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उत्तराखण्ड ऐतिहासिक काल (प्राचीन काल )का इतिहास

उत्तराखण्ड ऐतिहासिक काल (प्राचीन काल )का इतिहास : उत्तराखंड क्षेत्र की स्थापित या विकसित की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है थोड़े बहुत सिक्कों , अभिलेख

उत्तराखण्ड ऐतिहासिक काल (प्राचीन काल )का इतिहास:  उत्तराखंड क्षेत्र की स्थापित या विकसित  की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है थोड़े बहुत सिक्कों , अभिलेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर इसके प्राचीन इतिहास के सूत्रों को जोड़ा गया है-आइये जानते ऐतिहासिक काल का उत्तराखंड सामान्यज्ञान  -

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कुणिंद शासकविभिन्न स्रोतों से ज्ञात होता है  कुणिंद जाति  उत्तराखंड  शासन करने वाली प्रथम राजनैतिक शक्ति थी ,उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों मैं लगभग तीसरी -चौथी ई. तक इनका शासन रहा । 

देहरादून के पास यमुना और टोंस नदी के संगम पर स्थित कालसी  नामक स्थान से प्राप्त अशोक कालीन अभिलेख मैं इस क्षेत्र के निवासियों के लिए पुलिंद और इस क्षेत्र है लिए अपरान्त शब्द का प्रयोग किया गया है ,इस अभिलेख से ऐसा लगता है की प्रारंभ मैं कुणिंद  लोग मौर्यों के अधीन थे । 

प्रशिद्ध भूगोलवक्ता  टामसी  कुलेन्द्र ( कुणिंद ) लोग दूसरी शती ईसा पू. मैं व्यास ,गंगा, और यमुना के ऊपरी क्षेत्रों मैं फैले थे । 

कुणिंद वंश के सबसे शक्तिशाली शासक अमोधभूति  था ।  इसकी रजत एवं ताम्र मुद्राये पश्चिमी मैं व्यास से लेकर अलकनंदा तक तथा दक्षिण मैं सुनत तथा बेहत तक प्राप्त हुई । इन मुद्राओं के अग्र भाग पर प देवी तथा मृग का अंकन तथा प्राकृत  मैं राज्ञ : कुणिंदस अमोधभूतिस महरजस  अंकित है 

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प्रथम सदी ईसा.पूर्व मैं अमोधभूति की मृत्यु के बाद शकों ने इनके मैदानी प्रद्देशों पर अधिकार कर लिया । 

कुमाऊ क्षेत्र मैं शक संवत का प्रचलन तथा सूर्य मूर्तियाँ एवं मंदिरों की उपस्थिति शकों के अधिकार की पुष्टि करते है ।   अल्मोड़ा के कोसी के पास स्थित कटारमल सर्य मंदिर विशेष रूप से प्रशिद्ध है । 

शकों के बाद प्रथम शदी के उत्तरार्ध मैं राज्य के तराई वाले भाग पर कुषाणों ने अधिकार कर लिया ।   वीरभद्र (ऋषिकेश ), मोरध्वज (कोटद्वार के पास ), और गोविषाण (काशीपुर ) से पर्याप्त  मात्रा मैं कुषाणकालीन अवशेष मिले है । 

कुषाणों के पतन के समय यहाँ कुछ नए राजवंश यथा -गोविषाण ( काशीपुर ), कालसी  व् लाखामंडल, स्थापित हुए और साथ ही कुलिंद भी कुछ क्षेत्रों पर शासन करते रहे । 

कुणिंदों के समकालीन यौधेय  शासकों की मुद्राएं जौनसार - बाबर (देहरादून ) तथा कालोंडांडा (पौड़ी ) से मिली है ,जो की उनके शासन की पुष्टि करता है । 

बड़ावाला यज्ञ वेदिका (तृतीय सदी ) का निर्माण शीलवर्मन को कुछ विद्वान कुणिंद तो कुछ यौधेय  मानते है 

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कर्तूपुर राज्य - इनके राज्य क्षेत्र मैं उत्तराखंड ,हिमांचल प्रदेश, तथा रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग सम्मलित था ।    कर्तूपुर राज्य के संस्थापक कुणिंद लोग ही थे ये कुछ विद्वानों का मत है । 

समुद्र गुप्त के प्रयाग प्रशस्ति मैं कर्तूपुर राज्य को गुप्त साम्राज्य की उत्तरी सीमा  पर स्थित एक अधीन राज्य बताया गया है । 

पांचवी सदी के उत्तरार्ध मैं नागों ने कर्तूपुर के कुणिंद राजवंश की सत्ता समाप्त कर उत्तराखंड पर अधिकार कर लिया.

