राजयोग सप्तम अध्याय – ध्यान और समाधि
Seventh Chapter of Swami Vivekananda’s Raja Yoga in Hindi: Dhyan aur Samadhi
अब तक हम राजयोग के अन्तरंग साधनों को छोड़ शेष सभी अंगों के संक्षिप्त विवरण समाप्त कर चुके हैं । इन अन्तरंग साधनों का लक्ष्य एकाग्रता की प्राप्ति है । इस एकाग्रता - शक्ति को प्राप्त करना ही राजयोग का चरम लक्ष्य हैं । हम मानव के नाते , देखते हैं कि हमारा समस्त तर्कसंगत ज्ञान अहंबोध के अधीन है । मुझे इस मेज का बोध हो रहा है , तुम्हारे अस्तित्व का बोध हो रहा है ; और इस अहंबोध के कारण ही मैं जान पा रहा हूँ कि मेज यहाँ है और तुम यहाँ हो ! यह तो हुई एक ओर की बात । फिर एक दूसरी ओर यह भी देख रहा हूँ कि मेरी सत्ता कहने से जो बोध होता है , उसका अधिकांश में अनुभव नहीं कर सकता । शरीर के भीतर के सारे यन्त्र , मस्तिष्क के विभिन्न अंश- इन सब के प्रति हम सचेत नहीं हैं ।
जब हम भोजन करते हैं , तब वह ज्ञानपूर्वक करते हैं , परन्तु जब हम उसका सारभाग भीतर ग्रहण करते हैं , तब हम वह अज्ञातरीति से करते हैं । जब वह खून के रूप में परिणत होता है , तब भी वह हमारे बिना जाने ही होता है । और जब इस खून से शरीर के भिन्न भिन्न अंश गठित होते हैं , तो वह भी हमारी जानकारी के बिना ही होता है । किन्तु यह सारा काम हमारे द्वारा ही होता है । इस शरीर के भीतर कोई अन्य दस - बीस लोग तो बैठे नहीं हैं , जो यह काम कर देते हों । पर यह किस तरह हमें मालूम हुआ कि हमीं इनको कर रहे हैं , दूसरा कोई नहीं ? इस सम्बन्ध में अनायास ही यह कहा जा सकता है कि आहार करना ही हमारा काम है और खाना पचाने और खाद्य से शरीर को पुष्ट करने का काम तो हमारे लिए दूसरा कोई कर दे रहा है ।
पर यह हो नहीं सकता क्योंकि यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अभी जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , वे लगभग सभी साधना के बल से हमारे जाने साधित हो सकते हैं । ऐसा मालूम होता है कि हमारा हृदययन्त्र अपने आप ही चल रहा है , हममें से कोई उसको अपनी इच्छानुसार नहीं चला सकता , वह अपने ख्याल से आप ही चल रहा है ।
परन्तु इस हृदय के कार्य भी अभ्यास के बल से इस प्रकार इच्छाधीन किये जा सकते हैं कि वे इच्छा मात्र से शीघ्र या धीरे चलने लगेंगे , या लगभग बन्द हो जाएँगे । हमारे शरीर के प्रायः सभी अंश वश में लाये जा सकते हैं । इससे क्या ज्ञात होता है ? यही कि इस समय जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , उन्हें भी हमीं कर रहे हैं , पर हाँ , हम उन्हें अज्ञातरीति से कर रहे हैं , बस , इतना ही ।
अतएव हम देखते हैं कि मानव - मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है । पहली अवस्था को ( ज्ञान या चेतन भूमि ) कह सकते हैं । जिन कामों को करते समय साथ साथ , ' मैं कर रहा हूँ ' यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है , वे कार्य ( ज्ञान या चेतन भूमि ) से साधित हो रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है । दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं । जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं , जिसमें ‘ मैं ज्ञान नहीं रहता , उसे अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं ।
सप्तम अध्याय ध्यान और समाधि
हमारे कार्य - कलापों में से जिनमें ' अहं ' मिला रहता है , उन्हें ज्ञानयुक्त या चेतन क्रिया और जिनमें ' अहं ' का लगाव नहीं , उन्हें ज्ञानरहित या अचेतन क्रिया कहते हैं । निम्न जाति के प्राणियों में यह ज्ञानरहित क्रिया जन्मजात प्रवृत्ति ( instinct ) कहलाती है । उनकी अपेक्षा उच्चतर जीवों में और सब से उच्च जीव , मनुष्य में यह दूसरे प्रकार की क्रिया , जिसमें अहंबोध रहता है , अधिक दीख पड़ती है - इसी को ज्ञानयुक्त क्रिया कहते हैं ।
