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देन-लेन: रबीन्द्रनाथ टैगोर कहानी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी "देन - लेन": "देन -लेन " टैगोर की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता मा

रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी "देन-लेन": "देन-लेन" टैगोर की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं।


यह "देन-लेन" कहानी रवीन्द्र बाबू की श्रेष्ठ कहानियों का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द-सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता, अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं। तो आइये पढ़ते है- देन-लेन रबिन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानी विश्व के महान साहित्यकार रबीन्द्रनाथ टैगोर ऐसे अग्रणी लेखक थे, जिन्हे नोबेल पुरुस्कार जैसे सम्मान से विभूषित किया गया। उनकी अनेक कृतियां प्रमुख भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुदित होकर चर्चित हुई। 


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Rabindranath Tagore Shreshtha Kahaniyan-Den-Len


पांच-पांच लड़कों के बाद जब लड़की पैदा हुई तो मां-बाप ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा निरुपमा। इस घराने में ऐसा शौकीनी नाम इसके पहले कभी सुनने में नहीं आया। अब तक अकसर देवी-देवताओं के नाम पर ही सबके नाम रखे जाते थे; जैसे गणेश, महेश, सीता, पार्वती आदि। 


इधर कुछ दिनों से निरुपमा की सगाई की बात चल रही है। उसके पिता रामसुन्दर ने बहुत तलाश किया, परन्तु पसन्द का कोई लड़का ही नहीं मिला। आखिर एक जबरदस्त रायबहादुर रईस के घर उनके इकलौते लड़के की उन्हें टोह लगी। हालांकि रायबहादुर के बाप-दादों की जमीन-जायदाद और धन-दौलत बहुत कुछ खत्म हो चुकी थी, किन्तु था वह खानदानी घराना। 


वर पक्ष की तरफ से दस हजार रुपये नकद और काफी से ज्यादा दहेज की मांग पेश हुई। रामसुन्दर बिना कुछ सोचे-समझे इस बात पर राजी हो गए। कारण, उन्होंने सोचा कि ऐसे अच्छे लड़के को किसी भी तरह हाथ से न जाने देना चाहिए। 


किन्तु रुपयों का इन्तजाम आखिरी-दम तक कोशिश करते रहने पर भी नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ। बहुत कुछ गिरवी रखकर, बेचकर, बहुत कोशिश करने पर भी छह-सात हजार की कमी रह ही गई। और इधर ब्याह के दिन करीब आ पहुंचे। 


अन्त में ब्याह का दिन भी आ गया। बहुत ज्यादा ब्याज पर एक ने बाकी रुपया देना कबूल भा कर लिया था, किन्तु वक्त पर वह लापता हो गया। विवाह-मंडप में बड़ी भारी काय-काय मच गई और बड़ी भारी नाराजगी फैल गई। रामसुन्दर ने रायबहादुर के हाथ जोड़े, खुशामद की और कहा, "शुभ कार्य पूरा हो जाने दीजिए, आपके रुपये मैं जरूर अदा कर दूंगा।" 


रायबहादुर बोले, “बगैर रुपया पाए लड़का मंडप में नहीं जा सकता।" 


इस अप्रिय घटना से घर के भीतर औरतों में रोना सा पड़ गया। और, इस भारी मुसीबत का जो मूल कारण है, वह ब्याह के कपड़े पहने, गहने पहने, माथे पर चन्दन लेपे चुपचाप बैठी थी। भावी ससुर-खानदान पर उसकी भक्ति और प्रेम खूब बढ़ रहा हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। 


इतने में एक नई बात पैदा हो गई। लड़का अकस्मात् ही अपने बाप के खिलाफ हो गया। वह अपने बाप से कह बैठा, “खरीद-बिक्री और भाव-ताव की बात मैं नहीं समझता। मैं ब्याह करने आया हूं, ब्याह करके ही लौटूंगा।" 


