मां जैसी बहन पहली बार मदद मांग रही थी और मेरा जलता मन कांटों पर लोट रहा था। नागफनी Cactus की चुभन के बीच एक चेहरा उभरा ...
कहानी: सुनीता मिश्रा
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ये तीसरा साल था मेडिकल के एंट्रेंस एक्जाम में बैठने का उसका । इस वर्ष भी क्लियर न कर पाया ।
उसकी इन असफलताओं का भले ही उस पर कोई असर न पड़ा हो पर मेरा मन कहीं से दरक गया। आखिर कहां, किस जगह मुझसे गलती हो गई ? बहुत अधिक लाड़ प्यार या शायद मेरा उसके प्रति अति - महत्वकांक्षी हो जाना ।
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दिदिया का फोन आया । दिदिया मेरी बड़ी बहिन । मां तो मुझे दो वर्ष का दिदिया की गोद में छोड़ अनंत यात्रा पर चली गई । मेरे लिए तो मां, बहिन जो भी मान लें दिदिया ही थीं । दिदिया उस समय पहली कक्षा में पढ़ती होंगी, जब वो मुझे गोदी में लेकर अपने साथ स्कूल ले जातीं ।
मुझे पास में बिठा लेतीं । काग़ज की पुड़िया में बंधे मुरमुरे और गुड़ भेली मुझे थमा देतीं, मैं आराम से खाता, वो पढ़ाई करती । हां, कभी - कभी मैं चोरी से उसकी खड़िया लेकर चाटता, पकड़े जाने पर हल्का सा धौल मेरी पीठ पर लगा देतीं, फिर अपनी फ्रॉक से मेरा मुंह पोंछती ।
गांव के मेले - ठेले में कई तरह के झूले लगते । एक बार स्कूल से लौटते हुए लकड़ी के झूले के सामने मैं रुक गया जिद कर बैठा झूला झूलने की । दो पैसे में झूले के चार चक्कर ( नीचे से ऊपर फिर नीचे ) झूलेवाला लगवाता । बहुत मजा आता जब झूला ऊपर से नीचे की ओर आता ।
दिदिया ने अपना बस्ता देखा । दो क्या एक भी पैसा नहीं था उसमें मेरा रोना, मचलना बदस्तूर जारी था । दिदिया की आंखों में निरीहता थी । वो झूले वाले से बार बार कह रहीं थीं ओ झूले वाले भईय्या, मेरे भाई को आज अपने झूले में बिठा लो, मैं कल तुम्हें पैसे दे दूंगी ।
'झूले वाला बोला' तुम इसके जूते मेरे पास रख दो । कल आकर पैसे दे देना और जूते ले जाना । उसकी पूरी निगाह मेरे नये जूतों पर थी ।
और मुझ पर तो झूला झूलने का भूत सवार था । मैं फ़टाफट अपने जूते उतारने लगा । दिदिया ने मुझे रोक दिया और अपनी चप्पलें उतार कर उसकी ओर बढ़ा दीं ।
शायद झूले वाले को सौदा बुरा नहीं लगा , उसने मुझे झूले पर बिठा लिया । दिदिया, गरम धूल - मिट्टी में नंगे पैर पैदल मुझे लेकर घर लौटी ।
दूसरे दिन झूला वहां से उठ चुका था । मैं रास्ते भर सोचता रहा, जब पढ़ लिखकर बड़ा आदमी बनूंगा तब दिदिया के लिये सुन्दर सी, लाल रंग की ऊंची एड़ी की सैंडिल खरीदूंगा, जैसे हमारे स्कूल की बड़ी बहिन जी पहनती हैं ।
दसवीं के बाद दिदिया के हाथ पीले कर दिए गए ।
वो पढ़ने में बहुत तेज थीं । पर बाबू की माली हालत ऐसी नहीं थी कि दो बच्चों की पढ़ाई का खर्च वहन कर सकें । ससुराल चली गई दिदिया ।
उसका ससुराल संयुक्त और सम्पन्न था । इतनी बड़ी मिठाई की दुकान उस कस्बे में किसी की न थी । दिदिया के ससुर, जेठ, पति और देवर दुकान संभालते और हिस्सेदार भी थे दुकान के ।
दिदिया जब भी मायके आतीं, मेरे लिए नए कपड़े और मिठाई लेकर आतीं । जाते समय मेरे हाथों में रुपये रखतीं, मैं उनके पैर छूता तो आशीर्वाद देतीं कहतीं खूब पढ़ना, बड़ा आदमी बनना । बाबू का ध्यान रखना । उनकी सेवा करना ।
