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दुलहिन: रबीन्द्रनाथ टैगोर श्रेष्ठ कहानियाँ| Dulhin: Rabindranath Tagore Best Stories

Dulhin रवीन्द्रनाथ टैगोर की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ: "दुलहिन" टैगोर की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं।


यह "Dulhin" कहानी Rabindranath Tagore Best Stories का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द-सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता,अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं। तो आइये पढ़ते है- दुलहिन Ravindranath Tagore की श्रेष्ठ कहानी 


Rabindranath Tagore Shreshtha Kahaniyan


हुत पुरानी बात है। बचपन में जिस स्कूल में मैं पढ़ता था उसमें नीचे के दरजे में पंडित शिवनाथ से हम लोग पहाड़ा पढ़ा करते थे। उनकी दाढ़ी-मूछे सफाचट, सिर के बाल जड़ तक छंटे हुए और उस पर छोटी-सी चोटी शोभा पाया करती थी। उन्हें देखते ही लड़कों की जान सूख जाती थी। 


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प्राणियों में अकसर यह बात देखने में आती है कि जिनके डंक हैं, उनके दांत नहीं होते। पर हमारे पंडितजी में दोनों बातें एक-साथ मौजूद थीं। एक ओर उनके थप्पड़-घूसे हम पौधों पर ओलों की तरह बरसते तो दूसरी ओर सख्त वचन सुनकर सबको छठी की याद आ जाती। 


पंडितजी को इस बात का बड़ा अफसोस था कि 'गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अब पुराने जमाने जैसा नहीं रहा, विद्यार्थी अब देवता के समान गुरु की भक्ति नहीं करते। इस तरह अपना अफसोस जाहिर करके वे अपनी उपेक्षित देव-महिमा को बालकों के सिर पर जोरों से पटक दिया करते, और कभी-कभी गहरा हुंकार भरते, किन्तु उसके भीतर इतनी ओछी बातें मिली रहतीं कि उसे देवता के वज्र की आवाज का दूसरा रूप समझ लेने का भ्रम किसी को नहीं होता। 


खैर, कुछ भी हो, हमारे स्कूल का कोई भी लड़का इस तीसरे दरजे के दूसरे विभाग के देवता को इन्द्र, चन्द्र, वरुण अथवा कार्तिक न समझता था। सिर्फ एक ही देवता के साथ उनकी तुलना होती थी, जिसका कि नाम यमराज है, और इतने दिनों बाद अब तो यह मानने में कोई दोष ही नहीं और न डर है कि हम लोग मन-ही-मन चाहते थे कि उक्त देवालय जाने में अब वे ज्यादा देर न करें तो अच्छा है।


पर इतना तो हम लोगों ने अच्छी तरह समझ लिया था कि नरदेवता के समान दूसरी बला नहीं। देवलोक में रहनेवाले देवता बखेड़ा नहीं करते। पेड़ से दो-एक फूल तोड़कर चढ़ा लेने से वे खुश हो जाते हैं, और न दो तो तकाजा नहीं करते। किन्तु हमारे पंडित देवता बहुत अधिक की आशा रखते थे, और हमसे जरा भी गलती हो जाती तो वे लाल-लाल आंखें निकालकर मारने दौड़ते थे। उस समय वे किसी भी तरफ से देवता जैसे नहीं दिखाई देते। 

लड़कों को तकलीफ देने के लिए हमारे शिवनाथ पंडित के पास एक हथियार था, जो सुनने में मामूली, किन्तु वास्तव में बहुत खतरनाक था। वे लड़कों के नए-नए नाम रखा करते थे। नाम यद्यपि शब्द के सिवा और कुछ भी नहीं, पर, आदमी जो अपने से अपने नाम को ज्यादा चाहता है! अपने नाम की प्रसिद्धि के लिए लोग क्या-क्या कष्ट नहीं सहा करते? यहां तक कि नाम की रक्षा के लिए लोग मरने से भी नहीं हिचकिचाते। 


नाम पर मर मिटने वाले मानव के नाम को बिगाड़ देना उसकी जान से भी प्यारी जगह पर चोट पहुंचाना है। और तो क्या, जिसका नाम भूतनाथ' है उसे अगर  'नलिनीकान्त' कहा जाए, तो उसके लिए भी यह बरदाश्त के बाहर है। 