परन्तु इतने से ही सारी भूमियों का उल्लेख नहीं होता । मन इन दोनों से उच्च भूमि पर विचरण कर सकता है । मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में जा सकता है । जिस प्रकार अज्ञानभूमि से जो कार्य होता है , वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है , वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है । उसमें भी किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता । यह अहंबोध केवल बीच की अवस्था में रहता है । जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है , तब किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता , किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है ।
जब मन इस रेखा के ऊपर अर्थात् ज्ञानभूमि के अतीत प्रदेश में गमन करता है , तब उसे समाधि , अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि कहते हैं । अब हम यह किस तरह समझें कि जो मनुष्य समाधि - अवस्था में जाता है , वह ज्ञानभूमि के निम्न स्तर में नहीं चला जाता , बिलकुल हीनदशापत्र नहीं हो जाता , वरन् ज्ञानातीत भूमि में चला जाता है ? इन दोनों ही अवस्थाओं में तो अहंबोध नहीं रहता ! इसका उत्तर यह है कि कौन ज्ञानभूमि के निम्न देश में और कौन ऊर्ध्व देश में गया , इसका निर्णय फल देखने पर ही हो सकता है ।
जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है , तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है । तब वह अज्ञात भाव से ही शरीर की सारी क्रियाएँ , श्वास - प्रश्वास , यहाँ तक कि शरीरसंचालन - क्रिया भी करता रहता है ; उसके इन सब कामों में अहंबोध का कोई लगाव नहीं रहता ; तब वह अज्ञान से ढका रहता है । वह जब नींद से उठता है , तब वह सोने के पहले जैसा था , वैसा ही रहता है , उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । उसके सोने से पहले उसकी जो ज्ञानसमष्टि थी , नींद टूटने के बाद भी ठीक वही रहती है , उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं होती । उसे कोई प्रकाश नहीं मिलता । किन्तु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है , तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो , अज्ञानी रहा हो , तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है ।
इस भिन्नता का कारण क्या है ? एक अवस्था से , मनुष्य जैसा गया था , वैसा ही लौट आया , और दूसरी अवस्था से लौटकर मनुष्य ने ज्ञानालोक प्राप्त किया - वह एक महान् साधु , एक सिद्ध पुरुष के रूप में परिणत हो गया , उसका स्वभाव बिलकुल बदल गया , उसके जीवन ने बिलकुल दूसरा रूप धारण कर लिया । दोनों अवस्थाओं के ये दो विभिन्न फल हैं । अब बात यह है कि फल अलग अलग होने पर कारण भी अवश्य अलग अलग होगा । और चूँकि समाधि - अवस्था से लब्ध यह ज्ञानालोक , अज्ञानावस्था से लौटने के बाद की अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त होता है अथवा साधारण ज्ञानावस्था में युक्ति - विचार द्वारा जो ज्ञान उपलब्ध होता है , उन दोनों से अत्यन्त उच्चतर है , इसीलिए अवश्य वह ज्ञानातीत या अतिचेतन भूमि से आता है । इसीलिए समाधि को मैंने ज्ञानातीत भूमि के नाम से अभिहित किया है । -
संक्षेप में समाधि का तात्पर्य यही है । हमारे जीवन में इस समाधि की उपयोगिता कहाँ है ? समाधि की विशेष उपयोगिता है । विचार का क्षेत्र या जिस क्षेत्र में हमारा मन ज्ञानपूर्वक कार्य करता है , वह संकीर्ण और सीमित है । मनुष्य का युक्ति - तर्क एक छोटे से वृत्त में ही भ्रमण कर सकता है , वह कभी उसके में बाहर नहीं जा सकता । हम जितना ही उसके बाहर जाने का प्रयत्न करते हैं , उतना ही वह असम्भव सा जान पड़ता है । ऐसा होते हुए भी , मनुष्य जिसे अत्यन्त कीमती और सब से प्रिय समझता है , वह तो उस युक्ति या तर्क के राज्य के बाहर ही है ।
