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सत्याग्रह: मुंशी प्रेमचंद कहानी | Munshi Premchand Stories

Satyagrah: Premchand Stories in Hindi |  सत्याग्रह- Munshi Premchand Stories in Hindi | प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां


Premchand Stories: हिज एक्सेलेंसी वाइसराय बनारस आ रहे थे। सरकारी कर्मचारी, छोटे से बड़े तक, उनके स्वागत की तैयारियां कर रहे थे। इधर कांग्रेस के शहर में हड़ताल मनाने की,सूचना दे दी थी। इससे कर्मचारियों में बड़ी हलचल थी। एक ओर सड़कों पर झंडियां लगाई जा रही थीं, सफाई हो रही थी, पंडाल बन रहा था; दूसरी ओर फौज और पुलिस के सिपाही संगीनें चढ़ाए शहर की गलियों में और सड़कों पर कवायद करते फिरते थे। 


कर्मचारियों की सिरतोड़ कोशिश थी कि हड़ताल न होने पाए, मगर कांग्रेसियों की धुन थी कि हड़ताल हो और जरूर हो। अगर कर्मचारियों को पशुबल का जोर है, तो हमें नैतिक बल का भरोसा, इस बार दोनों की परीक्षा हो जाय कि मैदान किसके हाथ रहता है।


घोड़े पर सवार मैजिस्ट्रेट सुबह से शाम तक दूकानदारों को धमकियां देता फिरता कि एक-एक को जेल भिजवा दूंगा, बाजार लुटवा दूंगा, यह करूंगा और वह करूंगा। दूकानदार हाथ बांधकर कहते—हुजूर बादशाह हैं, विधाता हैं, जो चाहें कर सकते हैं। पर हम क्या करें? कांग्रेस वाले हमें जीता न छोड़ेंगे। हमारी दूकानों पर धरने देंगे, हमारे ऊपर बाल बढ़ाएंगे, कुएं में गिरेंगे, उपवास करेंगे। 


कौन जाने, दो-चार प्राण ही दे दें, तो हमारे मुंह पर सदैव के लिए कालिख पुत जायगी। हुजूर उन्हीं कांग्रेस वालों को समझाएं, तो हमारे ऊपर बड़ा एहसान करें। हड़ताल न करने से हमारी कुछ हानि थोड़े ही होगी। देश के बड़े-बड़े आदमी आवेंगे, हमारी दूकानें खुली रहेंगी, तो एक के दो लेंगे, महंगे सौदे बेचेंगे; पर करें क्या इन शैतानों से कोई बस नहीं चलता।


सत्याग्रह मुंशी प्रेमचंद कहानी


राय हरनन्दन साहब, राजा लालचन्द और खां बहादुर मौलवी महमूदअली तो कर्मचारियों से भी ज्यादा बेचैन थे। मैजिस्ट्रेट के साथ-साथ और अकेले भी बड़ी कोशिश करते थे। अपने मकान पर बुलाकर दूकानदारों को समझाते, अनुनय-विनय करते, आंखें दिखाते, इक्के बग्घीवालों को धमकाते, मजदूरों की खुशामद करते; पर कांग्रेस के मुट्ठी भर आदमियों का कुछ ऐसा आतंक छाया हुआ था कि कोई इनकी सुनता ही न था। यहां तक कि पड़ोस की कुंजड़िन ने भी निर्भय होकर कह दिया-हुजूर, चाहे मार डालो, पर दूकान न खुलेगी। नाक न कटवाऊंगी। सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि कहीं पंडाल बनाने वाले मजदूर, बढ़ई, लोहार वगैरह काम न छोड़ दें, नहीं तो अनर्थ ही हो जायगा। राय साहब ने कहा—हुजूर, दूसरे शहरों से दूकानदार बुलवाएं और एक बाजार अलग खोलें। 


खां साहब ने फरमाया-वक्त इतना कम रह गया है कि दूसरा बाजार तैयार नही हो सकता। हुजूर कांग्रेसवालों को गिरफ्तार कर लें, या उनकी जायदाद जब्त कर लें, फिर देखिए कैसे काबू में नहीं आते !


राजा साहब बोले—पकड़-धकड़ से तो लोग और झल्लाएंगे। कांग्रेस से हुजूर कहें कि तुम हड़ताल बन्द कर दो, तो सबको सरकारी नौकरी दे दी जायगी। उसमें अधिकांश बेकार लोग भरे पड़े हैं, यह प्रलोभन पाते ही फूल उठेंगे।


मगर मैजिस्ट्रेट को कोई राय न जंची। यहां तक कि वाइसराय के आने में तीन दिन और रह गए।


आखिर राजा साहब को एक युक्ति सूझी। क्यों न हम लोग भी नैतिक बल का प्रयोग करें ? आखिर कांग्रेसवाले धर्म और नीति के नाम पर ही तो यह तूमार बांधते हैं। हम लोग भी उन्हीं का अनुकरण करें, शेर को उसकी मांद में पछाड़ें। कोई ऐसा आदमी पैदा करना चाहिए, तो व्रत करे कि दूकानें न खुलीं, तो मैं प्राण दे दूंगा। यह जरूरी है कि वह ब्राह्मण हो और ऐसा, जिसको शहर के लोग मानते हों, आदर करते हों। अन्य सहयोगियों के मन में भी यह बात बैठ गई। उछल पड़े। राय साहब ने कहा - बस, अब पड़ाव मार लिया। अच्छा, ऐसा कौन पंडित है, पंडित गदाधर शर्मा ?