6 वीं सदी के उत्तरार्ध मैं कन्नौज के मौखरि राजवंश ने नागों की सत्ता समाप्त कर उत्तराखंड पर अधिकार कर लिया । 

मौखरि वंश के अंतिम शासन गृहवर्मा की हत्या हो जाने के बाद मौखरि राज्य उसके बहनोई नरेश हर्षवर्धन के अधीन हो गया । 

बाणभट के हर्षचरित मैं हर्षवर्धन के शासनकाल मैं उत्तराखंड भ्रमण पर आने वाले लोगों का वर्णन है । 

हर्षकालीन चीनी यात्री ह्वेनसांग हिमालय के पो-लि -हि -मो-पु-लो (ब्रहमपुर ) राज्य मैं गया था ,जो की बौद्धधर्म के लिए प्रशिद्ध था । 

अंग्रेज इतिहासकार कर्निघम आधुनिक गढ़वाल और कुमाऊं वाले सम्पूर्ण भू-भाग को ब्रहमपुर मानते है । 

हरिद्वार के बारे मैं हवेंगसांग लिखता है की भागीरथी नदी के किनारे हरिद्वार नामक नगर है, जो लगभग 20 ली (चीनी माप ) के घेरे मैं है । 

बहुराजकता का युग - राजा हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तराखंड छोटे-छोटे कई राज्य बन गए सेना के अभाव मैं इन दुर्बल राजाओं ने सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे कोटो या गढ़ों  का निर्माण कर लिया था ।.

इन राज्यों मैं ब्रहमपुर ,शत्रुधन, और गोविषाण राज्य मुख्य थे,जिनमें ब्रह्मपुर राज्य सबसे बड़ा था । 

6वीं  शताब्दी मैं ब्रह्मपुर मैं पौरवों का शासन  था , इस वंस के प्रमुख्य शासकों मैं विष्णु वर्मनप्रथम, वृषवर्मन , अग्निवर्मन, और विष्णूवर्मन द्वितीय का नाम है । 

इस काल मैं उत्तराखंड पर कई बाह्य आक्रमण भी हुए ,चौहान नरेश विग्रहराज ने आक्रमण कर दक्षिण उत्तराखंड पर तथा तोमर राजाओं ने पूर्वी उत्तराखंड के कुछ भाग पर कब्ज्जा किया । 

कार्तिकेयपुर राजवंश - 700 ई. मैं कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई ,शुरू मैं लगभग 300  वर्षों  तक  राज्य की राजधानी जोशीमठ (चमोली)  दक्षिण मैं कही  कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी ।  बाद मैं राजधानी अल्मोड़ा के कत्यूर घाटी  स्थित बैजनाथ (बागेश्वर ) के पास बैधनाथ कार्तिकेयपुरनामक स्थान पर बनाई गई।  700 ई. से लगभग 1030 ई. तक कार्तिकेयपुर राज्य पर तीन से अधिक परिवारों( वंशों) ने शासन किया । 

इनका इतिहास बागेश्वर, कंडारा ,पांडुकेश्वर, एवं बैजनाथ आदि स्थानों से प्राप्त ताम्र लेखों के आधार पर मिलता है ,अतः  इस राजवंश को उत्तराखण्ड (कुमाऊं ) का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है । 

अंग्रेज इतिहासकार एटकिन्सन के अनुसार कार्तिकेयपुर राज्य की सीमा  उत्तर मैं तिब्बत कैलास, पश्चिम मैं सतलज, पूर्व मैं गण्डकी तथा दक्षिण मैं कठेर ( रूहेलखंड ) तक था । 

कार्तिकेयपुर राजवंश का प्रथम राजा बसंतदेव था । वह परमभद्रारक् महाराजाधिराज परमेस्वर  की उपाधि धारण करता था ।  इसने बागेश्वर के समीप एक मंदिर को स्वर्णेस्वर नामक गांव को दान मैं दिया था । 

बसंतदेव के बाद खर्पदेव  नामक राजा का उल्लेख है । 

कश्मीरी इतिहासकार कल्हण की राजतरंगणी पुस्तक मैं कश्मीरी राजा ललितादित्य मुक्तापीड़ द्वारा गढ़वाल क्षेत्र जितने का उल्लेख है ।  संभवतः इसी समय खर्परदेव कार्तिकेयपुर पर कब्ज़ा कर नए वंश की स्थापना की थी। 

राजा खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन  समकालीन था ।   इसके बाद पश्चायत उसका पुत्र कल्याण राज शासक बना ,इसकी पत्नी का नाम महारानी लद्धादेवी  था । 

