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राजयोग [तृतीय अध्याय] प्राण हिन्दी में | Rajyog Chapter-3

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Swami Vivekanand Rajyog Chapter-3 Pran


बहुतों का विचार है, प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की कोई क्रिया है। पर असल में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो श्वास-प्रश्वास की क्रिया के साथ इसका बहुत थोड़ा सम्बन्ध है। श्वासप्रश्वास उन क्रियाओं में से सिर्फ एक ही क्रिया है जिनके माध्यम से हम यथार्थ प्राणायाम की साधना के अधिकारी होते हैं। प्राणायाम का अर्थ है, प्राण का संयम। भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमें से एक का नाम है आकाश। यह आकाश एक सर्वव्यापी, सर्वानुस्यूत सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार है, जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है। यह आकाश ही वायु में परिणत होता है; यही फिर ठोस आकार को प्राप्त होता यही तरल पदार्थ का रूप है।' यह आकाश ही सूर्य, धारण करता है, पृथ्वी, तारा, धूमकेतु आदि में परिणत होता है।

 

समस्त प्राणियों के शरीर पशुओं के शरीर, उद्भिद् आदि जितने रूप हमें देखने को मिलते हैं, जिन वस्तुओं का हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं, यहाँ तक कि, संसार में जो कुछ वस्तु है, सभी आकाश से उत्पन्न हुई हैं। इन्द्रियों द्वारा इस आकाश की उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं; यह इतना सूक्ष्म है कि साधारण अनुभूति के अतीत है।जब यह स्थूल होकर कोई आकार धारण करता है, तभी हम इसका अनुभव कर सकते हैं। सृष्टि के आदि में एकमात्र आकाश रहता है। फिर कल्प के अन्त में समस्त ठोस, तरल और वाष्पीय पदार्थ पुनः आकाश में लीन हो जाते हैं। बाद की सृष्टि फिर से इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है। 


किस शक्ति के प्रभाव से आकाश का जगत् के रूप में परिणाम होता है? इस प्राण की शक्ति से। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारणस्वरूप अनन्त, सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकर शक्ति है। कल्प के आदि में और अन्त में सम्पूर्ण सृष्टि आकाशरूप में परिणत होती है, और जगत् की सारी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती हैं। दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समस्त शक्तियों का विकास होता है। यह प्राण ही गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है- यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बक शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। 


यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह के रूप में, विचारशक्ति के रूप में और समस्त दैहिक क्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य बाह्य शक्ति तक, सब कुछ प्राण का ही विकास है। बाह्य और अन्तर्जगत् की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसी को प्राण कहते हैं। जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था, जब तम से तम आवृत था, तब क्या था? यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था।प्राण की सभी प्रकार की बाह्य गति रुद्ध थी, परन्तु तब भी प्राण का अस्तित्व था। संसार में जितने प्रकार की शक्तियों का विकास अब हुआ है, कल्प के अन्त में वे शान्तभाव धारण करती हैं- अव्यक्त अवस्था में लीन होती हैं, और दूसरे कल्प के आदि में वे ही फिर से व्यक्त होकर आकाश पर करती रहती हैं। इसी आकाश से परिदृश्यमान साकार वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, और आकाश के विविध परिणाम प्राप्त होने पर यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता रहता है। इस प्राण के यथार्थ तत्त्व को जानना और उसको संयत करने की चेष्टा करना ही प्राणायाम का प्रकृत अर्थ है। 


इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्त शक्ति का द्वार खुल जाता है। मान लो, किसी व्यक्ति की समझ में यह प्राण का विषय पूरी तरह आ गया और वह उसे वश करने में भी कृतकार्य हो गया, तो फिर संसार में ऐसी कौनसी शक्ति है, जो उसके अधिकार में न आए? उसकी आज्ञा से चन्द्र सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं, क्षुद्रतम परमाणु से बृहत्तम सूर्य तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं, क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है। प्रकृति को वशीभूत 




नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम् .. तम आसीत् तमसा गूढमग्रेड प्रकेतम् ॥ - ऋग्वेद संहिता , १०।१२




करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। जब योगी सिद्ध हो जाते हैं, तब प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो उनके वश में न आ जाए। यदि वे देवताओं का आह्वान करेंगे, तो वे उनकी आज्ञा मात्र से आ उपस्थित होंगे; यदि मृत व्यक्तियों को आने की आज्ञा देंगे, तो वे तुरन्त हाजिर हो जाएँगे।प्रकृति की सारी शक्तियाँ उनकी आज्ञा से दासी की तरह काम करने लगेंगी। अज्ञ जन योगी के इन कार्य कलापों को अलौकिक समझते हैं। हिन्दू मन की यह एक विशेषता है कि वह सदैव अन्तिम सम्भाव्य सामान्यीकरण के लिए अनुसन्धान करता है, और बाद में विशेष पर कार्य करता है। 


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वेदों में यह प्रश्न पूछा गया है- "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति?’– 'ऐसी कौनसी वस्तु है, जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है?” इस प्रकार, हमारे जितने शास्त्र हैं, जितने दर्शन हैं, सब के सब उसी के निर्णय में लगे हुए हैं, जिनके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति जगत् का तत्त्व थोड़ा थोड़ा करके जानना चाहे, तो उसे अनन्त समय लग जाएगा; क्योंकि फिर तो उसे बालू के एक एक कण तक को भी अलग अलग रूप से जानना होगा। अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सब कुछ जानना एक प्रकार से असम्भव है। तब फिर इस प्रकार के ज्ञानलाभ की सम्भावना कहाँ है? 


