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शंखनाद कहानी प्रेमचंद | Shankhnaad Story Premchand

शंखनाद: मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Shankhannd Munshi Premchand


शंखनाद: मुंशी प्रेमचंद की कहानी | Shankhannd Munshi Premchand


लेखक- प्रेमचंद


भानु चौधरी अपने गांव के मुखिया थे। गांव में उनका बड़ा मान था। दारोगा जी उन्हें टाट बिना जमीन पर न बैठने देते। मुखिया साहब की ऐसी धाक बंधी हुई थी कि उनकी मर्जी बिना गांव में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कोई घटना, चाहे वह सास-बहू का विवाद हो, चाहे मेड़ या खेत का झगड़ा, चौधरी साहब के शासनाधिकार को पूर्णरूप से सचेत करने के लिए काफी थी, वह तुरंत घटनास्थल पर जा पहुंचते, तहकीकात होने लगती, गवाह और सबूत के सिवा किसी अभियोग को सफलता सहित चलाने में जिन बातों की जरूरत होती हैं, उन सब पर विचार होता और चौधरी जी के दरबार से फैसला हो जाता। किसी को अदालत जाने की जरूरत न पड़ी। हां, कष्ट के लिए चौधरी साहब कुछ फीस जरूर लेते थे। यदि किसी अवसर पर फीस मिलने में असुविधा के कारण उन्हें धीरज से काम लेना पड़ता तो गांव में आफत मच जाती थी, क्योंकि उनके धीरज और दारोगा जी के क्रोध में कोई घनिष्ठ संबंध था। सारांश यह कि चौधरी से उनके दोस्त-दुश्मन सभी चौकन्ने रहते थे। 


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चौधरी महाशय के तीन सुयोग्य पुत्र थे। बड़े लड़के बितान एक सुशिक्षित मनुष्य थे। डाकिये के रजिस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। बड़े अनुभवी, बड़े मर्मज्ञ, बड़े नीति- कुशल मिर्जई की जगह कमीज पहनते, कभी-कभी सिगरेट भी पीते, जिससे उनका गौरव बढ़ता था। यद्यपि उनके ये दुर्व्यसन बूढ़े चौधरी को नापसंद थे, पर बेचारे विवश थे; क्योंकि अदालत और कानून के मामले बितान के हाथों में थे। वह कानून का पुतला था। कानून की दफाएं उसकी जबान पर रखी रहती थीं। गवाह गढ़ने में वह पूरा उस्ताद था। मंझले लड़के शान चौधरी कृषि- विभाग के अधिकारी थे। बुद्धि के मंद; लेकिन शरीर से बड़े परिश्रमी। जहां घास न जमी हो, वहां केसर जमा दें। तीसरे लड़के का नाम गुमान था। वह बड़ा रसिक, साथ ही उद्दंड भी था। मुहर्रम में ढोल इतने जोरों से बजाता कि कान के पर्दे फट जाते। मछली फंसाने का बड़ा शौकीन था। बड़ा रंगीला जवान था। खंजड़ी बजा-बजाकर जब वह मीठे स्वर से ख्याल गाता, तो रंग जम जाता। उसे दंगल का ऐसा शौक था कि कोसों तक धावा मारता; पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे कि उसके इन व्यसनों से तनिक भी सहानुभूति न रखते थे। 


पिता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ रखा था। घुड़की-धमकी, शिक्षा और उपदेश, स्नेह और विनय, किसी का उस पर कुछ भी असर न हुआ। हां, भावजें अभी तक उसकी ओर से निराश न हुई थीं। वे अभी तक उसे कड़वी दवाइयां पिलाये जाती थीं; पर आलस्य वह राज रोग है जिसका रोगी कभी नहीं संभलता। ऐसा कोई बिरला ही दिन जाता होगा कि बांके गुमान को भावजों के कटुवाक्य न सुनने पड़ते हों। ये विषैले शर कभी-कभी उसके कठोर हृदय में चुभ जाते; किन्तु यह घाव रात भर से अधिक न रहता। भोर होते ही थकान के साथ ही यह पीड़ा भी शांत हो जाती। तड़का हुआ, उसने हाथ-मुंह धोया, बंशी उठायी और तालाब की ओर चल खड़ा हुआ। 


भावजें फूलों की वर्षा किया करत; बूढ़े चौधरी पैंतरे बदलते रहते और भाई लोग तीखी निगाह से देखा करते, पर अपनी धुन का पूरा बांका गुमान उन लोगों के बीच इस तरह अकड़ता चला जाता, जैसे कोई मस्त हाथी कुत्तों के बीच से निकल जाता है। उसे सुमार्ग पर लाने के लिए क्या- क्या उपाय नहीं किये गये। बाप समझाता-बेटा ऐसी राह चलो जिसमें तुम्हें भी पैसे मिलें और गृहस्थी का भी निर्वाह हो। भाइयों के भरोसे कब तक रहोगे ? मैं पका आम हूं-आज टपक पड़ा या कल। फिर तुम्हारा निबाह कैसे होगा ? 