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राजा- जी नहीं, उसे कौन मानता है? खाली समाचार-पत्रों में लिखा करता है। शहर के लोग उसे क्या जानें ?


राय साहब- दमड़ी ओझा तो है इस ढंग का ?


राजा- जी नहीं, कॉलेज के विद्यार्थियों के सिवा उसे और कौन जानता है?


राय साहब- पंडित मोटेराम शास्त्री ?


राजा- बस, बस। आपने खूब सोचा। बेशक वह है इस ढंग का। उसी को बुलाना चाहिए। विद्वान् है, धर्म-कर्म से रहता है। चतुर भी है। वह अगर हाथ में आ जाए, तो फिर बाजी हमारी है।


राय साहब ने तुरन्त पंडित मोटेराम के घर सन्देशा भेजा। उस समय शास्त्रीजी पूजा पर थे। यह पैगाम सुनते ही जल्दी से पूजा समाप्त की और चले। राजा साहब ने बुलाया। है, धन्य भाग! धर्मपत्नी से बोले- आज चन्द्रमा कुछ बली मालूम होते हैं। कपड़े लाओ, देखूं, क्यों बुलाया है ?


स्त्री ने कहा- भोजन तैयार है, करते जाओ; न जाने कब लौटने का अवसर मिले। 


किन्तु शास्त्रीजी ने आदमी को इतनी देर खड़ा रखना उचित न समझा। जाड़े के दिन थे। हरी बनात की अचकन पहनी, जिस पर लाल शंजाफ लगी हुई थी। गले में एक जरी दुपट्टा डाला। फिर सिर पर बनारसी साफा बांधा। लाल चौड़े किनारे की रेशमी धोती पहनी, और खड़ाऊं पर चले। उनके मुख से ब्रह्मतेज टपकता था। दूर ही से मालूम होता था कि कोई महात्मा आ रहे हैं। रास्ते में जो मिलता, सिर झुकाता; कितने ही दूकानदारों ने खड़े होकर पैलगी की। आज काशी का नाम इन्हीं की बदौलत चल रहा है, नहीं तो और कौन रह गया है? कितना नम्र स्वभाव है। बालकों से हंसकर बातें करते हैं। इस ठाट से पंडित जी राजा साहब के मकान पर पहुंचे। तीनों मित्रों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया। खां बहादुर बोले-कहिए पंडितजी, मिजाज तो अच्छे हैं? वल्लाह आप नुमाइश में रखने के काबिल आदमी हैं। आपका वजन तो दस मन से कम न होगा? 


राय साहब- एक मन इल्म के लिए दस मन अक्ल चाहिए। उसी कायदे से एक मन अक्ल के लिए दस मन का जिस्म जरूरी है, नहीं तो उसका बोझा कौन उठाए ?


राजा साहब- आप लोग इसका मतलब नहीं समझ सकते। बुद्धि एक प्रकार का नजला हैं, जब दिमाग में नहीं समाती, तो जिस्म में आ जाती है।


खां साहब- मैंने तो बुजुर्गों की जबानी सुना है कि मोटे आदमी अक्ल के होते हैं।


राय साहब- आपका हिसाब कमजोर था, वरना आपकी समझ में इतनी बात जरूर आ जाती कि जब अक्ल और जिस्म में 1 और 10 की निस्बत है, तो जितना ही मोटा आदमी होगा, उतना ही उसकी अक्ल का वजन भी ज्यादा होगा।


राजा साहब-इससे यह साबित हुआ कि जितना ही मोटा आदमी, उतनी ही मोटी उसकी अक्ल। 


मोटेराम-जब मोटी अक्ल की बदौलत राज दरबार में पूछ होती है, तो मुझे पतली अक्ल लेकर क्या करना है!


हास-परिहास के बाद राजा साहब ने वर्तमान समस्या पंडितजी के सामने उपस्थित की और उसके निवारण का जो उपाय सोचा था, वह भी प्रकट किया! बोले- बस, यह समझ लीजिए कि इस साल आपका भविष्य पूर्णतया अपने हाथों में हैं। शायद किसी आदमी को अपने भाग्य निर्णय का ऐसा महत्त्वपूर्ण अवसर न मिला होगा। हड़ताल न हुई, तो और तो कुछ नहीं कह सकते, आपको जीवन भर किसी के दरवाजे जाने की जरूरत न होगी। बस, ऐसा कोई व्रत ठानिए कि शहरवाले थर्रा उठें। कांग्रेस वालों ने धर्म की आड़ लेकर इनकी शक्ति बढ़ाई है। बस, ऐसी कोई युक्ति निकालिए कि जनता के धार्मिक भावों को चोट पहुंचे।


मोटेराम ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया- यह तो कोई ऐसा कठिन काम नहीं है। मैं तो ऐसे-ऐसे अनुष्ठान कर सकता हूं कि आकाश से जल की वर्षा करा दूं; मरी के प्रकोप को भी शान्त कर दूं, अन्न का भाव घटा-बढ़ा दूं। कांग्रेस वालों को परास्त कर देना तो कोई बड़ी बात नहीं। अंग्रेजी पढ़े-लिखे महानुभाव समझते हैं कि जो काम हम कर सकते हैं, वह कोई नहीं कर सकता। पर गुप्त विद्याओं का उन्हें ज्ञान ही नहीं ।


खां साहब-तब तो जनाब, यह कहना चाहिए कि आप दूसरे खुदा हैं। हमें क्या मालूम था कि आप में कुदरत है; नहीं तो इतने दिनों तक क्यों परेशान होते ?