एक एक विषय को अलग अलग रूप से जानकर मनुष्य के लिए सर्वज्ञ होने की सम्भावना कहाँ है?  योगी कहते हैं, इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक सामान्य अमूर्त तत्त्व है। उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है। इसी प्रकार, वेदों में सम्पूर्ण जगत् को उस एक अखण्ड निरपेक्ष सत्स्वरूप में सामान्यीकृत किया गया है। जिन्होंने इस सत्स्वरूप को पकड़ा है, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को समझ लिया है। उक्त प्रणाली से ही समस्त शक्तियों को भी इस प्राण में सामान्यीकृत किया गया है। अतएव जिन्होंने प्राण को पकड़ा है, उन्होंने संसार में जितनी शारीरिक या मानसिक शक्तियाँ हैं सब को पकड़ लिया है। जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरनू सब के मन को भी जीत लिया है। जिन्होंने प्राण को जीत लिया है, उन्होंने अपनी देह और दूसरी जितनी देह हैं, सब को अपने अधीन कर लिया है, क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों की सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है। 


किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाए, यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है। इस प्राणायाम के सम्बन्ध में जितनी साधनाएँ और उपदेश हैं, सब का यही एक उद्देश्य है। हर एक साधनार्थी को, उसके सब से समीप जो कुछ है, उसी से साधना शुरू करनी चाहिए उसके निकट जो कुछ है, उस सब पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिए।संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सब से निकट है और मन उससे भी निकटतर है। जो प्राण संसार में सर्वत्र व्याप्त है, उसका जो अंश इस शरीर और मन में कार्यशील है, वही अंश हमारे सब से निकट है। यह जो क्षुद्र प्राणतरंग है- जो हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप में परिचित है, वह अनन्त प्राणसमुद्र में हमारे सब से निकटतम तरंग है. यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राणसमुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं, वे सिद्धि पा लेते हैं, तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती। वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो जाते हैं। 


हम सभी देशों में ऐसे सम्प्रदाय देखते हैं, जो किसी न किसी उपाय से इस प्राण पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। इसी देश में (अमेरिका में) हम मनःशक्ति से आरोग्य करनेवाले (mind-healers), विश्वास से आरोग्य करनेवाले (faith-healers), प्रेतात्मवादी (spiritualists), ईसाई वैज्ञानिक (Christian Scientists), सम्मोहनविद्यावित् (hypnotists) आदि अनेक सम्प्रदाय देखते हैं। यदि हम इन मतों का विशेष रूप से विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि इन सब मतों की पृष्ठभूमि में-वे फिर जानें या न जानें-प्राणायाम ही है। उन सब मतों के मूल में एक ही बात है। वे सब एक ही शक्ति को लेकर कार्य कर रहे हैं; पर हाँ, वे उसके सम्बन्ध में कुछ जानते नहीं। उन लोगों ने एकाएक मानो एक शक्ति का आविष्कार कर डाला है, परन्तु उस शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में बिलकुल अज्ञ हैं। योगी जिस शक्ति का उपयोग करते हैं, ये भी बिना जाने बूझे उसी का उपयोग कर रहे हैं। और वह प्राण की ही शक्ति है।


यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनीशक्ति के रूप में विद्यमान है।विचारणा इसकी सूक्ष्मतम और उच्चतम अभिव्यक्ति है। फिर जिसे हम साधारणतः विचारणा की आख्या देते हैं, वही प्राण की एकमात्र वृत्ति नहीं है। इसके अतिरिक्त हमारा एक निम्नतम कार्यक्षेत्र भी है, जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) अथवा ज्ञानरहित चित्तवृत्ति अथवा मन की अचेतन भूमि कहते हैं। मान लो, मुझे एक मच्छर ने काटा, तो मेरा हाथ अपने ही आप उसे मारने को उठ जाता है। उसे मारने के लिए हाथ को उठाते गिराते मुझे कोई विशेष सोच विचार नहीं करना पड़ता। यह भी विचारणा की एक प्रकार की अभिव्यक्ति है। 


