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व्यावहारिक जीवन में वेदान्त स्वामी विवेकानन्द द्वितीय व्याख्यान | Swami Vivekanand Vedanta Chapter-2

व्यावहारिक जीवन में Vedanta में स्वामी विवेकानन्दजी द्वारा लन्दन में व्यावहारिक वेदान्त पर दिये गये चार भाषणों का संग्रह है। साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि वेदान्त केवल सिद्धान्तों का ही समुच्चय है और दैनिक कर्मजीवन के पहलुओं के साथ उसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है- वह केवल बुद्धिवादियों के मस्तिष्क की चहारदीवारी तक ही सीमित है, अतः व्यावहारिक जीवन में इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है। 

परन्तु इन भाषणों द्वारा स्वामीजी ने स्पष्ट दर्शा दिया है कि किस प्रकार वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक है तथा वह मनुष्य को किस प्रकार अपने सर्वागीण जीवन गठन में सहायता प्रदान करता है। इन भाषणों में स्वामीजी ने वेदान्त के प्रमुख सिद्धान्तों की आलोचना करते हुये उनको दैनिक जीवन में व्यवहृत करने का मार्ग स्पष्टरूपेण निर्दिष्ट कर दिया  है. 
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व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- द्वितीय व्याख्यान

( १२ नवम्बर, १८६६ ई ० को लन्दन में दिया हुआ भाषण ) 

Vedanta Swami Vivekanand: मैं छान्दोग्य उपनिषद् से एक बालक को किस प्रकार ज्ञान प्राप्त हुआ इस सम्बन्ध में एक कहानी सुनाता हूँ। यद्यपि यह कहानी प्राचीन शैली की है फिर भी इसमें एक सार तत्त्व निहित है। एक छोटे बालक ने अपनी माता से कहा, "माँ, में वेद शिक्षा पाने के लिए जाना चाहता हूँ, मेरे पिता का नाम और मेरा गोत्र क्या है बताओ।" 

उसकी माँ विवाहिता स्त्री नहीं थी और भारतवर्ष में अविवाहित स्त्री की सन्तान समाज में नगण्य सी मानी जाती है किसी कार्य में उसका अधिकार नहीं होता, वेद पाठ करना तो दूर रहा। अतएव उसकी माँ ने कहा, "मैंने यौवन में अनेक व्यक्तियों की सेवा की है, उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ, अतएव में तुम्हारे पिता का नाम एवं तुम्हारा गोत्र क्या है, यह नहीं जानती; इतना ही जानती हूँ कि मेरा नाम जबाला है।" बालक एक ऋषि के पास गया और उसने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे ब्रह्मचारी शिष्य के रूप में ग्रहण करें। तब उन्होंने उससे पूछा, "तुम्हारे पिता का नाम और तुम्हारा गोत्र क्या है?" बालक ने जो उसकी माँ ने कहा था, वही दुहराया। 

यह सुनकर ऋषि ने तुरन्त ही कहा, "वत्स, तुमने सच भाषण किया है, तुम धर्मपथ से विचलित नहीं हुए यही सत्यवादिता ब्राह्मण का लक्षण है, इसीलिए मैंने तुम्हें ब्राह्मण मान लिया- मैं तुम्हें शिष्य बनाऊँगा।" यह कहकर वे उसे अपने निकट रखकर शिक्षा देने लगे। बालक का नाम था सत्यकाम।

प्राचीन शिक्षा प्रणाली के अनुसार सत्यकाम की शिक्षा होने लगी। गुरु ने सत्यकाम को कई सौ गायें देकर कहा, "ये लेकर तुम वन में चले जाओ, जब कुल गायें एक हजार हो जायें तब लौटकर चले आना।" उसने आज्ञा पालन की और वह गायें लेकर वन में चला गया। कई साल बाद इस झुण्ड में से एक प्रधान वृषभ ने सत्यकाम से कहा, "हम लोग अब कुल एक हजार हो गये हैं, हमें तुम अपने गुरु के पास ले चलो। मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय कुछ शिक्षा दूंगा।" सत्यकाम ने कहा, “कहिये प्रभु" वृषभ ने कहा, "उत्तर दिशा ब्रह्म का एक अंश है; उसी प्रकार पूर्व दिशा, दक्षिण दिशा, पश्चिम दिशा भी उसके एक एक अंश हैं। चारों दिशाएँ ब्रह्म के चार अंश हैं।" इतना कहकर उन्होंने कहा, “अब अग्नि तुम्हें और कुछ शिक्षा देंगे।" उस समय अग्नि ब्रह्म के एक विशिष्ट प्रतीक रूप से पूजे जाते थे। प्रत्येक ब्रह्मचारी को अग्नि चयन करके उसमें आहुति देनी पड़ती थी।

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सत्यकाम स्नानादि करके अग्नि में होम कर उनके निकट बैठ गये, इसी समय अग्नि से एक वाणी सुनायी पड़ी- "सत्यकाम। "सत्यकाम ने कहा, "प्रभो, आज्ञा!" तुम लोगों को शायद याद होगा कि बाइबिल की प्राचीन संहिता में भी इसी प्रकार की एक कथा है, सैमुएल ने ऐसी ही एक अद्भुत वाणी सुनी थी। जो हो, अग्नि ने कहा, “मैं तुम्हें ब्रह्म के सम्बन्ध में कुछ शिक्षा दूंगा। यह पृथ्वी ब्रह्म का एक अंश है, अन्तरिक्ष एक अंश है, स्वर्ग एक अंश है, समुद्र एक अंश है।" फिर अग्नि ने कहा, "अब एक हंस तुम्हें कुछ शिक्षा देगा।” निदान एक हंस ने एक दिन आकर सत्यकाम से कहा," मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में कुछ शिक्षा दूंगा। हे सत्यकाम, यह अग्नि जिसकी तुम उपासना करते हो, ब्रह्म का एक अंश है, सूर्य एक अंश है, चन्द्र एक अंश है, विद्युत् भी एक अंश है। फिर हंस ने कहा, "अब मद्गु नामक एक पक्षी भी तुम्हे कुछ शिक्षा देगा।" 

निदान एक दिन यह पक्षी आकर सत्यकाम से बोला, "में तुम्हे ब्रह्म के सम्बन्ध में कछ शिक्षा दूंगा। 'प्राण' उसका एक अंश है, चक्षु एक अंश है, श्रवण एक अंश एवं मन एक अंश है।" तदनन्तर बालक अपने गुरु के पास पहुँचा, गुरु ने उसे दूर से देखकर कहा, “वत्स, तुम्हारा मुख ब्रह्मवेत्ता के समान प्रकाशित हुआ देख रहा हूँ।" बालक ने गुरु से ब्रह्म के सम्बन्ध में और भी कुछ उपदेश देने के लिए कहा। वे बोले, "तुम ब्रह्म के सम्बन्ध में सब कुछ पहले ही जान चुके हो।” 