मोटेराम- साहब, मैं गुप्त धन का पता लगा सकता हूं, पितरों को बुला सकता हूँ. केवल गुण-ग्राहक चाहिए। संसार में गुणियों का अभाव नहीं, गुणज्ञों का ही अभाव है- गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है।


राजा- भला, इस अनुष्ठान के लिए आपको क्या भेंट करना होगा ?


 मोटेराम- जो कुछ आपकी श्रद्धा हो। 


राजा- कुछ बतला सकते हैं कि यह कौन-सा अनुष्ठान होगा ?

 

मोटेराम-अनशत व्रत के साथ मन्त्रों का जप होगा। सारे शहर में हलचल न मचा दूं तो मोटेराम नाम नहीं!


राजा- तो फिर कब से ?


मोटेराम-आज ही हो सकता है। हां, पहले देवताओं के आवाहन के निमित्त थोड़े से रुपये दिला दीजिए।


रुपये की कमी ही क्या थी? पंडितजी को रुपये मिल गए और वह खुश-खुश घर आये। धर्मपत्नी से सारा समाचार कहा। उसने चिन्तित होकर कहा- तुमने नाहक यह रोग अपने सिर लिया! भूख न बरदाश्त हुई, तो ? सारे शहर में भद्द हो जायगी, लोग हंसी उड़ावेंगे। रुपये लौटा दो।


मोटेराम ने आश्वासन देते हुए कहा- भूख कैसे न बरदाश्त होगी? मैं ऐसा मूर्ख थोड़े ही हूं कि यों ही जा बैठूंगा। पहले मेरे भोजन का प्रबन्ध करो अमृतियाँ, लड्डू, रसगुल्ले मंगाओ। पेट भर भोजन कर लूं। फिर आध सेर मलाई खाऊंगा, उसके ऊपर आध सेर बादाम की तह जमाऊंगा। बची-खुची कसर मलाईवाले दही से पूरी कर दूंगा। फिर देखूंगा, भूख क्योंकर पास फटकती है ? तीन दिन तक तो सांस ही न ली जायगी, भूख की कौन चलावे। इतने में तो सारे शहर में खलबली मच जायगी। भाग्य-सूर्य उदय हुआ है, इस समय आगा-पीछा करने से पछताना पड़ेगा। बाजार न बन्द हुआ, तो समझ लो मालामाल हो जाऊंगा; नहीं तो यहां गांठ से क्या जाता है! सौ रुपये तो हाथ लग ही गए।


इधर तो भोजन का प्रबन्ध हुआ, उधर पंडित मोटेराम ने डौंड़ी पिटवा दी कि संध्या-समय टाउनहाल के मैदान में पंडित मोटेराम देश की राजनीतिक समस्या पर व्याख्यान देंगे, लोग अवश्य आएं। पंडितजी सदैव राजनीतिक विषयों से अलग रहते थे। आज वह इस विषय पर कुछ बोलेंगे, सुनना चाहिए। लोगों को उत्सुकता हुई। पंडितजी का शहर में बड़ा मान था। नियत समय पर कई हजार आदमियों की भीड़ लग गई। पंडितजी घर से अच्छी तरह तैयार होकर पहुंचे। पेट इतना भरा था कि चलना कठिन था । ज्यों ही यह वहां पहुंचे, दर्शकों ने खड़े होकर इन्हें साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया।


मोटेराम बोले- नगरवासियो, व्यापारियो, सेठो और महाजनो! मैंने सुना है, तुम लोगों ने कांग्रेसवालों के कहने में आकर बड़े लाट साहब के शुभागमन के अवसर पर हड़ताल करने का निश्चय किया है। यह कितनी बड़ी कृतघ्नता है? वह चाहें, तो आज तुम लोगों को तोप के मुंह पर उड़वा दें, सारे शहर को खुदवा डालें। राजा हैं, हंसी-ठट्ठा नहीं । वह तरह देते जाते हैं, तुम्हारी दीनता पर दया करते हैं और तुम गउओं की तरह हत्या के बल खेत चरने को तैयार हो ! लाट साहब चाहें तो आज रेल बन्द कर दें। डाक बन्द कर दें, माल का आना-जाना बन्द कर दें। तब बताओ, क्या करोगे? वह चाहें तो आज सारे शहरवालों को जेल में डाल दें, बताओ, क्या करोगे ? तुम उनसे भागकर कहां जा सकते हो? है कहीं ठिकाना ? इसलिए जब इस देश में और उन्हीं के अधीन रहना है, तो इतना उपद्रव क्यों मचाते हो? याद रखो, तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। ताऊन के कीड़े फैला दें, तो सारे नगर में हाहाकार मच जाय। तुम झाड़ू से आंधी को रोकने चले हो? खबरदार, जो किसी ने बाजार बन्द किया, नहीं तो कह देता हूं, यहीं अन्न-जल बिना प्राण दे दूंगा।


एक आदमी ने शंका की महाराज, आपके प्राण निकलते-निकलते महीने भर से कम न लगेगा। तीन दिनों में क्या होगा ?


