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परीक्षा-2 कहानी मुंशी प्रेमचंद | Pariksha Story Munshi Premchand

परीक्षा- मुंशी प्रेमचंद Priksha Munshi Premchand Ki Kahani


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लेखक- प्रेमचंद 


परीक्षा कहानी:  नादिरशाह की सेना ने दिल्ली में कत्ले-आम कर रखा है। गलियों में खून की नदियों ना बह रही हैं। चारों तरफ हाहाकार मचा हुआ है। बाजार बन्द है। दिल्ली के लोग घरों के द्वार बन्द किए जान की खैर मना रहे हैं। किसी की जान सलामत नहीं है। कहीं घरों में आग लगी हुई, कहीं बाजार लुट रहा है; कोई किसी की फरियाद नहीं सुनता। रईसों की बेगमें महलों से निकाली जा रही हैं और उनकी बेहुरमती की जाती है। ईरानी सिपाहियों की रक्तपिपासा किसी तरह नहीं बुझती। मानव हृदय की क्रूरता, कठोरता और पैशाचिकता अपना विकरालतम रूप धारण किए हुए है। इसी समय नादिरशाह ने बादशाही महल में प्रवेश किया।


दिल्ली उन दिनों भोग-विलास की केन्द्र बनी हुई थी। सजावट और तकल्लुफ के सामानों से रईसों के भवन भरे रहते थे। स्त्रियों को बनाव-सिंगार के सिवा कोई काम न था। पुरुषों को सुख भोग के सिवा और कोई चिन्ता न थी। राजनीति का स्थान शेर-शायरी ने ले लिया था। समस्त प्रान्तों से धन खिंच खिंचकर दिल्ली आता था और पानी की भांति बहाया जाता था। वेश्याओं की चांदी थी। कहीं तीतरों के जोड़ होते थे, कहीं बटेरों और बुलबुलों की पालियां ठनती थीं। सारा नगर विलास-निद्रा में मग्न था। नादिरशाह शाही महल में पहुंचा, तो वहां का सामान देखकर उसकी आंखें खुल गयीं। उसका जन्म दरिद्र घर में हुआ था। उसका समस्त जीवन रणभूमि में ही कटा था। भोग-विलास का उसे चस्का न लगा था। कहां रणक्षेत्र के कष्ट और कहां यह सुख-साम्राज्य ! जिधर आंख उठती थी, उधर से हटने का नाम न लेती थी।


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सन्ध्या हो गई थी। नादिरशाह अपने सरदारों के साथ महल की सैर करता और अपनी पसन्द की चीजों को बटोरता हुआ दीवाने खास में आकर कारचोबी मसनद पर बैठ गया। सरदारों को वहां से चले जाने का हुक्म दिया। अपने सब हथियार खोलकर रख दिए और महल के दारोगा को बुलाकर हुक्म दिया-मैं शाही बेगमों का नाच देखना चाहता हूं। तुम इसी वक्त उनको सुन्दर वस्त्राभूषणों से सजाकर मेरे सामने लाओ। खबरदार, जरा भी देर न हो! मैं कोई उज्र या इनकार नहीं सुन सकता।


दारोगा ने यह नादिरशाही हुक्म सुना, तो होश उड़ गए। वह महिलाएं जिन पर कभी सूर्य की दृष्टि भी नहीं पड़ी, कैसे इस मजलिस में आएंगी! नाचने का तो कहना ही क्या ! शाही बेगमों का इतना अपमान कभी न हुआ था। हा नरपिशाच! दिल्ली को खून से रंगकर भी तेरा चित्त शान्त नहीं हुआ। मगर नादिरशाह के सम्मुख एक शब्द भी जबान से निकालना अग्नि के मुख में कूदना था। सिर झुकाकर आदाब बजा लाया और आकर रनिवास में सब बेगमों को नादिरशाही हुक्म सुना दिया; उसके साथ ही यह इत्तला भी दे दी कि जरा भी ताम्मुल न हो, नादिरशाह कोई उज्र या हीला न सुनेगा ! शाही खानदान पर इतनी बड़ी विपत्ति कभी नहीं पड़ी; पर इस समय विजयी बादशाह की आज्ञा को शिरोधार्य करने के सिवा प्राणरक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं था।


बेगमों ने यह आज्ञा सुनी तो हतबुद्धि-सी हो गईं। सारे रनिवास में मातम सा छा गया। रसूल वह चहल पहल गायब हो गई। सैकड़ों हृदयों से इस अत्याचारी के प्रति एक शाप निकल गया। किसी ने आकाश की ओर सहायता - याचक लोचनों से देखा, किसी ने खुदा और का सुमिरन किया; पर ऐसी एक महिला भी न थी, जिसकी निगाह कटार या तलवार को तरफ गई हो। यद्यपि इनमें कितनी ही बेगमों की नसों में राजपूतानियों का रक्त प्रवाहित हो रहा था; पर इन्द्रियलिप्सा ने 'जौहर' की पुरानी आग ठंडी कर दी थी। सुख भोग की लालसा आत्म-सम्मान का सर्वनाश कर देती है। आपस में सलाह करके मर्यादा की रक्षा का कोई उपाय सोचने की मुहलत न थी। एक-एक पल भाग्य का निर्णय कर रहा था।