यहाँ पर मान लीजिये हम इन सब रूपकों को थोड़ी देर के लिए हटा दें कि वृषभ ने क्या सिखाया, अग्नि ने क्या सिखाया तथा अन्य सबों ने क्या सिखाया और केवल केन्द्रीय तत्त्व की ओर ध्यान दें तो प्रतीत होगा कि विचार की गति किस ओर जा रही है। हम इन सब बातों से इस तत्त्व का आभास पाते हैं कि यह सब वाणी हमारे अन्दर ही है. हम लोग और अधिक अध्ययन करके समझेंगे कि अन्त में यही तत्त्व पाया जाता है कि यह वाणी वास्तव में हम लोगों के हृदय में से ही उठी है। शिष्य निरन्तर सत्य के सम्बन्ध में उपदेश पा रहा है, किन्तु वह जो समझ रहा है कि ये सब शिक्षाएं बाह्य जगत् से प्राप्त हो रही हैं, यह सत्य नहीं है। और भी एक तत्त्व इसी से पाया जाता है, और वह है कर्मण्य जीवन में ब्रह्मप्राप्ति ब्रह्म का साक्षात्कार। 

व्यावहारिक जीवन में धर्म से क्या सत्य पाया जा सकता है, यही सर्वदा जगत् में अन्वेषित हो रहा है; और इन सब कथाओं में हम यह भी देख पाते हैं कि दिन प्रतिदिन किस प्रकार यह सत्य दैनिक जीवन में घटता जा रहा है।शिष्यगणों को जिन समस्त वस्तुओं के संसर्ग में आना पड़ता है, वे उन्हीं से ब्रह्मोपलब्धि करते हैं। अग्नि, जिसमें वे प्रतिदिन होम करते हैं, उसी में वे ब्रह्म साक्षात्कार कर रहे हैं। इसी प्रकार परिदृश्यमान पृथ्वी को वे ब्रह्म के एक अंश रूप में अनुभव कर रहे हैं इत्यादि इत्यादि। 

इसके बाद एक कहानी सत्यकाम के शिष्य के सम्बन्ध में है। यह शिष्य भी सत्य काम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके पास कुछ दिन रहा था। सत्यकाम कार्यवश कहीं बाहर गये। इससे शिष्य को बहुत कष्ट हुआ। जब गुरु पत्नी ने उसके समीप आकर पूछा, 'वत्स, तुम खाते क्यों नहीं?' तब बालक ने कहा, 'मेरा मन कुछ ठीक नहीं है, इसीलिए कुछ खाना नहीं चाहता।' इसी समय वह जिस अग्नि में हवन कर रहा था उसमें से एक आवाज आयी,'प्राण ब्रह्म है, सुख ब्रह्म है, आकाश ब्रह्म है, तुम ब्रह्म को जानो।' तब उसने पूछा, 'प्राण ब्रह्म है, यह मैं जानता हूँ किन्तु वे आकाश और सुख-स्वरूप हैं, यह मैं नहीं जानता।' तब अग्नि ने फिर कहा, 'यह पृथ्वी, यह अन्न, यह सूर्य जिसकी तुम उपासना करते हो, जो इन सब में बसते हैं, वे ही तम सबों के अन्दर भी हैं। जो यह जानते हैं। और इस प्रकार की उपासना करते हैं उनके सब पाप नष्ट हो जाते है, वे दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं और सुखी होते हैं। जो समस्त दिशाओं में वास करते हैं, मैं भी वही हूँ। 

जो इस प्राण में हैं, इस आकाश में हैं, स्वर्गसमूह और विद्युत् में बसते है, मैं भी वही है।' यहाँ भी हम धर्म के साक्षात्कार की कथा पाते हैं। जिसकी वे अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदि के रूप में उपासना करते थे, जिन सब वस्तुओं के साथ वे परिस्थित थे, उनकी होने लगी, उन्हीं का एक उच्चतर अर्थ बताया जाने लगा और यही वास्तविक वेदान्त का साधनकाण्ड है। वेदान्त जगत् को उड़ा नहीं देता किन्तु उसकी व्याख्या करता है। वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता उसकी व्याख्या करता है। वह 'अहँत्व' को मिटाने का उपदेश नहीं करता किन्तु वास्तविक 'अहंत्व' क्या है यह समझा देता है। वह यह नहीं कहता कि जगत् वृथा है अथवा उसका कोई अस्तित्व नहीं है, किन्तु बतलाता है कि जगत् क्या है यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके। उस वाणी ने सत्यकाम अथवा उनके शिष्य से यह नहीं कहा था कि सूर्य, चन्द्र, विद्युत अथवा और कुछ, जिसकी व उपासना करते थे, वह एकदम भूल है; किन्तु यही कहा कि जो चैतन्य सूर्य, चन्द्र, विद्युत, अग्नि और पृथ्वी के भीतर है, वही उनके अन्दर भी है।

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अतएव उनकी दृष्टि में सब ने एक नवीन रूप धारण कर लिया। जो अग्नि पहले केवल हवन करने की जड़ अग्नि मात्र थी, उसने एक नया रूप धारण कर लिया और वह ईश्वररूप में प्रतीत हुई। पृथ्वी ने और एक नया रूप धारण कर लिया, प्राण ने और एक रूप धारण कर लिया, सूर्य, चन्द्र, तारा, विद्युत् सभी ने एक नया रूप धारण कर लिया, सब ब्रह्मभावापन्न हो गये और उनका वास्तविक स्वरूप तब जान पड़ा। हम लोगों को यह विशेष रूप से जानना आवश्यक है कि वेदान्त का उद्देश्य ही इन सब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन करना है, उनका जो रूप आपाततः प्रतीत होता है, वह न देखकर उनको उनके प्रकृत स्वरूप में जानना है। 

उसके बाद और भी एक प्रस्ताव है- वह कुछ विशेष प्रकार का है। 'जो आँखों में प्रकाशित हो रहे हैं वे ब्रह्म हैं; वे रमणीय और ज्योति हैं। वे सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश दे रहे हैं। 'यहाँ भाष्यकार कहते हैं, पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है, वह वास्तव में सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है। वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है। 

तुम लोगों से अब मैं जन्म मृत्यु आदि के सम्बन्ध में इन सब प्राचीन उपनिषदों की कुछ अद्भुत कथाएँ कहूँगा। शायद ये तुम्हें अच्छी लगें। श्वेतकेतु पांचालराज के पास गया। राजा ने उससे ये ही प्रश्न पूछे, 'क्या तुम यह जानते हो मृत्यु होने के पश्चात् सब मनुष्य कहाँ जाते हैं? क्या जानते हो कि वे किस प्रकार फिर लौट आते हैं? क्या जानते हो कि पृथ्वी एकदम परिपूर्ण अथवा शून्य ही क्यों नहीं हो जाती? 'बालक ने कहा, 'नहीं, मैं यह सब नहीं जानता।' उसने अपने पिता से जाकर ये ही सब प्रश्न पूछे। पिताने कहा, 'इन सब प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर दो मुझे भी मालूम नहीं। ' तब वे दोनों राजा के पास लौट गये। राजा ने कहा, 'यह ज्ञान पहले ब्राह्मणों को ज्ञात नहीं था, केवल राजागण ही इसे जानते थे, और इसी ज्ञान के बल पर राजागण पृथ्वी पर शासन करते है।'