मोटेराम ने गरजकर कहा—प्राण शरीर में नहीं रहता, ब्रह्मांड में रहता है। मैं चाहूं तो योगबल से अभी प्राण त्याग कर सकता हूं। मैंने तुम्हें चेतावनी दे दी, अब तुम जानों, तुम्हारा काम जाने। मेरा कहना मानोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा। न मानोगे, हत्या लगेगी, संसार में कहीं मुंह न दिखला सकोगे। बस, यह लो, मैं यहीं आसन जमाता हूं।


शहर में यह समाचार फैला, तो लोगों के होश उड़ गए। अधिकारियों की इस नई चाल ने उन्हें हतबुद्धि सा कर दिया। कांग्रेस के कर्मचारी तो अब भी कहते थे कि यह सब पाखंड है। राजभक्तों ने पंडित को कुछ दे दिलाकर यह स्वांग खड़ा किया है। जब और कोई बस न चला, फौज, पुलिस, कानून सभी युक्तियों से हार गए, तो यह नई माया रची है। यह और कुछ नहीं, राजनीति का दिवाला है। नहीं पंडितजी ऐसे कहां के देश- सेवक थे, जो देश की दशा से दुःखी होकर व्रत ठानते? इन्हें भूखों मरने दो, दो दिन में बोल जाएंगे। इस नई चाल की जड़ अभी से काट देनी चाहिए! कहीं यह चाल सफल हो गई, तो समझ लो, अधिकारियों के हाथ में एक नया अस्त्र आ जायगा और वह सदैव इसका प्रयोग करेंगे। जनता इतनी समझदार तो है नहीं कि इन रहस्यों को समझे। गीदड़-भभकी में आ जायगी।


लेकिन नगर के बनिये-महाजन, जो प्रायः धर्म-भीरु होते हैं, ऐसे घबरा गए कि उन पर इन बातों का कुछ असर ही न होता था। वे कहते थे- साहब, आप लोगों के कहने से सरकार से बुरे बने, नुकसान उठाने को तैयार हुए, रोजगार छोड़ा, कितनों के दिवाले हो गए, अफसरों को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जाते थे, अधिकारी लोग 'आइए सेठजी' कहकर सम्मान करते थे; अब रेलगाडियों में धक्के खाते हैं, पर कोई नहीं सुनता; आमदनी चाहे कुछ हो या न हो, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है। यह सब सहा, और सहेंगे, लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टांगे फैलाकर सोएं ? कहीं मर गया, तो भगवान् के सामने क्या जवाब देंगे ?


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सारांश यह कि कांग्रेसवालों की एक न चली। व्यापारियों का एक डेपुटेशन 9 बजे रात को पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुआ। पंडितजी ने आज भोजन तो खूब डटकर किया था, लेकिन डटकर भोजन करना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। महीने में प्राय: 20 दिन वह अवश्य ही न्योता पाते थे और निमंत्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभाविक बात है। अपने सहभोजियों की देखा-देखी, लाग डांट की धुन में, या गृह स्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है। पंडितजी की जठराग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी। अतएव इस समय भोजन का समय आ जाने से उनकी नीयत कुछ डांवाडोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से व्याकुल थे। लेकिन भोजन का समय आ जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, अजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार की भोजन की चाह होने लगती है।


शास्त्रीजी की इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोंचे वाले को पुकारकर कुछ ले लेते, किन्तु अधिकारियों ने उनकी शरीर-रक्षा के लिए वहां कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे। पंडितजी की विशाल बुद्धि इस समय यही समस्या हल कर रही थी कि इन यमदूतों को कैसे टालूं ? खामख्वाह इन पाजियों को यहां खड़ा कर दिया! मैं कोई कैदी तो हूं नहीं कि भाग जाऊंगा।


अधिकारियों ने शायद वह व्यवस्था इसलिए कर रखी थी कि कांग्रेस वाले जबरदस्ती पंडितजी को वहां से भगाने की चेष्टा न कर सकें। कौन जाने, वे क्या चाल चलें। ऐसे अनुचित और अपमानजनक व्यवहारों से पंडितजी की रक्षा करना अधिकारियों का कर्त्तव्य था।


