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दिल छू लेने वाली छोटी कहानी -जीवन की पाठशाला होते हैं बजुर्ग

Short Hindi Story: बा सा से जो सीखा, वह जीवन के व्यावहारिक पक्ष को तराश गया और बाई से मिला जीवन को सरलता से देखने का गुण।

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जीवन की पाठशाला होते हैं बजुर्ग

दिल छू लेने वाली छोटी कहानी: अगर भिंडी बीस रुपये किलो है, तो बता दो सौ ग्राम भिंडी कितने की आएगी ?' जब बासा (दादाजी) से मिलते, कुछ ऐसे ही सवालों का सामना करना होता।

'अच्छा, तेरह का पहाड़ा सुना' सुनते ही सही में सिट्टी- पिट्टी गुम हो जाती उस वक़्त । चूंकि अंग्रेजी में पढ़ते हुए केवल रटना ही विकल्प होता है, क्योंकि ग़ैर भाषा से अपनापन नहीं, तो सीख कैसी? इसीलिए ऐसे व्यावहारिक, रोजमर्रा के काम में आने वाले सबक़ स्कूलों में सीखना मुमकिन नहीं था। शायद यह समझ तो तब ही आई जब मम्मी थैला लेकर सब्जियां लेने भेज देतीं। रुपयों का हिसाब-किताब तब दिमाग़ समझने लगा। जब बा सा इस तरह के प्रश्नों की झड़ी लगा देते, तो रसोईघर में काम करती चाची आवाज लगाकर बुला लेतीं। सचमुच कितनी राहत की सांस आती थी तब !

बा सा का व्यक्तित्व भी उनके सिखाने के ढंग जितना ही प्रभावशाली था। लंबा कद, आंखों पर मोटा-सा चश्मा जिसमें उनकी बड़ी-बड़ी आंखें और बड़ी दिखने लगतीं, धोती-कुरता पहने बा सा जब हाथ में छड़ी लेकर चलते, तो उनके दबंग व्यक्तित्व से कोई भी प्रभावित हुए बिना नही रहता।

हम दादी को 'बाई' और दादा जी को 'बा सा' कहकर बुलाते। छोटे क़द की बाई जितने शांत स्वभाव की थीं, बा सा उतने ही रोबदार थे। जहां बा सा की क़द-काठी उनके पोते-पोती और दोहेते-दोहिती में दिखती है, वहीं बाई का शांत स्वभाव उनके सभी बच्चों में झलकता है। आज भी जब हर छोटी ख़ुशी में पापा के आंसू छलक जाते हैं और चाचा को हर स्थिति में भी सदा शांत ही देखते हैं तो स्वतः ही बाई की छवि याद आ जाती है।

आज भी जब घर चलाते हैं तो बा सा का यह कथन याद आ जाता है कि 'कपड़ा चाहे मोटा पहनो लेकिन भोजन सदा अच्छे से अच्छा ग्रहण करो।'

ऐसी ही एक बात अक्सर याद आ जाती है कि एक बार जब किसी रिश्तेदार ने बाई को अपना घर दिखाना चाहा तो बाई का जवाब था- 'घर में मिनख (मनुष्य) होने चाहिए, घर को क्या देखना।'

हमारे बड़े हमें वो सिखा जाते हैं जो हम किताबों में पढ़कर कभी नहीं सीख सकते। उनकी सिखाई गई बातें कई सालों के अनुभव का निचोड़ जो होती हैं।

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