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काबुलीवाला: रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियाँ

रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियाँ "Kabuliwala": काबुलीवाला कहानी 1892 में रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक बंगाली लघु कहानी है, कहानी काबुल के एक पठान "द फ्रूटसेलर" के बारे में है।, अफगानिस्तान जो हर साल सूखे मेवे बेचने के लिए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), भारत का दौरा करता है और भारत में रहते हुए वह एक मध्यम वर्गीय कुलीन परिवार की पांच वर्षीय लड़की मिनी के साथ पारिवारिक स्नेह विकसित करता है।


रबीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर) बंगाल साहित्य में कहानियों के प्रेणता माने जाते है,और विश्व के  महान सहित्यकार रबीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे अग्रिम लेखक थे,जिन्हे नोबेल पुरुस्कार जैसे सम्मान से विभूषित किया गया।  समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देने वाले बताते हैं  यहाँ पर आपको  रबीन्द्रनाथ टैगोर  की श्रेष्ठ कहानियों का संकलन मिलेगा,जो कला शिल्प,शब्द सौन्दर्य,भाव-पुटता,अभिव्यक्ति की सरलता,आधी का बेजोड़ नमूना है।  


काबुलीवाला - रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियाँ 


काबुलीवाला  रवींद्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियाँ कहानी पांच वर्षीय लड़की मिनी और एक पठान द फ्रूटसेलर


मेरी पांच बरस की छोटी लड़की मिनी से क्षण भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। संसार में जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने एक ही साल लगाया था। उसके बाद से,जब तक वह जागती रहती है, उस समय का एक भी क्षण वह खामोश रहकर नष्ट नहीं करती। उसकी मां कभी-कभी धमकाकर उसका मुंह बन्द कर देती है, पर मैं ऐसा नहीं कर पाता। मिनी अगर खामोश रहे, तो वह ऐसी अजीब-सी लगती है कि मुझसे उसकी चुप्पी ज्यादा देर तक सही नहीं जाती। सही कारण यही है कि उसके साथ मेरी बातचीत कुछ ज्यादा उत्साह के साथ चलती है। 


सबेरे मैं अपने उपन्यास का सत्रहवां अध्याय लिखने जा ही रहा था कि मिनी ने आकर शुरू कर दिया,“बाबू, रामदयाल दरबान काका को कौवा कह रहा था। वह कुछ नहीं जानता। है न बाबा?" 


संसार की भाषाओं की विभिन्नता के बारे में मैं उसे कुछ ज्ञान देनेवाला ही था कि उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया,“सुनो बाबू,भोला कह रहा था कि आसमान से हाथी सूंड से पानी बिखेरता है, तभी बारिश होती है।ओ मां! भोला झूठमूठ ही इतना बकता है! बस बकता ही रहता है,दिन-रात बकता रहता है, बाबू।”


रवीन्द्रनाथ ठाकुर (रबीन्द्रनाथ  टैगोर) की श्रेष्ठ कहानियां -


इस बारे में मेरी राय के लिए जरा सा इन्तजार किए बिना वह अचानक पूछ बैठी,"क्यों बाबू,अम्मा तुम्हारी कौन लगती है?" 


मैंने मन-ही-मन कहा,'साली'और मुंह से कहा,"मिनी,तू जा,जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी काम करना है।" 


वह मेरी लिखने की मेज के पास मेरे पैरों के निकट बैठ गई और। दोनों घुटने और हाथ हिला-हिलाकर,फुर्ती से मुंह चलाते हुए रटने लगी, “आगडुम-बगडुम घोड़ा-डुम साजे।” उस समय मेरे उपन्यास के सत्रहवे अध्याय में प्रतापसिंह कंचनमाला को लेकर अंधेरी रात में कारागार की ऊंची खिड़की से नीचे नदी के पानी में कूद रहे थे


मेरा कमरा सड़क के किनारे था। यकायक मिनीं 'अक्को-बक्को तीन तिलक्को' खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़कर पहुंची और जोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाला! ओ, काबुलीवाला!" 