शरीर के समस्त स्वाभाविक कार्य (reflex actions) इसी विचारणा के स्तर के अन्तर्गत हैं। इससे उन्नत विचारणा का एक दूसरा स्तर भी है, जिसे सज्ञान अथवा मन की चेतन भूमि कहते हैं। हम युक्ति तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। हमें मालूम है, युक्ति या विचार बिलकुल छोटीसी सीमा के द्वारा सीमित है। वह हम लोगों को कुछ ही दूर तक ले जा सकता है, इसके आगे उसका और अधिकार नहीं। जिस वृत्त के अन्दर वह चक्कर काटता है, वह बहुत ही सीमित, संकीर्ण है। परन्तु साथ ही हम यह भी देखते हैं कि बहुत से तथ्य बाहर से सहसा बहुत ही इस वृत्त के भीतर आ जाते हैं। पुच्छल तारा जिस प्रकार सौरजगत् के अधिकार के भीतर न होने पर भी कभी कभी उसके भीतर सहसा आ जाता है और हमें दीख पड़ता है, उसी प्रकार बहुत से तथ्य, हमारी युक्ति के अधिकार के बाहर होने पर भी, उसके भीतर आ जाते हैं। 




बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र , समय समय पर , ज्ञान की सहायता लिये बिना अपने आप जब काम करता है , तो उस कार्य को स्वाभाविक कार्य ( reflex action ) कहते हैं । 




यह निश्चित है कि वे सब तथ्य इस सीमा के बाहर से आते हैं, पर हमारा तर्क या युक्ति इस सीमा के परे नहीं जा सकती। इस छोटी सी सीमा के भीतर उन तथ्यों के प्रवेश का कारण यदि हम खोजना चाहें, तो हमें अवश्य इस सीमा के बाहर जाना होगा।हमारे विचार, हमारी युक्तियाँ वहाँ नहीं पहुँच सकतीं। योगियों का कहना है कि यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है। उस भूमि को हम अतिचेतन भूमि कहते हैं- वही समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था है। जब मन उस अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात प्रवृत्ति और युक्तितर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है।शरीर की सारी सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियाँ, जो प्राण की ही विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं, यदि सही रास्ते से परिचालित हों, तो वे मन पर विशेष रूप से कार्य करती हैं, और तब मन भी पहले से उच्चतर अवस्था में अर्थात् अतिचेतन भूमि में चला जाता है और वहाँ से कार्य करता रहता है। 


इस विश्व में अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर एक अखण्ड वस्तुराशि दीख पड़ती है। भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात करने पर दिखता है कि एक अखण्ड वस्तु ही मानो नाना रूपों में विराजमान है। वास्तव में, तुममें और सूर्य में कोई भेद नहीं।वैज्ञानिक के पास जाओ, वे तुम्हें समझा देंगे कि वस्तु वस्तु में भेद केवल काल्पनिक है। इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं। यह मेज अनन्त जड़राशि का मानो एक बिन्दु है और मैं उसी का एक दूसरा बिन्दु। प्रत्येक साकार वस्तु इस अनन्त जड़सागर में मानो एक भँवर है। भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते। मान लो, किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर हैं: प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नयी जलराशि आती है, कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है। उसके स्थान में एक नयी जलराशि आ जाती है। 


यह जगत् भी इसी प्रकार सतत परिवर्तनशील एक जड़राशि मात्र है और ये सारे रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं। कोई भूतसमष्टि किसी मनुष्यदेहरूपी भँवर में घुसती है, और वहाँ कुछ काल तक चक्कर काटने के बाद वह बदल जाती है और एक दूसरी भँवर में किसी पशुदेहरूपी भँवर में प्रवेश करती है। फिर वहाँ कुछ वर्ष तक घूमती रहने के बाद खनिज पदार्थ नामक दूसरे भँवर में चली जाती है। बस, सतत परिवर्तन होता रहता है। कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। मेरा शरीर, तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है। वह केवल कहने भर की बात है।  केवल एक अखण्ड जड़राशि। 


उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य, किसी का पृथ्वी, कोई बिन्दु उद्भिद् है, तो कोई खनिज पदार्थ। इनमें से कोई भी सदा एक भाव से नहीं रहता, सभी वस्तुओं का सतत परिवर्तन हो रहा है; जड का एक बार संश्लेषण होता है, फिर विश्लेषण. मनोजगत् के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है 'ईथर' (आकाशतत्त्व) को हम सारी जड़ वस्तुओं के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। प्राण की सूक्ष्मतर स्पन्दनशील अवस्था में इस ईथर को मन का भी प्रतिनिधिस्वरूप कहा जा सकता है। अतएव सम्पूर्ण मनोजगत् भी एक अखण्डस्वरूप है।जो अपने मन में यह अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं, वे देखते हैं कि सारा जगत् सूक्ष्मातिसूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है। किसी किसी औषधि में हमको इस सूक्ष्म अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति रहती है, यद्यपि उस समय हम इन्द्रियराज्य के भीतर ही रहते हैं। 