वह अभी इस चिन्ता में थे कि व्यापारियों का डेपुटेशन आ पहुंचा। पंडितजी कुहनियों के बल लेटे हुए थे, संभल बैठे नेताओं ने उनके चरण छूकर कहा- महाराज, हमारे ऊपर आपने क्यों यह कोप किया है? आपकी जो आज्ञा हो, वह हम शिरोधार्य करें। आप उठिए, अन्न-जल ग्रहण कीजिए। हमें नहीं मालूम था कि आप सचमुच यह व्रत ठाननेवाले हैं; नहीं तो हम पहले ही आपसे विनती करते। आप कृपा कीजिए, दस बजने का समय है। हम आपका वचन कभी न टालेंगे।


मोटेराम-ये कांग्रेसवाले तुम्हें मटियामेट करके छोड़ेंगे ! आप तो डूबते ही हैं; तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेंगे! बाजार बन्द रहेगा, तो इससे तुम्हारा ही टोटा होगा; सरकार को क्या? तुम नौकरी छोड़ दोगे, आप भूखों मरोगे; सरकार को क्या ? तुम जेल जाओगे, आप चक्की पीसोगे; सरकार को क्या ? न जाने इन सबको क्या सनक सवार हो गई है। कि अपनी नाक काटकर दूसरों का असगुन मनाते हैं। तुम इन कुपन्थियों के कहने में न आओ। क्यों दूकानें खुली रखोगे ?


सेठ- महाराज, जब तक शहर-भर के आदमियों की पंचायत न हो जाय, तब तक हम इसका बीमा कैसे ले सकते हैं! कांग्रेसवालों ने कहीं लूट मचवा दी, तो कौन हमारी मदद करेगा? आप उठिए, भोजन पाइए, हम कल पंचायत करके आपकी सेवा में जैसा कुछ होगा, हाल देंगे।


मोटेराम- तो फिर पंचायत करके आना।


डेपुटेशन जब निराश होकर लौटने लगा, तो पंडितजी ने कहा-किसी के पास सुंघनी तो नहीं है ?


एक महाशय ने डिबिया निकाल कर दे दी। 


लोगों के जाने के बाद मोटेराम ने पुलिसवालों से पूछा-तुम यहां क्यों खड़े हो? 


सिपाहियों ने कहा- साहब का हुक्म है, क्या करें? 


मोटेराम- यहां से चले जाओ।


सिपाही—आपके कहने से चले जाएं? कल नौकरी छूट जायगी, तो आप खाने को देंगे ?


मोटेराम- हम कहते हैं, चले जाओ नहीं तो हम ही यहां से चले जायेंगे। हम कोई कैदी हैं, जो तुम घेरे खड़े हो ?


सिपाही-चले क्या जाइएगा, मजाल है। 


मोटेराम-मजाल क्यों नहीं थे! कोई जुर्म किया है? 


सिपाही- अच्छा, जाओ तो देखें?


पंडितजी ब्रह्मतेज में आकर उठे और एक सिपाही को इतनी जोर से धक्का दिया। कि वह कई कदम पर जा गिरा। दूसरे सिपाहियों की हिम्मत छूट गई। पंडितजी को उन सबने थल-थल समझ लिया था, पराक्रम देखा, तो चुपके से सटक गये।


मोटेराम अब लगे इधर-उधर नजरें दौड़ाने कि कोई खोंचेवाला नजर आ जाय, उससे कुछ लें। किन्तु ध्यान आ गया, कहीं उसने किसी से कह दिया, तो लोग तालियां बजाने लगेंगे। नहीं, ऐसी चतुराई से काम करना चाहिए कि किसी को कानोंकान खबर न हो। ऐसे ही संकटों में तो बुद्धिबल का परिचय मिलता है। एक क्षण में उन्होंने इस कठिन प्रश्न को हल कर लिया।


दैवयोग से उसी समय एक खोंचे वाला जाता दिखाई दिया। 11 बज चुके थे, चारों तरफ सन्नाटा छा गया था। पंडितजी ने बुलाया-खोंचेवाले, ओ खोंचेवाले! 


खोंचेवाला- कहिए क्या दूं? भूख लग आयी न ? अन्न-जल छोड़ना साधुओं का काम है, हमारा आपका नहीं।


मोटेराम- अबे क्या कहता है ? यहां क्या किसी साधु से कम हैं? चाहें, तो महीनों पड़े रहें और भूख-प्यास न लगे। तुझे तो केवल इसलिए बुलाया है कि जरा अपनी कुप्पी मुझे दे देखूं तो वहां क्या रेंग रहा है। मुझे भय होता है कि सांप न हो।


खोंचेवाले ने कुप्पी उतार कर दे दी। पंडितजी उसे लेकर इधर-उधर जमीन पर कुछ खोजने लगे। इतने में कुप्पी उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ी और बुझ गई। सारा तेल बह गया। पंडितजी ने उसमें एक ठोकर और लगायी कि बचाखुचा तेल भी बह जाय।


खोंचेवाला- (कुप्पी को हिलाकर ) महाराज, इसमें तो जरा भी तेल नहीं बचा। अब तक चार पैसे का सौदा बेचता, आपने यह खटराग बढ़ा दिया।


मोटेराम- भैया, हाथ ही तो है, छूट गिरी, तो अब क्या हाथ काट डालूं? यह लो पैसे, जाकर कहीं से तेल भरा लो


