काम के लिए चले जाते, तो ऐसा मालूम होता कि जैसे मैं बिल्कुल शून्य में हूं, और अपने चारों तरफ टटोलती फिरती हूं, फिर भी मुझे कहीं भी कुछ मिल नहीं रहा है, मानो मेरा सबकुछ खो गया हो। 


पहले, पति जब कालेज जाते थे तब मैं उनके आने में देर होती तो सड़क की तरफ की खिड़की को जरा खोलकर उसकी संध में से उनकी राह देखा करती थी। जिस दुनिया में वे घूमा-फिरा करते थे उस दुनिया को मैंने अपनी आंखों से अपने साथ बांध रखा था, पर आज मेरा दृष्टिहीन सारा शरीर उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश करता रहता है।उनकी दुनिया के साथ मेरी दुनिया का जो पुल बंधा हुआ था, आज वह टूट गया है। अब, उनके और मेरे बीच एक गहरी 'अन्धता की खाई' है- अब मुझे केवल निरुपाय बेचैनी के साथ बैठा रहना पड़ता है कि 'कब वे अपने उस पार से मेरे इस पार आकर मुझसे मिलें।' इसलिए अब, जब वे क्षण-भर के लिए भी मुझे छोड़कर चले जाते हैं तो मेरा सारा अन्धा शरीर उद्यत होकर उन्हें पकड़ना चाहता है, हाय-हाय करके उन्हें पुकारने लगता है। 


किन्तु इतनी आकांक्षा, इतनी चाह, इतना आसरा-भरोसा तो अच्छा नहीं होता। एक तो वैसे ही पति पर पली का भार काफी होता है, उस पर अपने इस अन्धेपन का भारी बोझ उन पर लादना ठीक नहीं। अपनी इस दुनिया में फैले अन्धकार को मैं अकेली ही झेलूंगी, अकेली ही ढोऊंगी। मैंने एकाग्र मन से यही प्रतिज्ञा की कि अपनी इस अनन्त अन्धता की रस्सी से पति को मैं अपने साथ बांधकर हरगिज नहीं रखेंगी। थोड़े ही दिनों में केवल शब्द-गन्ध-स्पर्श से ही मैंने अपना सारा काम करना सीख लिया। यहां तक कि बहुत-से घर के काम तो मैं पहले से भी ज्यादा चुस्ती के साथ करने लगी। और बाद में तो ऐसा मालूम होने लगा कि दृष्टि हमारे काम में जितनी सहायता पहुंचाती है, उससे कहीं ज्यादा हमें विक्षिप्त कर देती है। जितना देखने से भलाई होती है, आंखें उससे कम बहुत ज्यादा देखा करती हैं। और, आंखें जब पहरा देने का काम करती है, कान तब आलसी हो जाते हैं, जितना उन्हें सुनना चाहिए उससे वे ही सुनते हैं। अब चंचल आंखों की अनुपस्थिति में मेरी और सब इन्द्रियां अपना कर्तव्य शान्ति के साथ पूरा पालन करने लगीं। 


अब मैं अपने पति को अपना कोई काम नहीं करने देती, बल्कि उनका सारा काम फिर मैं पहले की तरह ही करने लगी। 


स्वामी ने मुझसे कहा, “मेरे प्रायश्चित्त से तुम मुझे दूर कर रही हो।' 


मैंने कहा, “तुम्हारा प्रायश्चित्त कैसा, सो तो मुझे नहीं मालूम-किन्तु अपने पाप का भार मैं क्यों बढ़ाऊं?" 


मुंह से चाहे वे कुछ कहें, मैंने जब उन्हें छुटकारा दिया, तो वे सांस लेकर मानो जी-से गए। 


उसके बाद, मेरे पति डाक्टरी पास करके मुझे साथ लेकर कलकत्ते के वाहर देहात में चले गए। गांव में जाकर ऐसा मालूम हुआ जैसे मैं मां की गोद में पहुंच गई होऊ। आठ बरस की उमर में गांव छोड़कर कलकत्ता आई थी। इसी बीच दस बरस में जन्मभूमि मेरे मन के अन्दर छाया की तरह धुंधली हो चली थी। जब तक आंखें थीं, कलकत्ता शहर मेरे चारों तरफ मेरी समूची यादों को अपनी ओट में छिपाए खड़ा था। आंखों के जाते ही मैं समझ गई कि कलकत्ता सिर्फ आंखों को बहलाए रखनेवाला शहर है, और बचपन का वह गांव अंधियारी रात के चमकते हुए तारे की तरह मेरे मन में उजला हो उठा। 


अगहन के अन्त में हम लोग हासिमपुर पहुंच गए। नई जगह थी। चारों तरफ कैसा दृश्य है, मैं कुछ देख न सकी; किन्तु बचपन के गांव की उस गन्ध ने, उन अनुभूतियों ने मेरी सारी देह जकड़ ली। ओस से भीगे और नए जुते खेतों से आनेवाली सुबह की हवा से, अरहर और सरसों के हरे-सुनहले खेतों की आकाश-भरी मीठी सुगन्ध से, अहीरों के उन गीतों से, और क्या, टेढ़ी-मेढ़ी कच्ची सड़क से जानेवाली बैलगाड़ियों के चलने की आवाज तक से मैं खिल उठी।


मेरी वे शुरू की जिन्दगी की पुरानी यादें अपनी नहीं कही जा सकनेवाली ध्वनि और सुगन्ध लिए मौजूदा वर्तमान की तरह मुझे घेर बैठीं। अन्धी आंखें उनका कुछ भी प्रतिवाद न कर सकीं। मैं अपने उसी बचपन में पहुंच गई। सिर्फ मां ही नहीं मिली, और सब मिल गया। भीतर-ही-भीतर मैं देखने लगी, मेरी दादी अपने बचे-खुचे सिर के बालों को खोलकर, धूप की ओर पीठ करके, बैठी-बैठी 'बड़ी दे रही हैं। पर उनके कांपते हुए पुराने कमजोर कंठ से गांव के साधु भजनदास के देहतत्त्व-सम्बन्धी गीत की गुनगुनाहट आज नहीं सुनाई दी। नवान्न का वह उत्सव सर्दियों की ओस से नहाए हुए आकाश में सजीव होकर उठ बैठा, किन्तु मूसल से नए धान कूटनेवाली गांव की औरतों में मेरी उन छोटी-छोटी सहेलियों का मेल-जोल कहां गया! शाम होते ही जब पास से कहीं 'हम्बा' ध्वनि सुनाई पड़ती तो याद उठ आती कि मां सन्ध्या-दीप हाथ में लिए ग्वालघर में दिया दिखाने जा रही हैं। साथ ही मानो भीगे हुए पुआल के जलने की गन्ध और धुआं आकर मेरे हृदय में प्रवेश करता, और फिर सुनाई देती तालाब के उस पार के विद्यालंकारों के मन्दिर से आती हुई कांसे के घंटे की ध्वनि। न जाने किसने मेरे बचपन के आठ वर्षों में से उनका सारा निचोड़ छानकर सिर्फ उसका रस और सुगन्ध मेरे चारों तरफ छोड़ दी है। 