गन्दे-से ढीले कपड़े पहने, सिर पर पगड़ी बांधे, कन्धे पर झोली लटकाए और हाथ में अंगूर की दो-चार पिटारियां लिए एक लम्बा-सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख मेरी बिटिया रानी के मन में कैसे भाव जगे होंगे, यह बताना मुश्किल है, पर वह जोर-जोर से उसे पुकार रही थी। मैंने सोचा, अभी कन्धे पर झोली लटकाए एक आफत मेरे सिर पर आ सवार होगी और मेरा सत्रहवां अध्याय समाप्त होने से रह जाएगा।


लेकिन मिनी की पुकार पर, जैसे ही काबुली ने हंसकर अपना चेहरा घुमाया और मेरे घर की ओर आने लगा, वैसे ही मिनी जान छुड़ाकर अन्दर की ओर भागी और लापता हो गई। उसके मन में एक अन्धविश्वास सा जम गया था कि झोली ढूंढ़ने पर मिनी जैसे दो-चार जीवित इनसान मिल सकते हैं। 


काबुली ने आकर हंसते हुए सलाम किया और खड़ा रहा। मैंने सोचा, हालांकि प्रतापसिंह और कंचनमाला दोनों की दशा बड़े संकट में है, फिर भी इस आदमी को घर बुलाकर कुछ न खरीदना ठीक नहीं होगा। 


कुछ चीजें खरीदीं। उसके बाद इधर-उधर की चर्चा भी होने लगी। अब्दुल रहमान से रूस, अंग्रेज, सीमान्त-रक्षा-नीति पर बातें होती रहीं।


अंत में उठते समय उसने पूछा,"बापूजी,तुम्हारी लड़की कहां गई?"


मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के इरादे से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे सटकर खड़ी हो गई। सन्देह-भरी नजरों से वह काबुली का चेहरा और उसकी झोली की ओर देखती रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने किसी तरह से नहीं लिया। दुगुने सन्देह के साथ वह मेरे घुटनों से चिपकी रही। पहला परिचय इसी तरह हुआ। 


कुछ दिनों बाद, एक सवेरे किसी जरूरत से घर के बाहर निकला तो देखा, मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी बेहिचक बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा मुस्कुराता हुआ सुन रहा है और बीच-बीच में प्रसंग के अनुसार अपनी राय भी खिचड़ी भाषा में जाहिर कर रहा है। मिनी के पांच साल की उम्र के अनुभव में 'बाबू' के अलावा ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। फिर देखा, उसका छोटा-सा आंचल बादाम, किशमिश से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, "इसे यह सब क्यों दिया? ऐसा मत करना।” इतना कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बेझिझक अठन्नी लेकर झोली में डाल ली। 


घर लौटकर देखा, उस अठन्नी को लेकर बड़ा हो-हल्ला शुरू हो चुका था। 


मिनी की मां एक सफेद चमचमाता गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डांटकर मिनी से पूछ रही थी, “तुझे अठन्नी कहां से मिली?" 


मिनी ने कहा, "काबुलीवाला ने दी है।" 


उसकी मां बोली, "काबुलीवाले से तूने अठन्नी ली क्यों?" 


मिनी रुआंसी-सी होकर बोली, "मैंने मांगी नहीं, उसने खुद ही दे दी।" 


मैंने आकर मिनी को उस पास खड़ी विपत्ति से बचाया और बाहर ले आया। 


पता चला कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी मुलाकात ही हो ऐसी बात नहीं। इस बीच वह रोज आता रहा और पिस्ता-बादाम की रिश्वत देकर मिनी के मासूम लोभी हृदय पर काफी अधिकार जमा लिया।


इन दोनों मित्रों में कुछ बंधी-बंधाई बातें और परिहास होता रहा। जैसे रहमान को देखते ही मेरी लड़की हंसती हुई उससे पूछती, “काबुलीवाला! ओ, काबुलीवाला! तुम्हारी झोली में क्या है?" 


रहमान एक बेमतलब नकियाते हुए जवाब देता, "हाथी।" 


यानी उसकी झोली के भीतर हाथी है, यही उनके परिहास का सूक्ष्म सा अर्थ था। अर्थ बहुत ही सूक्ष्म हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस परिहास में दोनों को बड़ा मजा आता। सर्दियों की भोर में एक सयाने और एक कम उम्र बच्ची की सरल हंसी मुझे भी बड़ी अच्छी लगती। 


उन दोनों में एक बात और चल रही थी। रहमान मिनी से कहता,"खोखी, तुम कभी 'ससुराल मत जाना,हां!" 