बाप बेचारे, जो भी उनके सामने पड़ा उसी से कहने लगे, "देखा, साहब, आजकल के लड़कों का ढंग ...” दो-एक जो समझदार और होशियार पुरुष थे, उन्होंने कहा, “धर्मशास्त्र और न्यायनीति की शिक्षा अब तो बिलकुल रही ही नहीं, उसी का तो यह नतीजा है।" 


आधुनिक शिक्षा का जहरीला फल अपनी ही सन्तान में फला हुआ देखकर रायबहादुर कोशिश से हारे हुए बैठे रहे। ब्याह तो किसी कदर हो गया, किन्तु बिना आनन्द के उदास मन से। 


ससुराल विदा करते समय पिता ने अपनी प्यारी बेटी को छाती से लगा लिया, उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी।


लड़की ने चिन्तातुर होकर पूछा, "वहांवाले क्या अब मुझे यहां कभी पिता ने रुंधे हुए कंठ से कहा, "क्यों नहीं आने देंगे, बेटी! मैं खुद आने नहीं देंगे, बापूजी?" 


पिता ने रुंधे हुए कंठ से कहा," क्यों नहीं आने देंगे, बेटी! में खुद जाकर तुझे ले आऊंगा।


रामसुन्दर अकसर लड़की को देखने जाते हैं, पर समधी के घर उनका कोई आदर नहीं। नौकर-चाकर तक उन्हें नीची निगाह से देखते हैं। अंत:पुर के बाहर एक अलहदा कमरे में पांच मिनट के लिए किसी दिन लड़की से मिल पाते, और किसी दिन योंही बिना मिले ही वापस चले आते। 


समधियाने में ऐसा अपमान तो अब सहा नहीं जाता। रामसुन्दर ने तय किया कि 'जैसे भी हो रुपया अब अदा कर ही देना चाहिए।'


किन्तु अभी जितना कर्ज का बोझ सिर पर लदा है, उसी से छुटकारा पाना मुश्किल हो रहा है, आगे की तो बात ही क्या! घर-गृहस्थी का खर्च भी किसी तरह खींचातानी से चल रहा है और कर्ज देनेवाले महाजनों की निगाह से बचने के लिए तो उन्हें रोज तरह-तरह के हीले-हवाले सोचने पड़ते हैं। 


इधर ससुराल में निरुपमा को रात-दिन उठते-बैठते जली-कटी सुननी पड़ती है। मायके की निन्दा सुनते-सुनते जब बरदाश्त से बाहर हो जाता है, तब वह अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके अकेली बैठी आंसू बहाया करती है; और यह उसका रोज का काम हो गया। 


खासकर सास की घुड़की-झिड़की तो कभी रुकती ही नहीं। यदि कोई कहता कि 'अहा, कैसी शकल है! जरा बहू का मुंह तो देखो! 'तो सास झमककर बोल उठती हैं,' होगी नहीं! जैसे घर की लड़की है, शकल भी तो वैसी ही होगी!


और तो क्या, बहू के खाने-पहनने तक की कोई खबर नहीं लेता। अगर कोई दयावान पड़ोसिन किसी गलती का जिक्र करती तो सास कहती, 'बस-बस, बहुत है इतना ही!' अर्थात अगर बाप पूरे रुपये देता तो लड़की की पूरी खातिर होती। सभी ऐसा भाव दिखाते जैसे बहू का यहां कुछ हक ही नहीं, जैसे यहां वह धोखे से घुस आई हो। शायद लड़की के इस अनादर और अपमान की बात उसके पिता के कानों तक पहुंच गई। और उसका फल यह हुआ कि रामसुन्दर रहने का मकान तक बेचने की। कोशिश करने लगे। 


किन्तु अपने लड़कों से उन्होंने यह बात बिल्कुल छिपा रखी कि वे उन्हें बिना घर - द्वार के करने पर तुले हुए हैं । उन्होंने तय किया था कि मकान बेचकर उसी को किराए पर लेकर रहेंगे , और ऐसी तरकीब से लगे कि उनके मरने के पहले लड़कों को इस बात का पता ही न पड़ पाएगा ।