हताश होकर सभी ललनाओं ने पापी के सम्मुख जाने का निश्चय किया। आंखों से आंसू जारी थे, दिलों से आहें निकल रही थीं; पर रत्न जटित आभूषण पहने जा रहे थे। अश्रु- सिंचित नेत्रों में सुरमा लगाया जा रहा था और शोक-व्यथित हृदयों पर सुगन्ध का लेप किया जा रहा था। कोई केश गूंथती थीं, कोई मांगों में मोती पिरोती थीं। एक भी ऐसे पक्के इरादे की स्त्री न थी, जो ईश्वर पर अथवा अपनी टेक पर, इस आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस कर सके।


एक घंटा भी न गुजरने पाया था कि बेगमात परे के परे, आभूषणों से जगमगाती, अपने मुख की कान्ति से बेले और गुलाब की कलियों को लजाती, सुगन्ध की लपटें उड़ाती, छमछम करती हुई दीवाने खास में आकर नादिरशाह के सामने खड़ी हो गईं।


नादिरशाह ने एक बार कनखियों से परियों के इस दल को देखा और तब मसनद की टेक लगाकर लेट गया। अपनी तलवार और कटार सामने रख दीं। एक क्षण में उसकी आंखें झपकने लगीं। उसने एक अंगड़ाई ली और करवट बदल ली। जरा देर में उसके खर्राटों की आवाजें सुनाई देने लगीं। ऐसा जान पड़ा कि वह गहरी निद्रा में मग्न हो गया है। आध घंटे तक वह पड़ा सोता रहा और बेगमें ज्यों-की-त्यों सिर नीचा किए दीवार के चित्रों की भांति खड़ी रहीं। उनमें दो-एक महिलाएं जो ढीठ थीं, घूंघट की ओट से नादिरशाह को देख भी रही थीं और आपस में दबी जबान से कानाफूसी कर रही थीं— कैसा भयंकर स्वरूप है! कितनी रणोन्मत्त आंखें हैं! कितना भारी शरीर है! आदमी काहे को है, देव है!


सहसा नादिरशाह की आंखें खुल गईं। परियों का दल पूर्ववत् खड़ा था। उसे जागते देखकर बेगमों ने सिर नीचे कर लिए और अंग समेटकर भेड़ों की भांति एक-दूसरे से मिल गईं। सबके दिल धड़क रहे थे कि अब यह जालिम नाचने-गाने को कहेगा, तब कैसे क्या होगा! खुदा इस जालिम से समझे! मगर नाचा तो न जायगा। चाहे जान ही क्यों न जाय। इससे ज्यादा जिल्लत अब न सही जायगी।


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सहसा नादिरशाह कठोर शब्दों में बोला- ऐ खुदा की बन्दियों, मैंने तुम्हारा इम्तहान लेने के लिए बुलाया था और अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि तुम्हारी निस्बत मेरा जो गुमान था, वह हर्फ-ब-हर्फ सच निकला। जब किसी कौम की औरतों में गैरत नहीं रहती, तो वह कौम मुर्दा हो जाती है। देखना चाहता था कि तुम लोगों में कुछ गैरत बाकी है या नहीं। इसलिए मैंने तुम्हें यहां बुलाया था। मैं तुम्हारी बेहुरमती नहीं करना चहता था। मैं इतना ऐश का बन्दा नहीं हूं, वरना आज भेंड़ों के गल्ले चराता होता। न इतना हवसपरस्त हूं, वरना आज फारस में सरोद और सितार की तानें सुनता होता, जिसका मजा मैं हिन्दुस्तानी गाने से कहीं ज्यादा उठा सकता हूं। 


मुझे सिर्फ तुम्हारा इम्तहान लेना था। मुझे यह देखकर सच्चा मलाल हो रहा है कि तुममें गैरत का जौहर बाकी न रहा। क्या यह मुमकिन न था कि तुम मेरे हुक्म को पैरों तले कुचल देतीं ? जब तुम यहां आ गयीं तो मैंने तुम्हें एक और मौका दिया। मैंने नींद का बहाना किया। क्या यह मुमकिन न था कि तुममें से कोई ख़ुदा की बन्दी इस कटार को उठाकर मेरे जिगर में चुभा देती। मैं कलामे पाक की कसम खाकर कहता हूं कि तुममें से किसी को कटार पर हाथ रखते देखकर मुझे बेहद खुशी होती, मैं उन नाजुक हाथों के सामने गर्दन झुका देता! 


पर अफसोस है कि आज तैमूरी खानदान की एक बेटी भी यहां ऐसी नहीं निकली, जो अपनी हुरमत बिगाड़ने वाले पर हाथ उठाती ! अब यह सल्तनत जिन्दा नहीं रह सकती। इसकी हस्ती के दिन गिने हुए हैं। इसका निशान बहुत जल्द दुनिया से मिट जायगा। तुम लोग जाओ और हो सके, तो अब भी सल्तनत को बचाओ, वरना इसी तरह हवस की गुलामी करते हुए दुनिया से रुखसत हो जाओगी।


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