बंगाली परिवार की लड़कियां बचपन से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित हो जाती हैं, लेकिन हम लोगों ने थोड़ा आधुनिक होने के कारण मासूम बच्ची को ससुराल के बारे में सचेत नहीं किया था। इसलिए रहमान की बातों का मतलब वह साफ-साफ नहीं समझ पाती थी, लेकिन बात का कोई जवाब दिए बिना चुप रह जाना, उसके स्वभाव के बिल्कुल विरुद्ध था। वह पलटकर रहमान से पूछ बैठती, “तुम ससुराल जाओगे?" 


रहमान काल्पनिक ससुर के प्रति अपना बहुत बड़ा बूंसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।"


यह सुनकर मिनी 'ससुर' नाम के किसी अजनबी प्राणी की दुर्दशा की कल्पना कर खूब हंसती। 


सर्दियों के उजले दिन थे। प्राचीनकाल में इसी समय राजा लोग दिग्विजय करने निकलते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कहीं नहीं गया। शायद इसीलिए "बाड़ला शब्द 'खुकी' ( मुन्नी ) का विकृत रूप। मेरा मन संसार-भर में घूमा करता है। जैसे मैं अपने घर के ही कोने में हमेशा से बसा हुआ हूं। बाहर की दुनिया के लिए मेरा मन सदा बेचैन रहता है। किसी देश का नाम सुनते ही मन वहीं दौड़ पड़ता है। किसी विदेशी को देखते ही मेरा मन फौरन नदी-पहाड़-जंगल के बीच एक कुटिया का दृश्य देख रहा होता है। उल्लास से भरे स्वतन्त्र जीवन का एक चित्र कल्पना में जाग उठता है। 


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इधर मैं भी इतना सुस्त प्रकृति यानी कुन्ना किस्म का हूं कि अपना कोना छोड़कर जरा बाहर निकलने में ही सिर पर बिजली गिरने-सा अनुभव होने लगता है। इसीलिए सवेरे अपने छोटे कमरे में मेज के सामने बैठकर काबुली से गप्पे लड़ाकर बहुत कुछ सैर-सपाटे का उद्देश्य पूरा कर लिया करता हूं। दोनों ओर ऊबड़-खाबड़, दुर्गम, जले हुए, लाल-लाल ऊंचे पहाड़ों की माला, बीच में संकरे रेगिस्तानी रास्ते और उन पर सामान से लदे ऊंटों का काफिला चल रहा है। पगड़ी बांधे सौदागर और मुसाफिरों में कोई ऊंट पर तो कोई पैदल चले जा रहे हैं, किसी के हाथ में बरछी है तो किसी के हाथ में पुराने जमाने की चकमक पत्थर से दागी जानेवाली बन्दूक। काबुली अपने मेघ गर्जन से स्वर में, खिचड़ी भाषा में अपने वतन के बारे में सुनाता रहता और यह चित्र मेरी आंखों के सामने काफिलों के समान गुजरता चला जाता। 


मिनी की मां बड़े ही शंकाल स्वभाव की है। रास्ते पर कोई आहट होते ही उसे लगता कि दुनिया भर के शराबी मतवाले होकर हमारे ही घर की ओर भागते चले आ रहे हैं। यह दुनिया हर कहीं चोर-डाकू, शराबी, सांप, बाघ, मलेरिया, सुअरों, तिलचट्टों और गोरों भरी हुई है, यही उसका खयाल है। इतने दिनों से ( हालांकि बहुत ज्यादा दिन नहीं ) दुनिया में रहने के बावजूद उसके मन से यह भय दूर नहीं हुआ। 


खासतौर से रहमान काबुली के बारे में वह पूरी तरह निश्चिन्त नहीं थी। उस पर खास नजर रखने के लिए वह मुझसे बार-बार अनुरोध करती थी। मैं उसके सन्देह को हंसकर उड़ा देने की कोशिश करता, तोह मुझसे एक-एक कर कई सवाल पूछ बैठती, "क्या कभी किसी का लड़का चुराया नहीं गया? क्या काबुल में गुलामी-प्रथा चालू नहीं है? एक लम्बे-चौड़े काबुली के लिए, क्या एक छोटे से बच्चे को चुराकर ले जाना बिलकुल असम्भव है?" 


