Short Moral Stories:- इसे पीढ़ियों का अंतर कहा जाएगा कि जहां शिवांग पुरानी वस्तुओं को अनुपयोगी मानता था, वहीं उसके पिताजी हर वस्तु से जुड़ी कहानी बयां कर सकते थे। लेकिन उनके कड़ाह प्रेम ने हालात को नया रंग दे दिया। भवन को घर बना दिया।
कड़ाह प्रेम- Kadah Prem Short Moral Story in Hindi
Hindi Kahani: शिवांग ने अपने पुराने पुश्तैनी घर को तुड़वाकर आधुनिक शैली के भव्य भवन में परिवर्तित कर लिया। पुराने घर में वर्षों से संभालकर रखा हुआ सारा सामान उसने रद्दीवाले के हवाले कर दिया। वास्तव में शिवांग का अनुभव ही कुछ ऐसा था कि घर में रखी हुई जिन वस्तुओं का प्रयोग वर्षों से नहीं हुआ हो, उन्हें कबाड़ी के हवाले कर देना चाहिए।
लेकिन उसके पिताजी उसके इस निर्णय से बहुत दुखी थे क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास था कि घर में रखी हुई प्रत्येक वस्तु कभी ना कभी काम आ ही जाती है। वैसे भी उन्होंने बहुत प्यार और यत्न से इन वस्तुओं को इकट्ठा किया था तथा प्रत्येक वस्तु के साथ उनका इतना गहरा लगाव था कि वह वस्तु उन्होंने क ली, कैसे ली और क्यों ली आदि के बारे में विस्तारपूर्वक बता सकते थे। परंतु शिवांग किसी भी अप्रासंगिक वस्तु को नए भवन में स्थान नहीं देना चाहता था।
जब वह एक लोहे के बने हुए बड़े कड़ाह को कबाड़ वाले को देने लगा तो पिताजी अत्यंत भावुक हो गए और लगभग प्रार्थना की मुद्रा में उस कड़ाह को कबाड़ में न देने की याचना करने लगे। शिवांग मन ही मन अपने पिताश्री के इस कड़ाह प्रेम पर बड़ा दुखी हुआ परंतु न चाहते हुए भी वह उनके आग्रह को ठुकरा न सका।
कुछ दिन तो नए भवन ने उसको आकर्षित किया मगर फिर वह दुनिया की भागमभाग में कुछ इस क़दर उलझा कि उसने न तो नए भवन की कोई सुध ली और न ही उसका कोई संवाद पिताजी से हो सका। कुछ दिन बाद फिर एक फ़ुरसत के दिन उसे भवन की सज्जा और स्थिति पर नजर डाली। उसे कड़ाह का ख़याल आया । जिज्ञासा हुई कि देखे उसके पिताजी उसका क्या उपयोग कर रहे हैं? उसने पाया कि उसके पिताजी ने वह कड़ाह भवन के मेन गेट के बग़ल में रख दिया है जो सदैव पानी से भरा रहता है।
उसमें पानी भरने का काम वे स्वयं करते थे। उसने देखा कि सड़क से गुजरते गाय, बैल, भैंस जैसे पशु आते और कड़ाह का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाते और तृप्त होकर चले जाते। चूंकि गर्मियों के दिन थे इसलिए पक्षियों के लिए भी वह कड़ाह मनपसंद शरण-स्थल बन गया था। कभी वे फुदकते हुए उसके बाग़ीचे के फूलों पर बैठ जाते तो कभी पानी भरे कड़ाह में गोता लगाते।
कभी अपनी नन्ही-सी चोंच पानी में डालकर प्यास बुझाते तो कभी आनंदित होकर अपनी-अपनी बोली में ख़ुशी के गीत गाते। और बरामदे में पिताजी आरामकुर्सी पर बैठ इन पशु-पक्षियों को देखकर आत्मविभोर हुए जाते।
ये सब देखकर शिवांग ने तुरंत एक फ़ैसला किया। उसने अपने भवन की चारदीवारी से सटती हुई पानी की बड़ी-सी टंकी बनवाई जिसमें पीने का पानी ठंडा रह सके तथा उसमें एक टोंटी भी लगवाई जो उसके घर के परिसर के बाहर खुलती थी। अब पशु-पक्षियों के साथ-साथ राहगीर भी उसके घर के पास से गुज़रते हुए अपनी प्यास बुझाने लगे। एकाएक उसका ईंट-पत्थर का भवन जीता-जागता घर बन गया। उसे वस्तुओं को प्रासंगिक बनाना भी आ गया।
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