समय अपनी गति से चल रहा था । सब कुछ यथावत था । शान्त और स्थिर । अचानक परिस्तिथियां उलट गईं । परिवार के एक मजबूत स्तंभ के ढहते ही दीवारें आपस में टकराने लगीं । दिदिया के ससुर का देहांत क्या हुआ भाइयों में त्याग और प्रेम की भावनाएं ऐसी बिखरीं कि उनकी मां भी उन्हें समेट न पाईं ।
जब भी बटवारा होता है,अपनत्व तो विगलित होता ही है, समृद्धि भी श्रीहीन हो जाती है ।
कहते हैं, दुख कभी अकेला नहीं आता, बहुत-सी परेशानियां साथ लाता है। दिदिया को बेटी की तरह प्यार देने वाली उनकी ममतामयी सास नहीं रहीं ।
वो दिन याद है मुझे, गुड़िया के जन्म पर, अन्न-प्राशन के समय उनकी सास ने सोने की चम्मच से उसे खीर चटाई थी। दिदिया अक्सर कहतीं ' अम्मा के प्राण तो गुड़िया में बसते हैं ।'
जीजाजी की तबियत भी ठीक नहीं थी। तपेदिक ने उनको जकड़ लिया था । अब वे अकेली दुकान संभालने के साथ छोटी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। पति की बीमारी और गुड़िया की पढ़ाई का खर्च। जीवन रण में योद्धा की भांति लड़ना उन्होनें सीख लिया। मेरी अच्छी खासी गृहस्थी। मैं, पत्नी और एक बेटा । आर्थिक रूप से संपन्न ।
इतनी परेशानियों में भी उन्होंने मुझसे कोई सहायता नहीं मांगी, मुझसे क्या शायद किसी के भी आगे हाथ न फैलाया होगा उन्होंने बहुत स्वाभिमानी रहीं वो।
आज फोन पर उन्होंने कहा, 'मुन्ना, मैं बहुत मुश्किल में गुड़िया को सरकारी मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल गया पर फीस में कुछ रुपयों की कमी पड़ रही है, अगर तू हेल्प कर सके ...। '
वो बात पूरी भी न कर पाईं कि मैं बोल पड़ा, 'दिदिया, क्या बताएं, कुमुद ( पत्नी ) की तबीयत ठीक नहीं। उसका इलाज चल रहा है। इधर जो नया फ्लैट लिया उसकी किस्तें भी जा रहीं हैं। हाथ बहुत तंग है। वरना ...। सरासर झूठ बोल गया मैं।
झूठ तो बोल गया पर मन बेचैन हो गया । क्यों ऐसा कहा मैंने? मन के पाप को पकड़ लिया मैंने । मेरे मन में ईर्ष्या का कैक्टस उग आया था। हमारे सुपुत्र सारी सुविधाओं के बावजूद परीक्षा पास न कर पाए और दिदिया की बेटी ने असामान्य परिस्तिथियों में भी सफलता प्राप्त कर ली ।
हांलाकि इस असफलता और सफलता के बीच बहुत से बौद्धिक, मनोवैज्ञानिक कारण थे। पर मेरा मन तो एक ही जगह अटका था। गुड़िया पहली बार में ही परीक्षा में सफल हो गई और हमारे शहजादे ...।
दिदिया ने अगर गुड़िया के विवाह हेतु मदद मांगी होती तो मैं खुशी-खुशी उनकी मदद करता। पर ... उनकी इस मदद की मांग ने जैसे मेरे मन के मर्म पर कैक्टस के कांटे चुभो दिए ।
बहुत आहत हुआ मैं ।
तभी विचारों के झंझावत के बीच ममतामयी चेहरा मेरे सामने आ गया। उनकी आवाज कानों में गूंज गई, 'ऐ झूले वाले भईय्या, मेरे भाई को ... ।'
गर्म जलती जमीन की याद ने सिर झुका दिया । उस मां स्वरूपा बहिन के न जाने ऐसे कितने ऋण है मुझ पर। मैने मोबाइल उठा लिया, दिदिया के बैंक अकाउंट में पैसे ट्रांसफर करने के लिए ।
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