तुममें से बहुतों को सर हम्फ्री डेवी के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी। हास्योत्पादक गैस (Laughing Gas) ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे भाषण देते समय स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे। कुछ देर बाद जब होश आया, तो बोले, “सारा जगत् विचारों की समष्टि मात्र है।" कुछ समय के लिए सारे स्थूल कम्पन (gross vibrations) चले गये थे और केवल सूक्ष्म कम्पन, जिनको उन्होंने विचारराशि कहा था, बच रहे थे। उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कम्पन देखे थे।सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखों में मानो एक महानू विचारसमुद्र में परिणत हो गया था। उस महासमुद्र में वे और जगत् की प्रत्येक व्यष्टि मानो एक एक छोटा विचार भँवर बन गयी थी।


इस प्रकार हम देखते हैं कि विचारजगत् में भी अखण्ड एकत्व विद्यमान है। अन्त में जब हम आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं, तब एक अखण्ड सत्ता के अतिरिक्त और कुछ नहीं अनुभव करते।भौतिक पदार्थ के स्थूल और सूक्ष्म स्पन्दनों के परे, सब प्रकार की गतियों के परे वही एक अखण्ड सत्ता है। यहाँ तक कि इन गतियों की स्थूल अभिव्यक्तियों के भीतर भी केवल एकत्व विद्यमान है। इन सत्यों को अब अस्वीकार नहीं किया जा सकता।आधुनिक भौतिक विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शक्तिसमष्टि सदैव समान है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्तिसमष्टि दो तरह से अवस्थित है- कभी स्तिमित या अव्यक्त अवस्था में और कभी व्यक्त अवस्था में व्यक्त अवस्था में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है। इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है। 


मनुष्यदेह में इस प्राण की सब से स्पष्ट अभिव्यक्ति है- फेफड़े की गति। यदि यह गति रुक जाए, तो देह की सारी क्रियाएँ तुरन्त बंद हो जाएँगी, शरीर के भीतर जो अन्यान्य शक्तियाँ कार्य कर रही थीं, वे भी शान्त भाव धारण कर लेंगी। पर ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो अपने को इस प्रकार प्रशिक्षित कर लेते हैं कि उनके फेफड़े की गति रुक जाने पर भी उनका शरीर नहीं जाता। ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना साँस लिये कई महीने तक जमीन के अन्दर गड़े रह सकते हैं, पर तो भी उनका देहनाश नहीं होता। सूक्ष्मतर शक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें स्थूलतर शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है।इस प्रकार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शक्ति में जाते हुए अन्त में हम चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है फेफड़े की इस गति का रोध करना। इस गति के साथ श्वास का निकट सम्बन्ध है। यह गति श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पन्न नहीं होती, वरन् वही श्वास प्रश्वास की गति को उत्पन्न कर रही है। यह गति ही, पम्प की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। प्राण इस फेफड़े को चलाता है और फेफड़े की यह गति फिर वायु को खींचती है। इस तरह यह स्पष्ट है कि प्राणायाम श्वास प्रश्वास की क्रिया नहीं है। पेशियों की जो शक्ति फेफड़े को चलाती है, उसको वश में लाना ही प्राणयाम है।


जो शक्ति स्नायुओं के भीतर से पेशियों के पास जाती है और जो फेफड़ों का संचालन करती है, वही प्राण है। प्राणायाम की साधना में हमें उसी को वश में लाना है। जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जाएगी, तब हम तुरन्त देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएँ हमारे अधिकार में धीरे धीरे आ गयी हैं।मैंने स्वयं ऐसे व्यक्ति देखे हैं, जिन्होंने अपने शरीर की सारी पेशियों को वशीभूत कर लिया है अर्थात् वे उनको इच्छानुसार चला सकते हैं। और वे ऐसा कर भी क्यों न सकेंगे? यदि कुछ पेशियाँ हमारी इच्छा के अनुसार चलायी जा सकती हों तो दूसरी सब पेशियों और स्नायुओं को हम इच्छानुसार क्यों न चला सकेंगे? इसमें असम्भव क्या है? अब हमारी इस संयमशक्ति का लोप हो गया है, और पेशियों की गति स्वयंक्रिय हो गयी है। हम इच्छानुसार कानों को नहीं हिला सकते, परन्तु हम जानते हैं कि पशुओं में यह शक्ति है। हममें यह शक्ति इसलिए नहीं है कि हम इसे काम में नहीं लाते। इसी को क्रमअवनति अथवा पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन (atavism) कहते हैं। 


