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रबीन्द्रनाथ टैगोर की 10 सर्वश्रेष्ठ कहानियां | Top 10 Stories of Rabindranath Tagore in Hindi

रबीन्द्रनाथ टैगोर की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ: रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्‍म 7 मई सन् 1861 को कोलकाता में देवेंद्रनाथ टैगोर और शारदा देवी के पुत्र के रूप में एक संपन्न बांग्ला परिवार में हुआ था। टैगोर को गुरुदेव के उपनाम से भी जाना जाता है, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर विश्वविख्यात कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार,साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। ये 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले एशिया के प्रथम सम्मानित व्यक्ति रहें हैं। मात्र आठ वर्ष की कुल आयु में टैगोर ने अपनी पहली कविता लिखी, सोलह साल की उम्र में उन्‍होंने कहानियां और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं-भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बांङ्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।


रबीन्द्रनाथ टैगोर ने 1892 से लेकर 1941 तक लगभग 84 छोटी बड़ी कहानियों की रचनाएँ की है, जिनमे से १० सर्वश्रेष्ठ कहानियों का चुनना काफी कठिन कार्य है फिर भी हम आपके के लिए इस पोस्ट के माध्यम से उनके द्वारा लिखित १० बेहतरीन कहानियों का संग्रह लेकर आये है। रबीन्द्रनाथ टैगोर की 10 श्रेष्ठ कहानियां में हम आपके लिए काबुलीवाला, पोस्टमास्टर, लल्ला बाबू की वापसी, दृष्टिदान, देन- लेन, दुलहिन, सजा, व्यवधान, स्वर्ण मृग, अतिथि उनकी बेहतरीन कहानी है। 


kahani Rabindranath Tagore


रबीन्द्रनाथ टैगोर की 10 सर्वश्रेष्ठ कहानियां | Top 10 Stories of Rabindranath Tagore in Hindi


1काबुलीवाला

मेरी पांच बरस की छोटी लड़की मिनी से क्षण भर भी बात किए बिना नहीं रहा जाता। संसार में जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने एक ही साल लगाया था। उसके बाद से,जब तक वह जागती रहती है, उस समय का एक भी क्षण वह खामोश रहकर नष्ट नहीं करती। उसकी मां कभी-कभी धमकाकर उसका मुंह बन्द कर देती है, पर मैं ऐसा नहीं कर पाता। मिनी अगर खामोश रहे, तो वह ऐसी अजीब-सी लगती है कि मुझसे उसकी चुप्पी ज्यादा देर तक सही नहीं जाती। सही कारण यही है कि उसके साथ मेरी बातचीत कुछ ज्यादा उत्साह के साथ चलती है। 


सबेरे मैं अपने उपन्यास का सत्रहवां अध्याय लिखने जा ही रहा था कि मिनी ने आकर शुरू कर दिया,“बाबू, रामदयाल दरबान काका को कौवा कह रहा था। वह कुछ नहीं जानता। है न बाबा?" 


संसार की भाषाओं की विभिन्नता के बारे में मैं उसे कुछ ज्ञान देनेवाला ही था कि उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया,“सुनो बाबू,भोला कह रहा था कि आसमान से हाथी सूंड से पानी बिखेरता है, तभी बारिश होती है।ओ मां! भोला झूठमूठ ही इतना बकता है! बस बकता ही रहता है,दिन-रात बकता रहता है, बाबू।”


इस बारे में मेरी राय के लिए जरा सा इन्तजार किए बिना वह अचानक पूछ बैठी,"क्यों बाबू,अम्मा तुम्हारी कौन लगती है?" 


मैंनेमन-ही-मनकहा,'साली'और मुंह से कहा,"मिनी,तू जा,जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी काम करना है।"


वह मेरी लिखने की मेज के पास मेरे पैरों के निकट बैठ गई और। दोनों घुटने और हाथ हिला-हिलाकर,फुर्ती से मुंह चलाते हुए रटने लगी, “आगडुम-बगडुम घोड़ा-डुम साजे।” उस समय मेरे उपन्यास के सत्रहवे अध्याय में प्रतापसिंह कंचनमाला को लेकर अंधेरी रात में कारागार की ऊंची खिड़की से नीचे नदी के पानी में कूद रहे थे


मेरा कमरा सड़क के किनारे था। यकायक मिनीं 'अक्को-बक्को तीन तिलक्को' खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़कर पहुंची और जोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाला! ओ, काबुलीवाला!" 