इसी सिलसिले में बचपन के व्रत और सवेरे ही उठकर शिवपूजा के लिए फूल चुनने की बात याद आने लगती है। यह बात माननी ही पड़ेगी कि कलकत्ता में इधर-उधर की बातचीत और आने-जाने की गड़बड़ी से बुद्धि में थोड़ा-बहुत फर्क आ ही जाता है। धर्म-कर्म, भक्ति और श्रद्धा में गांव की-सी साफ-सुथरी नहीं रहती। 


उस दिन की बात मुझे याद आती है जिस दिन अन्धी हो जाने के बाद कलकत्ता में मेरी एक गांव की सखी ने आकर मुझसे कहा था, "तुझे गुस्सा नहीं आता कुमू? मैं होती तो अपने पति का कभी मुंह ही नहीं देखती। मैंने कहा, “बहन, मुंह देखना तो वैसे ही बन्द है, उसके लिए इन जली आखों पर ही गुस्सा आता है। उन पर गुस्सा क्यों होऊ, बहन!' 


समय रहते अच्छे डाक्टर से इलाज नहीं कराया इसके लिए मेरी सहेली लावण्य को भी मेरे पति पर बहुत गुस्सा आया; और उसने मुझे भी गुस्सा दिलाने की कोशिश की। 


मैंने उसे समझाया कि “संसार में रहते हुए इच्छा और अनिच्छा से, जान और अनजान में, भूल और भ्रान्ति से अनेक प्रकार के सुख-दुख हुआ करते हैं, किन्तु मन के भीतर अपने पति को अगर स्थिर रख सकी , तो उस दुख में भी एक तरह की शान्ति मिलती है। नहीं तो सिर्फ गुस्से-गुस्सी में बक-झक करते-करते ही जीवन बीत जाता है। आंखों से अन्धी हो गई, यही एक जबरदस्त दुख है, उस पर पति से मनमुटाव करके दुख का बोझ और क्यों बढ़ाऊं?" मुझ जैसी लड़की के मुंह से पुराने जमाने की-सी बात सुनकर लावण्य गुस्सा होकर अवज्ञा से सिर हिलाकर झुंझलाती हुई चली गई। 


किन्तु, मुंह से में भी क्यों न कहूं, उसकी बातों में जहर तो था हो, उसकी बात बिल्कुल व्यर्थ नहीं गई। लावण्य के मुंह से निकली हुई क्रोध की बातों ने मेरे मन पर दो-एक चिनगारियां छोड़ दी थीं। मैंने उन्हें परा मे कुचलकर बुझा तो दिया, किन्तु फिर भी, दो-एक छाले तो रह ही गए। 


गांव में आकर शिव-पूजा के उस ठंडे शेफाली-फूल की सुगन्ध से मेरे दिल की सारी आशाएं और श्रद्धा, मेरे उस शिशुकाल की तरह ही, मानो नई और उज्ज्वल हो उठी। देवता ने मेरे दिल और मेरी घर-गृहस्थी को भरपूर कर दिया। मैं मस्तक नवाकर उनके चरणों पर लोट गई। कहा, "हे देव, मेरीआँखे जाती रहीं, अच्छा ही हुआ, तुम तो मेरे हो।" 


किन्तु हाय, गलत कहा था मैंने।' तुम मेरे हो 'ऐसा कहना भी दर्प है। में तुम्हारी हूँ', केवल इतना ही कहने का हक है मुझे। अरे, एक दिन मेरे देवता ही दबी आवाज में यह बात मुझसे कहला लेंगे। हो सकता है कि तब और कुछ भी न रहे, पर मुझे तो रहना ही होगा। किसी पर किसी तरह का मेरा जोर नहीं, सिर्फ अपने ही ऊपर है। 


कुछ दिन बड़े आनन्द से बीते। उधर डाक्टरी में मेरे पति का नाम भी होने लगा, सम्मान भी बढ़ने लगा। साथ ही कुछ रुपया भी इकट्ठा हो गया। मगर रुपया अच्छी चीज नहीं। वह मन को दबा देता है, हृदय को ढंक देता है। मन राज करता है तो वह अपना सुख आप ही गढ़ लेता है, किन्तु धन जब सुख इकट्ठा करने का भार लेता है, तो मन के लिए फिर कोई काम ही नहीं रह जाता। तब, पहले जहां मन का सुख रहता था, घर की चीज-बस्त, असबाब वगैरह उस जगह को घेर लेता है। तब सुख नहीं मिलता, सुख के बदले मिलता है, सिर्फ असबाब वगैरह।


मैं किसी खास बात या खास घटना का वर्णन नहीं कर सकती। किन्तु अन्धों में महसूस करने की शक्ति कुछ ज्यादा होने से या और किसी कारण से इतना मुझे महसूस होने लगा कि आर्थिक उन्नति के साथ-साथ मेरे पति में परिवर्तन होने लगा है। यौवन के शुरू में तरह-तरह से धर्म-अधर्म के विषय में उनमें जो एक वेदना का अहसास था, उसमें मानो दिनों-दिन जड़ता आने लगी। मुझे याद है, वे किसी समय कहा करते थे, 'केवल रोजी के लिए ही डाक्टरी सीख रहा होऊ, सो बात नहीं, इससे गरीबों का भला भी किया जा सकता है। 'डाक्टर गरीब मरीजों के दरवाजे पर जाकर पेशगी फीस बिना लिए नाड़ी नहीं देखना चाहते, उनका जिक्र करते हुए मारे नफरत के उनकी जबान रुक जाती थी।


मैं समझ रही हूं कि अब वे दिन नहीं रहे। अपने इकलौते लड़के की जान बचाने के लिए एक गरीब स्त्री ने उनके पैर पकड़ लिए थे, गिड़गिड़ाकर रोने लगी थी वह, किन्तु उन्होंने उसकी उपेक्षा की। अन्त में मैंने अपने सर की कसम देकर उन्हें भेजा, पर उन्होंने तबीयत से उसका इलाज नहीं किया। जब हम लोगों के पास रुपया कम था तब अन्याय से पैदा किए धन को वे किस दृष्टि से देखते थे, मैं जानती हूं। मगर अब, कि आज अब बैंक में बहुत रुपये जमा हैं। अब, एक दिन की बात है कि एक धना आदमी का गुमाश्ता आकर एकान्त में उनसे दो दिन तक बहुत-सी बाते कर गया। क्या बातचीत हुई मुझे नहीं मालूम, किन्तु उसके बाद जब वे मेरे पास आए और बेहद खुशी के साथ और- र विषयों में बहुत-सी बातें करने लगे, मुझे अपने भीतर की स्पर्शशक्ति से मालूम हुआ वे अपने ऊपर कालिख पोतकर आए हैं। 


