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कहानी बडे साहब -Kahani Bade Sahab

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Hindi Short Story: सच्चा साथ पूरे जीवन पर असर डालता है। यहां तालमेल गड़बड़ा जाए, तो दुनिया ज़हर लगने लगती है। फिर कोई सच जान भी जाए, तो क्या कर सकता है ? 

कहानी बडे साहब  -Kahani Bade Sahab 

आलोक कुढ़ कर रह गया। कुछ भी तो हैं बड़े साहब ! जब देखो तब मुंह चढ़ा रहता है। चेहरे पर तनाव इस कदर रहेगा, मानो सारे जगत की झंझटें इन्हीं के सर हैं। मुस्कुराना तो कभी सीखा ही नहीं। स्टाफ में इसी कारण अक्सर मजाक में कहा जाता है, इनके जन्म के समय शायद 'मुस्कान ' को घर निकाला दे दिया गया था । 

आज तक उन्होंने किसी के काम की प्रशंसा नहीं की। कोई कितनी भी जल्दी व एफिशिएंसी से काम खत्म करके बतलाए, उनके भावशून्य चेहरे पर कभी संतोष या प्रशंसा की किरणें नहीं कौंधेंगी । बस ' हूं , हो गया ... , अब यह स्टेटमेंट बनाकर ले आओ ', अगला आदेश हो जाएगा । 

इसीलिए आज जब छोटे साहब ने कहा- ' छुट्टी के लिए भई अंदर केबिन में बात कर लो, मैं नहीं कर सकता ' तो वह अंदर ही अंदर कुढ़ गया।

यह बात नहीं कि वह उनके सामने कभी गया नहीं । लगभग हर रोज एक न एक बार पेशी होती थी । असल बात थी- वह ' जिस उद्देश्य ' से छुट्टी पर जा रहा था, नहीं चाहता था , बड़े साहब को पता लगे। जैसे किसी शुभ कार्य के प्रारंभ में किसी 'अपशगुनी' के दिखने पर उस कार्य की सुसमाप्ति पर संदेह होने लगता है । उसे लगा उनसे पूछकर इस कार्य के लिए गया तो कहीं उनके सूखे सपाट रसहीन व्यवहार की छाया भी उसके जीवन पर ना पड़ जाए! 

उसने छोटे साहब से पुनः अनुरोध किया, 'सिर्फ दो दिनों की बात है साहब, आप इधर ही कर दो ना?' 

'नहीं भई, ऑडिट पीरियड चल रहा है, ओवर टाईम में काम खत्म करना पड़ रहा है, फिर कैसे स्वीकृत कर लूं? ... ऐसा करो, अंदर बात कर लो, अरे, घबराते क्यों हो ? बोल दो साफ साफ ... ।' 

आलोक मन मसोस कर रह गया। मरता क्या न करता? दिल पक्का कर उनके सम्मुख पहुंचा।

'हूं, उन्होंने व्यस्त भाव से उसकी अर्जी पर सरसरी नजर डाली, ' अभी काहे की छुट्टी ले रहा है ऑडिट पीरियड में?' 'जी ... वो ... कुछ जरूरी गृहकार्य ...''वह तो तुमने एप्लीकेशन में लिख दिया है,' सम अर्जेंट डोमेस्टिक वर्क, क्या है तुम्हारा डोमेस्टिक वर्क?' 

'जी ... म ...।' वह गड़बड़ा गया। उनसे बात करने में वह यूं भी घबराता था, फिर कुछ शर्मीले स्वभाव की वजह से उसे संकोच भी हो रहा था। पिता की उम्र के बड़े साहब से कैसे कह दे, लड़की देखने जा रहा हूं! उसके मुंह से हठात् निकल गया 'जी वो ... मैं ... आपकी होने वाली बहू को देखने जाना है!' 

फाइल को पलट रहे उनके हाथ यक - ब - यक रुक गए। 'आपकी 'बहू' सुनते ही सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसने जुबान काट ली। अरे बाप रे, ये क्या कह बैठा?

'हूं !' उन्होंने पेन स्टैंड में खोंसा और पीठ रिवॉल्विंग कुर्सी पर टिका पैनी आंखों से उसे घूरने लगे, लड़की देखने जाना है? 