तब उन दोनों ने राजा की कुछ सेवा की, अन्त में राजा उन लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रस्तुत हुए। उन्होंने कहा, 'हे गौतम, तुम जिस अग्नि की उपासना करते हो, वह वास्तव में अत्यन्त निम्न स्तर का पदार्थ है। यह पृथ्वी ही वह अग्निस्वरूप है। संवत्सर उसके काष्ठस्वरूप हैं, रात्रि उसकी धूम्रस्वरूप हैं। सारी दिशाएँ उसकी शिखाएँ हैं। समस्त कोण उसके स्फुलिंग स्वरूप हैं। इसी अग्नि में देवतागण वृष्टिस्वरूप आहुति देते रहते हैं, इसी से अन्न उत्पन्न होता है। इस प्रकार राजा अनेक प्रकार के उपदेश देने लगे। इन सब उपदेशों का तात्पर्य यही है कि तुम्हारी इस क्षुद्र अग्नि में होम करने का कोई प्रयोजन नहीं, सम्पूर्ण जगत् ही वह अग्नि है और दिन रात उसमें होम हो रहा है। देवता, मनुष्य सभी दिन रात उसी की उपासना करते हैं- 'हे गौतम, मनुष्य का शरीर ही सर्वश्रेष्ठ अग्नि है।' हम यहाँ भी देखते हैं कि धर्म को कार्य में परिणत किया जा रहा है, ब्रह्म को संसार के भीतर लाया जा रहा है। इन सब रूपकों में यही एक तत्त्व देखता हूँ कि मनुष्य की बनायी हुई मूर्ति मनुष्यों को हितकारिणी और शुभ हो सकती है, किन्तु उससे भी श्रेष्ठ प्रतिमा पहले से ही विद्यमान है। यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है तो सजीव मानवप्रतिमा तो मौजूद ही है।यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो तो करो, किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर, उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर तो पहले से ही मोजूद है। 

हम लोगों को याद रखना चाहिए कि वेद के दो भाग हैं कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। उपनिषदों के अभ्युदय-काल में कर्म काण्ड इतना जटिल और विस्तारपूर्ण हो गया था कि उससे मुक्त होना असम्भव सा कार्य हो गया। उपनिषदों में कर्मकाण्ड बिलकुल छोड़ दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है, किन्तु धीरे धीरे और प्रत्येक कर्मकाण्ड के अन्दर एक उच्चतर अर्थगाम्भीर्य दिखाने की चेष्टा की गयी है। अत्यन्त प्राचीन काल में यह सब यज्ञादिक कर्मकाण्ड प्रचलित थे, किन्तु उपनित्काल में ज्ञानियों का अभ्युदय हुआ। उन लोगों ने क्या किया? आधुनिक सुधारकों के समान उन लोगों ने यज्ञादि के विरुद्ध प्रचार करके उसे एकदम मिथ्या या पाखण्ड कहकर उड़ा देने को चेष्टा नहीं की, किन्तु उन्हीं का उच्चतर तात्पर्य समझाकर लोगों को एक ग्रहण करने योग्य वस्तु दी। उन्होंने कहा 'अग्नि में हवन करो, वहुत अच्छी बात है, किन्तु इस पृथ्वी पर दिनरात हवन हो रहा है।

यह क्षुद्र मन्दिर है, ठीक है, किन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही हमारा मन्दिर है, हम कहीं भी उपासना क्यों न करें, कोई हानि नहीं। तुम लोग वेदी बनाते हो- किन्तु हम लोगों के मत में, जीवित चेतन मनुष्यदेहरूपी वेदी वर्तमान है और इस मनुष्यदेहरूपी वेदी पर की गयी पूजा दूसरी अचेतन मृत, जड़ मूर्ति की पूजा की अपेक्षा श्रेयस्कर है।' यहाँ और भी एक विशेष मत का वर्णन किया गया है। मैं इसका अधिकांश नहीं समझता। उपनिषद् का यह एक अंश मैं पढ़ता हूँ, तुम लोग इसे कुछ समझ सको तो समझो। जो व्यक्ति ध्यान बल से विशुद्धचित्त होकर ज्ञानलाभ कर चुका है, वह जब मरता है, तो पहले अच, उसके बाद दिन फिर क्रमशः शुक्लपक्ष में ओर उत्तरायण षण्मास में जाता है; वहाँ से संवत्सर, संवत्सर से सूर्य लोक, और सूर्यलोक से चन्द्रलोक, तथा चन्द्रलोक से विद्युल्लोक में जाता है। वहाँ से एक दिव्यपुरुष उसे ब्रह्मलोक में ले जाते हैं। इसी का नाम देवयान है। जब साधु और ज्ञानियों की मृत्यु होती है, तो वे इसी मार्ग द्वारा जाते हैं। इस मास, संवत्सर आदि शब्दों का क्या अर्थ है यह कोई भी भलीभाँति नहीं समझता। सभी अपने अपने मस्तिष्क का कल्पित अर्थ लगाते रहते हैं। बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि यह बेकार की बात है। 

इन चन्द्र लोक, सूर्यलोक आदि में जाने का क्या अर्थ है? और यह दिव्य पुरुष आकर विद्युल्लोक से ब्रह्मलोक में ले जाता है, इसका भी क्या अर्थ है? हिन्दुओं में एक धारणा थी कि चन्द्रलोक में प्राणी रहते हैं— इसके बाद हम लोग यह देखेंगे कि किस प्रकार चन्द्र लोक से पतित होकर मनुष्य पृथ्वी पर वापस आता है। जो ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु इस जीवन में शुभ कर्म कर चुके हैं वे जब मरते हैं तो पहले धूम्र में जाते हैं फिर रात्रि में, तदनन्तर कृष्णपक्ष फिर दक्षिणायन षण्मास और उसके बाद संवत्सर में से होकर वे पितृलोक में जाते हैं। वहाँ से आकाश में और फिर वे चन्द्रलोक में गमन करते हैं। वहाँ देवताओं के खाद्यरूप होकर देवजन्म ग्रहण करते हैं। जब तक उनका पुण्यक्षय नहीं होता तब तक वहीं रहते हैं। कर्मफल समाप्त होने पर फिर उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ता है। वे पहले आकाशरूप में परिणत होते हैं, फिर वायुरूप से फिर घूम्र, उसके बाद मेघ आदि के रूप में परिणत होकर अन्त में, वृष्टिकण का आश्रय लेकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, वहाँ शस्यक्षेत्र में गिरकर शस्य रूप में परिणत होकर मनुष्य के खाद्यरूप में परिगृहीत होते हैं और अन्त में उनकी सन्तानादि बन जाते हैं। 

जिन लोगों ने खूब सत्कर्म किये थे, वे सवंश में जन्म ग्रहण करते हैं। जिन लोगों ने अत्यन्त असत् कर्म किये थे, उनका अत्यन्त नीच जन्म होता है, यहाँ तक कि उनको कभी कभी सूअर का भी जन्म लेना पड़ता है। और जो व्यक्ति देवयान और पितृयान नामक इन दोनों रास्तों में से किसी भी एक रास्ते पर नहीं चल पाते, वे बार बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं तथा बार बार मौत के मुँह में पड़ते रहते हैं, इसी कारण पृथ्वी न तो एकदम सूनी होती है और न परिपूर्ण ही।

हम लोग इससे कुछ थोड़े से भाव प्राप्त कर सकते हैं और बाद में शायद हम इसका बहुत कुछ अर्थ भी समझ सकेंगे। अन्तिम बातें, अर्थात स्वर्ग में जाकर जीव फिर से किस प्रकार लौट आते हैं, वे पहली बात की अपेक्षा मानो कुछ अधिक स्पष्ट प्रतीत होती हैं, किन्तु इन सब उक्तियों का सार तत्त्व यही जान पड़ता है कि ब्रह्मानुभूति के बिना स्वर्गादिप्राप्ति व्यर्थ है। मान लो, कुछ व्यक्ति जिन्हें अभी तक ब्रह्मानुभव नहीं हो सका किन्तु इस लोक कुछ सत्कर्म कर चुके हैं और वह कर्म भी सकाम किया गया है, तो उनकी मृत्यु होने पर वे इधर उधर अनेक स्थानों में घूम फिरकर स्वर्ग पहुँचते हैं और हम लोग भी जिस प्रकार पैदा होते हैं, ठीक उसी प्रकार वे भी देवताओं की सन्तानरूप में पैदा होते हैं और जितने दिन उनके शुभ कर्मफल की समाप्ति नहीं होती उतने दिन वे वहां रहते हैं।