खोंचेवाला- (पैसे लेकर) तो अब तेल भरवाकर मैं यहां थोड़े ही आऊंगा।


मोटेराम-खोंचा रखे जाओ, लपककर थोड़ा तेल ले लो; नहीं मुझे कोई सांप काट लेगा तो तुम्हीं पर हत्या पड़ेगी। कोई जानवर है जरूर। देखो, वह रेंगता है। गायब हो गया। दौड़ जाओ पठ्ठे, तेल लेते आओ, मैं तुम्हारा खोंचा देखता रहूंगा। डरते हो तो अपने रुपये पैसे लेते जाओ।


खोंचेवाला बड़े धर्मसंकट में पड़ा। खोंचे से पैसे निकालता है तो भय है कि पंडितजी अपने दिल में बुरा न मानें। सोचें, मुझे बेईमान समझ रहा है। छोड़कर जाता है तो कौन जाने, इनकी नीयत क्या हो। किसी की नीयत सदा ठीक नहीं रहती। अंत को उसने यही निश्चय किया कि खोंचा यहीं छोड़ दूं, जो कुछ तकदीर में होगा, वह होगा। वह उधर बाजार की तरफ चला, इधर पंडितजी ने खोंचे पर निगाह दौड़ाई, तो बहुत हताश हुए। मिठाई बहुत कम बच रही थी। पांच-छः चीजें थीं, मगर किसी में दो अदद से ज्यादा निकालने की गुंजाइश न थी। भंडा फूट जाने का खटका था। पंडितजी ने सोचा- इतने से क्या होगा ? केवल क्षुधा और प्रबल हो जायगी, शेर के मुंह खून लग जायगा ! गुनाह बेलज्जत है। अपनी जगह पर जा बैठे। लेकिन दम भर के बाद प्यास ने फिर जोर किया। सोचा, कुछ तो ढारस हो ही जायगा। आहार कितना ही सूक्ष्म हो, फिर भी आहार ही है। उठे, मिठाई निकाली; पर पहला ही लड्डू मुंह में रखा था कि देखा, खोंचेवाला तेल की कुप्पी जलाए कदम बढ़ाता चला आ रहा है। उसके पहुंचने के पहले मिठाई का समाप्त हो जाना अनिवार्य था। 


एक साथ दो चीजें मुंह में रखीं। अभी चुबला ही रहे थे कि वह निशाचर दस कदम और आगे बढ़ आया। एक साथ चार चीजें मुंह में डालीं और अधकुचली ही निगल गए। अभी छ: अदद और थीं, और खोंचेवाला फाटक तक आ चुका था। सारी की सारी मिठाई मुंह में डाल ली। अब न चबाते बनता है, न उगलते। वह शैतान मोटरकार की तरह कुप्पी चमकाता हुआ चला ही आता था। जब वह बिलकुल सामने आ गया, तो पंडित जी ने जल्दी से सारी मिठाई निगल ली। मगर आखिर आदमी ही थे, कोई मगर तो थे नहीं; आंखों में पानी भर आया, गला फंस गया, शरीर में रोमांच हो आया, जोर से खांसने लगे। खोंचेवाले ने तेल की कुप्पी बढ़ाते हुए कहा- यह लीजिए, देख लीजिए, चले तो हैं आप उपवास करने पर प्राणों का इतना डर है। आपको क्या चिन्ता, प्राण भी निकल जायंगे, तो सरकार बाल-बच्चों की परवस्ती करेगी।


पंडित जी को क्रोध तो ऐसा आया कि इस पाजी को खरी-खरी सुनाऊं, लेकिन गले से आवाज न निकली। कुप्पी चुपके से ले ली और झूठ-मूठ इधर-उधर देखकर लौटा दी।


खोंचेवाला- आपको क्या पड़ी, जो चले सरकार का पच्छ करने ? कहीं कल दिन-भर पंचायत होगी, तो रात तक कुछ तय होगा। तब तक तो आपकी आंखों में तितलियां उड़ने लगेंगी।


यह कहकर वह चला गया और पंडितजी भी थोड़ी देर तक खांसने के बाद सो रहे।


दूसरे दिन सवेरे ही से व्यापारियों ने मिसकौट करनी शुरू की। उधर कांग्रेसवालों में भी हलचल मची। अमन-सभा के अधिकारियों ने भी कान खड़े किए। यह तो इन भोले-भाले बनियों को धमकाने की अच्छी तरकीब हाथ आयी। पंडित समाज ने अलग एक सभा की और उसमें यह निश्चय किया कि पंडित मोटेराम को राजनीतिक मामलों में पढ़ने का कोई अधिकार नहीं। हमारा राजनीति से क्या सम्बन्ध ? गरज सारा दिन इसी वाद-विवाद में कट गया और किसी ने पंडितजी की खबर न ली। लोग खुल्लमखुल्ला कहते थे कि पंडितजी ने एक हजार रुपये सरकार से लेकर यह अनुष्ठान किया है।


