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लल्ला बाबू की वापसी: रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां

लल्ला बाबू की वापसी-रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां:- टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां, रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं। यह लल्ला बाबू की वापसी कहानी रवीन्द्र बाबू की श्रेष्ठ कहानियों का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द-सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता, अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं।


लल्ला बाबू की वापसी: रबीन्द्रनाथ  टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां


lalla babu ki wapasi,लल्ला बाबू की वापसी | Hindi Story | रबीन्द्रनाथ  टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां

रायचरण जब पहले-पहल नौकरी पर बहाल हुआ तब उसकी उमर थी कुल बारह साल की। जैसोर जिले में उसका घर था। लम्बे-लम्बे बाल, बड़ी-बड़ी आखें और काली-चिकनी छरहरी देह थी उसकी। वह जाति का कायस्थ था, और उसके मालिक भी कायस्थ थे। मालिक के घर साल-भर का एक बच्चा था, उसे खिलाना-सम्हालना और घुमाना-फिराना, यही उसकी नौकरी थी। 

धीरे-धीरे उस बच्चे ने रायचरण की गोद छोड़कर कालेज में और आखिर में कालेज छोड़कर मुंसिफी में कदम रखा। और रायचरण अब भी उनके यहां नौकर है। अब उसका एक मालिक और बढ़ गया है, घर में  'बहुजी' आ गई हैं। इसलिए अनुकूल बाबू पर रायचरण का पहले जितना अधिकार था, उसका अधिकांश नई गृहिणी के हाथ लग गया है। 


किन्तु मालकिन ने जैसे रायचरण का पहले का हक कुछ घटा दिया है, वैसे ही एक नया हक देकर उसकी बहुत कुछ भरपाई भी कर दी है। थोड़े ही दिन हुए, अनुकूल के एक लड़का पैदा हुआ है; और रायचरण ने उसे सिर्फ अपनी कोशिश और मेहनत से जरूरत से ज्यादा अपना लिया है। 


बच्चे को वह ऐसे उत्साह के साथ झूला झूलाता है, ऐसी चतुराई से उसके दोनों हाथ पकड़कर ऊपर को उछालता है, जवाब की कोई आशा न रखकर उससे ऐसे ऐसे बेमतलब के सवाल पूछता रहता है, और उसके मुंह के पास अपना सिर ले जाकर ऐसा हिलाया करता है कि वह नन्हा सा आनुकौलव रायचरण को देखते ही मारे खुशी के फूलकर कुप्पा हो जाता है। 


वह नन्हा-सा बच्चा जब पेट और घुटनों के बल चलकर चौखट पार होता और कोई पकड़ने आता तो खिलखिलाकर हंसता हुआ जल्दी से निरापद स्थान में दुबकने की कोशिश करता, तब रायचरण उसकी असाधारण होशियारी और अकल को देखकर आश्चर्य में पड़ जाता। उसकी मां के पास जाकर वह बड़े गर्व और आश्चर्य के साथ कहता, "बहूजी, तुम्हारा यह लड़का बड़ा होने पर 'जज' होगा, पांच हज्जार रुपये पाया करेगा!"


संसार में और भी कोई मानव-सन्तान इस उमर में चौखट पार करने आदि ऐसी-ऐसी होशियारी का परिचय दे सकती है, यह बात रायचरण के कयास के बाहर थी। उसका खयाल था कि सिर्फ भावी जजों के लिए ही ऐसी बातें सम्भव हैं, औरों के लिए नहीं। 


आखिर बच्चे ने जब डगमगाते हुए चलना शुरू किया, तो वह भी बड़े आश्चर्य की बात हो गई, और जब वह मां को 'म्मा', बुआ को 'उआ' और रायचरण को 'चन्ना' कहकर पुकारने लगा, तब तो रायचरण इस अनोखे संवाद को बड़े उत्साह से चारों तरफ घोषित करने लगा। 


सबसे बड़ी ताज्जुब की बात तो यह है कि मा को 'म्मा' कहता है, बुआ को 'उआ' कहता है, पर उसे कहता है 'चन्ना'  वास्तव में बच्चे के दिमाग में यह अकल आई कहां से, बतलाना कठिन है। अवश्य ही कोई ज्यादा उमर का आदमी ऐसी तेज अकल का परिचय न दे सकता था, और देने पर भी उसके 'जज' होने की सम्भावना में सबको पूरा-पूरा शक रह जाता। 