इसी से वेदान्त का एक मूल तत्त्व यह पाया जाता है कि जिसका नाम रूप है वही नश्वर है। अतएव स्वर्ग भी नश्वर होगा, क्योंकि उसका भी तो नाम रूप है, अनन्त स्वर्ग स्व विरोधी वाक्य मात्र है, जिस प्रकार यह पृथ्वी अनन्त नहीं हो सकती, क्योंकि जिस वस्तु का भी नाम रूप है उसी की उत्पत्ति काल में है, स्थिति काल में है, विनाश काल में है। वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है अतएव अनन्त स्वर्ग की धारणा व्यर्थ है।  

हमने देखा है कि वेद के संहिता भाग में अनन्त स्वर्ग का वर्णन है? जिस प्रकार मुसलमान और ईसाईयों के धर्म ग्रन्थों में है। मुसलमानों की स्वर्ग धारणा और भी स्थूल है। वे लोग कहते हैं, स्वर्ग में बाग बगीचे हैं, उनके नीचे नदियाँ बह रही हैं। वासियों के रेगिस्थान में जल एक बहुत ही इसीलिए मुसलमान स्वर्ग को अरब वांछनीय पदार्थ बताते हैं। मेरा जहाँ सदा जलपूर्ण जन्म हुआ, वहाँ साल में छः महीने जल बरसता रहता है। मैं स्वर्ग को कल्पना में शायद शुष्क स्थान सोचंगा, अंग्रेज भी यह सोचेंगे। संहिता का यह स्वर्ग अनन्त है, वहाँ मृत व्यक्ति जाकर रहते हैं। वे लोग वहाँ सुन्दर देह पाकर वहाँ के पितृगण के साथ अत्यन्त सुखसहित चिरकाल तक रहते हैं, वहीं उनके माता पिता स्त्री पुत्रादि भी आ मिलते हैं। और वे बहुत कुछ यहीं के समान रहते हैं; हाँ उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुखमय होता है। उन लोगों के स्वर्ग की धारणा भी यही है कि इस जीवन में सुख प्राप्ति में जो सब विघ्नबाधाएँ हैं वे सब मिट जायेंगी, केवल इसका जो सुखमय अंश वही शेष रहेगा। स्वर्ग की यह धारणा हमें सुखकर भले ही प्रतीत हो किन्तु सुखकर और सत्य ये दोनों पूर्ण रूप से भिन्न वस्तुएँ हैं। वास्तव में चरम सीमा पर पहुॅचे बिना सत्य कभी सुखकर नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव ही बड़ा स्थितिशील है। मनुष्य कोई विशेष काम करता रहता है तो एक बार उसे शुरू करने पर फिर उसे छोड़ना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है। मन नयी चिन्ता नहीं आने देता , कारण वह बहुत कष्टकर होती है। 

अतएव हम लोग देखते हैं कि उपनिषदों में पूर्वप्रचलित धारणा का विशेष व्यक्तिक्रम हुआ है। उपनिषदों में कहा है, यह सब स्वर्ग जहाँ मनुष्य जाकर पितृगण के साथ रहता है, कभी नित्य नहीं हो सकता, क्योंकि नाम रूपात्मक सभी वस्तुएँ विनाशशील हैं यदि स्वर्ग साकार है तो काल के अनुसार उस स्वर्ग का अवश्य नाश होगा। हो सकता है, वह लाखों वर्ष रहे, किन्तु अन्त में ऐसा एक समय अवश्य आयगा कि उसका नाश होगा, और अवश्य होगा। 

इसी बीच एक और भी धारणा लोगों के मन में आयी है और वह यह कि ये सब आत्माएँ दुबारा इसी पृथ्वी पर लौट आती हैं और स्वर्ग केवल उनके शुभ कर्मों के फलभोग का स्थानमात्र है। फलभोग शेष होने पर वे फिर पृथ्वी पर ही जन्म ग्रहण करती हैं। एक बात इसी से स्पष्ट प्रतीत होती है कि मनुष्य को अत्यन्त प्राचीन काल से ही कार्यकारण विज्ञान विदित था। बाद में हम लोग देखेंगे कि हमारे दार्शनिकों ने इसी तत्व का वर्णन दर्शन तथा न्याय की भाषा में किया है, किन्तु इस स्थान में मानो एक शिशु की अस्पष्ट भाषा में इसे कहा गया है। इन सब ग्रन्थों का पाठ करते समय तुम लोगों ने शायद यह समझ लिया होगा कि ये सब तत्त्व प्रत्यक्ष अनुभूति के फलस्वरूप हैं। यदि तुम लोग यह पूछो कि ये सब कार्यरूप में परिणत हो सकते हैं या नहीं तो मैं कहूँगा कि पहले ये सब कार्यरूप में परिणत हुए हैं और बाद में दर्शन के रूप में आविर्भूत हुए हैं। 

तुमने देखा कि ये सब पहले अनुभूत हुए, बाद में लिखे गये। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्राचीन ऋषियों के साथ मानो बातें करता था। पक्षिगण उनसे बोलते, पशुगण भी उनसे बात चीत करते और चन्द्र-सूर्य से भी उनका सम्भाषण होता था। वे क्रमशः समस्त वत्तुओं का अनुभव करने लगे, प्रकृति के अन्तस्तल में पैठने लगे। उन्होंने उसे चिन्तन द्वारा अथवा तर्क द्वारा नहीं पाया और न आजकल की प्रथा के अनुसार ऐसा ही हुआ कि किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा विचारित कुछ विषय संग्रह किये और एक ग्रन्थ बना दिया, अथवा मैं आज जैसे उन्हीं के एक ग्रन्थ को लेकर लम्बी-चौड़ी वक्तृता दे डालता हूँ, ऐसा भी नहीं हुआ, वरन् उनको इसका आविष्कार करना पड़ा। 

इसका सार था साधना प्रत्यक्षानुभूति, और चिरकाल तक वही रहेगा। धर्म चिरकाल तक एक प्रत्यक्ष विज्ञानस्वरूप रहेगा। मतवाद कभी धर्म नहीं हो सकता। पहले अभ्यास, उसके बाद ज्ञान। जीवगण यहाँ लौट आते हैं, यह धारणा मैं इस उपनिषद् में पाता है। जो फल की कामना से कुछ सत्कर्म करते हैं, उन्हें उस सत्कर्म का फल प्राप्त होता है, किन्तु यह फल नित्य नहीं होता। कार्य कारण वाद यहाँ बहुत सुन्दर रूप में वर्णित हुआ है, क्योंकि कहा गया है कि कार्य कारण के अनुसार ही होता है। जैसा कारण है, कार्य भी वैसा ही होगा; कारण जब अनित्य है तो कार्य भी अनित्य है। कारण नित्य होने पर कार्य भी नित्य होगा। किन्तु सत्कर्म रूपी ये कारण अनित्य और ससीम है अतएव उनका फल भी नित्य नहीं हो सकता। 