लड़कों को किसी तरह यह बात मालूम हो गई। सबके सब लड़के बाप के पास आकर रोने लगे। खासकर बड़े तीनों लड़के विवाहित हैं, और उनमें से किसी-किसी के बच्चे भी हैं। उनके विरोध ने बड़ा गम्भीर रूप धारण किया। आखिर मकान बेचना स्थगित रहा और तब रामसुन्दर जगह-जगह से मोटे ब्याज पर थोड़े-थोड़े रुपये कर्ज लेने लगे। अन्त में ऐसा हुआ कि घर का खर्च चलना भी मुश्किल हो गया। 


निरुपमा पिता का मुंह देखकर सब समझ गई। उसे बूढ़े पिता के सफेद बालों पर, सूखे चेहरे पर और सदा सिकुड़े हुए भाव पर गरीबी और परेशानी की छाया साफ-साफ दिखने लगी। लड़की के सामने जब पिता अपराधी हो, तो उस अपराध के लिए उसका पछतावा क्या छिपाया जा सकता है? रामसुन्दर समधियाने में जब इजाजत प्राप्त करने के बाद किसी दिन क्षण-भर के लिए किसी तरह लड़की से मिलते तब उनकी छाती किस कदर फटती, सो तो उनकी हंसी से ही मालूम हो जाता। 


महज अपने पिता के दुखी दिल को तसल्ली देने के लिए ही कुछ दिन से निरुपमा मायके जाने को अधीर हो उठी है। पिता के सूखे चेहरे को देखकर अब वह उनसे दूर नहीं रह सकती। 


एक दिन पिता से उसने कहा, “बापूजी, मुझे घर ले चलो।" 


पिता ने कहा, “अच्छी बात है।" 


किन्तु, उनका कोई बस नहीं था। अपनी लड़की पर पिता का जितना स्वाभाविक अधिकार होता है, मानो दहेज के रुपयों के बदले उसे गिरवी रख देना पड़ा हो। और तो क्या, लड़की से मिलने के लिए भी, बहुत ही संकोच के साथ, भीख-सी मांगनी पड़ती है और किसी-किसी दिन तो मनाही हो जाने पर फिर दूसरी बार कहने का मुंह ही नहीं रह जाता। 


किन्तु, लड़की जब स्वयं मायके आना चाहती है तब भला बाप उसे बिना ले जाए कैसे रह सकता है? समधी की सेवा में इस बात की दरखास्त पेश करने के पहले रामसुन्दर ने उनके आगे कितनी दीनता, कितना अपमान और कितना नुकसान उठाकर तीन हजार रुपये इकठे किए थे, उस इतिहास का छिपा रहना ही अच्छा है। 


रामसुन्दर तीन हजार के नोट रूमाल में लपेटकर, उसे अच्छी तरह चादर में बांधकर समधी के पास जाकर बैठे। पहले तो मुंह पर हंसी लाकर मुहल्ले की बात छेड़ी। फिर हरेकृष्ण के घर जो बड़ी भारी चोरी हो गई थी उसका शुरू से आखिर तक किस्सा सुनाया। नवीनमाधव और राधामाधव, दोनों भाइयों की तुलना करके उनकी विद्याबुद्धि और स्वभाव के बारे में राधामाधव की प्रशंसा और नवीनमाधव की निन्दा की। शहर में एक नई बीमारी फैली है उसके बारे में बहुत-सी अजीब-अजीब बातें कहीं, और फिर अन्त में चादर को एक किनारे से रखकर बातों-ही-बातों में बोले, “हे, हे, बाबू साहब, आपके रुपये तो अभी बाकी ही हैं। 