अविनाशी आत्मा है या नहीं , ईश्वर है या नहीं , इस जगत् के नियन्ता परम ' ज्ञानस्वरूप कोई ' हैं या नहीं - इन सब तत्त्वों का निर्णय करने में तर्क असमर्थ है । इन सब प्रश्नों का उत्तर तर्क कभी नहीं दे सकता । तर्क क्या कहता है ? वह कहता है " मैं अज्ञेयवादी हूँ । मैं किसी विषय में ' हाँ ' भी नहीं कह सकता और ' ना ' भी नहीं । ” फिर भी इन सब प्रश्नों का समाधान तो हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है । इन प्रश्नों के ठीक ठीक उत्तर बिना मानवजीवन उद्देश्यविहीन हो जाएगा । इस तर्करूप वृत्त के बाहर से प्राप्त हुए समाधान ही हमारे सारे नैतिक मत , सारे नैतिक भाव , यही नहीं , बल्कि मानवस्वभाव में जो कुछ सुन्दर तथा महान् है , उस सब की नींव है ।
अतएव यह सब से आवश्यक है कि हम इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पा लें । यदि मनुष्यजीवन केवल पाँच मिनट की चीज हो , और जगत् कुछ परमाणुओं का आकस्मिक मिलन मात्र हो , तो फिर दूसरे का उपकार मैं क्यों करूँ ? दया , न्यायपरता या सहानुभूति दुनिया में फिर क्यों रहे ? तब तो हम लोगों का यही एकमात्र कर्तव्य हो जाता है कि जिसकी जो इच्छा हो , वही करे , सब अपना अपना देखें । तब तो यही कहावत चरितार्थ होने लगती है यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् , ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । यदि हम लोगों के भविष्य अस्तित्व की आशा ही न रहे , तो मैं अपने भाई को क्यों प्यार करूँ , मैं उसका गला क्यों न काढूँ ? यदि जगत् के परे कोई सत्ता न हो , यदि मुक्ति नामक कोई चीज न हो , यदि कुछ कठोर , अभेद्य , जड़ नियम ही सर्वस्व हों , तब तो हमें इहलोक में ही सुखी होने की प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए ।
आजकल बहुत से लोगों के मतानुसार उपयोगितावाद ( utility ) ही नीति की नींव है , अर्थात् जिससे अधिक लोगों को अधिक परिमाण में सुख - स्वाच्छन्द्य मिले , वही नीति की नींव है । इन लोगों से मैं पूछता हूँ , हम इस नींव पर खड़े होकर नीति का पालन क्यों करें ? क्यों ? यदि अधिक मनुष्यों का अधिक मात्रा में अनिष्ट करने से मेरा मतलब सधता हो , तो मैं वैसा क्यों न करूँ ? उपयोगितावादी इस प्रश्न का क्या जवाब देंगे ? कौन अच्छा है और कौन बुरा , यह तुम कैसे जानोगे ? मैं अपनी सुख की वासना से परिचालित होकर उसकी तृप्ति करता हूँ ; ऐसा करना मेरा स्वभाव है ; मैं उससे अधिक कुछ नहीं जानता । मेरी ये वासनाएँ हैं , और मैं उनकी तृप्ति करूँगा ही , तुम्हें उसमें आपत्ति करने का क्या अधिकार है ? मानवजीवन के ये सब महान् सत्य , जैसे- नीति , आत्मा का अमरत्व , ईश्वर , प्रेम , सहानुभूति , साधुत्व और सर्वोपरि , सब से महान् सत्य निःस्वार्थता - ये सब भाव हमें कहाँ से मिले हैं ?
सारा नीतिशास्त्र , मनुष्य के सारे काम , मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र नींव पर आधारित हैं । मानवजीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र भाव के अन्दर डाले जा सकते हैं । मैं क्यों स्वार्थशून्य होऊँ ? निःस्वार्थी होने की आवश्यकता क्या ? और किस शक्ति के बल से मैं निःस्वार्थी होऊँ ? तुम कहते हो , " मैं युक्तिवादी हूँ , मैं उपयोगितावादी हूँ , ” लेकिन यदि तुम मुझे इस उपयोगिता की युक्ति न दिखला सको , तो मैं तुम्हें अयौक्तिक कहूँगा । मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ , कारण बताओ ; क्यों न मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ ? निःस्वार्थता कवित्व के हिसाब से अवश्य बहुत सुन्दर हो सकती है , किन्तु कवित्व तो युक्ति नहीं है । मुझे युक्ति दिखलाओ , मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ ? क्यों मैं भला बनूँ ? यदि कहो , " अमुक यह बात कहते हैं , इसलिए ऐसा करो " -तो यह कोई जवाब नहीं है , मैं ऐसे किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं मानता । मेरे निःस्वार्थी होने से मेरा कल्याण कहाँ ?