इस तत्त्व का एक और पहलू देखने से यह भलीभांति समझ में आ जायगा कि जिस कारण से अनन्त स्वर्ग नहीं हो सकता उसी कारण से अनन्त नरक भी नहीं हो सकता। मान लो, मैं एक बहुत दुष्ट आदमी हूँ और समस्त जीवन भर अन्यायपूर्ण कर्म करता रहा हूँ, तो भी यह सारा जीवन उसकी अनन्त जीवन के साथ तुलना करने पर कुछ भी नहीं है। यदि दण्ड अनन्त हो तो इसका यह अर्थ होगा कि ससीम कारण से असीम फल की उत्पत्ति हुई। यह नहीं हो सकता। यदि यह मान लिया जाय कि समस्त जीवनपर्यन्त सत्कर्म करते रहने पर अनन्त स्वर्गलाभ होता है तो भी यह दोष बना रहेगा। उपर्युक्त जिन सब मार्गों की बातें कही गयी हैं, उनके व्यतिरिक्त उन लोगों के लिए जिन्होंने सत्य को जान लिया है और भी एक दूसरा मार्ग है। मायावरण से बाहर निकलने का यही एकमात्र उपाय है– 'सत्य का अनुभव करना।' और सब उपनिषद्, यह सत्यानुभव किसे कहते हैं, यही समझाते हैं। 

अच्छा बुरा कुछ न देखो, सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो। आत्मा सभी में है। यही कहो कि जगत् नामक कोई चीज नहीं है। बाह्यदृष्टि बन्द करो और उसी प्रभु को स्वर्ग नरक सभी स्थानों में देखो। क्या मृत्यु, क्या जीवन सर्वत्र उसी की उपलब्धि करो। मैंने पहले जो तुम्हें पढ़कर सुनाया है, उसमें भी यही भाव है— यह पृथ्वी उसी भगवान् का एक पाद है, आकाश भी भगवान् का दूसरा एक पाद है, इत्यादि इत्यादि। ये सब ब्रह्म हैं। परन्तु यह देखना पड़ेगा, अनुभव करना पड़ेगा, इस विषय की केवल आलोचना अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा। मान लो, जब आत्मा ने जगत् की प्रत्येक वस्तु का स्वरूप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय है, तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में, या अन्यत्र और कहीं चली जाय, तो इससे कछ बनता बिगड़ता नहीं। में पृथ्वी पर जन्म अथवा स्वर्ग में जाऊं, इससे कोई अन्तर नहीं होता। मेरे लिए ये सब निरर्थक है क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं, सभी स्थान भगवान् के मन्दिर हैं, सभी स्थान पवित्र हैं, कारण स्वर्ग, नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ। भला-बुरा अथवा जीवन-मरण मुझे कुछ नहीं दीखते। 

वेदान्त मत में मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है। तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है, दूसरा नहीं। जो व्यक्ति जगत् में केवल अन्याय देखता है, वह भला संसार में कैसे वास कर सकता है? उसका जीवन तो सर्वदा दुःखमय होगा। जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक विघ्नबाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है, मृत्यु देखता है, उसका जीवन तो दुःखमय होगा ही, परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्य स्वरूप को देखता है, वही संसार में रहने योग्य है; वही यह कह सकता है, कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ, मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ। यहाँ मैं यह कह देना चाहता हूँ कि वेद में कहीं भी नरक का उल्लेख नहीं है। वेद के बहुत परवर्ती काल में रचित पुराणों में यह नरक प्रसंग दिया गया है।

वेद में सब से बड़ा दण्ड है- पुनर्जन्म अर्थात् और एक बार उन्नति की सुविधा प्राप्त करना। हम देखते हैं कि पहले से ही यह निर्गुण भाव चलता आ रहा है। पुरस्कार और दण्ड का भाव बहुत ही जड़भावात्मक है और यह भाव केवल मनुष्य के समान सगुण ईश्वरवाद में ही सम्भव है जो ईश्वर हमारे समान एक को प्रेम करते हैं, दूसरे को नहीं इस प्रकार की ईश्वर धारणा के साथ ही पुरस्कार और दण्ड का भाव संगत हो सकता है। संहिताओं में ईश्वर का वर्णन इसी प्रकार दिया गया है। वहाँ इस धारणा के साथ भय मिला हुआ था, किन्तु उपनिषदों में यह भयभाव बिलकुल नहीं मिलता; इसके साथ ही उपनिषदों में हम निर्गुण की धारणा पाते हैं- और प्रत्येक दशा में यह निर्गुण की धारणा करना ही विशेष कठिन होता है। मनुष्य सर्वदा ही सगुण रूप लेकर रहना चाहता है। 

बहुत बड़े बड़े विचारक भी, कम से कम संसार जिन्हें बहुत विचारक मानता है, इस निर्गुणवाद से सहमत नहीं हैं, किन्तु मुझे यह सगुणवाद अत्यन्त हास्यास्पद, अत्यन्त निम्नभावमय तथा क्षुद्र व्यक्तियों के योग्य यहाँ तक कि अत्यन्त भगवन्निन्दाकर प्रतीत होता है। बालक यदि भगवान् को एक साकार व्यक्ति मान लें तो क्षम्य है, किन्तु वयस्क व्यक्तियों के लिए चिन्तनशील नर नारियों के लिए भगवान् को एक स्त्री या पुरुष मानना बहुत लज्जास्पद है। प्रश्न उठता है कि उच्चतर भाव कौनसा है जीवित ईश्वर या मृत ईश्वर?- जिस ईश्वर को कोई देख नहीं सकता, जान नहीं पाता अथवा जो ईश्वर हमारे सम्मुख चारों ओर प्रकट एवं ज्ञात है? समय समय पर वे जगत् में अपने एक एक दूत को भेज देते हैं जिसके एक हाथ में तलवार रहती है और दूसरे में अभिशाप, और हम यदि उनकी बातों में विश्वास न कर लें तो एकदम विनाश! ईश्वर ने स्वयं आकर क्यों नहीं बताते कि हमें क्या करना चाहिए? वे क्रमश: दूत भेजकर हम लोगों को दण्ड और अभिशाप क्यों दे रहे हैं? किन्तु इसी विश्वास से अनेक व्यक्ति सन्तुष्ट हैं। हम लोगों की कैसी अधोगति है! 

दूसरी ओर निर्गुण ईश्वर को जीवित रूप में हम अपने सम्मुख देख रहे हैं; वे एक तत्त्व मात्र हैं। सगुण निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर, क्षुद्र मानवविशेष मात्र है, और निर्गुण ईश्वर है मनुष्य, पशु, देवता तथा अन्य वह सब जो हम नहीं देख पाते हैं, कारण, सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है और निर्गुण सगुण व्यष्टि, समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है। जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है, और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है इसी प्रकार निर्गुण भी है। 'हम जीवित ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा। तुमने भी नहीं देखा। इस कुर्सी को देखने से पहले तुम्हें ईश्वर को देखना पड़ता है, उसके बाद उन्हीं के भीतर से कुर्सी को देखना पड़ता है। वे दिन रात जगत् में रहकर प्रतिक्षण  मैं हूँ' कह रहे हैं. जिस क्षण तुम बोलते हो 'मैं हूँ' उसी क्षण तुम उस सत्ता को जान रहे हो। तुम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जाओगे, यदि तुम उसे अपने हृदय में, जीवित प्राणियों में नहीं देख पाते यदि तुम रास्ते से जानेवाले उस बोझा ढोनेवाले कुली में जिसके शरीर से पसीने की धारा बह रही है, उसे नहीं देख पाते?' 