जब आता हूं, तभी सोचता हूं कि कुछ लिए चलूं, पर चलते वक्त खयाल ही नहीं रहता। अब तो, भाई, बूढ़ा हो चला हूं।" इस तरह एक लम्बी भूमिका बांधते हुए पसली की तीन हड्डियों के समान उन तीन नोटों को मानो बहुत ही आसानी से बड़ी लापरवाही से निकाला। ले-देकर सिर्फ तीन हजार के नोट देखकर रायबहादुर ठहाका मारकर हंस पड़े और बोले, “अजी, रहने दो इन्हें, अपने पास ही रहने दो, मुझे नहीं चाहिए।" और एक प्रचलित कहावत का उल्लेख करके उन्होंने कहा कि “जरा-से के वास्ते अब क्या हाथ गन्दे करें!" 


इतनी बात हो जाने के बाद लड़की को विदा कराने की बात और किसी के मुंह से शायद नहीं निकलती, किन्तु रामसुन्दर ने सोचा, रिश्तेदारी का संकोच अब मेरे लिए शोभा नहीं देता। हृदय में गहरी चोट पहुंचने के कारण कुछ देर तो वे चुप रहे फिर अन्त में उन्होंने नरमाई से उस बात का जिक्र किया।  


रायबहादुर ने किसी कारण का उल्लेख  किए बिना ही कहा, “विदा तो अभी नहीं हो सकती।"  


इतना कहकर वे किसी काम से बाहर चले गए। 


रामसुन्दर कांपते हुए हाथों से उन नोटों को चादर के छोर में बांधकर, लड़की को मुंह न दिखाकर, सीधे घर लौट आए और मन-ही-मन कसम खाली कि 'जब तक पूरे रुपये चुकाकर लड़की पर अपना हक नहीं पा जाता तब तक समधी के घर न जाऊंगा।' 


बहुत दिन बीत गए। निरुपमा बाप को बुलाने के लिए आदमी-पर-आदमी भेजती रही, किन्तु घर पर कभी वे मिले ही नहीं। बहुत दिनों से अपने बापूजी 'को न देख पाने से भीतर-ही-भीतर वह घुलने लगी। आखिर उसने आदमी भेजना भी बन्द कर दिया, और तब बाप के मन में बड़ी चोट लगी, किन्तु फिर भी वे लड़की के घर नहीं गए।


कुआर का महीना आया। रामसुन्दर ने कहा, “अब की बार पूजा में लड़की को जरूर बुलाऊंगा, नहीं तो मैं ..."


बड़ी कड़ी प्रतिज्ञा कर बैठे। 


दुर्गा-पूजा की पंचमी के दिन रामसुन्दर फिर चद्दर के छोर में कुछ नोट बांधकर चलने की तैयारी करने लगे। 


इतने में पांच साल का पोता आकर कहने लगा, "बाबा, मेरे लिए गाड़ी खरीदने जा रहे हो?" 


बहुत दिनों से उसे रबर के पहियों की ठेलागाड़ी पर चढ़कर हवा खाने का शौक हुआ है, किन्तु किसी भी तरह वह पूरा नहीं हो रहा। छह वर्ष की एक पोती ने आकर रोते-रोते कहा, "पूजा के न्योते में जाने के लिए मेरे पास एक भी अच्छी धोती नहीं है, बाबा!" 


रामसुन्दर यह सब जानते थे और इस बारे में उठते-बैठते बहुत कुछ सोच भी रहे थे। और साथ ही इस सोच में भी पड़े हुए थे कि रायबहादुर के घर से कहीं पूजा का न्योता आ गया तो क्या अपनी बहुओं को वहां इसी तरह मामूली गहने पहनकर मेहरबानियां पाए हुए गरीब की तरह जाना पड़ेगा? ये सब बातें सोचते हुए उन्हें बहुत-सी गहरी सांसें लेनी पड़ी, पर उससे उनके माथे पर सिकुड़न पड़ने के सिवा और कोई नतीजा नहीं निकला। 