यदि ' कल्याण 'से अधिक परिमाण में सुख समझा जाए , तो स्वार्थी होने में ही मेरा कल्याण है । उपयोगितावादी इसका क्या उत्तर देंगे ? वे इसका कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते । इसका यथार्थ उत्तर यह है कि यह परिदृश्यमान जगत् अनन्त समुद्र में एक छोटा सा बुलबुला है - अनन्त शृंखला की एक छोटी सी कड़ी है । जिन्होंने जगत् में निःस्वार्थता का प्रचार किया था और मानवजाति को उसकी शिक्षा दी थी , उन्होंने यह तत्त्व कहाँ से पाया ? हम जानते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्तियों द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता । जन्मजात प्रवृत्तियों से युक्त पशु तो इसे नहीं जानते । विचार बुद्धि से भी यह नहीं मिल सकता - उससे इन सब तत्त्वों का कुछ भी नहीं जाना जाता । तो फिर वे सब तत्त्व उन्होंने कहाँ से पाये ?
इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है , संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं । उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया । किसी ने कहा , “ एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा , ' हे मानव , सुनो , मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ , ग्रहण करो । ” दूसरे ने कहा , “ तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है । ” तीसरे ने कहा , “ मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा , उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया । ”
इसके आगे वे और कुछ न कह सके । इस तरह विभिन्न उपायों से तत्त्वलाभ की बात कहने पर भी उन सभी का इस विषय में यही मत है कि उन्होंने यह ज्ञान युक्ति - तर्क से नहीं पाया , वरन् उसके अतीत प्रदेश से ही उसे पाया है । इसके बारे में योगशास्त्र का मत क्या है ? उसका मत यह है कि वे जो कहते हैं कि युक्ति - तर्क के अतीत प्रदेश से उन्होंने उस ज्ञान को पाया है , यह सही है ; किन्तु उनके अपने अन्तर से ही वह ज्ञान उनके पास आया है ।
योगी कहते हैं , इस मन की ही ऐसी एक उच्च अवस्था है , जो युक्ति तर्क के परे है , जो अतिचेतन है । उस उच्चावस्था में पहुँचने पर मनुष्य तर्क के अगम्य ज्ञान को प्राप्त कर लेता है , और ऐसे मनुष्य को ही समस्त विषय - ज्ञान के अतीत पारमार्थिक ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है । साधारण मानवी स्वभाव के परे , समस्त युक्ति तर्क के परे की यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है , जो उसका विज्ञान नहीं जानता । वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है । और जब इस प्रकार अचानक अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है , तो वह साधारणतः सोचता है कि वह ज्ञान कहीं बाहर से आया है ।
इसी से यह स्पष्ट है कि यह पारमार्थिक ज्ञान सारे देशों में वस्तुतः एक होने पर भी , किसी देश में वह देवदूत से , किसी देश में देवविशेष से , अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान् से प्राप्त हुआ सुना जाता है । इसका तात्पर्य क्या है ? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है , किन्तु जिन्होंने उसे पाया है , उन्होंने अपनी अपनी शिक्षा और विश्वास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला । असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़े थे ।
योगी कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी खतरे की आशंका रहती है । अनेक स्थलों में तो मस्तिष्क के बिलकुल नष्ट . हो जाने की सम्भावना रहती है । और भी देखोगे , जिन सब मनुष्यों ने अचानक इस अतीन्द्रिय ज्ञान को पाया है , पर उसके वैज्ञानिक तत्त्व को नहीं समझा , वे कितने भी बड़े क्यों न हों , सच पूछा जाए , तो उन्होंने अँधेरे में टटोला है , और उनके उस ज्ञान के साथ कुछ न कुछ विचित्र अन्धविश्वास मिला हुआ है ही । उन्होंने अपने आपको भ्रान्तियों के लिए खोल रखा था । मुहम्मद ने घोषणा की कि एक दिन देवदूत गैब्रिल पर्वत की गुफा में उनके पास आया और उन्हें स्वर्गीय अश्व हैरक पर बिठा स्वर्गराज्य के दर्शन को ले गया । किन्तु , यह सब होते हुए भी , मुहम्मद ने कई आश्चर्यजनक सत्यों का उद्घाटन किया ।