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी, त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि, त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः।' तुम स्त्री, तुम पुरुष, तुम कुमार, तुम कुमारी हो, तुम्हीं वृद्ध होकर लाठी के सहारे चल रहे हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् में भिन्न भिन्न रूप में प्रकट- यह सब हो।' कितना अद्भुत 'जीवित ईश्वर' है हुए हो। तुम्हीं! संसार में वे भयंकर प्रतीत ही एकमात्र वस्तु हैं यह अनेक लोगों को बड़ा होता है। वास्तविक बात यह है कि यह पूर्वपरिचालित ईश्वर धारणा का विरोधी भाव है; वह ईश्वर धारणा यह है कि वे किसी विशेष स्थान में किसी आवरण के पीछे छिपे बैठे हैं, उन्हें कोई कभी नहीं देख सकता। पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण कर उनकी पद धूलि चाहते रहें और उनकी पूजा करते रहें तो हम लोग इस जीवन में चाहे ईश्वर को न भी देख पायें, किन्तु मरते समय वे हमें एक मुक्ति पत्र देंगे और तब हम ईश्वर दर्शन कर सकेंगे। इससे यह स्पष्ट ही समझ में आता है कि यह सब स्वर्गवाद ही है, इसके अतिरिक्त और क्या है? - केवल पुरोहितों की दुष्टता। 

अवश्य ही निर्गुणवाद अनेक चीज नष्ट कर डालता है, वह पुरोहितों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है, उसके फल स्वरूप मन्दिर, गिर्जा आदि सब उड़ जाते हैं। भारत में इस समय दुर्भिक्ष हो रहा है, किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें अनेक हीरा जवाहिरात तथा कीमती नग हैं। यदि लोग इस निर्गुण ब्रह्म को जान जायेंगे तो उनका व्यवसाय छिन जायगा। किन्तु हमें यह पुरोहिताई छुड़ानी पड़ेगी। तुम भी ईश्वर, मैं भी वही तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे? कौन किसकी उपासना करे? तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर में किसी प्रतिमा या किसी शास्त्र की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा। 

लोग इतनी परस्परविरोधी चिन्ता क्यों करते हैं? लोग कहते हैं, हम ठेठ प्रत्यक्षवादी है, ठीक बात है; किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और क्या अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है? मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो। मुसलमान कहते हैं, अल्लाह के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं हैं; किन्तु वेदान्त कहता है, मनुष्य के सिवाय दूसरा ईश्वर नहीं है। यह सुनकर तुममें से बहुतों को भय हो सकता है, किन्तु तुम लोग धीरे धीरे यह समझ जाओगे। जीवित ईश्वर तुम लोगों के साथ रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर, गिर्जाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। मानवात्मा अथवा मनुष्यदेह ही। एकमात्र उपास्य ईश्वर है। हां, तियंग जाति भी भगवान् के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा। यदि मैं उनकी उपासना नहीं कर सका तो किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा। 

जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा, उसी क्षण में सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा सभी पदार्थ मेरी दृष्टि से हट जायेंगे।

यही सब से अधिक व्यावहारिक उपासना है। मत-मतान्तर से हमारा कोई प्रयोजन नही। किन्तु यह बात कहने से अनेक लोग डर जाते हैं। वे कहते हैं, यह ठीक नहीं है। वे यही सोचते रहते हैं कि उनके वयोवृद्ध परबाबा के बाबा के बाबा बीस हजार वर्ष पहले क्या कह गये हैं, और वे जिनसे कह गये हैं, वे फिर दूसरों से क्या कह गये हैं, आदि आदि। बात यह है कि स्वर्ग के किसी स्थान पर बैठे हुए एक ईश्वर ने किसी व्यक्ति से कहा- में ईश्वर हूँ। उसी समय से केवल मत-मतान्तरों की आलोचना ही चल रही है। उनके मत में यही कामकाज की बात है और हम लोगों का मत कामकाज में लाने योग्य अथवा व्यावहारिक नहीं है। वेदान्त कहता है, सब अपने अपने रास्ते पर चलें, कोई हर्ज नहीं किन्तु आदर्श यही है। स्वर्गस्थ ईश्वर आदि की उपासना करना बुरा नहीं, किन्तु ये सब केवल सोपान मात्र हैं, सत्य नहीं। 

इन सब में सुन्दर एवं महान् भाव है, किन्तु वेदान्त पग पग पर कहता, बन्धु, तुम जिनकी अज्ञात कहकर उपासना करते हो और सारा जगत् जिन्हें खोजता फिरता है, वे जगत में सदा ही विराजमान हैं। तुम जीवित हो, वह भी वे हैं इसी कारण; वे ही जगत् के नित्यसाक्षी हैं। सम्पूर्ण वेद जिनकी उपासना करते हैं, केवल यही नहीं, जो नित्य 'मैं' में वर्तमान हैं, वे ही हैं इसलिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी है। वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रकाशस्वरूप हैं। वे यदि तुम्हारे भीतर न हों तो तुम सूर्य को भी न देख पाते, सभी कुछ तुम्हारे लिए अन्धकारमय जड़राशि-शून्य के समान प्रतीत होता। वे ही प्रकाशित हैं, इसीलिए तुम जगत् को देख रहे हो। 

इस विषय में साधारणतया एक प्रश्न पूछा जाता है और वह यह है कि इस बिचारधारा से बहुत गड़बड़ी हो जाने की सम्भा वना है। हम सभी यह सोचेंगे कि मैं ईश्वर हूँ- जो कुछ मैं सोचता हूँ या करता हूँ वही अच्छा है क्योंकि ईश्वर को भला पाप क्या? इसका उत्तर यह है कि पहले यदि इस प्रकार की विपरीत व्याख्या रूप आशंका की सम्भावना मान भी ली जाय तब भी क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष में भी यही आशंका नहीं उत्पन्न होगी? लोग अपने से पृथक् स्वर्गस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं, उससे खूब डरते भी हैं। वे लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं। 

तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है? तुम भी दूसरे से यही पूछ रहे थे। विचार करो कि जो सगुण ईश्वरवाद मानकर उसकी उपासना करते हैं और जो निर्गुण ईश्वरतत्त्व को समझकर निर्गुण की उपासना करते हैं, इन दोनों में से किसके सम्प्रदाय में संसार के बड़े-बड़े महापुरुष हो गये हैं? महान् कर्मयोगी-महा चरित्रवान्! निश्चय ही ऐसे महापुरुष निर्गुण साधकों के बीच ही हुए हैं! भयभीत व्यक्ति क्या कभी चरित्रवान् या बलवान् पुरुष हो सकता? नहीं, कभी नहीं 'जहाँ एक दूसरे को देखता है, जहाँ एक दूसरे की हत्या करता है, वही माया है। जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता, एक दूसरे की हत्या नहीं करता, जहाँ सर्व आत्ममय हो जाता है, वहीं फिर माया नहीं टिकती।' तब सभी 'वे' हैं अथवा सभी 'मैं ' है- तब आत्मा पवित्र हो जाती है। तभी और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं, यह समझ सकते हैं। डर से क्या ऐसा प्रेम हो सकता है? प्रेम की भित्ति है, स्वाधीनता। स्वाधी नता मुक्तस्वभाव होने पर ही प्रेम होता है। तभी हम लोग वास्तव में जगत् को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं और विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं-अन्यथा नहीं। 

इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि इस निर्गुण मत से समस्त संसार में भयानकर पापधारा वह उठेगी तथा दूसरे मत से दुनिया कभी भी अन्यान्य की ओर नहीं जायगी, अथवा सारी दुनिया खून में रँगने से बच जायगी, या लोग आपस में अलग अलग होकर साम्प्रदायिकता की जड़ नहीं जमा देंगे। वे कहते हैं मेरा ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है। इसका प्रमाण? आओ, हम दोनों लड़ लें यही प्रमाण है। द्वैतवाद से यही गड़बड़ी सारी दुनिया में फैल गयी है। क्षुद्र और संकीर्ण रास्तों में न जाकर प्रशान्त उज्ज्वल दिन के प्रकाश में आओ। महान् अनन्त आत्मा संकीर्ण भावों में कैसे बँधी रह सकती है? हमारे सम्मुख यह प्रकाशमय ब्रह्माण्ड है, इसकी प्रत्येक वस्तु हमारी है। अपनी बाहें फैलाकर सम्पूर्ण जगत् का प्रेमालिंगन करने की चेष्टा करो। यदि कभी ऐसा करने की इच्छा हो तभी समझो कि तुम्हें ईश्वर का अनुभव हुआ है। 

बुद्धदेव के जीवनचरित्र में तुम्हें वह अंश अवश्य ही स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की विचारधारा बहा देते थे, जब तक कि चारों ओर वही महान् अनन्त प्रेम नहीं छा जाता था। इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी यथार्थ व्यक्तित्व प्रकट होगा। तभी सम्पूर्ण जगत् एक व्यक्ति बन जायगा मुद्र वस्तुओं की ओर फिर मन नहीं जायगा। इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं का परित्याग कर दो। इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा? और वास्तव में तो तुम्हें इन छोटे छोटे सुखों को भी छोड़ना नहीं पड़ता, कारण, तुम लोगों को याद होगा कि सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है, जो कि मैं पहले ही कह चुका हूँ। अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है। मनुष्य अनन्तस्वरूप निर्गुण मनुष्य भी अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति रूप में देख रहे हैं; मानो हम अनन्तस्वरूप होकर भी अपने को क्षुद्र क्षुद्र रूपों में सीमाबद्ध बना डालते हैं। वेदान्त कहता है, इसका कारण न समझ सकने पर भी इतना कहा जा सकता है कि यह हमारा प्रतिदिन का प्रत्यक्ष अनुभव है जो कभी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 

हम लोग अपने कर्म द्वारा अपने को सीमाबद्ध कर डालते हैं और उसी ने मानो हमारे गले में शंखला डालकर हमें आबद्ध कर रखा है। शंखला तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ। निमय को पैरों तले कुचल डालो। मनुष्य के प्रकृतस्वरूप में कोई विधि नहीं, कोई दैव नहीं, कोई अदृष्ट नहीं। अनन्त में विधान या नियम कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका मूल मन्त्र है, स्वाधीनता ही इसका स्वरूप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। पहले मुक्त बनो, तब फिर जितना क्षुद्र व्यक्तित्व रखना चाहो रखो। 

तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे। जिस प्रकार एक यथार्थ राजा भिखारी के वेश में रंगमंच पर आता है और इधर वास्तविक भिखारी रास्ते रास्ते में भटकता फिरता है। देखो, दोनों में कितना अन्तर है! यद्यपि दृश्य दोनों ओर एक है, वर्णन करने में भी एक सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है! एक व्यक्ति भिक्षुक काअभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा सचमुच दुःख कष्ट से पीड़ित है। ऐसा भेद क्यों होता है? कारण, एक मुक्त है और दूसरा बद्ध राजा जानता है कि उसकी यह निर्धनता सत्य नहीं है, उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार की है, किन्तु यथार्थ भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है, एवं उसकी इच्छा हो या न हो, उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा। 

उसके लिए यह अभेद्य नियम के समान है और इसीलिए उसे कष्ट उठाना ही पड़ता है। हम तुम जब तक अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हम लोग केवल मिक्षुक हैं, प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ने ही हमें दास बना रखा है। हम सम्पूर्ण जगत् में सहायता के लिए चीत्कार करते हुए फिरते हैं- अन्त में काल्पनिक जीवगण के पास भी हम सहायता मांगते हैं, पर सहायता कभी नहीं मिलती; तो भी हम सोचते हैं कि इस बार सहायता मिलेगी। इस प्रकार हम सर्वदा आशा लगाये बैठे रहते हैं। बस, इसी बीच एक जीवन बीत जाता है, और फिर वही खेल चलने लगता है। 

मुक्त होओ; किसी दूसरे के पास से कुछ न चाहो। में यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यदि तुम अपने जीवन की अतीत घटनाएँ याद करो तो देखोगे कि तुम सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्टा करते रहे किन्तु कभी पा नहीं सके; जो  कुछ सहायता पायी है वह अपने अन्दर से ही थी। तुम स्वयं जिसके लिए चेष्टा करते हो उसे ही फल रूप में पाते हो; तथापि कितना आश्चर्य है कि तुम सदैव ही दूसरे से सहायता की भीख माँगते रहते हो! धनियों के बैठकखाने में यदि क्षणभर बैठकर देखो तो एक तमाशा सा देखोगे। तुम देखोगे कि बैठकखाना सर्वदा ही पूर्ण है, किन्तु इस समय वहाँ जो लोग हैं कुछ समय के बाद वे ही लोग वहाँ दिखायी नहीं पड़ेंगे- सदैव वे लोग आशा लगाये रहते हैं कि धनियों के पास से कुछ मांगकर लायेंगे, किन्त ऐसा कर नहीं पाते। 

हमारा जीवन भी उसी प्रकार का है, हम केवल आशा किये चले जा रहे हैं, उनका अन्त नहीं। वेदान्त कहता है इसी आशा का परित्याग करो। क्यों आशा करते हो? तुम्हारे पास सब कुछ है। तुम आत्मा हो, तुम सम्राट् स्वरूप हो, तुम भला किसकी आशा करते हो? यदि राजा पागल होकर अपने देश में 'राजा कहाँ है, राजा कहाँ है' कहकर खोजता फिरे तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है। वह अपने राज्य के प्रत्येक ग्राम में, प्रत्येक नगर में यहाँ तक कि प्रत्येक घर में खोज करे, खूब रोये चिल्लाये, फिर भी राजा का पता नहीं लग सकता; क्योंकि वह व्यक्ति स्वयं ही राजा है। इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम राजा हैं और इस राजान्वेषणरूपी व्यर्थं चेष्टा को छोड़ सकें तो बहुत ही अच्छा हो। वेदान्त कहता है, इस प्रकार अपने को राजस्वरूप जान लेने पर ही हम सन्तुष्ट और सुखी हो सकते हैं। यह सब पागलों- जैसी चेष्टा छोड़कर जगतुरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो। 

इस प्रकार की अवस्था आने से हम लोगों की दृष्टि परिवर्तित हो जाती है। अनन्त कारागारस्वरूप न होकर यह जगत् खेलने का स्थान बन जाता है। प्रतियोगिता की जगह न बनकर यह भौरों के गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है। पहले जो जगत् नरककुण्ड जैसा लगता था वही अब स्वर्ग बन जाता है। बुद्ध जीव की दृष्टि में यही एक महायन्त्रणा का स्थान है किन्तु मुक्त व्यक्ति की दृष्टि में यही स्वर्ग है; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है। एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है। पुनर्जन्म आदि जो कुछ है सब यहीं होता है। देवतागण सब यहीं हैं- वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं। देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया; किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है जैसे कि इन्द्र, वरुण और सम्पूर्ण, ब्रह्माण्ड के देवता। 