मुझे मानना पड़ा कि यह बात बिलकुल असम्भव तो नहीं, पर विश्वास योग्य भी नहीं है। विश्वास करने की शक्ति हरेक में समान नहीं होती, इसीलिए मेरी पत्नी के मन में डर बना ही रह गया। लेकिन सिर्फ इसीलिए बिना किसी दोष के रहमान को अपने घर में आने से मैं मना नहीं कर सका। 


हर साल माघ के महीनों में रहमान अपने मुल्क चला जाता है। इस समय वह अपने रुपयों की वसूली में बुरी तरह फंसा रहता है। घर-घर दौड़ना पड़ता है, फिर भी वह एक बार मिनी से आकर मिल ही जाता है। देखने में लगता है, जैसे दोनों में कोई साजिश चल रही हो। जिस दिन सवेरे नहीं आ पाता, उस दिन देखता हूं कि वह शाम को आया है।अंधेरे कमरे के कोने में उस ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा पहने झोली-झिंगोली-वाले लम्बे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच मन में अचानक एक आशंका-सी होने लगती है। लेकिन जब मैं देखता हूं कि मिनी 'काबुलीवाला, काबुलीवाला' कहकर हंसते-हंसते दौड़ आती और अलग-अलग उम्र के दो मित्रों में पुराना सहज परिहास चलने लगता है, तो मेरा हृदय खुशी से भर उठता। 


एक दिन सवेरे में अपने छोटे कमरे में बैठा अपनी किताब के प्रूफ देख रहा था। सर्दियों के दिन खत्म होने से पहले, आज दो-तीन दिन से कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। चारों ओर सबके दांत किटकिटा रहे थे। खिड़कियों के रास्ते धूप आकर मेज के नीचे मेरे पैरों पर पड़ रही थी। यह सेंक मुझे बड़ी सुहावनी लग रही थी। सुबह के करीब आठ बजे होंगे। गुलूबन्द लपेटे सवेरे सैर को निकलने वाले लोग अपनी सैर समाप्त कर घर लौट रहे थे। इसी समय सड़क पर बड़ा शोरगुल सुनाई पड़ा। 


देखा, हमारे रहमान को दो सिपाही बांधे चले आ रहे हैं और उसके पीछे-पीछे तमाशबीन लड़कों का झुंड चला आ रहा है। रहमान के कपड़ों पर खून के दाग हैं और एक सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा है। मैंने दरवाजे से बाहर जाकर सिपाहियों से पूछा कि मामला क्या है। 


कुछ उस सिपाही से और कुछ रहमान से सुना कि हमारे पड़ोस में एक आदमी ने रहमान से उधार में एक रामपुरी चादर खरीदी थी। कुष्ट रुपये अब भी उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से वह मुकर गया। इसी पर बहस होते-होते रहमान ने उसे छुरा भोंक दिया। 


रहमान उस झूठे आदमी के प्रति तरह-तरह की गन्दी गालियां बक रहा था कि इतने में 'काबुलीवाला, ओ काबुलीवाला' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई। 


क्षण-भर में रहमान का चेहरा उजली हंसी से खिल उठा। उसके कन्धे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए झोली के बारे में दोनों मित्रों की पुरानी चर्चा न छिड़ सकी। मिनी आते ही एकाएक उससे पूछ बैठी, “तुम ससुराल जाओगे? " 


रहमान ने हंसकर कहा, “वहीं तो जा रहा हूं।" 


उसे लगा उसके इस जवाब से मिनी मुस्कुराई नहीं। तब उसने हाथ दिखाते हुए कहा, “ससुर को मारता, पर करूं क्या, हाथ बंधे हैं।"


संगीन चोट पहुंचाने के जुर्म में रहमान को कई साल की कैद की सजा हो गई। 


उसके बारे में मैं धीरे-धीरे भूल ही गया। हम लोग जब अपने-अपने घरों में प्रतिदिन के कामों में लगे हुए आराम से दिन गुजार रहे थे, तब पहाड़ों पर आजाद घूमनेवाला आदमी जेल की दीवारों में कैसे साल पर साल गुजार रहा होगा, यह बात कभी हमारे मन में नहीं आई। 


चंचल हृदय मिनी का व्यवहार तो और भी शर्मनाक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पड़ेगी। उसने बड़े ही बेलौस ढंग से अपने पुराने मित्र को भुलाकर पहले तो नबी सईस के साथ दोस्ती कर ली, फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगी, वैसे-वैसे दोस्तों के बदले एक बाद एक सहेलियां जुटने लगीं। यहां तक कि अब यह अपने बाबू के लिखने के कमरे में भी नहीं दिखलाई देती। मैंने भी एक तरह से उसके साथ कुट्टी कर ली है। 