कुछ दिन से रायचरण को मुंह में रस्सी दबाकर घोड़ा बनना पड़ता है। पहलवान बनकर बच्चे के साथ कुश्ती भी लड़नी पड़ती है, और उसमें अगर वह हारकर जमीन पर नहीं गिर पड़ता तो बेचारे की शामत आ जाती है।


इसी समय अनुकूल बाबू का पद्मा नदी के किनारे के किसी जिले में तबादला हो गया। वहां जाते वक्त वे अपने बच्चे के लिए कलकत्ता में एक छोटी-सी ठेलागाड़ी लेते गए थे। रायचरण सुबह-शाम दोनों वक्त नवकुमार को साटन का कुरता, सिर पर जरीदार टोपी, हाथ में सोने के कड़े और पैरों में लच्छे पहनाकर उस गाड़ी में विठाकर हवा खिलाने ले जाता। 


वर्षा ऋतु आई। भूखी पद्मा नदी खेत, बाग-बगीचे, गांव सबको एक-एक ग्रास में निगलने लगी। चर की रेती पर के पेड़-पौधे सब पानी में गए। नदी के किनारे के कगारे धसकने की डरावनी आवाज और पानी की गरज से दसों दिशाएं मुखरित हो उठीं। तेजी से दौड़ती हुई फेनराशि ने नदी के तेज बहाव को और भी भयानक कर दिया।


उस दिन तीसरे पहर बादल घिर आए थे, पर बरसने की कोई सम्भावना न थी। आज रायचरण का खामखयाली नन्हा-सा मालिक किसी भी तरह घर में नहीं रहना चाहता। वह गाड़ी पर सवार होकर हवाखोरी को जाने के लिए अड़ गया। रायचरण धीरे-धीरे गाड़ी को ठलाता हुआ खेतों के पास नदी के किनारे जा पहुंचा। नदी में एक भी नाव न थी, और खेत में भी कोई आदमी न था। बादलों की संधों में से दिखाई दिया कि उस पार सूनसान बालू-रेतवाले नदी किनारे सूने समारोह के साथ सूर्यास्त की तैयारियां हो रही हैं। उस सन्नाटे में बालक सहसा एक पेड़ की तरफ उंगली उठाकर बोल उठा, “चन्ना, फूः!'


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पास ही दलदल जमीन पर एक कदम का पेड़ था, उसकी ऊंची शाखा पर कुछ फूल खिले हुए थे, उन्हीं पर बालक की लोभी दृष्टि खिंची हुई थी। तीन-चार दिन हुए, रायचरण ने सींकों में गूंथ-गूंथकर उसे एक कदम के फूलों की गाड़ी बना दी थी-उसमें रस्सी बांधकर खींचने में बच्चे को ऐसा मजा आया कि उस रोज रायचरण को मुंह में लगाम नहीं लगानी पड़ी; घोड़े से वह एकाएक साईस के पद पर चढ़ा दिया गया।


दलदल में से जाकर फूल लाने की रायचरण की इच्छा न हुई। उसने चट्-से दूसरी ओर उंगली दिखाकर कहा, "देखो, देखो, वोओ देखो, चिरैया! देखो तो, उड़ गई, आहा! आइयो री चिरैया, लल्ला बाबू को दे जइयो!' इस प्रकार लगातार विचित्र बातें कर-करके बच्चे को बहलाता हुआ वह जोर से गाड़ी चलाने लगा। 


पर जो लड़का बड़ा होकर 'जज' होगा उसे इस तरह फुसलाने की कोशिश करना व्यर्थ है, खासकर उस समय जबकि चारों तरफ ध्यान खींचनेवाली और कोई चीज ही न हो। लिहाजा रायचरण का काल्पनिक चिरैया का बहाना ज्यादा देर न टिक सका। तब फिर रायचरण ने कहा, "तो तुम गाड़ी में बैठे रहना, अच्छा! मैं चट्-से फूल लिए आता हूँ। खबरदार, पानी के किनारे न जाना!" यह कहता हुआ वह धोती ऊपर चढ़ाकर कदम के पेड़ की ओर चल दिया। 