यदि तुम कुरान का अध्ययन करो , तो तुम पाओगे कि उसमें आश्चर्यजनक सत्यों के साथ ही कुछ अन्धविश्वास भी मिले - जुले हैं । इसकी व्याख्या तुम कैसे करोगे ? वे अवश्य ही दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे , किन्तु यह अन्तःप्रेरणा उन्हें अनजान में ही अचानक मिल गयी थी । वे कोई सिद्ध योगी न थे । अतः , अपने क्रिया - कलापों को न समझ ने सके । मुहम्मद ने संसार का क्या उपकार किया और उनके शिष्यों की धर्मान्धता ने संसार की कितनी क्षति की - जरा इस पर विचार करो । उनकी कुछ शिक्षाओं पर गलत जोर देने के कारण लाखों की हत्याएँ हुईं , लाखों माताओं ने अपनी सन्तानें खोयीं , लाखों मातृपितृविहीन बने और कितने ही देशों का सर्वनाश ही हो गया- इन्हें जरा सोचो तो ।
जो हो , हम मुहम्मद तथा अन्य कई महापुरुषों के जीवनचरित्र का अध्ययन करने पर देखते हैं कि अचानक इन्द्रियातीत राज्य में जा पड़ने से उपर्युक्त प्रकार के खतरे की आशंका रहती है । किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे सभी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे । जब कभी कोई महापुरुष केवल भावुकता के बल से इस अतीन्द्रिय अवस्था में जा पड़े हैं , तो वे उस अवस्था से कुछ सत्य ही नहीं लाये , पर साथ ही अन्धविश्वास , धर्मान्धता , ये सब भी लेते आये । उनकी शिक्षा में जो उत्कृष्ट अंश है , उससे जगत् का जैसा उपकार हुआ है , उन सब धर्मान्धता और अन्धविश्वासों से वैसे ही क्षति भी हुई है ।
मानवजीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण असामंजस्यपूर्ण है । इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें युक्ति - तर्क के अतीत जाना पड़ेगा । पर वह धीरे धीरे करना होगा , नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा , और सारे अन्धविश्वास को भी हमें छोड़ देना होगा । अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं , इस अतिचेतन अवस्था के अध्ययन के लिए ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा । युक्ति तर्क को ही अपनी नींव बनाना होगा । युक्ति - तर्क हमें जितनी दूर ले जा सकता है , हम उतनी दूर जाएँगे और जब युक्ति - तर्क नहीं चलेगा , तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगा ।
अतः यदि कोई अपने को दिव्य प्रेरणा से प्रेरित कहकर दावा करे , फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे , तो उसकी बात मत सुनना । क्यों ? इसलिए कि जिन तीन भूमियों की बात कही गयी है , जैसे - जन्मजात - प्रवृत्ति , चेतन या तर्कजात ज्ञान और अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि - ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं , वरन् उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है । जन्मजात प्रवृत्ति चेतन या तर्कजात ज्ञान में और तर्कजात ज्ञान अतिचेतन या जगदतीत ज्ञान में परिणत होता है ।
अतः इन अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं की विरोधी नहीं है । यथार्थ दिव्य प्रेरणा , तर्कजात ज्ञान की अपूर्णता को पूर्ण मात्र करती है । पूर्वकालीन महापुरुषों ने जैसा कहा है , " हम विनाश करने नहीं आये , वरन् पूर्ण करने आये हैं " , इसी प्रकार दिव्य प्रेरणा भी तर्कजात ज्ञान का पूरक है और उसके साथ उसका पूर्ण समन्वय है ।
ठीक वैज्ञानिक उपाय से उपर्युक्त अतिचेतन या समाधि अवस्था प्राप्तः करने के लिए ही पूर्वकथित सारे योगांग उपदिष्ट हुए हैं । यह भी समझ लेना विशेष आवश्यक है कि इस दिव्य प्रेरणा को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन पैगम्बरों के समान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है । वे पैगम्बर कोई अद्वितीय नहीं थे , वे हमारे तुम्हारे समान ही मनुष्य थे । वे अत्यन्त उच्च कोटि के योगी थे । उन्होंने पूर्वोक्त अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर ली थी , और प्रयत्न करने पर तुम और हम भी उसकी प्राप्ति कर ले सकते हैं । वे कोई विशेष प्रकार के अद्भुत मनुष्य नहीं हैं । यदि एक मनुष्य ने उस अवस्था की प्राप्ति की है , तो इसी से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त करना सम्भव है ।
यह केवल सम्भव ही नहीं , वरन् समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे । इस अवस्था को प्राप्त करना ही धर्म है । केवल प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा यथार्थ शिक्षा प्राप्त होती है । हम लोग भले ही सारे जीवन भर तर्क - विचार करते रहें , पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझ सकेंगे । कुछ पुस्तकें पढ़ाकर तुम किसी मनुष्य से शल्यचिकित्सक बनने की आशा नहीं कर सकते । तुम केवल एक नक्शा दिखाकर देश देखने का मेरा कौतूहल पूरा नहीं कर सकते । स्वयं वहाँ जाकर उस देश को प्रत्यक्ष देखने पर ही मेरा कौतूहल पूरा होगा ।
