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यज्ञ के सम्बन्ध में अनेक प्रांत धारणाएँ और उनका तर्कसंगत निराकरण

हिन्दू धर्म : यज्ञ-याग के सम्बन्ध में अनेक प्रांत धारणाएँ हैं। उन आपत्तियों का सुविचारित तर्कसंगत निरसन संभव है? संसार में हमें सुखी जीवन जीना है तो हममें आपसी सहयोग का भावहोना आवश्यक है। हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि हमें जिनसे मदद मिलती है, हम उनकी तो मदद करें ही, समाज की भी भरसक सेवा करें।


यज्ञ के लाभ , यज्ञ का अर्थ क्या होता है ,


हिन्दू मान्यता के अनुसार संसार केवल मनुजों तक सीमित नहीं है। इसमें चराचर प्राणी, वनस्पति तथा प्रकृति के इतर तत्व भी समाहित हैं। इनमें कुछ सचेतन तत्व हैं जो प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित करते हैं। ये देवता माने जाते हैं। 


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यज्ञ-याग वे अनुष्ठान हैं जिनसे इन देवताओं को तुष्टकिया जाता है। शास्त्र या धर्मग्रन्थों से यह धारणा प्रेरित-पोषित है। इन अनुष्ठानों से संतुष्ट देवों से हमें तुष्टि, आहार, स्वास्थ्य, ऐश्वर्य, सन्तान आदि की प्राप्ति होती है और वे असत् से हमारी रक्षा करते हैं। मानव तथा देव परस्पर एक दूसरे को सन्तुष्ट रखते हैं तो संसार में भी तुष्टि-पुष्टि की संभावना होती है। वैदिक यज्ञ यागों एवं बलिदान के मूल में यही प्रयोजन माना जाता है। 


धर्मग्रन्थों आदेशानुसार अग्नि प्रज्ज्वलित करना, सन्दर्भोचित मंत्रों के उच्चारण द्वारा देवों को आमंत्रित करना और अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु उनके लिए आहुति देना आदि वैसे यज्ञ-यागों का अनुष्ठान है। ऐसे यज्ञ यागों के विरुद्ध उठायी गयी आपत्तियों और उनके बारे में प्रचलित भ्रांत धारणाओं का संक्षेप में उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है-


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  1. यज्ञकुंड में दी जाने वाली आहुतियों का प्राकृतिक शक्तियों पर कोई असर उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार बिजली के खम्भे के लगने मात्र से गाछ से कोई नारियल बगीचे में नहीं गिरता। 
  2. इन यज्ञ-यागों में पशुबलि चढ़ाई जाती है। इससे जीव हिंसा होती है। मांस खाने की इच्छा से ही इन यज्ञों की व्यवस्था हुई होगी।
  3. दूध, दही, घी, वस्त्र आदि यज्ञाग्नि को अर्पित कर उन्हें नष्ट करना हद दर्जे की बेवकफी नहीं तो और क्या है? गरीबों और जरूरतमंदों में इन्हें बाँटना अच्छा नहीं है? 

ऊपर उठायी गयी आपत्तियों का जवाब यह हो सकता है -


यज्ञकुंड में आहुति दी जाती है। यह सही है। किन्तु ईश्वर या परमात्मा उसे ग्रहण जो करता है! अन्तर्यामी और सर्वव्यापी होने से उसके लिए यह कोई कठिन काम नहीं कि वह यजमानों की आशा आकांक्षाओं को पूरा होने दे। प्रकृति उसी के अधीन जो है। 


यज्ञ अनेक प्रकार के हैं! पशुबलि चढ़ाये जाने वाले यज्ञ विरल हैं। धर्मग्रन्थों में ही मांस भक्षण का विधान है। अतः मांस खाने के लालच से यज्ञ की व्यवस्था हुई, यह कहना लचर दलील है। जीव हिंसा का जहाँ तक प्रश्न है- प्रतिदिन के जीवन में, जीविका उपार्जन के सिलसिले में यह अनिवार्य सा हो गया है। अतः अधिकाधिक लोगों के कल्याण के लिए होने वाले इन धार्मिक अनुष्ठानों में जीव हिंसा अपेक्षित हो जा सकती है। हाँ, बुद्धदेव, महावीर, शंकराचार्य तथा अन्य युगपुरुषों द्वारा चलाये गये आन्दोलनों के फलस्वरूप बहुत पहले ही पशुबलि की प्रथा बंद हो गयी। आजकल प्रतीक रूप में केवल आटे की आकृतियाँ यज्ञों में होम दी जाती हैं।


यह भावना आस्था पर निर्भर है। सब धर्मों में ऐसे विश्वास प्रचलित हैं। प्रत्येक धर्मग्रन्थ ही उनका आधार है। श्रद्धा-भक्ति से होने वाले आचरण का मल्यांकन भोतिक मूल्यों के तहत करना कोई बद्धिमानी नहीं है। परम विवेकी शंकराचार्य जी ने भी इनका निषेध नहीं किया। यज्ञकंड में इन वस्तुओं की आहुति चढ़ाने वाले श्रद्धालु यजमान निजी तौर पर ऐसा करते हैं। सरकार या समाज की सम्पत्ति का उपयोग तो वे नहीं करते। ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों पर सत्पात्रों को अन्न वस्त्र, द्रव्य आदि उपहार स्वरूप भेंट देना वांछनीय ही नहीं, अनिवार्य भी माना गया है। 


कृष्ण भगवान ने यज्ञ अर्थ-व्याप्ति इतनी बढ़ा दी है कि प्रतिदिन के जीवन में उसके अनुष्ठान की संभावनाएँ असीम हो गई हैं। धनिक धन का, ज्ञानी ज्ञान का, संत तपोबल का दान जो करते हैं वह यज्ञाग्नि में दी जाने वाली आहुतियों से किसी भी माने में घटिया नहीं है। आवश्यकता से अधिक जो कुछ पास है उसका यज्ञरूप में अन्यों में वितरण सामाजिक दायित्व निभाने का उत्तम आचरण है


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