भाई बात भी न पूछेंगे; भावजों का रंग देख रहे हो। तुम्हारे भी लड़के-बाले हैं, उनका भार कैसे संभालोगे ? खेती में जी न लगे, कहो कास्टिबिली में भरती करा दूं? बांका गुमान खड़ा खड़ा यह सब सुनता, लेकिन पत्थर का देवता था, कभी न पसीजता ! इन महाशय के अत्याचार का दंड उनकी स्त्री बेचारी को भोगना पड़ता था। मेहनत के घर के जितने काम होते, वे उसी के सिर थोपे जाते। उपले पाथती, कुएं से पानी लाती, आटा पीसती और तिस पर भी जेठानियां सीधे मुंह बात न करतीं, वाक्य-बाणों से छेदा करतीं। 


एक बार जब वह पति से कई दिन रूठी रही, तो बांके गुमान कुछ नर्म हुए। बाप से जाकर बोले- मुझे कोई दुकान खुलवा दीजिए। चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया । फूले न समाये। कई सौ रुपये लगा कर कपड़े की दुकान खुलवा दी। गुमान के भाग जागे । तनजेब के चुन्नटदार कुरते बनवाये, मलमल का साफा धानी रंग में रंगवाया। सौदा बिके या न बिके, उसे लाभ ही होना था ! दुकान खुली हुई है, दस-पांच गाढ़े मित्र जमे हुए हैं, चरस की दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं-


चल झटपट री, जमुना तट री, खड़ो नटखट री।


इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बांके गुमान ने खूब दिल खोल कर अरमान निकाले, यहां तक कि सारी लागत लाभ हो गयी। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा । बूढ़े चौधरी कुएं में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया - अरे राम! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बड़ी दुकान इस निखट्टू का कफन बन गयी। अब कौन मुंह दिखायेगा ? कौन मुंह लिये वह फिर घर आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा। कानूनदां बितान उनके ये ठाट-बाट देख कर जल जाता।


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मैं सारे दिन पसीना बहाऊं, मुझे नैनसुख का कुरता भी न मिलें, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठन कर निकले ? ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह में भी न मिले होंगे। मोठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अंत में यह जलन न सही गयी, और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदां बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा लायी और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेल कर आग लगा दी। ज्वाला उठी, सारे कपड़े देखते-देखते जल कर राख हो गये। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा, और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है। घर को जला कर तब बुझेगी। 


यह ज्वाला तो थोड़ी देर में शांत हो गयी, परन्तु हृदय की आग ज्यों की त्यों दहकती रही। अंत में एक दिन बुढे चौधरी ने घर के सब मेम्बरों को एकत्र किया और इस गूढ विषय पर विचार करने लगे कि बेड़ा कैसे पार हो। बितान से बोले- बेटा, तुमने आज देखा कि बात की बात में सैकड़ों रुपयों पर पानी फिर गया। अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो कि घर डूबने से बचे। मैं तो चाहता था कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूं, मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।


बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहगामिनी के सामने लुप्त हो जाती थी। वह अभी उसका उत्तर सोच रहे थे कि श्रीमती जी बोल उठीं-दादा जी! अब समुझाने-बुझाने से काम न चलेगा, सहते-सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूं-गुमान का तुम्हारी कमाई में हक है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ और चांदी के हिंडोले में झुलाओ। हममें न इतना बूता है, न इतना कलेजा। हम अपनी झोंपड़ी अलग बना लेंगे। हां, जो कुछ हमारा हो, वह हमको मिलना चाहिए। बांट-बखरा कर दीजिए। बला से चार आदमी हंसेंगे, अब कहां तक दुनिया की लाज ढोवें ?


नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का जो असर हुआ वह उनके विकसित और प्रमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था कि इस प्रस्ताव को इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीतिज्ञ महाशय गंभीरता से बोले-जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या गैरमन्कूला, आपके हीन- हयात तकसीम की जा सकती है, इसकी नजीरें मौजूद हैं। जमींदार को साकितुलमिल्कियत करने का कोई इस्तहकाक नहीं है।


अब मंदबुद्धि शान की बारी आयी, पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे आंखें बंद करके चलने वाला, ऐसे गूढ़ विषय पर कैसे मुंह खोलता । दुविधा में पड़ा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धर्म पत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया। बोली- बड़ी बहन ने जो कुछ कहा, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं । कोई तो कलेजा तोड़-फोड़ कर कमाये मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढांकने को वस्त्र तक न मिले, और कोई सुख की नींद सोये, हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाय ! ऐसी अंधेरे नगरी में अब हमारा निबाह न होगा।


शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्तकंठ से अनुमोदन किया। अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले- क्यों बेटा, तुम्हें भी यही मंजूर है ? अभी कुछ नहीं बिगड़ा। यह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा है, चाम किसी को नहीं। बोलो, क्या कहते हो ? कुछ काम-धंधा करोगे या अभी आंखें नहीं खुलीं ?


गुमान 'में धैर्य की कमी न थी। बातों को इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा देना उसका नित्य-कर्म था। किन्तु भाइयों की इस जान-मुरीदी पर उसे क्रोध आ गया। बोला- भाइयों की जो इच्छा है, वही मेरे मन में भी लगी हुई है। मैं भी इस जंजाल से भागना चाहता हूं। मुझसे न मजूरी हुई, न होगी। जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह पीसे! मेरे भाग्य में चैन करना लिखा है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूं? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं। अपनी-अपनी फिक्र कीजिए। मुझे आध सेर आटे की कमी नहीं है।


इस तरह की सभाएं कितनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस देश की सामाजिक और राजनीतिक सभाओं की तरह इसमें भी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। दो-तीन दिन गुमान ने घर पर खाना नहीं खाया। जतनसिंह ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल में पड़ा रहता। अंत में बूढ़े चौधरी गये और मना के लाये। अब फिर वह पुरानी गाड़ी अड़ती मचलती, हिलती चलने लगी। 


पांडे के घर के चूहों की तरह, चौधरी के घर में बच्चे भी सयाने थे। उनके लिए घोड़े मिट्टी के घोड़े और नावें कागज की नावें थीं। फलों के विषय में उनका ज्ञान असीम था, गूलर और जंगली बेर के सिवा कोई ऐसा फल न था, जिसे वे बीमारियों का घर न समझते हों, लेकिन गुरदीन के खोंचे में ऐसा प्रबल आकर्षण था कि उसकी ललकार सुनते ही उनका सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता था। साधारण बच्चों की तरह यदि सोते भी हों; तो चौंक पड़ते थे। गुरदीन उस गांव में साप्ताहिक फेरे लगाता था । उसके शुभागमन की प्रतीक्षा और आकांक्षा में कितने ही बालकों को बिना किंडरगार्टन की रंगीन गोलियों के ही, संख्याएं और दिनों के नाम याद हो गये थे। 


गुरदीन बूढ़ा-सा मैला-कुचैला आदमी था; किन्तु आस-पास में उसका नाम उपद्रवी लड़कों के लिए हुनमान मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर लड़कों का ऐसा धावा होता कि मक्खियों की असंख्य सेना को भी रण- स्थल से भागना पड़ता था । और जहां बच्चों के लिए मिठाइयां थीं, वहां गुरदीन के पास माताओं के लिए इससे भी ज्यादा मीठी बातें थीं। मां कितना ही मना करती रहे, बार-बार पैसा न रहने का बहाना करे पर गुरदीन चटपट मिठाइयों का दोना बच्चों के हाथ में रख ही देता और स्नेह - पूर्ण भाव से कहता-बहू जी, पैसे की कोई चिन्ता न करो, फिर मिलते रहेंगे, कहीं भागे थोड़े ही जाते हैं। नारायण ने तुमको बच्चे दिये हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर मिल जाती है, उन्हीं की बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो दिखावे, फिर देखना कैसा उनगन करता


गुरदीन का यह व्यवहार चाहे वाणिज्य-नियमों के प्रतिकूल ही क्यों न हो, चाहे 'नौ नगद सही, तेरह उधार नहीं' वाली कहावत अनुभव सिद्ध ही क्यों न हो, किन्तु मिष्ट भाषी गुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार पर पछताने या उसमें संशोधन करने की जरूरत नहीं हुई।


मंगल का शुभ दिन था। बच्चे बड़े बेचैनी से अपने दरवाजों पर खड़े गुरदीन की राह देख रहे थे। कई उत्साही लड़के पेड़ों पर चढ़ गये और कोई-कोई अनुराग से विवश होकर गांव के बाहर निकल गये थे। सूर्य भगवान् अपना सुहनला थाल लिए पूरब से पश्चिम जा पहुंचे थे, इतने में ही गुरदीन आता हुआ दिखायी दिया। लड़कों ने दौड़कर उसका दामन पकड़ा और आपस में खींचातानी होने लगी। कोई कहता था मेरे घर चलो; कोई अपने घर का न्योता देता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पड़ा। गुरदीन ने अपना खोंचा उतार दिया। 