गन्दे-से ढीले कपड़े पहने, सिर पर पगड़ी बांधे, कन्धे पर झोली लटकाए और हाथ में अंगूर की दो-चार पिटारियां लिए एक लम्बा-सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देख मेरी बिटिया रानी के मन में कैसे भाव जगे होंगे, यह बताना मुश्किल है, पर वह जोर-जोर से उसे पुकार रही थी। मैंने सोचा, अभी कन्धे पर झोली लटकाए एक आफत मेरे सिर पर आ सवार होगी और मेरा सत्रहवां अध्याय समाप्त होने से रह जाएगा।


लेकिन मिनी की पुकार पर, जैसे ही काबुली ने हंसकर अपना चेहरा घुमाया और मेरे घर की ओर आने लगा, वैसे ही मिनी जान छुड़ाकर अन्दर की ओर भागी और लापता हो गई। उसके मन में एक अन्धविश्वास सा जम गया था कि झोली ढूंढ़ने पर मिनी जैसे दो-चार जीवित इनसान मिल सकते हैं। 


काबुली ने आकर हंसते हुए सलाम किया और खड़ा रहा। मैंने सोचा, हालांकि प्रतापसिंह और कंचनमाला दोनों की दशा बड़े संकट में है, फिर भी इस आदमी को घर बुलाकर कुछ न खरीदना ठीक नहीं होगा। 


कुछ चीजें खरीदीं। उसके बाद इधर-उधर की चर्चा भी होने लगी। अब्दुल रहमान से रूस, अंग्रेज, सीमान्त-रक्षा-नीति पर बातें होती रहीं।


अंत में उठते समय उसने पूछा,"बापूजी,तुम्हारी लड़की कहां गई?"


मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के इरादे से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे सटकर खड़ी हो गई। सन्देह-भरी नजरों से वह काबुली का चेहरा और उसकी झोली की ओर देखती रही। काबुली ने झोली से किशमिश और खुबानी निकालकर देना चाहा, पर उसने किसी तरह से नहीं लिया। दुगुने सन्देह के साथ वह मेरे घुटनों से चिपकी रही। पहला परिचय इसी तरह हुआ। 


कुछ दिनों बाद, एक सवेरे किसी जरूरत से घर के बाहर निकला तो देखा, मेरी बिटिया दरवाजे के पास बेंच पर बैठी बेहिचक बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा मुस्कुराता हुआ सुन रहा है और बीच-बीच में प्रसंग के अनुसार अपनी राय भी खिचड़ी भाषा में जाहिर कर रहा है। मिनी के पांच साल की उम्र के अनुभव में 'बाबू' के अलावा ऐसा धैर्यवाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो। फिर देखा, उसका छोटा-सा आंचल बादाम, किशमिश से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, "इसे यह सब क्यों दिया? ऐसा मत करना।” इतना कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बेझिझक अठन्नी लेकर झोली में डाल ली। 


घर लौटकर देखा, उस अठन्नी को लेकर बड़ा हो-हल्ला शुरू हो चुका था। 


मिनी की मां एक सफेद चमचमाता गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए डांटकर मिनी से पूछ रही थी, “तुझे अठन्नी कहां से मिली?" 


मिनी ने कहा, "काबुलीवाला ने दी है।" 


उसकी मां बोली, "काबुलीवाले से तूने अठन्नी ली क्यों?" 


मिनी रुआंसी-सी होकर बोली, "मैंने मांगी नहीं, उसने खुद ही दे दी।" 


मैंने आकर मिनी को उस पास खड़ी विपत्ति से बचाया और बाहर ले आया। 


पता चला कि काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी मुलाकात ही हो ऐसी बात नहीं। इस बीच वह रोज आता रहा और पिस्ता-बादाम की रिश्वत देकर मिनी के मासूम लोभी हृदय पर काफी अधिकार जमा लिया।


इन दोनों मित्रों में कुछ बंधी-बंधाई बातें और परिहास होता रहा। जैसे रहमान को देखते ही मेरी लड़की हंसती हुई उससे पूछती, “काबुलीवाला! ओ, काबुलीवाला! तुम्हारी झोली में क्या है?" 


