ये मोह के धागे: हर परिवार की कहानी है ये । बच्चों से गुलज़ार घर , उनके नौकरी या शादी करके चले जाने के बाद काटने को दौड़ता है । छुट्टियों में बच्चे घर आते हैं , फिर - फिर वही कहानी दोहराई जाती है । मन को तसल्ली कैसे हो सकती है फिर ?
ये मोह के धागे: कहानी | Ye Moh ke Dhaage Kahani in Hindi
आज सुबह की सैर पर जाते हुए मिसेज शर्मा 'से मुलाकात हो गई ।
आपके मेहमान चले गए ? " उन्होंने पूछा । '
मेहमान ? ' मैं आश्चर्यचकित थी । '
हां , वह मेड बता रही थी , आपके यहां मेहमान आए हुए हैं , इसलिए काम कुछ ज्यादा है और वह लेट हो जाती है । ' '
अच्छा , वो बच्चे आए हुए थे । ' मैंने हंसकर उत्तर दिया ।
मन अतीत में पहुंच गया । वर्षों पूर्व मेरी दादी आई हुई थीं , तब भी ऐसा ही हुआ था । काम वाली बाई ने उन्हें ' मेहमान ' कह दिया । ' मेहमान ' शब्द सुनते ही वो आपे से बाहर हो गईं । '
हां भई ! अब हम मेहमान हो गए । घर की मालकिन तो ये हैं । इन्होंने ही मेहमान कहा होगा । ' उनका सारा गुस्सा मां पर फूट रहा था और मां बेचारी चुपचाप सारे आरोप अपने ऊपर झेल रही थीं।
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और आज मिसेज शर्मा द्वारा अपने ही बच्चों के लिए कहा गया ' मेहमान ' शब्द मन में कहीं फांस बन कर चुभ गया । सच ही तो कहा है उन्होंने मेहमान बनकर रह गए हैं बच्चे । मन अतीत में गोते खाने लगा था । बच्चे छोटे - छोटे थे । उनको सम्हालने में सारा दिन व्यस्त रहती ।
सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी । फिर उनके स्कूल जाने पर बैग तैयार करना , टिफिन बॉक्स पैक करना , किताबें कॉपियां सम्हालना , हर समय बिखरा - बिखरा सा घर समेटना , अक्सर बच्चों पर झुंझला उठती थी ।
ऐसे में एक दिन माधवी आंटी ने समझाया , ' बेटा ! यह तुम्हारी जिंदगी का गोल्डन टाइम है । इसे इन्जॉय करो । एक बार बच्चों के पंख निकल आए तो इनको उड़ते हुए देर नहीं लगेगी और रह जाएगा यह खाली नीड़ । '
और फिर सच में बच्चे स्कूल से कॉलेज पहुंच गए । धीरे - धीरे हॉस्टल की दुनिया में रम गए । पर एक महीन डोर से बंधे हुए महीने , पंद्रह दिन बाद आते , घर फिर गुलजार हो जाता । समय ने फिर करवट बदली और सब अपने अपने घर - बार में मस्त हो गए ।
अब उनकी अपनी दुनिया है जिसमें वे पूरी तरह रच - बस चुके हैं । आज भी माधवी आंटी के शब्द मुझे बार - बार याद आते हैं । कितना सच था उनका कथन !
हां , यहां का आकर्षण उन्हें वर्ष में दो - तीन बार यहां आने के लिए अवश्य विवश कर देता है और वे प्रवासी पक्षियों की तरह खिंचे चले आते हैं । पिछले चार - पांच दिनों से वे यहीं थे । घर फिर भरा - पूरा लग रहा था ।
हर तरफ चहल - पहल थी । समय मानो पंख लगाकर
उड़ा जा रहा था । फिर उनके जाने की तैयारी । सब तरफ़ भागमभाग पड़ी हुई थी , अफरा - तफरी मची हुई थी । सब अपने आप में व्यस्त थे ।
सोनू पूछ रहा था- ' मम्मी , यह रुमाल मेरा है या फिर मामू का ? '
उधर रेणुका कह रही थी- ' ममा , मेरे सॉक्स नहीं मिल रहे हैं , यहां ही रखे थे । ' मैं मूक दर्शक बनी सब देख - सुन रही थी ।
और अब ...
उनके जाने के बाद घर में सन्नाटा पसरा था , लेकिन सब सामान यथावत था । मन गहरे अवसाद में घिर गया । वर्षों पहले उनके जाने के बाद दिनों तक घर बिखरा रहता था । सामान समेटती रहती थी ।
हर अलमारी , हर कोने में उन सबके होने का अहसास बना रहता । पर अब चलते - चलते भी बच्चे अपनी चद्दरें तक तह कर गए हैं । बेटियां जल्दी जल्दी हाथ चला कर क्रॉकरी सम्हाल रही थीं । '
रहने दो न मम्मी ! नानी कर लेंगी । '
नानी अकेली कैसे करेंगी ? ' छुटकी ने उसे चुप करा दिया था । सच ही कहा था मिसेज शर्मा ने , ' मेहमान ही तो हैं ये बच्चे । ' क्योंकि घर आए मेहमान भी अक्सर चलते समय सब कुछ यथावत करके जाना चाहते हैं , जिससे मेजबान को बाद में कोई असुविधा न हो ।
तभी बच्चों के अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचने के फोन आने लग गए । फोन क्या , बस एक वाक्य ' मम्मी ! हम ठीक - ठाक पहुंच गए हैं । बाकी फिर बात करेंगे । ' और फोन बंद !
सायंकाल फिर मोबाइल बज उठा । उधर बेटी थी , ' ममा , पिछले हफ़्ते जो मेरा इंटरव्यू हुआ था , उसमें मेरा सिलेक्शन हो गया है । ' आवाज़ से ख़ुशी टपक रही थी । उसकी चहकती आवाज सुनकर सारा अवसाद छूमंतर हो गया ।
मैं सोच रही थी कि हम भी कितने मूर्ख हैं । बच्चे अपना बेहतर मुकाम हासिल करने के लिए उड़ानें भर रहे हैं , जिससे वे अपनी पहचान बना सकें और हमारी पहचान में इजाफा कर सकें । पर हम उन्हें सदैव अपने पास बनाए रखना चाहते हैं ।
सबसे बड़ी बात , उनका हमसे मिलने आना मात्र आकर्षण नहीं , हमारे प्रति उनका दिली लगाव है । अब मन पूर्णतः आश्वस्त था । शायद मोह के बंधन धीरे - धीरे ढीले पड़ने लग गए थे , और मन ने यह पूर्णतया स्वीकार कर लिया था कि बच्चे तो पंछी हैं , पंख निकलते ही उड़ने लगते हैं ।
अब अंतर्मन के किसी कोने से आवाज निकली- ' जहां भी रहो , ख़ुश रहो ।'
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