फिर, हम यह भी जानते हैं कि जिस गति ने अब अव्यक्त भाव धारण किया है, उसे हम फिर से व्यक्तावस्था में ला सकते हैं। दृढ़ अभ्यास के द्वारा शरीर की कुछ गतियाँ, जो अभी हमारी इच्छा के अधीन नहीं, फिर से पूरी तरह वश में लायी जा सकती हैं। इस प्रकार विचार करने पर दीख पड़ता है कि शरीर का प्रत्येक अंश हम पूरी तरह अपनी इच्छा के अधीन कर सकते हैं। इसमें कुछ भी असम्भव नहीं, बल्कि यह तो पूर्णतया सम्भव है। योगी प्राणायाम द्वारा इसमें कृतकार्य होते हैं। तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्राणायाम में श्वास लेते समय सम्पूर्ण शरीर को प्राण से पूर्ण करना होता है। अंग्रेजी अनुवाद में प्राण शब्द का अर्थ किया गया है श्वास। इससे तुम्हें सहज ही सन्देह हो सकता है कि श्वास से सम्पूर्ण शरीर को कैसे पूरा किया जाए। वास्तव में यह अनुवादक का दोष है। देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनीशक्ति द्वारा भरा जा सकता है, और जब तुम इसमें सफल होगे, तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश में हो जाएगा; देह की समस्त व्याधियाँ, सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जाएँगे। इतना ही नहीं, दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम समर्थ हो जाओगे। संसार में भलाबुरा जो कुछ है, सभी संक्रामक है। यदि तुम्हारा शरीर किसी विशेष अवस्था में हो, तो उसकी प्रवृत्ति दूसरों में भी वही अवस्था उत्पन्न करने की होगी।

 

यदि तुम सबल और स्वस्थकाय रहो, तो तुम्हारे समीपवर्ती व्यक्तियों में भी मानो कुछ स्वस्थ भाव, कुछ सबल भाव आएगा। और यदि तुम रुग्ण और दुर्बल रही, तो देखोगे, तुम्हारे निकटवर्ती दूसरे व्यक्ति भी मानो कुछ रुग्ण और दुर्बल हो रहे हैं। तुम्हारी देह का कम्पन मानो दूसरे के भीतर संचारित हो जाएगा। जब एक व्यक्ति दूसरे को रोगमुक्त करने की चेष्टा करता है, तब उसका पहला प्रयत्न यह होता है कि उसका स्वास्थ्य दूसरे में संचारित हो जाए। यही आदिम चिकित्साप्रणाली है। ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से, एक व्यक्ति दूसरे की देह में स्वास्थ्य संचार कर दे सकता है। 


यदि एक बहुत बलवान् व्यक्ति किसी दुर्बल व्यक्ति के साथ सदैव रहे, तो वह दुर्बल व्यक्ति कुछ अंशों में अवश्य सबल हो जाएगा। यह बलसंचारणक्रिया ज्ञातभाव से हो सकती है तथा अज्ञातभाव से भी। जब यह क्रिया ज्ञातभाव से की जाती है, तब इसका कार्य और भी शीघ्र तथा उत्तम रूप से होता है। एक ओर दूसरे प्रकार की भी चिकित्साप्रणाली है, जिसमें आरोग्यकारी स्वयं बहुत स्वस्थकाय न होने पर भी दूसरे के शरीर में स्वास्थ्य का संचार कर दे सकता है। इन स्थलों में उस आरोग्यकारी व्यक्ति को कुछ परिमाण में प्राणजयी समझना चाहिए। वह कुछ समय के लिए अपने प्राण में मानो एक विशेष कम्पन उत्पन्न करके दूसरे के शरीर में उसका संचार कर देता है। 


अनेक स्थलों में यह कार्य बहुत दूर से भी साधित हुआ है। यदि सचमुच में दूरत्व का अर्थ खण्ड या विच्छेद (break) हो, तो दूरत्व नामक कोई चीज नहीं। ऐसा दूरत्व कहाँ है, जहाँ परस्पर कुछ भी सम्बन्ध, कुछ भी योग नहीं? सूर्य में और तुममें क्या वास्तविक कोई विच्छेद है? नहीं, यह तो समस्त एक अविच्छिन्न अखण्ड वस्तु है; तुम उसके एक अंश हो और सूर्य उसका एक दूसरा अंश। नदी के एक भाग और दूसरे भाग में क्या विच्छेद है? तो फिर शक्ति भीएक जगह से दूसरी जगह क्यों न भ्रमण कर सकेगी? इसके विरोध में तो कोई युक्ति नहीं दी जा सकती। दूर से आरोग्य करने की घटनाएँ बिलकुल सत्य हैं। इस प्राण को बहुत दूर तक संचालित किया जा सकता है। पर हाँ, इसमें धोखेबाजी बहुत है। 