अन्धी होने के पहले जिन्हें मैंने अन्तिम बार देखा था, आज मेरे वे दिल के देवता कहां हैं? जिन्होंने मेरी दृष्टिहीन दोनों आंखों के बीच में चुम्बन करके मुझे एक दिन देवी के पद पर अभिषिक्त किया था, मैं उनका क्या कर सकी? एक ही दिन की रिपु की आंधी से जिनका अचानक पतन होता है, और एक दिन के हृदयावेग से फिर वे चढ़ सकते हैं; किन्तु यह जो दिन पर दिन क्षण-क्षण में भीतर से कठोर होते जाना है, बाहरी बातों में बढ़ते हुए हृदय-मन को तिल-तिल करके दबाते जाना है, इसका प्रतिकार सोचती हूं तो कोई राह ही ढूंढ़े नहीं मिलती। 


पति के साथ मेरा जो आंखों से देखने का अलगाव हुआ है, वह कुछ भी नहीं किन्तु प्राणों के भीतर जब मैं और भी ज्यादा हांफने लगती हूं, तब मैं समझती हूं कि जहां मैं हूं वहां वे नहीं हैं! मैं अन्धी हूं, संसार के अंधेरे हृदय-प्रदेश में अपनी उस पहली उमर के नए प्रेम, परिपूर्ण भक्ति, अखंड विश्वास को लिए बैठी हूं मैं; अपने देव-मन्दिर में जीवन के आरम्भ में अपने बचपन के उन नन्हें-नन्हें हाथों से मैंने जो हरसिंगार के फूलों की भेंट चढ़ाई थी, अभी तो उनकी ओस भी न सूख पाई होगी कि मेरे नाथ छाया से शीतल इस चिर नवीनता के देश को छोड़कर रुपये कमाने के पीछे इस संसार के रेगिस्तान में न जाने कहां अदृश्य होते चले जा रहे हैं! जिन पर मेरा विश्वास है, मैं जिन्हें धर्म कहती हूं, जिन्हें मैं सारी सुख-सम्पत्ति से बढ़कर समझती हूं, वे बहुत दूर से मेरी ओर हंसते हुएदेख-भर रहे है। पर, कोई दिन ऐसा भी था जब यह अलगाव नहीं था। बचपन में हम दोनों ने एक ही रास्ते से यात्रा की थी। उसके बाद कब से मार्ग-भेद होना आरम्भ हुआ, उसे न तो वे ही समझ सके और न ही मुझे ही मालूम हुआ। अन्त में, आज जब मैं उन्हें पुकार रही हूं तो कोई जवाब ही नहीं मिलता। 


कभी-कभी मैं सोचती हूं कि शायद अन्धी होने की वजह से मामूली-सी बात को मैं बढ़ा-चढ़ाकर देखती हूँ। आखें होती तो शायद मैं संसार को ठीक संसार की तरह ही देख सकती और पहचान सकती। 


मेरे पति ने भी एक दिन मुझे यही बात समझाई थी। उस दिन सवेरे एक बूढ़ा किसान अपनी पोती को हैजे से बचा लेने की उम्मीद से उन्हें बुलाने आया था। मेरे कानों में भनक पड़ी, वह कह रहा था, "बेटा, मैं बहुत गरीब हूँ, पर परमात्मा तुम्हारा भला करेंगे।" मेरे दिल के देवता ने कहा, “परमात्मा जो करेंगे, सिर्फ उतने ही से हमारा काम नहीं चलेगा। पहले तुम क्या करोगे सो बताओ। "सुनते ही मैं सोचने लगी, भगवान ने मेरी आंखें ले लीं, साथ ही कान भी क्यों नहीं ले लिए!' बूढ़े ने एक गहरी सांस ली, और 'हाय भगवान' कहकर चल दिया। मैंने उसी वक्त महरी से कहकर उसे पीछे के दरवाजे से बुलवा लिया। उससे मैंने कहा, "यह रुपयों से तुम अपनी पोती का इलाज कराना, मेरे पति का भला चाहते हुए तुम इस मुहल्ले से हरीश डाक्टर को लेते जाओ।" 


किन्तु दिन-भर मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, मुंह में रुचा ही नहीं कुछ। तीसरे पहर सोते से उठकर उन्होंने पूछा, "तुम आज उदास क्यों दीख रही हो?" पहले की आदत का-सा उत्तर जबान पर आ रहा था कि 'नहीं तो, कुछ नहीं', पर छल-छन्द का जमाना मेरा बीत चुका, मैंने साफ-साफ कहा, "कितने ही दिनों से तुमसे कहना चाहती हूं, पर कहते- कहते क्या कहना है सो भूल जाती हूँ। मालूम नहीं, अपने मन की बात मैं ठीक तौर से समझा सकूगी या नहीं, लेकिन तुम चाहो तो जरूर अपने मन में समझ सकते हो कि हम दोनों ने जिस तरह एक होकर जीवन आरम्भ किया था, आज वह कुछ और ही तरह का हो गया है।" 


उन्होंने हंसकर कहा, “परिवर्तन ही तो संसार का नियम है।" 


मैंने कहा, “रुपया-पैसा, रूप-यौवन, सभी का तो परिवर्तन होता है, किन्तु नित्य वस्तु क्या संसार में कुछ है ही नहीं?"


तब उन्होंने जरा गम्भीर होकर कहा, "देखो, और-और स्त्रियां तो सचमुच के अभाव को रोती हैं-किसी का पति कमाई नहीं करता, तो किसी का प्रेम नहीं करता, और एक तुम हो कि आसमान से दुख ढूंढ़ लाती हो!" 


मैं उसी वक्त समझ गई कि मेरी अन्धता मेरी आंखों में सच्चाई का काजल लगाकर मुझे इस परिवर्तनशील संसार से बाहर ले गई है, मैं अन्य स्त्रियों की तरह नहीं हूं, मुझे मेरे पति समझेंगे नहीं। 


इतने में, देश से एक फुफुआ सास चली आईं, अपने भतीजे की खबर-सुध लेने। हम दोनों ने उन्हें प्रणाम किया। आशीर्वाद देने के पहले ही वे बोल उठीं, "बहू, तुम तो अपनी तकदीर से अन्धी हो गईं, अब हमारा अविनाश अन्धी स्त्री को लेकर कैसे घर-गृहस्थी चलावे, बताओ? उसका दूसरा ब्याह करा दो न!' इस पर मेरे पति अगर हंसी-हंसी में कह देते कि 'ठीक तो है, बुआजी, तुम्हीं लोग देख-भालकर कोई सम्बन्ध ठीक करा दो', तो सब झगड़ा ही तय हो जाता, किन्तु उन्होंने संकोच के साथ कहा, “तुम तो, बुआजी, ऐसी ही बातें किया करती हो, जिसका सिर न पैर।"


बुआजी ने कहा, "क्यों, बेजा क्या कह रही हूं मैं? अच्छा, बहू, तुम्ही बताओ, इसमें बेजा क्या कहा मैंने?' 