इससे एक खास तत्त्व की जानकारी होती है, वह यह कि आदमी चीज की अपेक्षा नाचीज को ज्यादा कीमती समझता है, यानी, सोने-चांदी की अपेक्षा बात को, प्राणों की अपेक्षा मान को, अपने नाम को अपने से बड़ा मानता है। 


मानव-स्वभाव के अन्दरूनी इस गूढ़ नियम के बस में होकर पंडितजी ने जब शशिशेर का नाम 'छछून्दर' रख दिया, तब वह बेचारा: बहुत ही दुखी हुआ। खासकर इसलिए उसके मन का दर्द और भी बढ़ गया कि वैसे नामकरण की वजह से उसके चेहरे पर खासतौर से गौर किया जाता था। फिर भी बहुत ही शान्त भाव से, सब सहत हुए, उस चुपचाप बैठा रहना पड़ा। 


पंडितजी ने आशुतोष का नाम रखा था 'दुलहिन', और इस नाम के साथ थोड़ा-सा इतिहास भी है। 


आसू अपने दरजे में बहुत ही सीधा-सादा और भोला-भाला लड़का था। वह हमेशा चुप रहता, लड़ना-झगड़ना तो उसकी जन्मपत्री में ही नहीं लिखा था। बड़ा झेंपू था। उमर में भी शायद वह सबसे छोटा था, सभी बातें सुनकर मुस्कुरा देता था; किन्तु पढ़ता खूब था। स्कूल के बहुत-से लड़के उसके साथ मित्रता करने को उत्सुक थे। पर वह किसी के साथ खेलता न था। छुट्टी होते ही तुरत-फुरत घर चला जाता था।


दोपहर को एक बजे के करीब उसके घर की महरी एक दोने में कुछ मिठाई और छोटे-से गिलास में पानी लेकर आया करती। आसू को इसके लिए बड़ी शर्म मालूम होती, वह सोचता कि महरी किसी तरह घर लौट जाए तो वह जी जाए। वह नहीं चाहता था कि इस बात को कोई जाने कि स्कूल के छात्र के अलावा वह और भी कुछ है। मानो उसके लिए यह बहुत ही छिपाने की बात थी कि वह घर का कोई है, अपने मां-बाप का लड़का है, भाई-बहनों का भाई है। इस विषय में हमेशा उसकी यही कोशिश रहती कि कोई लड़का उसकी कोई भी बात जान न ले। 


पढ़ने-लिखने में उसकी कोई गलती न होती थी, सिर्फ किसी-किसी रोज स्कूल आने में जरा कुछ देर हो जाया करती थी। शिवनाथ पंडित जब उससे कारण पूछते, तो वह उसका कोई सही उत्तर न दे सकता था। इसके लिए कभी-कभी उसे बड़ी फटकार सहनी पड़ती थी। पंडितजी उसे घुटनों पर हाथ रखकर पीठ नीची करके दालान की सीढ़ियों पर खड़ा कर देते थे, और चारों दरजों के लड़के उस झेंपू लड़के को उस हालत में देखा करते थे।


एक दिन ग्रहण की छुट्टी थी। उसके दूसरे दिन, स्कूल में चौकी पर बैठे हुए पंडितजी ने देखा कि एक सिलेट और स्याही लगे बस्ते में पढ़ने की किताबें लपेटे हुए, और दिनों की अपेक्षा बहुत सिकुड़े भाव से, आसू क्लास में घुस रहा है। 


शिवनाथ पंडित ने सूखी हंसी हंसते हुए कहा, "अच्छा, 'दुलहिन' आ गई क्या?" 


पढ़ाई खत्म होने पर छुट्टी होने के पहले उन्होंने सब लड़कों को सम्बोधन करके कहा, “सूनो रे, सब कोई सुनो..." 