किन्तु वह जो पानी के किनारे जाने को मना कर गया था उससे बच्चे का मन कदम के फूल से हटकर उसी क्षण पानी की तरफ दौड़ गया। उसने देखा कि पानी कलकल-छलछल करता हुआ दौड़ा जा रहा है। उसे ऐसा लगा कि जैसे शरारत करके किसी एक बड़े रायचरण के हाथ से निकलकर एक लाख नन्हा बहाव हंसता और कलकल गीत गाता हुआ मना किए हुए स्थान की ओर तेजी से भागा जा रहा हो। 


उसके इस बुरे उदाहरण से मानव-शिशु का मन खिल उठा। वह गाड़ी से उतरकर धीरे-धीरे पानी के पास पहुंचा, और एक लम्बे तिनके को उठाकर उसे मछली पकड़ने की बंसी बनाकर पानी में झुककर उससे मछली पकड़ने लगा। और, नदी का नटखट पानी फुसफुसाहट-भरी कलकल भाषा में बार-बार उसे अपने खेल में शामिल होने के लिए बुलाने लगा। 


सहसा पानी में किसी चीज के गिरने की आवाज हुई। पर, बरसात में पद्मा के किनारे ऐसे कितने ही शब्द हुआ करते हैं। रायचरण ने झोली भरकर कदम फूल तोड़े, और पेड़ से उतरकर मुस्कुराता हुआ वह गाड़ी के पास पहुचा। वहां जाकर देखता है तो बच्चा नदारद! चारा तरफ अच्छी तरह निगाह दौड़ाकर देखा, पर कहीं भी किसी का चिह्न तकन दिखाई दिया। क्षण भर में रायचरण का खून बरफ हो गया। सारा दुनिया उसे सूनी, उदास और धुआंधार दीखने लगी। वह अपने टूटे हुए हृदय से चीख उठा, "लल्ला बाबू, लल्ला बाबू!" 


किन्तु 'चन्ना" कहकर किसी ने जवाब नहीं दिया, शरारत करके किसी बच्चे का कंठ खिलखिला नहीं उठा। सिर्फ पद्मा ही पहले की तरह 'कलकल छलछल' करके दौड़ती रही। मानो वह कुछ जानती ही नहीं। मानो उसे दुनिया की इन सब छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने की फुरसत ही नहीं। 


जब शाम हुई तो बच्चे की बेचैन मां ने चारों तरफ आदमी दौड़ाए। लालटेन हाथ में लिए लोग नदी के किनारे पहुंचे। वहां देखा तो, रायचरण आंधी की हवा की तरह खेतों के चारों तरफ 'लल्ला बाबू', 'लल्ला बाबू चिल्लाता हुआ भटक रहा है, उसका गला बैठ गया है। 


अन्त में घर लौटकर रायचरण धड़ाम से अपनी बहूजी के पैरों पर गिर पड़ा। 


उससे बार-बार पूछा गया, पर वह रो-रोकर यही कहता रहा, “कहां गया, कुछ भी पता नहीं लगा, मां!"


यद्यपि सब समझ गए कि यह काम पद्मा का ही है, फिर भी गांव के बाहर जो बनजारे ठहरे हुए थे उन पर शक हो ही गया। मां के मन में तो यह शक पैदा हुआ कि कहीं रायचरण ने ही न चुरा लिया हो! यहां तक कि वह उसे बुलाकर कहने लगी, "तू मेरे लल्ला को लौटा दे, तुझे जितने रुपये चाहिए, मैं दूंगी।" 


सुनकर रायचरण ने सिर्फ माथे पर हाथ दे मारा। 


अन्त में मालकिन ने उसे निकाल बाहर कर दिया। 


अनुकूल बाबू ने अपनी स्त्री के मन से रायचरण के प्रति इस अन्यायपूर्ण शक को दूर करने की कोशिश की थी। उन्होंने स्त्री से पूछा था, “रायचरण ऐसा जघन्य काम आखिर किसलिए करेगा?


 "गृहिणी ने कहा, "क्यों! सोने के गहने नहीं पहने था वो!" 