गरीबी से तबाह अपने घर का रोना कानों में लिए हुए रामसुन्दर ने समधी के घर कदम रखा। आज उनमें संकोच का भाव नहीं था। दरबान और नौकरों के मुंह की तरफ देखने से पहले जैसे उन्हें झिझक होती थी, अब वह बात नहीं रही। अब तो वे ऐसे घुसे जैसे अपने ही घर में घुस रहे हों। भीतर जाकर उन्होंने सुना कि रायबहादुर घर में नहीं हैं, कुछ देर बैठना पड़ेगा। रामसुन्दर मन की उमंग को रोक न सके, लड़की से भेंट की। मारे आनन्द के उनकी आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे। बाप भी रोए, बेटी भी रोई। किसी के मुंह से बात नहीं निकली। इसी तरह कुछ समय बीत गया। बहुत देर बाद रामसुन्दर ने कहा, “अबकी बार तुझे जरूर लिवा ले चलूंगा, बेटी, अब कोई अड़चन नहीं।" 


रामसुन्दर का बड़ा लड़का हरमोहन अपने दोनों छोटे बच्चों को साथ लेकर सहसा घर में आ घुसा। और पिता से बोला, “बापूजी, तो क्या हमें अब रास्ते का भिखारी ही बनना पड़ेगा?" 


रामसुन्दर सहसा गुस्से से भर उठे, बोले, “तो तुम लोगों के लिए क्या मैं नरकगामी बनूं! मुझे तुम लोग अपने सच का पालन नहीं करने दोगे! 


रामसुन्दर ने अपना मकान बेच डाला था और इस बात का भी उन्होंने ठीक और काफी इन्तजाम कर लिया था कि लड़कों को किसी तरह मालूम न पड़े, किन्तु आश्चर्य है, फिर भी उन्हें मालूम पड़ ही गया।इससे लड़कों पर उन्हें इतना गुस्सा आया कि आपे से बाहर हो गए। लड़के के साथ पोता भी था, वह भी उनके दोनों घुटनों को जोर से पकड़कर मुंह उठाकर कहने लगा, "बाबा, मेरी गाड़ी?" 


"रामसुन्दर सिर झुकाए खड़े रहे। कोई जवाब न पाकर बच्चा निरुपमा के पास दौड़ा गया , बोला, "बुआजी, मुझे एक गाड़ी ले दोगी?" निरुपमा सब समझ गई बोली, "बापूजी, अगर तुमने एक पैसा भी मेरे ससुर को दिया, तो फिर तुम अपनी बेटी को जिन्दा न पाओगे, मैं तुम्हारी देह छूकर कहती हूं। 


छि: बेटी, ऐसा नहीं कहते। अगर मैं रुपया न दे सका तो इसमें तेरे बाप की ही बेइज्जती है, और तेरी भी।"


 "बेइज्जती तो रुपया देने में है। तुम्हारी बेटी की क्या कोई इज्जत नहीं? मैं क्या सिर्फ एक रुपये की थैली हूं, जब तक रुपया है तभी तक मेरी कीमत है! नहीं, बापूजी रुपये देकर तुम मेरा अपमान न करो। और फिर तुम्हारे दामाद तो रुपये चाहते नहीं।"


 "तो फिर ये तुझे विदा जो नहीं करेंगे, बेटी!”


 "न करें तो तुम क्या करोगे बताओ? तुम भी विदा कराने मत आना।"


रामसुन्दर कांपते हुए हाथों से नोट बंधे दुपट्टे को कंधे पर डालकर फिर चोर की तरह सबकी निगाह बचाकर घर लौट गए। 


किन्तु, यह बात किसी से छिपी न रही कि रामसुन्दर रुपये लेकर आए थे और लड़की के मना कर देने से बिना दिए ही चले गए। किसी नटखट दासी ने कान लगाकर ये बातें सुन ली थीं और सास से कह दी थीं। सुनकर सास मारे गुस्से के आपे से बाहर हो गईं। 