कितने ही वर्ष बीत गए। फिर सर्दियां आ गईं। मेरी मिनी की शादी तय हो गई। दुर्गापूजा की छुट्टी में ही उसका ब्याह हो जाएगा। कैलाशवासिनी पार्वती के साथ-साथ मेरे घर की आनन्दमयी भी पिता का घर अंधेरा कर पति के घर चली जाएगी। 


बड़े ही सुहावने ढंग से आज सवेरे सूर्योदय हुआ है। बरसात के बाद सर्दियों की नई धुली हुई धूप ने जैसे सुहागे में गलाए हुए साफ और खरे सोने का रंग अपना लिया है। कलकत्ता के गलियारों में आपस में सटी-टूटी ईंटोंवाली गन्दी इमारतों पर भी इस धूप की चमक ने एक अनोखी सुन्दरता बिखेर दी है। 


हमारे घर पर सवेरा होने से पहले से ही शहनाई बज रही है। मुझे लग रहा है, जैसे वह शहनाई मेरे सीने में पसलियों के भीतर रोती हुई बज रही है। उसका करुण भैरवी राग जैसे मेरे सामने खड़ी बिछोह की पीड़ा को जाड़े की धूप के साथ दुनिया भर में फैलाए दे रहा हो। आज मेरी मिनी का ब्याह है। 


सवेरे से ही बड़ा शोर-शराबा और लोगों का आना-जाना शुरू हो गया। आंगन में बांस बांधकर शामियाना लगाया जा रहा है, मकान के कमरों में और बरामदे पर झाड़ लटकाए जाने की टन-टन सुनाई पड़ रही है। गुहार-पुकार का तो कोई अन्त ही नहीं। 


मैं अपने पढ़ने-लिखनेवाले कमरे में बैठा खर्च का हिसाब लिख रहा था कि रहमान आकर सलाम करते हुए खड़ा हो गया। 


शुरू में मैं उसे पहचान न सका। उसके पास वह झोली नहीं थी। उसके वे लम्बे पट्टेदार बाल नहीं थे और न चेहरे पर चमक थी। अन्त में उसकी मुस्कुराहट देखकर उसे पहचान गवा।


 "क्यों रहमान, कब आए?" मैंने पूछा। 


उसने कहा "कल शाम को ही जेल से छूटा हूँ।"


यह बात मेरे कानों में जोर से टकराई। किसी कातिल को मैंने कभी अपनी आंखों से नहीं देखा था। इसे देखकर मेरा अन्तःकरण विचलित-सा हो गया। मेरी इच्छा होने लगी कि आज इस शुभदिन पर यह आदमी यहां से चला जाए, तो बहुत अच्छा हो। 


मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर एक जरूरी काम है। मैं उसी में लगा हुआ हूं, आज तुम जाओ।" 


सुनते ही वह जाने को तैयार हुआ, लेकिन फिर दरवाजे के पास जा खड़ा हुआ और कुछ संकोच से भरकर बोला, “एक बार खोखी को नहीं देख सकता क्या?" 


शायद उसके मन में यही धारणा थी कि मिनी अभी तक वैसी ही बनी हुई है। या उसने सोचा था कि मिनी आज भी वैसे ही पहले की तरह 'काबुलीवाला, काबुलीवाला' पुकारती भागती हुई आ जाएगी और उसकी हंसी-भरी अद्भुत बातों में किसी तरह का कोई फर्क नहीं आएगा। यहां तक कि पहले की मित्रता की याद कर वह एक पिटारी अंगूर और कागज के दोने में थोड़ा किशमिश-बादाम शायद किसी अपने वतनी दोस्त से मांग-मूंगकर ले आया था। उसकी पहलेवाली झोली उसके पास नहीं थी। 


मैंने कहा, “आज घर पर काम है। आज किसी से मुलाकात न हो सकेगी।" 


वह कुछ उदास-सा हो गया। स्तब्ध खड़ा मेरी ओर एकटक देखता रहा, फिर 'सलाम बाबू' कहकर दरवाजे से बाहर निकल गया। 


मेरे हृदय में एक टीस-सी उठी। सोच रहा था कि उसे बुला लूं कि देखा, वह खुद ही चला आ रहा है। 