खर्परदेव वंश का अंतिम शासक उसका पोता त्रिभुवनराज था । इसने भी परमभद्रारक् महाराजाधिराज परमेस्वर  की उपाधि धारण की थी।  त्रिभुवनराज द्वारा किसी किरात-पुत्र के साथ संधि करने और व्याग्रस्वर देवता के मंदिर को भूमिदान की चर्चा बागेश्वर लेख मैं की गयी है । 

नालंदा अभिलेख मैं बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की चर्चा है।   सम्भवत इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेयपुर राज्य मैं खर्परदेववंश के स्थान पर निम्बर वंश की स्थापना हुई । 

निम्बर शैव मतावलम्बी था ।  उसने जागेश्वर मैं विमानों का निर्माण कराया। 

निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना।  कार्तिकेयपुर राजवंश का यह पहला ऐसा शासक था।  जिसने समस्त उत्तराखंड को एक सूत्र मैं बांधने का प्रयास किया।  यह भी अपने पिता की भांति शैव  था। जागेश्वर मैं इसने नवदुर्गा महिषमर्दिनी , लकुलीश तथा नटराज के मंदिर का निर्माण कराया था । 

इष्टगण के बाद उसका पुत्र ललितशुर देव शासक बना । पांडुकेश्वर के ताम्रपत्र मैं इसे कालिकलंक  पंक मैं मग्ध धरती के उद्धार के लिए बरहवतार के समान बताया गया । 

पांडुकेश्वर ताम्रपत्र मैं ललितशुरदेव के बाद उसके पुत्र भूदेव के राजा बनने को उल्लेख है।   इसने बौद्ध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर के निर्माण मैं सहयोग दिया। 

बालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्र से प्राप्त के अनुसार सलोदादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने  सलोदादित्य वंश की स्थापना की । 

इच्छरदेव ने भुवन-विख्यात -दुर्मदाराति-सीमन्नवनी -वैधत्यदीक्षादान-दक्षेकगुरु की उपाधि धारण की। 

इच्छरदेव के बाद इस वंश मैं क्रमश देसतदेव, पदमदेव, सुमिक्षराजदेव, आदि शासक हुए । 

इतिहासकार लक्ष्मीदत्त जोशी के अनुसार कार्तिकेयपुर के राजा मूलतः अयोध्या के थे ,राजा शालिवाहन कार्तिकेयपुर के आदि पुरुष मने जाते है । इनके इष्टदेव  कार्तिकेय थे ,कुमाऊ की जनता भी कार्तिकेय को अपना लोक देवता मानते है । 

कार्तिकेय वंशीय राजाओं के लोक हितकारी कार्यों के कारण कुमाऊ क्षेत्र मैं आज भी यह प्रचलित है की कार्तिकेयपुर वंश के अवसान पर सूर्यास्त हो गया और रात्रि हो गयी। 

इतिहासकार बद्रीदत्त पांडेय कार्तिकेयपुर राजाओं को सूर्यवंशी कहते है ,ये शासक गिरिराजचक चूड़ामणि के उच्च पद से विभूषित थे । 

इन शासकों को राज भाषा संस्कृत व् लोक भाषा पालि थी ,इनका राज्य धर्मराज्य था। इन्होने सड़के व् पुलों आदि का उत्तम व्यवस्था भी की । 

कार्तिकेयपुरताम्रपत्रों के अनुसार कार्तिकेयपुरराज्य की सीमा  एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक थी। 

कार्तिकेयपुरराजवंश के समय उत्तराखण्ड मैं आदि गुरु शंकराचार्य का आगमन हुआ और उन्होंने इस क्षेत्र मैं बौद्ध धर्म के प्रभाव को समाप्त  तथा हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इसी कर्म मैं बद्रीनाथ व् केदारनाथ मंदिरों को पुनःरुद्वार कराया गया और ज्योतिर्मठ की स्थापना की सन 820 ई. मैं केदारनाथ मैं उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। 

इनका इतिहास बागेश्वर, कंडारा ,पांडुकेश्वर, एवं बैजनाथ आदि स्थानों से प्राप्त ताम्र लेखों के आधार पर मिलता है ,अतः  इस राजवंश को उत्तराखण्ड (कुमाऊं ) का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है। 

अंग्रेज इतिहासकार एटकिन्सन के अनुसार कार्तिकेयपुर राज्य की सीमा  उत्तर मैं तिब्बत कैलास, पश्चिम मैं सतलज, पूर्व मैं गण्डकी तथा दक्षिण मैं कठेर ( रूहेलखंड ) तक था । 

इस वंश का प्रथम राजा बसंतदेव था । वह परमभद्रारक् महाराजाधिराज परमेस्वर  की उपाधि धारण करता था ।  इसने बागेश्वर के समीप एक मंदिर को स्वर्णेस्वर नामक गांव को दान मैं दिया था । 