निरुपमा के लिए उसकी ससुराल कांटों की शय्या हो उठी। एक तो पति ब्याह के थोड़े दिन बाद ही डिप्टी-मजिस्ट्रेट होकर परदेस चले गए थे, दूसरे, इस खयाल से कि मिलने-जुलने से बेटी में कहीं ओछापन न आए, अब उसका मायकेवालों से मिलन जुलना भी बन्द कर दिया गया। 


इसी बीच में निरुपमा एक बार बहुत ज्यादा बीमार पड़ गई। किन्तु इसके लिए केवल उसकी सास को ही अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। स्वयं निरुपमा भी अपनी सेहत की तरफ से बड़ी लापरवाह हो गई थी। कार्तिक के महीने में, जबकि काफी ओस पड़ती है, सारी रात वह सिरहाने की खिड़की खोलकर सोती और रात-भर उघाड़ी पड़ी रहती थी। खाने-पीने का भी कोई ठीक नहीं था। दासियां कभी-कभी कलेवा लाना भूल जाती तो वह अपने मुंह से याद भी न दिलाती थी। उसके मन में यह बात खूब गहराई तक बैठ गई थी कि वह इस घर की दासी है, मालिक-मालकिन की मेहरबानी पर जिन्दगी बसर कर रही है। किन्तु यह भाव भी उसकी सास को बरदाश्त न था। अगर खाने-पीने में बहू की तरफ से कोई लापरवाही देखती, तो झट कह बैठती, “नवाब की बेटी है न! गरीब के घर का खाना क्यों रुचने लगा।" कभी कहती, “देखो जरा शकल तो देखो, कैसी हो रही है! दिनों-दिन जली लकड़ी जैसी हो रही हो!" 


अन्त में एक दिन निरुपमा ने सास से बड़ी विनती के साथ कहा, "मा. बापूजी और भाइयों को एक बार बुलाकर दिखा दो न, मां!" 


सास बोली, "बस, सब मायके जाने के ढंग हैं!" 


कहने से कोई विश्वास नहीं करेगा, किन्तु बात सच है कि जिस दिन शाम के वक्त निरुपमा की उलटी सांस चलने लगी, उसी दिन पहले पहल उसे डाक्टर ने देखा और वही दिन उसके इलाज का आखिरी दिन हुआ। 


घर की बड़ी बहू मरी है, लिहाजा खूब धूमधाम के साथ अन्त्येष्टि-क्रिया की गई। प्रतिमा-विसर्जन के समारोह के सम्बन्ध में जैसी राय चौधरी की लोकप्रसिद्ध प्रतिष्ठा है, बड़ी बहू की दाहक्रिया के विषय में भी रायबहादुर की वैसी ही नामवरी हो गई। ऐसी चन्दन की लकड़ियों की चिता आज तक किसी ने देखी ही न थी, फिर श्राद्ध भी ऐसे ठाट-बाट से हुआ कि जो सिर्फ रायबहादुर के घर ही सम्भव था। सुनते हैं, इसमें वे कुछ कर्जदार भी हो गए थे। 


रामसुन्दर को सान्त्वना देते समय, लोग उनकी लड़की का कैसे धूमधाम के साथ दाह हुआ, उसी का विस्तार से वर्णन करने लगे। 


इधर डिप्टी मजिस्ट्रेट की चिट्ठी आई कि 'मैंने यहां मकान वगैरह का सब इन्तजाम कर लिया है, अब जल्दी बहू को भेज दो।'


रायबहादुर की रायबहादुरीन ने जवाब दिया कि 'बेटा, तुम्हारे लिए यहां चले आओ। अब दूसरी लड़की से सगाई तय कर ली गई है, सो तुम जल्दी छुट्टी लेकर यहाँ चले आ।'


अब की बार लड़के के ब्याह में रायबहादुर को बीस हजार रुपये नकद मिले और वे हाथों-हाथ वसूल भी हो गए।


विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह जिन्होंने उन्हें अमर कीर्ति दी 


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