नक्शा केवल इतना कर सकता है कि वह देश के बारे में और भी अधिक अच्छी तरह से जानने की इच्छा उत्पन्न कर देगा । बस , इसके अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं । सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानवमन अवनति की ओर जाता है ।यह कहने की अपेक्षा और घोर ईशनिन्दा क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस ग्रन्थ या उस शास्त्र में आबद्ध है ? मनुष्य इधर तो भगवान् को अनन्त कहता है , और उधर एक छोटे से ग्रन्थ में उन्हें आबद्ध कर रखना चाहता है । क्या गर्व ग्रन्थ पर विश्वास नहीं किया , इसलिए लाखों आदमी मार डाले गये !
एक ही ग्रन्थ में सारा ईश्वरीय ज्ञान निबद्ध है , इस पर विश्वास न करने से सहस्रों लोग मौत के घाट उतार दिये गये । भले ही आज उस हत्या आदि का समय नहीं रहा , पर फिर भी अभी तक जगत् इस ग्रन्थनिष्ठा में प्रबल रूप से आबद्ध है !
ठीक वैज्ञानिक उपाय से अतिचेतन अवस्था को प्राप्त करने के लिए , मैं तुम्हें राजयोग के जो विविध साधन बतला रहा हूँ , उनके माध्यम से तुम्हें जाना पड़ेगा । प्रत्याहार और धारणा के बाद अब ध्यान के बारे में चर्चा करूँगा ।
जब मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में कुछ समय तक स्थिर रखने के निमित्त प्रशिक्षित किया जाता है , तब उसको उस दिशा में अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होती है । इस अवस्था का नाम है । ध्यान । जब ध्यान - शक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर एकाग्र हो जाता है , तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं । धारणा , ध्यान और समाधि , इन तीनों को एक साथ मिलाकर संयम कहते हैं । अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है , फिर उस एकाग्रतां की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है , और उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यन्तरिक भाग पर , जिसका , ध्येय - वस्तु केवल कार्य है , अपने आपको लगाए रख सकता है , तो सभी कुछ ऐसे शक्तिसम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है ।
जीव की जितने प्रकार की अवस्थाएँ हैं , उनमें यह ध्यानावस्था ही सर्वोच्च है । जब तक वासना रहती है , तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता । केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से , साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है , तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है । अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं , मनुष्य बुद्धि में , और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में जो ऐसी ध्यानावस्था को प्राप्त हो चुके हैं , उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से प्रतीयमान होता है । जिसमें वासना नहीं हैं , जो सर्व विषयों में निर्लिप्त है , उसके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन एक महान् सौन्दर्य और उदात्त भाव की छबि मात्र हैं ।
इन तत्त्वों को ध्यान में जान लेना आवश्यक है । मान लो , मैंने एक शब्द सुना । पहले बाहर से एक कम्पन आया , उसके बाद स्नायविक गति उस कम्पन को मन के पास ले गयी , फिर मन से एक प्रतिक्रिया हुई और उसके साथ ही साथ मुझे बाह्य वस्तु का ज्ञान हुआ । यह बाह्य वस्तु ही आकाश - कम्पन से लेकर मानसिक प्रतिक्रिया तक सब भिन्न भिन्न परिवर्तनों का कारण है ।
योगशास्त्र में इन तीनों को क्रमशः शब्द , अर्थ और ज्ञान कहते हैं । भौतिक विज्ञान और शरीरशास्त्र की भाषा में उन्हें आकाश - कम्पन , स्नायु और मस्तिष्क में गति तथा मानसिक प्रतिक्रिया कहते हैं । ये तीनों प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण अलग होने पर भी इस समय इस तरह मिली हुई हैं कि उनका भेद समझा नहीं जाता । हम यथार्थ में अभी उन तीनों में से किसी का भी अनुभव नहीं कर सकते ; अभी तो उनके सम्मिलन के फलस्वरूप केवल बाह्य वस्तु का अनुभव करते हैं । प्रत्येक अनुभवक्रिया में ये तीन व्यापार होते हैं । हम भला उन्हें अलग क्यों न कर सकेंगे ?