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मिठाइयों की लूट शुरू हो गयी । बालकों और स्त्रियों का ठट्ट लग गया। हर्ष और विषाद, संतोष और लोभ, ईर्ष्या और क्षोभ, द्वेष और जलन की नाट्यशाला सज गयी। कानूनद बितान की पत्नी अपने तीनों लड़कों को लिये हुए निकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लड़कों के साथ उपस्थित हुई। गुरदीन ने मीठी बातें करनी शुरू कीं। पैसे झोली में रखे, धेले की मिठाई दी और धेले का आशीर्वाद । लड़के दोने लिये उछलते-कूदते घर में दाखिल हुए। अगर सारे गांव में कोई ऐसा बालक था जिसने गुरदीन की उदारता से लाभ न उठाया हो, तो वह बाक गुमान का लड़का धान था।


यह कठिन था कि बालक धान अपने भाइयों-बहनों को हंस-हंस और उछल-उछल कर मिठाइयां खाते देख कर सब कर जाय! उस पर तुर्रा यह है कि वे उसे मिठाइयां दिखा-दिखा कर ललचाते और चिढ़ाते थे। बेचारा धान चीखता और अपनी माता का आंचल पकड़- पकड़ कर दरवाजे की तरफ खींचता था; पर वह अबला क्या करे। उसका हृदय बच्चे के लिए ऐंठ-ऐंठ कर रह जाता था। उसके पास एक पैसा भी नहीं था। अपने दुर्भाग्य पर, जेठानियों की निष्ठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पति के निखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़ कर रह जाती थी। 


अपना आदमी ऐसा निकम्मा न होता, तो क्यों दूसरों का मुंह देखना पड़ता, क्यों दूसरों के धक्के खाने पड़ते ? उसने धान को गोद में उठा लिया और प्यार से दिलासा देने लगी- बेटा, रोओ मत, अबकी गुरदीन आवेगा तो तुम्हें बहुत-सी मिठाई ले दूंगी, मैं इससे अच्छी मिठाई बाजार से मंगवा दूंगी, तुम कितनी मिठाई खाओगे ! यह कहते-कहते उसकी आंखें भर आयीं। आह ! यह मनहूस मंगल आज ही फिर आवेगा; और फिर से यही बहाने करने पड़ेंगे! हाय, अपना प्यारा बच्चा धेले की मिठाई को तरसे और घर में किसी का पत्थर- सा कलेजा न पसीजे ! वह बेचारी तो इन चिंताओं में डूबी हुई थी और धान किसी तरह चुप ही न होता था। 


जब कुछ वश न चला, तो मां की गोद से जमीन पर उतर कर लोटने लगा और रो-रो कर दुनिया सिर पर उठा ली। मां ने बहुत बहलाया, फुसलाया, यहां तक कि उसे बच्चे की इस हठ पर क्रोध भी आ गया। मानव हृदय के रहस्य कभी समझ में नहीं आते। कहां तो बच्चे को प्यार से चिपटाती थी, ऐसी झल्लायी कि उसे दो-तीन थप्पड़ जोर से लगाये और घुड़क कर बोली-चुप रह अभागे ! तेरा मुंह मिठाई खाने का ? अपने दिन को नहीं रोता, मिठाई खाने चला है।


बांका गुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतुक बड़े ध्यान से देख रहा था। वह इस बच्चे को बहुत चाहता था। इस वक्त के थप्पड़ उसके हृदय में तेज भाले के समान लगे और चुभ गये। शायद उनका अभिप्राय भी यही था। धुनिया रूई को धुनने के लिए तांत पर चोट लगाता है।


जिस तरह पत्थर और पानी में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के हृदय में भी, चाहे वह कैसा ही क्रूर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं। गुमान की आंखें भर आयीं। आंसू की बूंदें बहुधा हमारे हृदय की मलिनता को उज्ज्वल कर देती हैं। गुमान सचेत हो गया। उसने जा कर बच्चे को गोद में उठा लिया और अपनी पत्नी से करुणोत्पादक स्वर में बोला-बच्चे पर इतना क्रोध क्यों करती हो? तुम्हारा दोषी मैं हूं, मुझको जो दंड चाहो, दो। परमात्मा ने चाहा तो कल से लोग इस घर में मेरा और मेरे बाल-बच्चों का भी आदर करेंगे। तुमने आज मुझे सदा के लिए इस तरह जगा दिया, मानो मेरे कानों में शंखनाद कर मुझे कर्म-पथ में प्रवेश का उपदेश दिया हो।


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