मैंने हंसते हुए कहा, "बुआजी, खूब अच्छे आदमी से तुम सलाह लेने बैठी! जिसकी गांठ काटी जाएगी, उसी से राय पूछी जाती है कहीं?" 


बुआजी बोली, “हां, बात तो ठीक है। तो फिर हम दोनों अकेले में सलाह करेंगे, क्यों रे अविनाश? लेकिन एक बात है बहू, कुलीन घर की स्त्रियों की जितनी ज्यादा सौतें हो उतना ही उनका स्वामी-गौरव बढ़ता है। हमारा लड़का डाक्टरी न करके अगर ब्याह करता रहता, तो उसे रोजगार की परवाह ही क्या थी! रोगी डाक्टरों के हाथ पड़ते ही मर जाता है, मरने पर फिर फीस भी नहीं मिलती; किन्तु विधाता का श्राप ऐसा है कि कुलीन की स्त्री मरती ही नहीं, और जितने दिन वह जीती है, उतना ही पति को फायदा-ही-फायदा है।" 


दो दिन बाद मेरे पति ने मेरे सामने ही बुआजी से पूछा, "बुआजी, अपना समझकर बिल्कुल अपनी-सी होकर बहू को मदद पहुंचाया करे ऐसी कोई अच्छे घराने की स्त्री तुम्हारी निगाह में है, जो यहां रह सके? इसे आंखों से दीखता नहीं, इसलिए इसकी साथिन बनकर हमेशा कोई इसके पास रहे, तो मैं निश्चिन्त हो जाऊं।" 


मैं जब शुरू-शुरू में अन्धी हुई थी, तब वे यह बात कहते, तो ठीक भी था, किन्तु अब तो आंखों के अभाव में अपने या घर-गृहस्थी के काम में कोई खास अड़चन होती हो सो भी नहीं; फिर भी बिना प्रतिवाद किए मैं चुपचाप बैठी रही। बुआजी ने कहा, “बहुत, बहुत! इसकी क्या कमी! मेरे ही जेठजी की एक लड़की है। जैसी देखने में सुन्दर, वैसी स्वभाव की भी लक्ष्मी! लड़की काफी बड़ी हो चुकी है, योग्य वर मिल नहीं रहा, लड़के की तलाश में हैं वे। तुम्हारे जैसा कुलीन मिल जाने पर तो वे तुरन्त ब्याह कर देंगे।" 


उन्होंने कुछ चौंककर कहा, "ब्याह के लिए कौन कह रहा है!" 


बुआजी बोली, "लो, सुन लो, ब्याह बिना किए क्या भले घर की लड़की तुम्हारे घर यों ही आकर पड़ी रहेगी?"


बात विलकुल ठीक थी। मेरे पति से उसका कोई जवाब देते न बना। 


अपनी बन्द आंखों के अनन्त अन्धकार में अकेली खड़ी-खड़ी मैं ऊपर को मुंह उठाए पुकारने लगी, "भगवान, मेरे पति की रक्षा करो।" 


कुछ दिन बाद, एक रोज सवेरे मैं पूजा करके घर से निकल ही रही थी कि इतने में बुआजी ने आकर कहा, “बहू, अपनी जिस जेठौती हेमांगिनी का मैने जिक्र किया था, आज वह आ गई देश से। हिम, ये तुम्हारी जीजी इन्हें प्रणाम करो। 


इतने में अचानक कहीं से वे भी आ पहुंचे, और आते ही मानो वे इस अजनबी स्त्री को देखकर लौट जाने के लिए तत्पर हुए। 


बुआजी ने कहा, "कहाँ चला, अविनाश?' 


मेरे पति ने पूछा, "ये कौन है?" 


बुआजी ने कहा, “यही तो है मेरी जेठीती हेमागिनी!' 


ये कब आई, 'किसके साथ आई', 'कैसे आई' इत्यादि नाना प्रश्न करके वे बेकार का आश्चर्य प्रकट करने लगे। मैंने मन-ही-मन कहा, जो हो रहा है, सो तो मैं सब समझ रही हूँ, फिर उस पर छल-छन्द क्यों किया जा रहा है, दुबका-चोरी, दाबना ढकना, झूठी बात? अगर अधर्म करना ही है, तो करो न। करोगे तो अपनी अशान्त आदत के लिए ही करोगे। मेरे लिए ऐसी गिरावट, इतना छल-छन्द क्यों करते हो? मुझे बहलाए रखने के लिए इतना ढकोसला क्यों?' 


हेमागिनी का हाथ पकड़कर मैं उसे अपने सोने के कमरे में ले गई। उसके मुह पर, गालों पर हाथ फेरकर देखा, मुंह शायद सुन्दर ही होगा। उमर भी चौदह-पन्द्रह से कम न होगी। 


बालिका सहसा जोर से हंस पड़ी। बोली, "यह क्या कर रही हो? मेरे ऊपर से भूत झाड़ रही हो क्या?' 


उसकी उस खुली सरल हसी से हम दोनों के बीच जो काले बादल थे, दे एक क्षण में दूर हो गए। दाहिना हाथ उसके गले में डालकर मैंने कहा, "मैं तुम्हे देख रही हूँ, बहन!' इतना कहकर मैंने उसके कोमल मुह पर फिर एक बार हाथ फेरा।" 


देख रही हो। 'कहकर वह फिर हंसने लगी। बोली, "मैं क्या तुम्हारे बगीच की सेम हूँ या बैंगन, जो इस तरह हाथ फेरकर देख रही हो कि कितनी बड़ी हुई। 


तब मुझसहसा खयाल आया कि हेमागिनी को शायद मालूम नहीं कि में अन्धी हूं। 


मैंने कहा, "बहन, मैं अन्धी जो हूं।" 


सुनते ही वह अचम्भे में पड़कर कुछ देर तक गम्भीर बनी रही। मुझे बिलकुल साफ मालूम हुआ कि उसने अपनी उत्सुकता-भरी बड़ी-बड़ी जवान आंखों से मेरे दृष्टिहीन नेत्र और चेहरे के भाव को खूब गहराई के साथ देखा, और उसके बाद कहा, “अच्छा! इसीलिए शायद चाची को तुमने यहां बुलाया है?” मैंने कहा, "नहीं, मैंने नहीं बुलाया, तुम्हारी चाची अपने आप ही आई हैं।" 


बालिका फिर हंसकर बोली, “दया करके! तब तो मालूम होता है दयामयी जल्दी टलनेवाली नहीं! पर बाबूजी ने मुझे क्यों भेजा?" 