रायचरण देश चला गया। अब तक उसके कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ था, और होने की कोई उम्मीद भी नहीं थीं। पर होनहार की बात कि उसी साल, इतनी ज्यादा उमर में, उसकी पत्नी के एक बच्चा हुआ; और उसी में पली की मृत्यु भी हो गई। अपने उस बच्चे पर रायचरण को बड़ा गुस्सा आया। उसे वह बैरी-सा दीखने लगा। उसने सोचा, यह छल करके लल्ला की जगह अपना हक जमाने आया है! सोचने लगा, मालिक के इकलौते बेटे को पानी में बहाकर खुद पुत्र-सुख का उपभोग करना उसके लिए महापाप के सिवा और कुछ नहीं। यहां तक कि रायचरण की विधवा बहन अगर न होती, तो शायद वह बच्चा दुनिया की हवा में ज्यादा दिन तक सांस भी न ले सकता था।


ताज्जुब की बात है कि उस लड़के ने भी कुछ दिन के बाद लल्ला की तरह ही चौखट पार करना शुरू कर दिया, और सब तरह की मनाहियों को न मानने में ठीक वैसी ही चतुरता दिखाने लगा! और तो क्या, उसके गले का स्वर, हंसने और रोने की आवाज बहुत कुछ उससे मिलती-जुलती है। किसी-किसी दिन रायचरण उसका रोना सुनता तो उसकी छाती सहसा धड़क उठती, उसे ऐसा लगता कि मानो उसका वह लल्ला भटक-भटककर रो रहा है।


फुलना भी, रायचरण की बहन ने अपने भतीजे का नाम रखा था फुलना, बुआ को 'उआ' कहकर पुकारने लगा। इस परिचित सम्बोधन को सुनकर एक दिन सहसा रायचरण को खयाल आया कि जरूर लल्ला ही, मेरे मोह को न छोड़ सकने की वजह से, मेरे घर आकर पैदा हुआ है। 


इस विश्वास के अनुकूल कुछ न काटी जा सकनेवाली युक्तियां भी थीं। पहले तो, उसके चले जाने के बाद इतनी जल्दी उसका जन्म होना; दूसरे, इतने वर्षों बाद सहसा उसकी पत्नी के गर्भ से लड़का पैदा होना यह उसकी स्त्री के गुण से हरगिज नहीं हो सकता। तीसरे, यह भी उसी बुआ तरह घुटनों के बल चलता है, डगमगाता हुआ घूमता-फिरता है और को उआ कहता है। जिन लक्षणों के होने से भविष्य में जज होने की सम्भावना है, उनमें से अधिकांश गुण इसमें मौजूद हैं। 


तब 'बहूजी' के दिल तोड़ देनेवाले सन्देह की बात उसे सहसा याद आ गई, और बड़े आश्चर्य में आकर वह मन-ही-मन कहने लगा, 'हां, हां, मां के मन ने ठीक जान लिया था कि किसी ने उसके बच्चे को चुरा लिया है। ठीक तो है, तभी तो वह मेरे घर आकर पैदा हुआ है। 'फिर, इतने दिन जो उसने बच्चे के प्रति लापरवाही रखी, उसके लिए उसे बड़ा पछतावा हुआ। बच्चे को अब वह बहुत ज्यादा चाहने और प्यार करने लगा। 


अब से फुलना को वह इस तरह पालने लगा जैसे वह किसी बड़े घराने का बच्चा हो। उसके लिए वह साटन का कोट खरीद लाया, जरीदार टोपी भी ले आया, और अपनी स्त्री के गहने गलवाकर उनसे उसके लिए कड़े और लच्छे भी बनवा दिए। मुहल्ले के किसी भी लड़के के साथ वह उसे खेलने नहीं देता। रात-दिन खुद ही उसका साथी बनकर उससे खेलता रहता है। मुहल्ले के लड़के मौका पाते ही फुलना को 'नवाब का नाती' कहकर चिढ़ाया करते हैं। और गांव के लोग भी रायचरण के ऐसे पगलाए आचरण पर आश्चर्य प्रकट करने लगे हैं। 


फुलना जब पढ़ने लायक हुआ तब रायचरण अपनी जमीन वगैरह सब बेच खोचकर उसे कलकत्ता ले गया। वहां बड़ी मुश्किल से एक नौकरी तलाश करके फुलना को उसने स्कूल में भर्ती करा दिया। खुद जैसे-तैसे गुजर कर लेता, किन्तु लड़के को अच्छा खाना, बढ़िया पोशाक और अच्छी शिक्षा देने में कोई कसर न रखता। मन-ही-मन कहता, 'लल्ला बाबू, तुम मेरे मोह से मेरे घर आए हो, इसलिए तुम्हारा मैं निरादर नहीं कर सकता। 