रहमान एक बेमतलब नकियाते हुए जवाब देता, "हाथी।" 


यानी उसकी झोली के भीतर हाथी है, यही उनके परिहास का सूक्ष्म सा अर्थ था। अर्थ बहुत ही सूक्ष्म हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इस परिहास में दोनों को बड़ा मजा आता। सर्दियों की भोर में एक सयाने और एक कम उम्र बच्ची की सरल हंसी मुझे भी बड़ी अच्छी लगती। -काबुलीवाला READ MORE


पोस्टमास्टर


नौकरी लगते ही पोस्टमास्टर को ओलापुर गांव में आना पड़ा। साधारण-सा गांव। पास ही एक नीलहे साहब की कोठी है। साहब ने ही बड़ी कोशिश से यहां नया डाकघर खुलवाया है। 


हमारे ये पोस्टमास्टर कलकत्ता के रहनेवाले हैं। पानी की मछली को रेत पर डाल देने से उसकी जैसी दशा हो जाती है, इस ठेठ देहात में आकर पोस्टमास्टर की भी वही दशा हुई। एक अंधियारे अठचाले 'में उनका दफ्तर है, जिसके पास ही एक सेहला-भरा तालाब है और उसके चारों ओर जंगल। कोठी में गुमाश्ता आदि जो कर्मचारी हैं, उन्हें किसी से मिलने-जुलने की फुरसत ही नहीं और वे किसी भले आदमी से मिलने के काबिल भी नहीं हैं। 


खासतौर से कलकत्ता के लड़के मिलनसार होते नहीं। किसी अपरिचित स्थान में आकर या तो वे अक्खड़ बन जाते हैं या बिल्कुल सुस्त और लजीले। इसी वजह से स्थानीय लोगों से उनका मेल जोल नहीं हो पाता। इधर हाथ में काम-काज भी कुछ ज्यादा नहीं है। कभी-कभी वे दो-एक कविताएं लिखने की कोशिश करते हैं। इन कविताओं में वे ऐसा भाव व्यक्त करते हैं, जैसे दिन-भर पेड़-कोंपलों का कम्पन और आकाश के बादल देखकर ही जीवन बड़े सुख से बीता जा रहा हो, लेकिन अन्तर्यामी जानते हैं कि अगर 'अलिफलैला' का कोई देव आकर इन डाली-के साथ सारे पेड़ों को काटकर पक्की सड़क बना देता और बड़ी-बड़ी इमारतें आकाश के बादल को आंखों से ओट कर रख देता, तो इस अधमरे भले आदमी के लड़के को फिर नया जीवन मिल जाता। 


पोस्टमास्टर की तनख्वाह बहुत कम है। खुद खाना पकाकर खाना पड़ता है और गांव की अनाथ लड़की उनका काम-काज कर देती है। इसके बदले उसे दो जून कुछ खाने को मिल जाता है। लड़की का नाम है रतन। उम्र बारह-तेरह साल की। ब्याह की कोई विशेष सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती।


शाम को, जब गांव की गोशालाओं से घना धुआं कुंडली बनाकर ऊपर उठता, झाड़ियों में झींगुर बोलने लगते, दूर गांव के नशेबाज गवैयों को टोली मृदंग-करताल बजाकर ऊंची आवाज में गाना शुरू कर देती, तब अंधेरे चबूतरे पर बैठे-बैठे वृक्षों का कम्पन देखते हुए कवि के हृदय में भी धड़कन होने लगती। उस घड़ी घर के कोने में एक छोटा-सा दीया जलाकर पोस्टमास्टर पुकारते, “रतन!" रतन दरवाजे पर बैठी इसी पुकार का इन्तजार किया करती थी, लेकिन एक ही पुकार पर भीतर न आती, कहती, “क्या है बाबू, काहे बुलाते हो? 


"पोस्टमास्टर" क्या कर रही है तू?" 