नजदीक आकर उसने कहा, "ये अंगूर, किशमिश और बादाम खोखी के लिए ले आया हूं, उसको दे दीजिएगा  


सब लेकर मैंने दाम देना चाहा, तो उसने एकाएक मेरा हाथ पकड़ लिया, कहा, “आपकी बड़ी मेहरबानी है बाबू, हमेशा याद रहेगी। मुझे पैसा न दें ...। बाबू, जैसी तुम्हारी लड़की है, वैसी मेरी भी एक लड़की वतन में है। मैं उसकी याद कर तुम्हारी खोखी के लिए थोड़ा-सा मेवा हाथ में लिए चला आता था। मैं यहां कोई सौदा बेचने नहीं आता।" 


इतना कहकर उसने अपने ढीले-ढाले कुर्ते के अन्दर हाथ डालकर एक मैला-सा कागज निकाला और बड़े जतन से उसकी तहें खोलकर दोनों हाथ से उसे मेज पर फैला दिया। 


मैंने देखा, कागज पर एक नन्हे-से हाथ के पंजे की छाप है। फोटो नहीं, तैलचित्र नहीं, सिर्फ हथेली में थोड़ी-सी कालिख लगाकर उसी का निशान ले लिया गया है। बेटी की इस नन्ही-सी याद को छाती से संजोए रहमान हर साल कलकत्ता की गलियों में मेवा बेचने आता था, जैसे उस नाजुक नन्हे हाथ का स्पर्श उसके बिछोह से भरे चौड़े सीने में अमृत घोले रहता था। 


देखकर मेरी आंखें भर आईं। फिर मैं यह भूल गया कि वह एक काबुली मेवावाला है और मैं किसी ऊंचे घराने का बंगाली। तब मैं यह अनुभव करने लगा कि जो वह है, वही मैं भी हूं, वह भी बाप है और मैं भी। उसकी पर्वतवासिनी नन्हीं पार्वती के हाथ की निशानी ने ही मेरी मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक्त मिनी को बाहर बुलवाया। घर में इस पर बड़ी आपत्ति की गई, पर मैंने एक न सुनी। ब्याह की लाल बनारसी साड़ी पहने, माथे पर चन्दन की अल्पना सजाए दुल्हन बनी मिनी लाज से भरी मेरे पास आकर खड़ी हो गई। 


उसे देखकर काबुली पहले तो सकपका-सा गया, अपनी पुरानी बातें दोहरा न सका। अन्त में हंसकर बोला, “खोखी, तुम ससुराल जाओगी?" 


मिनी अब ससुराल शब्द का मतलब समझती है। उससे पहले की तरह जवाब देते न बना। रहमान का सवाल सुनकर शर्म से लाल हो, मुंह फेरकर खड़ी हो गई। काबुली से मिनी के पहले दिन की मुलाकात मुझे याद आ गई। मन न जाने कैसा व्यथित हो उठा। 


मिनी के चले जाने के बाद एक लम्बी सांस लेकर रहमान वहीं जमीन पर बैठ गया। अचानक उसके मन में एक बात साफ हो गई कि उसकी लड़की भी इस बीच इतनी ही बड़ी हो गई होगी और उसके साथ भी उसे नए ढंग से बातचीत करनी पड़ेगी। वह उसे फिर से पहलेवाले रूप में नहीं पाएगा। इन आठ वर्षों में न जाने उसका क्या हुआ होगा। सवेरे के वक्त सर्दियों की उजली कोमल धूप में शहनाई बजने लगी और कलकत्ता की एक गली में बैठा हुआ रहमान अफगानिस्तान के मेरुपर्वती का दृश्य देखने लगा। 


मैंने उसे एक बड़ा नोट निकालकर दिया, कहा, “रहमान, तुम अपने वतन अपनी बेटी के पास चले जाओ। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी का कल्याण होगा।" 


यह रुपया दान करने के बाद मुझे विवाहोत्सव की दो-चार चीजें कम कर देनी पड़ी। मन में जैसी इच्छा थी, उस तरह रोशनी नहीं कर सका। किले का अंग्रेजी बैंड भी नहीं मंगा पाया। घर में औरतें बड़ा असन्तोष प्रकट करने लगीं, लेकिन मंगल-ज्योति से मेरा यह शुभ आयोजन दमक उठा।


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