बेचारे पंडितजी ने रात तो लोट-पोटकर काटी, पर उठे तो शरीर मुरदा-सा जान पड़ता था। खड़े होते थे, तो आंखें तिलमिलाने लगती थीं, सिर में चक्कर आ जाता था। पेट में जैसे कोई बैठा हुआ कुरेद रहा हो। सड़क की तरफ आंखें लगी हुई थीं कि लोग मनाने तो नहीं आ रहे हैं। सन्ध्योपासना का समय इसी प्रतीक्षा में गया। इस समय पूजन के पश्चात् नित्य नाश्ता किया करते थे। आज अभी मुंह में पानी भी न गया था। न-जाने वह शुभ घड़ी कब आएगी ? फिर पंडिताइन पर बड़ा क्रोध आने लगा। आप तो रात को भर पेट खाकर सोयी होंगी, इस वक्त भी जलपान कर ही चुकी होंगी, पर इधर भूलकर भी न झांका कि मरे या जीते हैं। कुछ बात करने ही के बहाने से क्या थोड़ा- सा मोहनभोग बनाकर न ला सकती थीं? पर किसे इतनी चिन्ता है ? रुपये लेकर रख लिये, फिर जो कुछ मिलेगा, वह भी रख लेंगी। मुझे अच्छा उल्लू बनाया।


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किस्सा-कोताह पंडितजी ने दिन-भर इन्तजार किया; पर कोई मनाने वाला नजर न आया। लोगों के दिल में जो यह सन्देह पैदा हुआ था कि पंडित जी ने कुछ ले-देकर यह स्वांग रचा है, स्वार्थ के वशीभूत होकर यह पाखंड खड़ा किया है, वही उनको मनाने में बाधक होता था। 


रात के नौ बज गए थे। सेठ भोंदूमल ने, जो व्यापारी समाज के नेता थे, निश्चयात्मक भाव से कहा- मान लिया, पंडितजी ने स्वार्थवश ही यह अनुष्ठान किया है; पर इससे वह कष्ट तो कम नहीं हो सकता, जो अन्न-जल के बिना प्राणी मात्र को होता है। यह धर्म-विरुद्ध है कि एक ब्राह्मण हमारे ऊपर दाना-पानी त्याग दे और हम पेट भर-भर कर चैन की नींद सोएं। अगर उन्होंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, तो उसका दंड उन्हें भोगना पड़ेगा। हम क्यों अपने कर्त्तव्य से मुंह फेरें ?


कांग्रेस के मन्त्री ने दबी हुई आवाज से कहा- मुझे तो जो कुछ कहना था, वह मैं कह चुका। आप लोग समाज के अगुआ हैं, जो फैसला कीजिए, हमें मंजूर है। चलिए, मैं भी आपके साथ चलूंगा। धर्म का कुछ अंश मुझे भी मिल जायगा; पर एक विनती सुन लीजिए आप लोग पहले मुझे वहां जाने दीजिए। मैं एकान्त में उनसे दस मिनट बातें करना चाहता हूं। आप लोग फाटक पर खड़े रहिएगा। जब मैं वहां से लौट आऊं तो फिर जाइएगा। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ? प्रार्थना स्वीकृत हो गई।


मन्त्रीजी पुलिस विभाग में बहुत दिनों तक रह थे, मानव चरित्र की कमजोरियों को जानते थे। वह सीधे बाजार गये और 5 रु. की मिठाई ली। उसमें मात्रा से अधिक सुगन्ध डालने का प्रयत्न किया, चांदी के वरक लगवाए और एक दोने में लिये रूठे हुए ब्रह्मदेव की पूजा करने चले। एक झज्झर में ठंडा पानी लिया और उसमें केवड़े का जल मिलाया। दोनों ही चीजों से खुशबू की लपटें उड़ रही थीं। सुगन्ध में कितनी उत्तेजित शक्ति है, कौन नहीं जानता? इससे बिना भूख की भूख लग जाती है, भूखे आदमी की तो बात ही क्या ?


पंडितजी इस समय भूमि पर अचेत पड़े हुए थे। रात को कुछ नहीं मिला। दस छोटी-छोटी मिठाइयों का क्या जिक्र ! दोपहर को कुछ नहीं मिला। और इस वक्त भी भोजन की बेला टल गई थी। भूख में अब आशा की व्याकुलता नहीं, निराशा की शिथिलता थी। सारे अंग ढीले पड़ गए थे। यहां तक कि आंखें भी न खुलती थीं। उन्हें खोलने की बार-बार चेष्टा करते; पर वे आप ही आप बन्द हो जातीं। ओंठ सूख गए थे। जिन्दगी का कोई चिन्ह था, तो बस, उनका धीरे-धीरे कराहना । ऐसा संकट उनके ऊपर कभी न पड़ा था।


अजीर्ण की शिकायत तो उन्हें महीने में दो-चार बार हो जाती थी, जिसे वह हड़ आदि की फंकियों से शान्त कर लिया करते थे; पर अजीर्णावस्था में ऐसा कभी न हुआ था कि उन्होंने भोजन छोड़ दिया हो। नगर-निवासियों को, अमन-सभा को, सरकार को, ईश्वर को, कांग्रेस को और धर्मपत्नी को जी भरकर कोस चुके थे। अब इतनी शक्ति भी न रही थी कि स्वयं खड़े होकर बाजार जा सकें। निश्चय हो गया था कि आज रात को अवश्य प्राण-पखेरू उड़ जायेंगे। जीवन-सूत्र कोई रस्सी तो है ही नहीं कि चाहे जितने झटके दो, टूटने का नाम न ले !


