लघुकथा फ़र्जी अकाउंट | Short Story Farji Account
लघुकथा: संगीता पाठक
दाजी छह वर्षीय चिंटू दा और आठ वर्षीय माही को बड़े हावभाव के साथ पंचतंत्र की कहानियां सुना रहे थे। कहानी सुनते-सुनते दोनों बच्चे सो गए। बहू उन्हें अपने कमरे में ले गई। फिर दादाजी भी सो गए। रात ग्यारह बजे उनकी नींद खुली तो वे पानी पीने के लिए रसोईघर में गए। तभी उन्हें बहू की आवाज सुनाई दी जो उनके बेटे आकाश से कुछ कह रही थी।
"मैं दिनभर अदालत की फाइलों में उलझी रहती हूं। आप भी अपने बिजनेस में व्यस्त रहते हो। हम दोनों बाबूजी के स्वास्थ्य पर ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। अगर हम उन्हें वृद्धाश्रम में भेज देंगे तो वहां उन्हें चार साथी मिल जाएंगे। वैसे महीने में दो दिन डाक्टर परीक्षण के लिए भी आते ही हैं।
दादाजी बहुत स्वाभिमानी थे। सुबह पांच बजे उठकर स्नान- ध्यान किया। फिर एक बैग में अपना सारा सामान रख लिया और सीधे पहुंच गए वृद्धाश्रम | विनोदी प्रवृत्ति के होने के कारण उन्होंने सबके मन में अपनी छाप छोड़ दी। थोड़े ही दिनों में वह उन्हें अपना आशियाना सा लगने लगा। हर उत्सव, जन्मदिन, होली, दिवाली वे सभी एक साथ मनाने लगे लेकिन उन्हें अपने पोते-पोती की याद बहुत सताती थी। एक दिन वे आश्रम की रिसेप्शनिस्ट पूर्वी से बोले-'बिटिया, क्या तुम फेसबुक चलाती हो?'
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'हां, बताइए दादाजी, मैं क्या कर सकती हूं?' पूर्वी बोली।
'बिटिया क्या तुम मुझे भी फेसबुक चलाना सिखा दोगी।'
"हां दादा जी! पर उसके लिए आपका अकांउट बनाना पड़ेगा।'
'पूर्वी तुम मेरा अकांउट फर्जी नाम से बनाओ, जैसे मयंक शर्मा। वहां कहीं से एक अच्छी-सी फोटो भी लगा दो।'
'दादाजी, आप फर्जी अकाउंट क्यों बनाओगे? अपने 'नाम से बनाइए ना।'
'ना बेटा ना! मेरे बेटे को तुम फर्जी नाम से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज देना। वह एड करेगा तो कम से कम अपने परिवार की बगिया को यहीं से हंसते-खिलखिलाते देख लूंगा। क्या करू, मुझे अपने पोते-पोती की बहुत याद आती है 'बिटिया।' और दादाजी की आंखें डबडबा आई।