थूक निगल उसने धीरे से सिर हिलाया। वे चंद सेकेंड सोचते रहे, 'अच्छा बैठो।' उसने आश्चर्य से उनकी ओर देखा। उन्होंने पुनः बैठने का संकेत किया। आलोक कुछ समझ नहीं पाया यह क्या हो रहा है? मन ही मन पछताने लगा, व्यर्थ छुट्टी की अर्जी दी। इससे अच्छा बिना बोले चला जाता। आने के बाद 'सिक लीव' ले लेता। अब सुनो भाषण। 

'कैसी लड़की पसंद है तुझे?" 

'अंय ... !' वह आकाश से गिरा। बड़े साहब जिन्होंने काम के अलावा कभी कोई बात नहीं की, आज इतना नाजुक सवाल? किंकर्त्तव्यविमूढ़- सा ताकता रहा।

'शर्माता क्या है, बोल?' कहते हुए उनके चेहरे पर एक स्निग्ध कोमल मुस्कान उभरी। सच! जो कभी हंसते-मुस्कुराते नहीं, उनके चेहरे पर उभरती हुई मुस्कान भी कितनी भयानक लगती है! आलोक निश्चित नहीं कर पा रहा था, मुस्कान स्नेह की है या व्यंग की? बौड़म- से ताकता रहा। 

'खैर ! कोई बात नही !  वे मेज पर अंगुली से टक टक करने लगे,' लड़की देखने जा रहा है ... हमारी बह को? हू! " छत को घूरते हुए वे कहीं शून्य में खो गए। 'देखो बेटे, जिंदगी का यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण क्षण होता है, ऐसा क्षण जो हमारी भावी .. सारी भावी जिंदगी को संवार भी सकता है, बिगाड़ भी सकता है। कहते हुए हठात् उन्होंने गहरी सांस ली। 

'वास्तव में, आदमी की जिंदगी में ऐसे क्षण दो बार आते हैं- एक विषय का चुनाव और दूजा यह गलत विषय चुन लिया तो आदमी जीवन भर ग़लत जगह फिट हो जाता है ... , और गलत जीवनसाथी ... 'उनकी आवाज थोड़ी भर्रा गई, 'कोई भी निर्णय लेने के पूर्व अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना। जल्दबाजी से काम मत लेना। मन को जंचे, तभी हां कहना .., और सिर्फ चेहरे की सुंदरता पर मत रीझना, मन व व्यवहार की सुंदरता भी देखना, वो ही ... बस वो ही सच्ची-साथ निभाने वाली सुंदरता है। 

अच्छा जाओ बेटे, विश यू बेस्ट फॉर योर होल लाइफ ... 'हौले से मुस्कुराकर उन्होंने आंखें झपकाई और एकाएक ग़मगीन होकर अपनी नम हो गईं आंखें झुकाकर फाईल में खो गए। 

आलोक से छुपा ना रहा। उसने स्पष्ट देख लिया था अंतिम शब्द कहते-कहते साहब की आंखों की कोर नम हो आई थीं। उनका गला भी रुंध गया था। 'मन को जंचे ...' कहते समय उनके, स्वर में कितनी करुणा थी!' ... मन और व्यवहार की सुंदरता भी देखना ... 'हालात के हाथों तड़फ रहे किसी इंसान की ही पीड़ा नहीं थी उसमें?..तो क्या ...? ... रात आठ-नौ बजे तक कार्यालय में बिना काम फाइलों में खोए रहना, घर जाने के नाम पर चेहरे पर अजीब वितृष्णा के भाव छा जाना, लगभग हर रोज घर से आते समय चढ़ा मुंह और सारा दिन स्टाफ पर उतरता दावानल ...! 

क्या पृष्ठभूमि थी इन सबकी? 

क्या किसी नर्क की आग में नहीं जल रहे थे साहब? न जाने क्यों वे उसे एकदम निरीह मासूम लगने लगे। एक ऐसे इंसान, जो प्यार और मानसिक शांति की तलाश में प्यासे भटक रहे हैं। जिनका रोम-रोम अपनत्व को तरस रहा है। एक उसने हड़बड़ाहट में 'आपकी बहू ' क्या कह दिया, अनजाने स्थापित हो गए इसी स्नेह बंधन में बंध वे जानिसार हो गए और भावातिरेक में अपनी जिंदगी का दुःखता जाम दिखा बैठे ! ऐसे दुखियारे के दर्द को कौन समझ सकता था? अनजाने में मन के पट के उघड़ जाने के अलावा ?

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