यदि इसमें एक घटना सत्य हो, तो अन्य सैकड़ों असत्य और छलकपट के अतिरिक्त और कुछ नहीं। लोग इसे जितना सहज समझते हैं, यह उतना सहज नहीं। अधिकतर स्थलों में तो देखोगे कि आरोग्य करनेवाले चंगा करने के लिए मानवदेह की स्वाभाविक स्वस्थता की ही सहायता लेते हैं। एक एलोपैथ चिकित्सक आता है  हैजे के रोगियों की चिकित्सा करता है और उन्हें दवा देता है; एक होमियोपैथ चिकित्सक आता है, वह भी रोगियों को अपनी दवा देता है और शायद एलोपैथ की अपेक्षा अधिक रोगियों को चंगा कर देता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह रोगी के शरीर में किसी तरह का विपर्यय न लाकर प्रकृति को अपनी चाल से काम करने देता है। और विश्वास के बल से आरोग्य करनेवाला तो और भी अधिक रोगियों को चंगा कर देता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाशक्ति द्वारा कार्य करके विश्वास के बल से रोगी की प्रसुप्त प्राणशक्ति को प्रबुद्ध कर देता है। 


परन्तु विश्वास के बल से रोगों को अच्छा करनेवालों को सदा एक भ्रम हुआ करता है, वे सोचते हैं कि साक्षात् विश्वास ही लोगों को रोगमुक्त करता है। वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि केवल विश्वास इसका कारण है। ऐसे भी रोग हैं, जिसमें रोगी स्वयं नहीं समझ पाता कि उसके कोई रोग है। रोगी का अपनी नीरोगता पर अतीव विश्वास ही रोग का एक प्रधान लक्षण है, और इससे आसन्न मृत्यु की सूचना होती है। इन सब स्थलों में केवल विश्वास से रोग नहीं टलता। यदि विश्वास ही रोग की जड़ काटता हो, तो वे रोगी मौत के मुँह न गये होते। वास्तव में रोग तो इस प्राण की शक्ति से ही दूर होता है। 


प्राणजित् पवित्रात्मा पुरुष अपने प्राण को एक निर्दिष्ट कम्पन में ले जा सकते हैं और उसे दूसरे में संचारित करके , उसके भीतर भी उसी प्रकार का कम्पन पैदा कर सकते हैं। तुम प्रतिदिन की घटना से यह प्रमाण ले सकते हो। मैं व्याख्यान दे रहा हूँ। व्याख्यान देते समय मैं क्या कर रहा हूँ? मैं अपने मन को मानो कम्पन की एक विशिष्ट स्थिति में लाता हूँ। और मैं मन को इस स्थिति में लाने में जितना ही सफल होऊँगा, तुम मेरी बात सुनकर उतने ही प्रभावित होगे। तुम लोगों को मालूम है, व्याख्यान देते देते मैं जिस दिन मस्त हो जाता हूँ, उस दिन मेरा व्याख्यान तुमको बहुत अच्छा लगता है, पर जब कभी मेरा उत्साह घट जाता है, तो तुम्हें मेरे व्याख्यान में उतना आनन्द नहीं मिलता। 


जगत् को हिलाडुला देनेवाले तीव्र इच्छाशक्तिसम्पन्न महापुरुष अपने प्राण को कम्पन की एक उच्च स्थिति में ला सकते हैं और यह प्राण इतना महान् तथा शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेता है, हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं। जगत् के सभी महान् पैगम्बरों का प्राण पर अत्यन्त अद्भुत संयम था, जिसके बल से वे प्रबल इच्छाशक्तिसम्पन्न हो गये थे। वे अपने प्राण के भीतर अति उच्च कम्पन पैदा कर सकते थे, और उसी से उन्हें समस्त संसार पर प्रभावविस्तार करने की क्षमता प्राप्त हुई थी। संसार में शक्ति के जितने विकास देखे जाते हैं, सभी प्राण के संयम से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य को यह तथ्य भले ही मालूम न हो, पर और किसी तरह इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। तुम्हारे शरीर में यह प्राणसंचालन कभी एक ओर अधिक और दूसरी ओर कम हो जाता है। इससे सन्तुलन भंग होता है; और जब प्राण का यह सन्तुलन नष्ट होता है, तब रोग की उत्पत्ति होती है। अतिरिक्त प्राण को हटाकर, जहाँ प्राण का अभाव है, वहाँ का अभाव भर सकने से ही रोग अच्छा हो जाता है। 


शरीर के किस भाग में प्राण अधिक है और किस भाग में अल्प, इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है। इस प्राणायाम के अभ्यास से अनुभवशक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि मन समझ जाएगा, पैर के अँगूठे में या हाथ की अँगुली में जितना प्राण आवश्यक है, उतना वहाँ नहीं है, और मन उस प्राण के अभाव को पूरा करने में भी समर्थ हो जाएगा। इस प्रकार प्राणायाम के अनेक अंग हैं। इनको धीरे धीरे, एक के बाद एक, सीखना होगा। अतएव यह स्पष्ट है कि विभिन्न रूपों में प्रकाशित प्राण का संयम सिखाना और उसको विभिन्न प्रकार से चलाना ही राजयोग का सम्पूर्ण क्षेत्र है। जब कोई अपनी समस्त शक्तियों का संयम करता है, तब वह अपनी देह के भीतर के प्राण का ही संयम करता है। जब कोई ध्यान करता है, तो भी समझना चाहिए कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है।