मन्त्री जी ने पुकारा- शास्त्री जी !


मोटेराम ने पड़े-पड़ आंखें खोल दीं। उनमें ऐसी करुण वेदना भरी हुई थी, जैसे किसी बालक के हाथ से कौआ मिठाई छीन ले गया हो। 


मन्त्रीजी ने दोने की मिठाई सामने रख दी और झज्झर का पर कुल्हड़ औंधा दिया। इस काम से सुचित होकर बोले- यहां कब तक पड़े रहिएगा ?


सुगन्ध ने पंडितजी की इन्द्रियों पर संजीवनी का काम किया। पंडितजी उठ बैठे और बोले- देखो, कब तक निश्चय होता है। 


मन्त्री- यहां कुछ निश्चय-विश्चय न होगा। आज दिन भर पंचायत हुई थी, कुछ तय न हुआ। कल कहीं शाम को लाट साहब आएंगे। तब तक तो आपकी न जाने क्या दशा होगी! आपका चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है? 


मोटेराम-यहीं मरना बदा होगा, तो कौन टाल सकता है? इस दोने में कलाकन्द है क्या? 


मन्त्री- हां, तरह-तरह की मिठाइयां हैं। एक नातेदार के यहां बैना भेजने के लिए विशेष रीति से बनवायी हैं।


मोटेराम-जभी इनमें इतनी सुगन्ध है जरा दोना खोलिए तो ?


मन्त्री जी ने मुस्कराकर दोना खोल दिया और पंडितजी नेत्रों से मिठाइयां खाने लगे।अन्धा आंखें पाकर भी संसार को ऐसे तृष्णापूर्ण नेत्रों से न देखेगा। मुंह में पानी भर आया।मन्त्रीजी ने कहा- आपका व्रत न होता, तो दो-चार मिठाइयां आपको चखाता। 5 रु. सेर के दाम दिये हैं। 


मोटेराम-तब तो बहुत ही श्रेष्ठ होंगी। मैंने बहुत दिन हुए कलाकन्द नहीं खाया। 


मन्त्री- आपने भी तो बैठे बैठाए झंझट मोल ले लिया। प्राण ही न रहेंगे, तो धन किस काम आएगा ?


मोटेराम-क्या करूं, फंस गया। मैं इतनी मिठाइयों का जलपान कर जाता था! (हाथ से मिठाइयों को टटोलकर) भोला की दूकान की होंगी ?


मन्त्री - चखिए दो-चार ?


मोटेराम - क्या चखूं, धर्म संकट में पड़ा हूं। 


मन्त्री- अजी चखिए भी! इस समय जो आनन्द प्राप्त होगा, वह लाख रुपये में भी नहीं मिल सकता। कोई किसी से कहने जाता है क्या ?


मोटेराम- मुझे भय किसका है? मैं यहां दाना-पानी बिना मर रहा हूं, और किसी को परवा ही नहीं। तो फिर मुझे क्या डर? लाओ, इधर दोना बढ़ाओ। जाओ, सबसे कह देना, शास्त्रीजी ने व्रत तोड़ दिया। भाड़ में जाय बाजार और व्यापार ! यहां किसी की चिन्ता नहीं। जब धर्म नहीं रहा, तो मैंने ही धर्म का बीड़ा थोड़े ही उठाया है !


यह कहकर पंडितजी ने दोना अपनी तरफ खींच लिया और लगे बढ़-बढ़कर हाथ मारने। यहां तक कि पल-भर में आधा दोना समाप्त हो गया। सेठ लोग आकर फाटक पर खड़े थे। मन्त्री ने जाकर कहा-जरा चलकर तमाशा देखिए। आप लोगों को न बाजार खोलना पड़ेगा; न खुशामद करनी पड़ेगी। मैंने सारी समस्याएं हल कर दीं। यह कांग्रेस का प्रताप है।


चांदनी छिटकी हुई थी। लोगों ने आकर देखा, पंडितजी मिठाई ठिकाने लगाने में वैसे ही तन्मय हो रहे हैं, जैसे कोई महात्मा समाधि में मग्न हो ।


भोंदूमल ने कहा- पंडितजी के चरण छूता हूं। हम लोग तो आ ही रहे थे, आपने क्यों जल्दी की? ऐसी जुगुत बताते कि आपकी प्रतिज्ञा भी न टूटती और कार्य भी सिद्ध हो जाता।


मोटेराम - मेरा काम सिद्ध हो गया। यह अलौकिक आनन्द है, जो धन के ढेरों से नहीं प्राप्त हो सकता। अगर कुछ श्रद्धा हो, तो इसी दूकान की इतनी ही मिठाई और मंगवा दो।


(हम यह कहा भूल गये कि मंत्रीजी को मिठाई लेकर मैदान में आते समय पुलिस के सिपाही को 4 आने पैसे देने पड़े थे। यह नियम विरुद्ध था; लेकिन मंत्रीजी ने इस बात पर अड़ना उचित न समझा। -लेखक )


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