इतने में बुआजी आ गईं। अब तक मेरे पति के साथ उनकी बातचीत हो रही थी। बुआजी के कमरे में घुसते ही, हेमांगिनी ने उनसे पूछा, "चाची, देश कब चलोगी, बताओ?" 


बुआजी ने कहा, “वाह री लड़की! आते देर न हुई, जाने की पड़ गई तुझे! ऐसी चंचल लड़की तो मैंने कहीं नहीं देखी!" 


हेमांगिनी ने कहा, "सुनो चाची, तुम तो जल्दी यहां से जाती नहीं दिखाई देतीं। खैर, तुम्हारा तो यह घर ही ठहरा, जितने दिन चाहो, रहो तुम, पर मैं तो जाऊंगी, पहले ही से कहे देती हूं तुमसे!” इतना कहकर चट्-से उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “क्यों बहन, ठीक है न? तुम लोग तो मेरे ठीक अपने नहीं हो?" 


इसके इस सरल प्रश्न का कुछ उत्तर न देकर मैंने उसे अपनी छाती के पास खींच लिया। मैंने देखा कि बुआजी वैसे चाहे कितनी ही जबरदस्त क्यों न हों, पर इस लड़की को सम्हालना उनके बूते से बाहर है। बुआजी ने ऊपर से जरा भी गुस्सा न दिखाकर हेमांगिनी को लाड़ करने की कोशिश की, पर उसने उन्हें अपने ऊपर से झाड़कर फेंक दिया। बुआजी ने इन सब बातों को लाड़ली लड़की का लाड़ समझकर हंसकर उड़ा देना चाहा, और वे चली जा रही थी कि इतने में फिर क्या जाने क्या सोचकर लौट आई, और हेमागिनी से कहने लगीं, "हिमू, चल तेरे नहाने का वक्त हो गया।" 


हेम ने मेरे पास आकर कहा, "हम दोनों जनी घाट पर जाकर जाएगा। नहाएंगी, क्यों बहन?" 


बुआजी की इच्छा के खिलाफ होने पर भी उन्होंने इस बात का विरोध नहीं किया, वे जानती थीं कि धींगा-धींगी करने से हेमागिनी की ही जीत होगी, और दोनों के बीच का विरोध भद्दे रूप में मेरे सामने प्रकट हो जाएगा।


पीछे के तालाब की तरफ जाते-जाते हेमांगिनी ने मुझसे पूछा, “तुम्हारे कोई लड़का-बाला क्यों नहीं हुआ, बहन?" 


मैंने जरा मुस्कुराकर कहा, “क्यों नहीं हुआ, सो मैं कैसे कह सकती हूं? भगवान ने नहीं दिया।" 


हेमांगिनी बोली, “जरूर तुमने पहले जन्म में कोई पाप किया होगा।' 


मैंने कहा, “सो भी भगवान जानते होंगे।" 


बालिका ने प्रमाण के तौर पर कहा, "देखो न चाची को। मन की बहुत काली हैं न वे, इसी से उनकी कोख से कोई बच्चा ही नहीं होता।' 


पाप-पुण्य, सुख-दुख, दंड और पुरस्कार का सिद्धान्त मैं खुद भी नहीं समझती, बालिका को भी समझाने की कोशिश नहीं की। सिर्फ एक गहरी सांस लेकर मैंने मन-ही-मन उससे कहा, 'तुम्हीं जानो। हेमागिनी उसी क्षण मुझसे लिपट गई, और हंसकर बोली, "अरे वाह रे, मेरी बात सुनकर तुम गहरी सांस लेती हो! मेरी बात पर भला कोई ध्यान देता होगा।" 


धीरे-धीरे मालूम होने लगा कि मेरे पति के डाक्टरी व्यवसाय में बड़ी रुकावटें आने लगी हैं। दूर से बुलावा आने पर तो वे जाते ही नहीं, और आस-पास कहीं से बुलावा आने पर वे झटपट काम खत्म करके घर चले आते हैं। पहले तो काम से फुरसत मिलने पर दोपहर को खाने और सोने के समय सिर्फ भीतर आते थे, पर अब तो बुआजी चाहे जब उन्हें बुला भेजती और वे भी बगैर जरूरत बुआजी की खबर-सुध लेने चले आते हैं। बुआजी जब पुकारकर कहतीं कि 'हिमू, मेरा पानदान तो ले आ जरा', तो में समझ जाती कि बुआजी के कमरे में मेरे स्वामी मौजूद हैं। पहले-पहल दो-चार दिन तक हेमांगिनी पानदान, तेल की प्याली, सिन्दूर की डिबिया आदि लेकर पहुंचाती रही, किन्तु बाद में वह बार-बार बुलाई जाने पर भी खुद न जाकर महरी के हाथ ही सब चीजें भेजने लगी। बुआजी बुलाती, हेमागिनी, हिमू, हिमी!' पर बालिका मानो मेरे प्रति अपने एक दर्द के बहाव से मुझसे उलझी ही रहती, एक तरह की आशंका और दुख उसे घेरे रहता। और इसके बाद से तो वह भूलकर भी मेरे सामने मेरे पति का जिक्र तक न करती। 


इतने में, एक दिन भाई साहब मुझे देखने आए। मैं समझती थी कि भइया की दृष्टि तेज है। यहां क्या हो रहा है, उनसे छिपाना लगभग असम्भव है, क्योंकि वे बड़े कठोर विचारक हैं; वे अन्याय पर रत्ती भर भी रहम करना नहीं जानते। सबसे ज्यादा डर मुझे इस बात का था कि मेरे स्वामी उन्हीं के सामने अपराधी के रूप में खड़े होंगे। मैंने ज्यादा ही खुशी दिखलाकर सबकुछ को ढंक रखा। मैंने ज्यादा बातें करके, ज्यादा उतावली दिखाकर, बहुत ज्यादा धूमधाम मचाकर चारों ओर मानो एक तरह की धूल उठा रखने की कोशिश की।किन्तु मेरे लिए यह सब इतना अस्वाभाविक सिद्ध हुआ कि वही मुझे पकड़वा देने का कारण बन गया। किन्तु भाई साहब ज्यादा दिन ठहर न सके। मेरे पति ऐसा ढीलापन दिखाने लगे कि साफतौर से उसने रुखाई का रूप धारण कर लिया। भइया चले गए। जाने के पहले अपने दिल के समूचे स्नेह के साथ मेरे माथे पर बहुत देर तक अपना कापता हुआ हाथ रखे रहे, और मन-ही-मन एकाग्र चित्त से क्या आशीर्वाद देते रहे सो मैं समझ गई। उनके आंसू मेरे आसू से भीगे हुए गालों पर आ-आकर गिरने लगे। 