महासागर की ओर यदि देखो तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वतकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सब के पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर वह छोटा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, फिर दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटे बुलबुले जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनीशक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भाण्डार है। एक छोटी सी फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतनी छोटी, इतनी सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भाण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करती हुई एक अन्य रूप धारण कर रही है। 


कालान्तर में वह उद्भिद के रूप में परिणत होती है, वही फिर एक पशु का आकार ग्रहण करती है, फिर मनुष्य का रूप लेती हुई वही अन्त में ईश्वररूप में परिणत हो जाती है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापार के घटते घटते लाखों साल पार हो जाते हैं। परन्तु यह समय है क्या? वेग साधना का वेग बढा देकर समय काफी घटाया जा सकता है।योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर बहुत थोड़े समय में सघ सकता है। हो सकता है कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्तिराशि में से बहुत थोड़ी थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे देवजन्म प्राप्त करते, सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जाएँ, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करते शायद पाँच लाख वर्ष लगें। 


फिर पूर्ण सिद्ध होते और भी पाँच लाख वर्ष लगें। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छह वर्ष या छह महीने में ही यह सिद्धिलाभ क्यों न हो सकेगा? युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है। सोचो, कोई वाष्पीय यन्त्र, निर्दिष्ट मात्रा में कोयला देने पर, प्रति घण्टा दो मील चल सकता है, तो अधिक कोयला देने पर वह और भी शीघ्र चलेगा। इसी प्रकार, यदि हम भी तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्तिलाभ क्यों न कर सकेंगे? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पाएँगे। पर इस प्रकार युग युग तक हम प्रतीक्षा क्यों करें? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्यदेह में ही हम मुक्तिलाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे? 


आत्मा की उन्नति का वेग बंढ़ाकर किस प्रकार थोड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है, यही सारे योगशास्त्र का लक्ष्य और उद्देश्य है। जब तक सारे मनुष्य मुक्त नहीं हो जाते, तब तक प्रतीक्षा करते हुए थोड़ा थोड़ा करके अग्रसर न होकर, प्रकृति के अनन्त शक्तिभाण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्तिलाभ किया जा सकता है, योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। संसार के सभी पैगम्बर, साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया है? उन्होंने एक ही जन्म में मानवजाति का सम्पूर्ण जीवन बिताया और उन सब अवस्थाओं को पार कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है। एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बात के लिए एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। इस प्रकार उनकी मुक्तिप्राप्ति का समय घट जाता है। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्तिसंचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। 


इस प्राणायाम के साथ प्रेतात्मवाद (spiritualism) का क्या सम्बन्ध है? प्रेतात्मवाद भी प्राणायाम की ही एक अभिव्यक्ति है। यदि यह सत्य हो कि प्रेतात्मा का अस्तित्व है और उसे हम देख भर नहीं पाते, तो यह भी बहुत सम्भव है कि यहीं पर शायद लाखों आत्माएं हैं, जिन्हें हम न देख पाते हैं, न अनुभव कर पाते हैं, न छू पाते हैं। सम्भव है, हम सदा उनके शरीर के भीतर से आजा रहे हों। और यह भी बहुत सम्भव है कि वे भी हमें देखने या किसी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ हों। यह मानो एक वृत्त के भीतर एक और वृत्त है, एक जगत के भीतर एक और जगत्। हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं। हमारे प्राण का कम्पन एक विशेष प्रकार का है। 


जिनके प्राण का कम्पन हमारी तरह का है, उन्हीं को हम देख सकेंगे। परन्तु यदि कोई ऐसा प्राणी हो, जिसका प्राण अपेक्षाकृत उच्चकम्पनशील है, तो उसे हम नहीं देख पाएँगे। प्रकाश के कम्पन की तीव्रता अत्यन्त अधिक बढ़ जाने पर हम उसे नहीं देख पाते, किन्तु बहुत से प्राणियों की आँखें ऐसी शक्तियुक्त हैं कि वे उस तरह का प्रकाश देख सकती हैं। इनके विपरीत, यदि आलोक के परमाणुओं का कम्पन अत्यन्त मृदु या हल्का हो, तो भी उसे हम नहीं देख पाते, परन्तु उल्लू और बिल्ली आदि प्राणी उसे देख लेते हैं। हमारी दृष्टि इस प्राणकम्पन के एक विशेष प्रकार को ही देखने में समर्थ है। इसी प्रकार वायुराशि की बात लो। वायु मानो स्तर पर स्तर रची हुई है। पृथ्वी का निकटवर्ती स्तर अपने से ऊँचेवाले स्तर से अधिक घना है, और इस तरह हम जितने ऊँचे उठते जाएँगे, हमें यही दिखेगा कि वायु क्रमशः सूक्ष्म होती जा रही है। इसी प्रकार समुद्र की बात लो; समुद्र के जितने ही गहरे प्रदेश में जाओगे, पानी का दबाव उतना ही बढ़ेगा। जो प्राणी समुद्र के नीचे रहते हैं, वे कभी ऊपर नहीं आ सकते, क्योंकि यदि वे आएँ, तो उसी समय उनका शरीर टुकड़े टुकड़े हो जाए। 