तुम्ही लोग अपने एक अंश को बाहर प्रक्षिप्त करते हो किन्तु वास्तव में तुम्ही असली वस्तु हो- तुम्ही प्रकृत उपास्य देवता हो। यही वेदान्त का मत है और इसीलिए यह यथार्थ में कार्य में लाने योग्य है। यह नहीं कि हम लोग मुक्त होने पर उन्मत्त हो समाज त्याग कर दें और जंगलों अथवा गुफाओं में जाकर मर जायें। तुम जहाँ थे वहीं रहोगे, किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत् का रहस्य समझ जाओगे। पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ जैसी की तैसी ही रहेंगी, किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे। तुम अभी जगत् का स्वरूप नहीं जानते हो; केवल मुक्त होने पर ही इसका स्वरूप जाना जा सकेगा। इसलिए हम देखते हैं कि यह तथाकथित विधि, दैव या अदृष्ट हम लोगों की प्रकृति का एक अत्यन्त क्षुद्र अंश मात्र है। यह हम लोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है, दूसरी दिशा में मुक्ति सदा विराजमान है और हम लोग शिकारी द्वारा पीछा किये गये खरगोश के समान मिट्टी में अपना सिर छिपाकर अपने को अशुभ से बचाना चाहते हैं 

अतएव देखा गया कि हम भ्रमवश अपना स्वरूप भूलने की चेष्टा करते हैं, किन्तु वह एकदम भूला नहीं जा सकता सदैव ही वह किसी न किसी रूप में हमारे सामने आता ही है। हम जिन देवता, ईश्वर आदि का अनुसन्धान करते हैं, बाह्य जगत् में स्वाधीनता पाने के लिए हम जो प्राणपण से चेष्टा करते रहते हैं, वह सब और कुछ नहीं- हम लोगों की मुक्त प्रकृति ही मानो किसी न किसी रूप में अपने को प्रकाशित करने का यत्न कर रही है। कहाँ से आवाज आ रही है यह जानने में हम लोगों ने भूल की है। हम लोग पहले सोचते हैं यह आवाज अग्नि, सूर्य, चन्द्र, तारा अथवा किसी देवता से आती है- अन्त मैं हम लोग देखते हैं कि यह तो हम लोगों के अन्दर ही है। यह वही अनन्त वाणी अनन्त मुक्ति का समाचार देती है। 

यह संगीत अनन्त काल से चला आ रहा है। आत्मसंगीत का कुछ अंश इस नियमबद्ध ब्रह्माण्ड, इस पृथ्वी के रूप में परिणत हुआ है, किन्तु यथार्थतः हम लोग आत्म स्वरूप हैं और चिरकाल तक आत्मस्वरूप ही रहेंगे। एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है— जगत् में मनुष्य की उपासना, और वेदान्त की यही घोषणा है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते तो वेदान्त तुम्हारी उपासना में विश्वास नहीं करता। 

क्या तुम लोगों को बाइबिल की वह कथा याद नहीं कि यदि तुम अपने भाई को, जिसे तुम देख रहे हो, प्यार नही कर सकते तो ईश्वर को, जिसे तुमने कभी नहीं देखा, भला कैसे प्यार कर सकोगे? यदि तुम ईश्वर को मनुष्य में नहीं देख सकते तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे? जिस दिन से तम नर नारियों में ईश्वर देखने लगोगे उसी दिन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा, और तभी तुम समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर मारनेवाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है। जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे तब सभी वस्तुओं का, यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय, तो उसका भी तुम स्वागत करोगे। जो कुछ तुम्हारे पास आता है वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है — वे ही हमारे माता, पिता और बन्ध हैं। हमारी अपनी आत्मा ही हमारे साथ खेल कर रही है। 

भगवान् को पिता कहने की अपेक्षा एक और उच्चतर भाव है साधक लोग उन्हें 'माता' कहते हैं। फिर इससे भी एक पवित्रतर भाव है उन्हें 'प्रिय सखा' कहना। उसकी अपेक्षा एक और श्रेष्ठ भाव है उन्हें अपना प्रेमास्पद कहना। इसका कारण यही है कि प्रेम और प्रेमास्पद में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है। तुम लोगों को वह प्राचीन फारसी कहानी याद होगी। एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया। प्रश्न हुआ, 'कौन है?' वह बोला, 'मैं'। द्वार नहीं खुला। दुबारा फिर उसने कहा, 'मैं आया हूँ', पर द्वार फिर भी न खुला। तीसरी बार वह फिर आया, प्रश्न हुआ, 'कौन है?' तब उसने कहा, 'प्रेमास्पद, मैं तुम हूँ', तब द्वार खुल गया। भगवान् और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक ऐसा ही है। वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं. प्रत्येक नरनारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर है। कौन कहता है, वह अज्ञात है! कौन कहता है, उसे खोजना पड़ेगा! हमने उसे अनन्त काल के लिए पाया है। हम उसी में अनन्त काल तक रहते हैं- वह सर्वत्र अनन्त काल के लिए ज्ञात है और वही अनन्त काल से उपासित हो रहा है। 

एक और बात इसी प्रसंग में जाननी होगी। वेदान्त कहता है- दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं। यह विषय कभी न भूलना चाहिए कि जो अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड द्वारा भगवत् उपासना करते हैं- हम इन कर्मों को चाहे कितना ही अनुपयोगी क्यों न मानें वे लोग वास्तव में भ्रान्त नहीं हैं। कारण, लोग सत्य से सत्य की ओर, निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ते हैं। अन्धकार कहने से समझना चाहिए, स्वल्प प्रकाश; बुरा कहने से समझना चाहिए, थोड़ा अच्छा; अपवित्रता कहने से समझना चाहिए, स्वल्प पवित्रता। अतएव सत्य धारणा का यह भी एक पहलू है कि हम लोगों को दूसरों को प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से देखना चाहिए। 

हम लोग जिस रास्ते से आ रहे हैं, वे भी उसी रास्ते से चल रहे हैं। यदि तुम वास्तव में मुक्त हो तो तुम्हें अवश्य ही यह समझना चाहिए कि ने भी आगे पीछे मुक्त होंगे। और जब तुम मुक्त ही हो गये तो जो अनित्य है उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे? यदि तुम वास्तव में पवित्र हो तो तुम्हें अपवित्रता कैसे दिखायी दे सकती है?  कारण, जो भीतर है वही बाहर दीख पड़ता है। हमारे अन्दर यदि अपवित्रता न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते। वेदान्त की यह भी एक साधना है। आशा है, हम लोग सभी जीवन में इसको व्यवहार में लाने की चेष्टा करेंगे। इसका अभ्यास करने के लिए सारा जीवन पड़ा है, किन्तु इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि अशान्ति और असन्तोष के बदले हम शान्ति और सन्तोष के साथ कार्य करें। कारण, हमने जान लिया है कि सभी कुछ हमारे अन्दर है- वह हमीं लोगों का है- वह हमारा जन्मजात अधिकार है। हमें आवश्यक है केवल उसको प्रकाशित करना, प्रत्यक्ष अनुभव करना।

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