इसी तरह बारह साल बीत गए। लड़का पढ़ने-लिखने में तेज और देखने में भी अच्छा तगड़ा सांवले रंग का है, केश-वेश की सजावट की तरफ पूरा ध्यान रखता है, मिजाज में कुछ आरामतलबी और शौकीनी है। बाप को ठीक बाप जैसा नहीं समझता। कारण, रायचरण स्नेह करने में बाप और सेवा करने में नौकर जैसा बरताव करता है। इसके सिवा उसमें एक कमी भी थी, यह कि वह फुलना का बाप है, यह बात उसने सबसे छिपा रखी थी। जिस छात्रावास में फुलना रहता है, वहाँ के और सब लड़के गंवार रायचरण की हंसी उड़ाया करते हैं, और कभी-कभी पिता की गैरहाजिरी में फुलना भी उसमें शामिल हो जाया करता है। फिर भी, ममता-भरे स्वभाववाले भोले-भाले रायचरण को सभी लड़के बहुत प्यार करते हैं; फुलना भी प्यार करता है, परन्तु उसमें पिता के स्नेह की जगह अनुग्रह ही ज्यादा रहता है। 

रायचरण अब बूढ़ा हो चला। उसका मालिक अब हर वक्त उसके काम काज में दोष पकड़ता रहता है। वास्तव में उसका शरीर भी कमजोर हो चला है, काम में वह उतना ध्यान नहीं रख सकता, बार-बार भूल जाता है। पर जो पूरी तनखा देता है, वह बुढ़ापे का उज़ नहीं सुन सकता। इधर वह जो खेत-जोत बेचकर रुपये लाया था, वे भी सब खत्म हो चले। और फुलना भी आजकल अपने को कपड़े-लत्तों से कुछ तंग महसूस करने लगा है। 


सहसा एक दिन रायचरण ने काम से छुट्टी ले ली; और फुलना को कुछ रुपये देकर बोला, “लल्ला बाबू, जरूरी काम है मुझे, कुछ दिन के लिए मैं देश जा रहा हूं।" बस, इतना कहकर वह बारासात चल दिया। अनुकूल बाबू उस समय बारासात में मुंसिफ थे। 


अनुकूल बाबू के और कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। उनकी पत्नी अब भी उस बच्चे के गम में आंसू बहाया करती हैं 


एक दिन, शाम के वक्त अनुकूल बाबू कचहरी से लौटकर आराम कर रहे थे और उनकी पत्नी किसी साधु-महात्मा से सन्तान की कामना से काफी कीमत देकर कोई जड़ी और आशीर्वाद खरीद रही थीं। 


इतने में आंगन से आवाज आई, "जय हो बहूजी की!" 


बाबू साहब बोले, "कौन है?" 


रायचरण ने आकर नमस्कार किया, बोला, "मैं हूँ, रायचरण।" 


बूढ़े को देखकर अनुकूल का दिल पसीज गया। उसकी मौजूदा हालत के बारे में उन्होंने सैकड़ों सवाल पूछ डाले। और फिर उन्होंने रायचरण को फिर से काम पर बहाल करने की इच्छा प्रकट की। 


रायचरण ने सूखी हंसी हंसकर कह, "मैं तो सिर्फ बहूजी की असीस लेने आया हूं। 


अनुकूल बाबू उसे अपने साथ भीतर ले गए। परन्तु उसकी 'बहूजी' ने खुशी से उसका स्वागत नहीं किया। 


किन्तु रायचरण ने कुछ ध्यान न देते हुए हाथ जोड़कर कहा, "वहूजी, मैंने ही तुम्हारा लड़का चुराया था। पद्मा ने नहीं, और किसी ने भी नहीं, उसका चुरानेवाला मैं ही हूं, किरतनी हूं मैं, पापी हूं।" 


अनुकूल बाबू कह उठे, "क्या कह रहा है तू! कहाँ है वह?" 


“जी, मेरे ही पास है। मैं परसों यहां पहुंचा दूंगा।" 


इतना कहकर रायचरण चला गया। 


उस दिन रविवार था। कचहरी की छुट्टी थी। सवेरे से पति-पत्नी दोनों जने बड़ी उत्सुकता से रायचरण के आने की राह देख रहे थे। 