सम्पूर्ण जगत् को ईथर (आकाशतत्त्व) के एक समुद्र के रूप में सोचो। प्राण की शक्ति से वह मानो स्पन्दित हो रहा है और विभिन्न मात्रा में स्पन्दनशील स्तरों में बँटा हुआ है। तो देखोगे, जिस केन्द्र से स्पन्दन शुरू हुआ है, उससे तुम जितनी दूर जाओगे उतना ही यह स्पन्दन मृदु रूप से अनुभूत होगा; केन्द्र के पास स्पन्दन बहुत द्रुत होता है। और भी सोचो, भिन्न भिन्न प्रकार के स्पन्दनों के अलग अलग स्तर हैं। यह सम्पूर्ण स्पन्दनक्षेत्र मानो विभिन्न स्पन्दनस्तरों में विभक्त है कई लाख मील तक एक प्रकार का स्पन्दन; फिर कई लाख मील तक एक उच्चतर किन्तु दूसरे प्रकार का स्पन्दन, आदि आदि। अतः यह सम्भव है कि जो प्राण की एक विशेष अवस्था के स्तर पर वास करते हैं, वे एक दूसरे को पहचान सकेंगे, परन्तु अपने से नीचे या ऊँचे स्तरवाले जीवों को न पहचान सकेंगे। फिर भी, जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं, उसी प्रकार योग के द्वारा मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहाँ क्या हो रहा है, यह जान सकते हैं। समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। 


वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के मान लो कि वे प्राण के अधिक स्पन्दन से युक्त हैं और हम उनकी तुलना में कम स्पन्दन से। हम भी प्राणरूप मूल वस्तु से गढ़े हुए हैं, और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं। विभिन्नता है केवल स्पन्दन की मात्रा में। यदि मन को मैं अधिक स्पन्दनविशिष्ट कर सका, तो मैं फिर र पर न रहूँगा, मैं फिर तुम लोगों को न देख पाऊँगा। तुम मेरी दृष्टि से अन्तर्हित हो जाओगे और वे मेरी आँखों के सामने आ जाएँगे। तुममें से शायद बहुतों को मालूम है कि यह व्यापार सत्य है। मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही योगशास्त्र में एकमात्र 'समाधि' शब्द द्वारा अभिहित किया गया है। उच्चतर स्पन्दन की ये सब भूमियाँ, मन के सब अतिचेतन सपन्दन इस एक शब्द समाधि- में वर्गीकृत हैं। समाधि की निम्नतर भूमियों में इन अदृश्य प्राणियों को प्रत्यक्ष किया जाता है। और समाधि की सर्वोच्च अवस्था तो वह है, जब हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस उपादान को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है, जैसे एक मृत्पिण्ड को जान लेने पर समस्त मृत्पिण्ड ज्ञात हो जाते हैं। 


अतः हम देखते हैं कि प्रेतात्मवाद में जो कुछ सत्य है, वह भी प्राणायाम में समाविष्ट है। इसी प्रकार, जब कभी तुम देखो कि कोई दल या सम्प्रदाय किसी रहस्यात्मक या गुप्त तत्त्व के आविष्कार की चेष्टा कर रहा है, तो समझना , वह यथार्थतः किसी परिमाण में इस राजयोग की ही साधना कर रहा है, प्राणसंयम कीही चेष्टा कर रहा है। जहाँ कहीं किसी प्रकार की असाधारण शक्ति का विकास हुआ है, वहाँ प्राण की ही शक्ति का विकास समझना चाहिए। यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान भी प्राणायाम के अन्तर्गत किये जा सकते हैं। वाष्पीय यन्त्र को कौन संचालित करता है? 


प्राण ही वाष्प के भीतर से उसको चलाता है। ये जो विद्युत् की अद्भुत क्रियाएँ दीख पड़ती हैं, ये सब प्राण को छोड़ भला और क्या हो सकती हैं? भौतिक विज्ञान है क्या? वह बाहरी उपायों द्वारा प्राणायाम का विज्ञान है। प्राण जब मानसिक शक्ति के रूप में प्रकाशित होता है, तब मानसिक उपायों द्वारा ही उसका संयम किया जा सकता है। जिस प्राणायाम में प्राण की स्थूल अभिव्यक्ति को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है, उसे भौतिक विज्ञान कहते हैं, और जिस प्राणायाम में प्राण की मानसिक अभिव्यक्तियों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है, उसी को राजयोग कहते हैं।


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