पृथ्वी की समूची मध्याकर्षण-शक्ति जोरों से बालक को नीचे की ओर खोचने लगी, फिर भी छोटा-सा आसू अपनी बेंच पर धोती का एक छोर और दोनों पैर लटकाए हुए सब लड़कों का लक्ष्य-स्थल बना बैठा रहा। अब तक तो आसू की काफी उमर हो चुकी होगी और उसके जीवन में बहुत-से भारी-भारी सुख-दुख और शर्म के दिन भी आए होंगे, किन्तु उस दिन के मासूम दिल के इतिहास के साथ और किसी दिन की तुलना नहीं हो सकती। हालांकि बात बहुत छोटी-सी है और दो शब्दों में खत्म हो जाती है, फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उसमें एक रहस्य है। 


आसू की एक छोटी बहन थी, उसके बराबर की कोई साथिन या बहन न थी, इसलिए वह आसू के साथ ही खेला करती थी। 


लोहे की रेलिंग से घिरा हुआ गेटवाला आसू का मकान है। सामने गाड़ी ठहरने के लिए बरांडा है। उस दिन खूब वर्षा हो रही थी। जूते हाथ में लिए सिर पर छतरी ताने जो दो-चार आदमी सामने से जा-आ रहे थे, उन्हें किसी भी तरफ ताकने की फुरसत न थी। बादलों के उस अंधेरे में, वर्षा के झमझम शब्द में, तमाम दिन की छुट्टी में, गाड़ी-बरांडे के नीचे की सीढ़ियों पर बैठा आसू अपनी बहन के साथ खेल रहा था। 


उस दिन उनके गुड्डा-गुड़ियों का ब्याह था। उसी की तैयारी के बारे में आसू बहुत ही गम्भीरता के साथ अपनी बहन को उपदेश दे रहा था। 


अब सवाल उठा कि पुरोहित किसे बनाया जाए  बालिका चट्-से भी दौड़ी गई और सामने खड़े एक आदमी से पूछने लगी, “क्यों जी, तुम हम लोगों के पुरोहित बनोगे?" 


आसू ने पीछे मुंह फेरकर देखा कि शिवनाथ पंडित अपनी भीजी छतरी समेटे पानी से तरबतर बरामदे में खड़े हैं। रास्ते से जा रहे थे, वर्षा ज्यादा होने से यहां ठहर गए हैं। बालिका उनसे पुरोहित बनने के लिए आग्रह कर रही है। 


पंडितजी को देखते ही आसू अपने खेल और बहन, दोनों को छोड़-छाड़कर एक दौड़ में मकान के अन्दर भाग गया। उसका छुट्टी का दिन बिलकुल ही मिट्टी में मिल गया। 


दूसरे दिन शिवनाथ पंडित ने जब सूखी हंसी के साथ भूमिका के रूप में इस घटना का उल्लेख करके आसू का नाम 'दुलहिन' रख दिया, तब उसने, पहले जैसे सभी बातों में मुस्कुरा देता था, वैसे ही मुस्कुराकर, अपने चारों तरफ की हंसी में शामिल होने की कोशिश की। इतने में घंटा बज गया, सब दरजों के लड़के बाहर चले गए, और एक कोने में थोड़ी-सी मिठाई और चमकते हुए फूल के गिलास में पानी लिए हुए महरी दरवाजे पर आ खड़ी हुई। 


उस समय हंसते-हंसते उसका मुंह और कान सुर्ख हो उठे, दर्द में डूबे माथे की नसें फूल उठी, तेजी से निकलते हुए आंसू रोके न रुक सके। 


पंडितजी आरामघर में जलपान करके निश्चिन्त मन से हुक्का पीने लगे। लड़के बड़े आनन्द से आसू को घेरकर 'दुलहिन' 'दुलहिन' कहकर हल्ला मचाने लगे। छुट्टी के दिन का अपनी छोटी बहन के साथ खेला हुआ वह खेल आसू की नजर में अपने जीवन का एक सबसे बढ़कर शर्म से भरा भ्रम मालूम होने लगा। उसे विश्वास ही न हुआ कि दुनिया के आदमी कभी भी उस दिन की बात को भूल जाएंगे।


विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह जिन्होंने उन्हें अमर कीर्ति दी 


रवीन्द्रनाथ ठाकुर (रबीन्द्रनाथ  टैगोर) की सर्वश्रेष्ठ कहानियां -


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