करीब दस बजे फुलना को साथ लेकर रायचरण हाजिर हुआ। 


अनुकूल बाबू की स्त्री ने लड़के से कुछ पूछताछ नहीं की, और न कुछ सोचा-विचारा ही, वे चट् से उसे गोद में बिठाकर, छाती से चिपटाकर, मुंह चूमकर तरसे हुए नयनों से उसका मुखड़ा देखकर कभी रोती और कभी हंसती हुई बेचैन हो उठीं। दरअसल लड़का देखने में बहुत अच्छा था। उसके पहनावे में, रहन-सहन में गरीबी का कोई लक्षण ही नहीं था। मुंह पर बेहद भला दिखनेवाला, विनम्र, शर्मीला भाव देखकर अनुकूल के दिल में भी सहसा स्नेह उमड़ आया। फिर भी उन्होंने दृढ़ता के साथ पूण, "कोई सबूत है। 


रायचरण ने कहा, "ऐसे काम का सबूत क्या होगा, बाबू साहब? मैंने जो आपका लड़का चुराया था, इस बात को सिर्फ मैं ही जानता हूं या भगवान जानते हैं, संसार में तीसरा कोई नहीं जानता।" 


अनुकूल ने सोच-समझकर तय किया कि लड़के को पाते ही उनकी पली ने जिस आग्रह के साथ उसे अपना लिया है, उसे देखते हुए अब सबूत चाहना कुछ मानी नहीं रखता। जैसे भी बने भरोसा करना ही अच्छा है। इसके सिवा, और भी एक बात है, रायचरण को ऐसा लड़का मिल भी कहा से सकता है? दूसरे, इतना पुराना बूढ़ा नौकर बिना वजह उन्हें धोखा देगा ही क्यों? 


लड़के से भी बातचीत करने पर यही मालूम हुआ कि बचपन से ही वह रायचरण के साथ है, और अब तक उसी को वह पिता समझता आया है, किन्तु रायचरण ने कभी उसके साथ पिता के समान व्यवहार नहीं किया, बल्कि वह नौकर जैसा बरताव करता रहा है। अन्त में अनुकूल ने मन से सन्देह दूर करके कहा, "लेकिन, रायचरण, अब तू हम लोगों की परछाईं भी न छू सकेगा।"


रायचरण ने हाथ जोड़कर गद्गद कंठ से कहा, “मालिक साहब, अब इस बुढ़ापे में मैं कहां जाऊंगा?" 


मालकिन ने कहा, “नहीं, नहीं, रहने दो। लल्ला मेरा खुश बना रहे। इसे मैं माफ करती हूं।" 


किन्तु न्यायपरायण जज अनुकूलचन्द्र ने कहा, “इसने ऐसा भयंकर कसूर किया है कि इसे माफ नहीं किया जा सकता।" 


रायचरण ने अनुकूल बाबू के पैर पकड़कर कहा, "मैंने कुछ नहीं किया, बाबू साहब, भगवान ने किया है।"


अपना पाप ईश्वर के सिर मढ़ने की कोशिश करते देख जज साहब और भी ज्यादा नाराज हो उठे। बोले, "जिसने ऐसा विश्वासघात का काम किया है, उस पर अब फिर विश्वास करना ठीक नहीं।" 


रायचरण ने पैर छोड़कर कहा, "ऐसा मैं नहीं हूँ, मालिक!" 


"तो कौन है?" 


"मेरा भाग्य।" 


किन्तु, इस तरह की कैफियत से किसी उच्च शिक्षित और खासकर न्यायकर्ता दंडदाता 'जज' को भला कैसे सन्तोष हो सकता है। 


अब रायचरण ने कहा, "संसार में मेरा और कोई भी नहीं है, मालिक! 


फुलना ने जब देखा कि वह मुंसिफ का लड़का है, रायचरण तक उसे चुरा रखा था और अपना लड़का बताकर वह उसका अपमान करता रहा है, तब उसे भी मन-ही-मन कुछ गुस्सा आया। किन्तु फिर भी उसने उदारता के साथ पिता से कहा, "पिताजी, इसे माफ कर दो। घर में अगर नहीं रखना चाहते, तो इसके लिए कुछ माहवारी बांध दो।" 


इसके बाद रायचरण ने मुंह से कुछ भी न कहकर एक बार अपने इकलौते बेटे का अच्छी तरह मुंह देखा, सबको प्रणाम किया, और फिर दरवाजे से बाहर निकलकर संसार के असंख्य आदमियों में जाकर बिला गया। 


महीने के अन्त में अनुकूल बाबू ने जब उसके देश के पते से कुछ रुपये भेजे तो मनीआर्डर वापस आ गया। वहां कोई था ही नहीं।


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