साफ याद है मुझे, चैत के दिन थे। उस दिन शाम के वक्त लोग हाट से लौटकर आ रहे थे। दूर से वर्षा को लिए हुए एक आंधी चली आ रही थी, उसकी हाल की भीगी मिट्टी की महक और हवा की नमी से आकाश डूब रहा था। बिछुड़े हुए साथी लोग अंधेरे मैदान में एक-दूसरे को व्याकुल होकर ऊंचे स्वर से बुला रहे थे। मुझ अन्धी के कमरे में, जब तक मैं अकेली रहती, दिया नहीं जलाया जाता, इस डर से कि कहीं उसकी ली लगाकर मैं कपड़े न जला लूं, और कोई दुर्घटना न जाए। मैं अपने सुनसान अंधेरे कमरे में धरती पर बैठी-बैठी दोनों हाथ जोड़कर अपनी अन्धी दुनिया के मालिक को पुकार रही थी, 'प्रभो, जब तुम्हारी दया अहसास में नहीं आती और तुम्हारा मतलब जब समझ में नहीं आता, तब अपने अनाथ टूटे दिल की पतवार को मैं जी-जान से थामकर उसे छाती से लगा लेती हूं। छाती फाड़कर खून की धारा बह निकलती है, फिर भी तूफान से उसे नहीं बचा सकती। 


मेरी अब और कितनी परीक्षा करोगे, मुझमें अब बल ही कितना है!' यह कहते-कहते भीतर से आंसू उमड़ आए, और मैं खाट पर सिर रखकर रोने लगी। तमाम दिन मुझे घर का काम-काज करना पड़ता है, हेमांगिनी छाया की तरह मेरे पास ही पास बनी रहती है। छाती के भीतर जो आंसू उमड़ उमड़ आते हैं, उन्हें आंखों तक लाकर बाहर निकाल देने का भी मौका मुझे नहीं मिलता। बहुत दिन बाद आज आंखों से आंसू निकले। इतने में मालूम हुआ कि खाट कुछ हिली, और किसी के हिलने की धमक सुनाई दी। दूसरे ही क्षण हेमांगिनी आकर मेरे गले से लिपट गई, और चुपचाप अपने आंचल से मेरी आंखें पोंछने लगी। आज शाम से ही वह क्या सोचकर और कैसे आकर मेरी खाट पर सो रही थी, मैं नहीं जान सकी। उसने न तो कुछ पूछा और न कुछ कहा। मैंने भी उससे एक शब्द नहीं कहा। धीरे-धीरे मेरे माथे पर अपना ठंडा हाथ फेरने लगी।


इस बीच कब बादल गरजे, कब जोर की आंधी आई और खूब भी हो गई, मुझे कुछ खबर ही न पड़ी। बहुत दिन बाद एक गहरी शान्ति वर्षा ने आकर ज्वार की आग से झुलसे हुए मेरे दिल को शान्त कर दिया।


दूसरे दिन हेमांगिनी ने बुआजी से कहा, “चाची, मैं पहले से कहे देती हूं, अगर तुम देश न चलोगी तो मैं कैवर्त भइया के साथ चली जाऊंगी।" 


बुआजी ने कहा, “उसके साथ जाने की क्या जरूरत, मैं कल जाऊंगी न। दोनों एक-साथ चलेंगी। और यह देख, हिमू, अविनाश ने तेरे लिए कैसी उक्दा मोती की जड़ाऊ अंगूठी बनवा दी है!” इतना कहकर बड़े गर्व के साथ बुआजी ने अंगूठी हेमांगिनी के हाथ में दी ।


हेमांगिनी ने कहा, "यह देख चाची, मैं कैसा अच्छा निशाना लगा सकती हूं।" और अंगूठी खिड़की में से पीछे के तालाब में फेंक दी। क्रोध से, दुख से, आश्चर्य से बुआजी के रोंगटे खड़े हो गए। उन्होंने बार-बार खुशामद के साथ मुझसे कहा, "बहू, अविनाश से इसका जिक्र मत करना, नहीं तो बेचारा बड़ा दुखी होगा। तुम्हें मेरे सिर की कसम है, बहू, कहना मत।”


मैंने कहा, “ज्यादा कहने की जरूरत नहीं, बुआजी, मैं कोई भी बात नहीं कहूंगी।"


दूसरे दिन, देश रवाना होने से पहले हेमांगिनी ने मुझसे लिपटकर कहा, "जीजी मुझे भूलना मत, याद रखना।"


मैंने बार-बार उसके मुंह पर दोनों हाथ फेरकर कहा, “अन्धे कुछ भूलते नहीं बहन ! मेरी तो कोई दुनिया नहीं है, मैं तो सिर्फ अपने मन ही को लिए हुए हूं।" इतना कहकर मैंने उसके माथे को अपनी ओर खींचकर चूम लिया। मेरी आंखों से उसके बालों पर झरझर आंसू झरने लगे।


हेमांगिनी के चले जाने पर मेरी दुनिया सूख-सी गई। उसने मेरे प्राणों में जो एक तरह की सुगन्ध, एक तरह का सौन्दर्य और संगीत, एक तरह का उज्ज्वल प्रकाश और कोमल तरुणता ला दी थी, सहसा उसके बिला जाने पर एक बार मैंने अपनी अंधेरी दुनिया में, अपने चारों तरफ, दोनों हाथ बढ़ाकर टटोल -टटोलकर देखा कि मेरा कहां क्या है।


उस दिन उन्होंने मेरे पास आकर विशेष प्रसन्नता दिखाते हुए मुझसे कहा, “ये लोग चली गईं, अब जरा काम-काज करने का समय मिलेगा।"


धिक्कार है, धिक्कार है मुझे! मेरे लिए इतनी चातुरी, इतना छल, इतना कपट! क्यों? मैं क्या सचाई से डरती हूँ? मैं क्या चोट से कभी घबराई हूँ? उन्हें क्या मालूम नहीं कि जब मैंने उनकी खुशी में अपनी खुशी समझकर अपनी दोनों आंखें दी थीं, तब मैंने अपने चिर अन्धकार को कितनी ख़ुशी से अपना लिया था?