बसंतदेव के बाद खर्पदेव  नामक राजा का उल्लेख है । 

कश्मीरी इतिहासकार कल्हण की राजतरंगणी पुस्तक मैं कश्मीरी राजा ललितादित्य मुक्तापीड़ द्वारा गढ़वाल क्षेत्र जितने का उल्लेख है ।   संभवतः इसी समय खर्परदेव कार्तिकेयपुर पर कब्ज़ा कर नए वंश की स्थापना की थी। 

राजा खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन  समकालीन था ।  इसके बाद पश्चायत उसका पुत्र कल्याण राज शासक बना ,इसकी पत्नी का नाम महारानी लद्धादेवी  था । 

खर्परदेव वंश का अंतिम शासक उसका पोता त्रिभुवनराज था ।  इसने भी परमभद्रारक् महाराजाधिराज परमेस्वर  की उपाधि धारण की थी।  त्रिभुवनराज द्वारा किसी किरात-पुत्र के साथ संधि करने और व्याग्रस्वर देवता के मंदिर को भूमिदान की चर्चा बागेश्वर लेख मैं की गयी है। 

नालंदा अभिलेख मैं बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की चर्चा है। सम्भवत इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेयपुर राज्य मैं खर्परदेववंश के स्थान पर निम्बर वंश की स्थापना हुई । 

निम्बर शैव मतावलम्बी था।  उसने जागेश्वर मैं विमानों का निर्माण कराया। 

निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना ।  कार्तिकेयपुर राजवंश का यह पहला ऐसा शासक था।  जिसने समस्त उत्तराखंड को एक सूत्र मैं बांधने का प्रयास किया । यह भी अपने पिता की भांति शैव  था। जागेश्वर मैं इसने नवदुर्गा महिषमर्दिनी , लकुलीश तथा नटराज के मंदिर का निर्माण कराया था। 

इष्टगण के बाद उसका पुत्र ललितशुर देव शासक बना ।  पांडुकेश्वर के ताम्रपत्र मैं इसे कालिकलंक  पंक मैं मग्ध धरती के उद्धार के लिए बरहवतार के समान बताया गया । 

पांडुकेश्वर ताम्रपत्र मैं ललितशुरदेव के बाद उसके पुत्र भूदेव के राजा बनने को उल्लेख है ।  इसने बौद्ध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर के निर्माण मैं सहयोग दिया ।  

बालेश्वर एवं पांडुकेश्वर ताम्रपत्र से प्राप्त के अनुसार सलोदादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने  सलोदादित्य वंश की स्थापना की ।  

इच्छरदेव ने भुवन-विख्यात -दुर्मदाराति-सीमन्नवनी -वैधत्यदीक्षादान-दक्षेकगुरु की उपाधि धारण की।  

इच्छरदेव के बाद इस वंश मैं क्रमश देसतदेव, पदमदेव, सुमिक्षराजदेव, आदि शासक हुए।  

इतिहासकार लक्ष्मीदत्त जोशी के अनुसार कार्तिकेयपुर के राजा मूलतः अयोध्या के थे ,राजा शालिवाहन कार्तिकेयपुर के आदि पुरुष मने जाते है ।   इनके इष्टदेव  कार्तिकेय थे ,कुमाऊ की जनता भी कार्तिकेय को अपना लोक देवता मानते है ।  

कार्तिकेय वंशीय राजाओं के लोक हितकारी कार्यों के कारण कुमाऊ क्षेत्र मैं आज भी यह प्रचलित है की कार्तिकेयपुर वंश के अवसान पर सूर्यास्त हो गया और रात्रि हो गयी ।  

इतिहासकार बद्रीदत्त पांडेय कार्तिकेयपुर राजाओं को सूर्यवंशी कहते है ,ये शासक गिरिराजचक चूड़ामणि के उच्च पद से विभूषित थे ।   

इन शासकों को राज भाषा संस्कृत व् लोक भाषा पालि थी ,इनका राज्य धर्मराज्य था।  इन्होने सड़के व् पुलों आदि का उत्तम व्यवस्था भी की।  

कार्तिकेयपुरताम्रपत्रों के अनुसार कार्तिकेयपुरराज्य की सीमा  एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक थी।  

कार्तिकेयपुरराजवंश के समय उत्तराखण्ड मैं आदि गुरु शंकराचार्य का आगमन हुआ और उन्होंने इस क्षेत्र मैं बौद्ध धर्म के प्रभाव को समाप्त  तथा हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इसी कर्म मैं बद्रीनाथ व् केदारनाथ मंदिरों को पुनःरुद्वार कराया गया और ज्योतिर्मठ की स्थापना की सन 820 ई. मैं केदारनाथ मैं उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया।  

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