प्रथमोक्त योगांगों के अभ्यास से मन जब दृढ़ और संयत हो जाता है । तथा सूक्ष्मतर अनुभव की शक्ति प्राप्त करता है , तब उसे ध्यान में लगाना चाहिए । पहले - पहल स्थूल वस्तु को लेकर ध्यान करना चाहिए । फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा , और अन्त में हम विषयशून्य अर्थात् निर्विकल्प ध्यान सफल हो जाएँगे । मन को पहले अनुभूति के बाह्य कारण अर्थात् विषय का , फिर स्नायुओं में होनेवाली गति का और उसके बाद उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं का अनुभव करने के लिए नियुक्त करना होगा ।
जब मन अनुभूति के बाह्य उपकरणों अर्थात् विषयों को पृथक् रूप से जान सकेगा , तब उसमें समस्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थों , सारे सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म रूपों को जानने की शक्ति आ जाएगी । जब वह भीतर होनेवाली गतियों को दूसरे सभी विषयों से अलग करके , उनके अपने स्वरूप में , जानने में समर्थ होगा , तब वह सारी चित्तवृत्तियों पर उनके भौतिक शक्ति के रूप में परिणत होने से पूर्व ही अधिकार चला सकेगा , फिर वे चित्तवृत्तियाँ चाहे स्वयं अपनी हों , चाहे दूसरों की । और जब योगी केवल मानसिक प्रतिक्रिया का उसके अपने स्वरूप में अनुभव करने में समर्थ होंगे , तब वे सर्व पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे , क्योंकि इन्द्रियगोचर प्रत्येक वस्तु , यहाँ तक कि प्रत्येक विचार भी इस मानसिक प्रतिक्रिया का ही फल है । ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर योगी अपने मन की मानो नींव तक का अनुभव कर लेते हैं , और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है ।
योगियों के पास तब नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ ( सिद्धियाँ ) आने लगती हैं , पर यदि वे इन सब शक्तियों को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठें , तो उनकी भविष्य की उन्नति का रास्ता रुक जाता है । भोग के पीछे दौड़ने से इतना अनर्थ होता है ! किन्तु यदि वे इन सब अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें , तो वे मनरूप समुद्र में उठनेवाले वृत्तिप्रवाहों को पूर्णतया रोकने में समर्थ हो सकेंगे । और यही योग का चरम लक्ष्य है । तभी , मन के नाना प्रकार के विक्षेप एवं नाना प्रकार की दैहिक गतियों से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी । तब योगी ज्ञानघन , अविनाशी और सर्वव्यापी रूप से अपने स्वरूप की उपलब्धि करेंगे , और जान लेंगे कि वे अनादि काल से ऐसे ही हैं ।
इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का , यही नहीं , प्रत्येक प्राणी का अधिकार है । सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी , कभी न कभी , इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे , और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी , तभी और सिर्फ तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है । इससे पहले हम उसकी ओर जाने के लिए केवल संघर्ष करते हैं । जो धर्म नहीं मानता , उसमें और हममें अभी कोई विशेष अन्तर नहीं , क्योंकि हमें आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ । इस आत्मसाक्षात्कार तक हमें पहुँचाने के बिना एकाग्रता का और क्या शुभ उद्देश्य है ?
इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गम्भीर रूप से विचार किया गया है , उसे विशेष रूप से नियमित , श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में सम्बद्ध किया गया है । यदि साधना ठीक ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाए , तो वह अवश्य हमें अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचा देगी । और तब सारे दुःख - कष्टों का अन्त हो जाएगा , कर्म का बीज दग्ध हो जाएगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जाएगी ।