अब तक मेरे और उनके बीच सिर्फ अन्धता का ही परदा था, पर आज से उस पर एक और परदा पड़ गया। मेरे पति भूलकर भी कभी हेमांगिनी का नाम मेरे सामने जबान पर नहीं लाते। मानो उनकी दुनिया से हेमागिनी सदा के लिए एकदम गायब हो गई हो, मानो उनके मन पर उसने कभी भी जरा-सी लकीर तक न खींची हो! किन्तु इधर चिट्ठी-पत्री से वे हमेशा उसकी खबर पाते रहते हैं, इस बात का मैं अनायास ही अनुभव कर लिया करती हू । जैसे, तालाब में बरसात का पानी जिस रोज जरा भी ज्यादा आ जाता है, उसी वक्त कमल के डंठल में खिंचाव पड़ता है, उसी तरह उनके भीतर जिस दिन जरा भी बाढ़ आती, जरा भी उफान आता, उसी दिन अपने दिल की जड़ में मुझे उसका पता लग जाता है। खिंचाव ऐसी ही चीज है! कब उन्हें हेमांगिनी की खबर मिलती और कब नहीं, मुझसे कुछ छिपा नहीं रहता। 


किन्तु मैं उन्हें उसकी याद नहीं दिला सकती थी। मेरे अंधेरे दिल के आकाश में वह जो एक उन्मत्त, उद्दाम, उजला, सुन्दर तारा जरा देर के लिए उगा था, उसकी जरा खबर पाने और थोड़ी-बहुत चर्चा करने के लिए मेरा जी प्यासा-सा बना रहता, किन्तु फिर भी अपने पति के सामने क्षण-भर के लिए उसका नाम लेने का भी मुझे अधिकार न था और इस तरह हम दोनों के बीच वाक्य और वेदना से भरा ऐसा एक तरह का सन्नाटा जमा बैठा था, जिसकी याद आते ही दिल दुखने लगता है। 


बैसाख महीने के बीचोंबीच एक दिन महरी ने आकर मुझसे पूछा, "बहूजी, नदी किनारे घाट पर आज अपनी नाव कहां के लिए तैयार हो रही है? बाबूजी कहीं जा रहे हैं क्या?" 


मैं खुद समझ रही थी कि कुछ तैयारियां-सी हो रही हैं, और अब फिर मेरे भाग्य के आकाश में आंधी के पहले का-सा सन्नाटा और उसके बाद प्रलय के छितराए हुए बादल आ-आकर जम रहे हैं; और यह भी अनुभव कर रही थी कि स्वयं संहार करनेवाले शंकर सूनी उंगली के इशारे से अपनी सारी प्रलय-शक्ति को मेरे सिर पर इकट्ठा कर रहे हैं। महरी से मैंने कहा, "कहां, मुझे तो अभी तक कोई खबर नहीं मिली!" 


महरी ने फिर कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की। एक गहरी सांस लेकर चली गई वह। 


बहुत रात बीते पति ने आकर मुझसे कहा, "दूर से मेरा बुलावा आया है, सो कल सवेरे ही मुझे रवाना होना पड़ेगा। लौटने में दो-तीन दिन की देरी होगी।" 


मैं तुरन्त बिस्तर से उठकर खड़ी हो गई, और बोली, “क्यों तुम मुझसे झूठ बोल रहे हो?" 


पति ने कांपते हुए स्वर से कहा, “झूठ मैंने क्या कहा?" 


मैंने कहा, "तुम ब्याह करने जा रहे हो!" 


वे चुप रह गए। मैं ज्यों-की-त्यों स्थिर खड़ी रही। बहुत देर तक घर में बिलकुल सन्नाटा रहा। अन्त में मैंने कहा, "कुछ तो जवाब दो। कहो कि हां, मैं ब्याह करने जा रहा हूं!' 


उन्होंने प्रतिध्वनि की भांति उत्तर दिया, "हां, मैं ब्याह करने जा रहा हूँ।" 


मैंने कहा, “नहीं, तुम नहीं जा सकते। मैं तुम्हें इस महासंकट से, इस महापाप से बचाऊंगी ही। इतना भी अगर न कर सकी, तो मैं तुम्हारी पत्नी ही किस बात की? किसलिए मैंने इतनी शिव पूजा की थी?" 


फिर बहुत देर तक सन्नाटा रहा। मैंने जमीन पर पड़कर उनके पैरों से लिपटकर कहा, "मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, कौन-सा अपराध किया है मैंने तुम्हारा, जो आज तुम्हें दूसरी पत्नी की जरूरत पड़ गई? तुम्हें मेरे सर की कसम है, सच-सच बताओ।" 


तब मेरे स्वामी ने धीरे-धीरे कहा, "सच-सच ही कह रहा हूँ। तुम्हारे अन्धेपन ने तुम्हे एक न खत्म होनेवाले पर्दे में घेर रखा है, तुम तक में किसी भी तरह पहुंच ही नहीं पाता। तुम मेरी देवी हो, देवी के समान भयानक हो, तुम्हारे साथ मैं रोजमर्रा की घर-गृहस्थी नहीं चला सकता। ऐसी एक साधारण स्त्री चाहिए मुझे कि जिस पर में बक-झक सकू, गुस्सा हो सकू, जिससे मैं प्यार कर सकू, लाड़ कर सकू, जिसे मैं गहने-कपड़े बनवाके दे सकू।" 


"मेरी छाती के भीतर चीरकर देखो, मैं बिलकुल साधारण स्त्री हूं या नहीं! देखोगे, ब्याह के दिन की उस बालिका के सिवा और कुछ भी नहीं हूँ मैं। मैं तुम पर श्रद्धा करना चाहती हूं, भरोसा करना चाहती हूं, तुम्हारी में पूजा करना चाहती हूं। तुम अपना अपमान करके, मुझे दुसह दुख देकर, मुझे अपने से बड़ा मत बनाओ, प्रियतम! मुझे सब विषयों में अपने पैरों के नीचे रखो, नाथ!" 


मैंने क्या-क्या बातें कही थीं, सो क्या मुझे याद हैं! विक्षुब्ध समुद्र क्या अपना गर्जन स्वयं सुन पाता है? सिर्फ इतना याद है कि मैंने कहा था, 'अगर मैं सती होऊं, तो भगवान साक्षी रहे, तुम किसी भी तरह अपनी धार्मिक प्रतिज्ञा भंग न कर सकोगे। उस महापाप के होने के पहले या तो में विधवा हो जाऊंगी, या हेमांगिनी नहीं बचेगी। 'यह कहते-कहते मैं देहोश होकर गिर पड़ी। 


जब मुझे होश आया, तब तक पौ फटने पर बोलनेवाली चिड़ियों ने चहचहाना शुरू नहीं किया था, और मेरे स्वामी चले गए थे।

 

अपने घर के ठाकुरद्वारे में दरवाजा बन्द करके मैं पूजा करने बैठ गई। तमाम दिन में बाहर नहीं निकली। शाम को बड़े जोर की आधी आई, तूफान था वह, सारा मकान कापने लगा। फिर भी मैंने यह नहीं कहा कि 'हे भगवान, मेरे पति इस समय नदी में हैं, उनकी रक्षा करो!' मैं एकाग्र चित्त से केवल यही कहने लगी कि ‘भगवान्, मेरे भाग्य में जो बदा है सो होगा, पर मेरे स्वामी को तुम इस महापातक से बचाओ।' 


सारी रात बीत गई। उसके दूसरे दिन भी मैंने अपना आसन नहीं छोड़ा। बिना खाए-पीए और बिना सोए मुझे किसने बल दिया, मालूम नहीं, मैं पाषाण-मूर्ति के सामने पत्थर की मूरत की तरह ज्यों-की-त्यों स्थिर बैठी रही। 


शाम के वक्त बाहर से दरवाजे पर धक्के का शब्द सुनाई दिया। दरवाजा तोड़कर जब लोग भीतर घुसे, तब मैं बेहोश पड़ी थी। 


बेहोशी दूर होने पर मैंने सुना, 'जीजी!' आंख खोलकर देखा कि मैं हेमांगिनी की गोद में पड़ी हूं। सिर हिलाते ही मालूम हुआ कि वह ब्याह के कपड़े पहने हुए है। भीतर से मेरी पसलियां तक चीख उठी,  'हां भगवान, मेरी प्रार्थना नहीं सुनी तुमने! आखिर मेरे स्वामी का पतन हो ही गया!' 


हेमांगिनी ने सिर झुकाकर धीरे-से मुझसे कहा, “जीजी, तुम्हारी असीस लेने आई हूं मैं।" 


पहले तो मैं क्षण-भर के लिए पत्थर-सी कठोर हो गई, फिर दूसरे ही क्षण उठके बैठ गई। मैंने कहा, "तुम्हें आशीर्वाद दूंगी, बहन! तुम्हारा क्या कसूर!" 


हेमांगिनी अपने स्वाभाविक मिठास-भरे और ऊंचे स्वर में हंस उठी, और बोली, “कसूर! तुम खुद ब्याह करो तो कसूर नहीं, और मैं करूं तो कसूर है?" 


हेमांगिनी से लिपटकर मैं भी हंसने लगी। मन-ही-मन कहा, 'संसार में मेरी ही प्रार्थना क्या सबसे बढ़कर है? उनकी इच्छा क्या कोई चीज ही नहीं! जो चोट पड़ी है वह मेरे ही सिर पर पड़े, पर दिल के भीतर जहां मेरा धर्म है, जहां मेरी श्रद्धा है, वहां उसे हरगिज न पड़ने दूंगी। मैं जैसी थी वैसी ही रहूंगी।' 


हेमांगिनी ने मेरे पांव पड़कर पांव की धूल अपने माथे से लगा ली। मैंने कहा, “तुम चिर सौभाग्यवती होओ, बहन, चिर सुखी होओ!"


हेमागिनी ने कहा, "आज सिर्फ असीस देकर ही छुटकारा नपा सकोगी, जीजी! अपनी बहन और बहनोई को भी तुम्हें अपने हाथों से वरण करना होगा। तुम सती हो, तुम्हारा आशीवाद ही हम दोनों के जीवन का मूलधन होगा, जीजी! उनकी शरम करने से काम न चलेगा। अगर आज्ञा हो, तो उन्हें मैं ले आऊ भीतर?" 


मैंने कहा, "जाओ, ले आओ।" 


कुछ देर बाद मेरे कमरे में नई आहट ने प्रवेश किया। स्नेह का एक प्रश्न मेरे कानों में पड़ा, “अच्छी तरह हो, कुमू?" 


मैंने उतावली के साथ बिछौने से उठकर भाई साहब के पांव के पास प्रणाम करके कहा, “भइया!" 


हेमागिनी बोली, “भइया कैसे? जरा कान तो ऐंठ दो इनके। अब ये तुम्हारे भइया नहीं, छोटे बहनोई हैं!" 


तब मैं सब बात समझ गई। मुझे मालूम था, भइया की प्रतिज्ञा थी कि वे ब्याह नहीं करेंगे। मां नहीं थी, कह-सुनकर ब्याह करानेवाला और कोई भी न था। अब शायद मैंने ही उनका ब्याह करा दिया। मेरी दोनों आंखों से आंसुओं की वर्षा-सी होने लगी, किसी भी तरह मैं उन्हें रोक न सकी। भइया धीरे-धीरे मेरे बालों में हाथ फेरने लगे, और हेमांगिनी मुझसे लिपटकर सिर्फ हंसती ही रही। 


रात को नींद नहीं आ रही थी, मैं बेचैन मन से पति के आने की आशा कर रही थी। लज्जा और निराशा को वे कैसे दूर करेंगे, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। 


बहुत रात बीते धीरे-धीरे दरवाजा खुला। मैं चौंककर बैठ गई। मेरे पति के पैरों की आहट थी। छाती के भीतर मेरा दिल और उसके साथ मेरी पसलियां भी पछाड़ें खाने लगीं। 


उन्होंने बिस्तर पर आकर मेरा हाथ थामकर कहा, "तुम्हारे भइया ने ही मुझे बचाया है। मैं क्षण-भर के मोह में आकर मरने जा रहा था। उस दिन जब मैंने नाव पर पैर रखा, तब मेरी छाती पर कितना भारी पत्थर जमा बैठा था, सो मैं जानता हूं या भगवान ही जानते हैं। जब नदी में जोर की आंधी आई तो प्राणों का भी भय हो रहा था, और साथ ही यह भी सोच रहा था कि डूब जाऊं तो मेरा उद्धार हो जाए। माथुरगंज में पहुंचते ही सुना कि एक दिन पहले ही तुम्हारे भइया के साथ हेमांगिनी का ब्याह हो गया है। कितनी लज्जा से और कितने आनन्द से नाव पर वापस आया, सो मैं कह नहीं सकता। इन्हीं दो दिनों में मैं खूब अच्छी तरह समझ गया हूं कि तुम्हारे बगैर मुझे सुख नहीं, तुम्हारे सिवा मेरे लिए और कहीं भी कोई शान्ति नहीं, तुम मेरी देवी हो।' 


मैंने हंसकर कहा, “नहीं, मुझे देवी बनाने की जरूरत नहीं, मैं तुम्हारे घर की गृहिणी हूं, मैं तुम्हारी साधारण पली-मात्र हूं, और कुछ भी नहीं।" 


स्वामी ने कहा, “मेरी भी एक बात तुम्हें रखनी होगी। मुझे अब देवता कहकर कभी भी किसी दिन शर्मिन्दा मत करना। मैं भी तुम्हारा साधारण पति हूं, तुम्हारा प्रेमी हूं, और कुछ भी नहीं।"

 

दूसरे दिन उलू-ध्वनि और शंख-ध्वनि से सारा मुहल्ला गूंज उठा। 

हेमांगिनी उठते-बैठते, नहाते-खाते, सोते-जागते, शाम-सवेरे, हर वक्त मेरे पति का मजाक उड़ाने लगी। वे बेचारे तंग आ गए, परेशान हो गए। किन्तु, वे कहां गए थे, क्या हुआ था, मुझसे किसी ने भी उसका कोई जिक्र तक नहीं किया।


रवीन्द्रनाथ ठाकुर (रबीन्द्रनाथ  टैगोर) की श्रेष्ठ कहानियां -


इसी तरह की अन्य कहानियों के लिए यहाँ Click करें -और ख़बरों से जुड़ने के लिए KHABAR DAILY UPDATE को Subscribe करें.... धन्यबाद। 
इस कहानी ने आपको कितना प्रभावित किया कमेँट करके बताये-


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.