रतन, “अभी चूल्हा सुलगाने जाना है चौके में ...।" 


पोस्टमास्टर, "चौके का काम बाद में होता रहेगा। जा, जरा तमाखू तो बना ला।"


थोड़ी देर में दोनों गाल फुलाए चिलम पर फुके मारती हुई रतन अन्दर आती। 


उसके हाथ से चिलम लेकर पोस्टमास्टर झट पूछ बैठते, "क्यों रतन, तुझे अपनी मां याद आती है?” वह बड़ा लम्बा किस्सा है। कुछ याद है, तो कुछ याद नहीं। मां से ज्यादा उसका बाप उसे प्यार करता था। बाप की याद थोड़ी-थोड़ी आती है। मेहनत-मजदूरी कर शाम को बाप घर लौट था, उन्हीं में दो-एक सन्ध्या उसके मन पर चित्र की तरह स्पष्ट बहुत अंकित हैं। यही नाते करते-करते रतन पोस्टमास्टर के पैरों के पास जमीन पर बैठ जाती। उसे याद आता, उसका एक छोटा भाई था। बहुत दिन पहले, बरसात के एक दिन गढैया के किनारे दोनों भाई-बहिन मिलकर एक पेड़ की डाली को बंसी बनाकर झूठ-मूठ मछली शिकार करने का खेल खेले थे। बहुत-सी महत्त्वपूर्ण घटनाओं से अधिक यही बात उसे ज्यादा याद आती थी। इसी तरह वातचीत करते-करते कभी-कभी रात हो जाती और मारे आलस के पोस्टमास्टर को खाना बनाने की इच्छा न होती। सवेरे की बासी भाजी-तरकारी बची होती और चूल्हा सुलगाकर रतन दो-चार रोटी सेंक लाती। उसी से दोनों का रात का खाना हो जाता। 


किसी दिन उस अठपहलू झोपड़ी के कोने में दफ्तर की लकड़ी के बने तख्त पर बैठकर पोस्टमास्टर भी अपने घर की बात छेड़ देते। छोटे भाई, मां और दीदी की बातें और परदेस में अकेले घर में बैठे-बैठे जिनके लिए हृदय काफी व्यथित हो उठता था, उनका बातें करने लगते। ये बातें हर घड़ी मन में उमड़ती-मुमड़ती रहती थीं, पर नीलकोठी के गुमाश्तों से नहीं कही जा सकतीं। वे ही बातें वे एक अनपढ़ छोटी लड़की से कहते चले जाते। उन्हें यह कतई असंगत न लगता। अन्त में ऐसा हुआ कि वह लड़की बातचीत के दौरान उनके घर के लोगों का मां, दीदी या दादा कहकर जिक्र करने लगी, यहां तक कि उसने अपने छोटे-से हृदय-पट पर उनके काल्पनिक चित्र भी बना लिए।


एक दिन बरसात के बादलों से मुक्त दोपहर को कुछ गर्मी-भरी सुख देनेवाली हवा चल रही थी। भीगी घास और पेड़-पौधों से धूप पड़ने के कारण एक तरह की गन्ध निकल रही थी। ऐसा लगता था जैसे थकी हुई धरती की गर्म सांस शरीर पर पड़ रही हो। न जाने कहां का एक जिद्दी पंछी इस भरी दुपहरी में प्रकृति के दरबार में अपनी सारी एकरस शिकायतें बार-बार बड़े ही करुण स्वर में दुहराता जा रहा था। पोस्टमास्टर के पास कोई काम न था। उस दिन वर्षा से धुले नर्म-चिकने पत्तोंवाले पेड़-पौधों को हिलोरें और पराजित वर्षा की धूप से उजियाले खंडहर जैसे बादलों के स्तूप वास्तव में देखने योग्य थे। पोस्टमास्टर यही देख रहे थे और सोच रहे थे कि काश इस समय अपने पास कोई अपना सगा होता, हृदय से सटी हुई स्नेह-भरी कोई मानव-मूर्ति होती। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा कि वह पंछी बार-बार इसी बात को दुहरा रहा है। पेड़ों की छाँह में डूबी सुनसान दुपहरी को इन पत्तों की मर्मर ध्वनि का भी अर्थ कुछ-कुछ वैसा ही है। कोई विश्वास नहीं करता और जान भी नहीं पाता, लेकिन इस छोटे से गांव के मामूली तनख्वाह पानेवाले सब-पोस्टमास्टर के मन में ऐसे ही भावों का उदय होना असम्भव नहीं है। 


पोस्टमास्टर ने एक लम्बी सांस लेकर पुकारा, "रतन!" रतन उस समय अमरूद के नीचे आराम से बैठी एक कच्चा अमरूद खा रही थी मालिक की आवाज सुनकर फौरन दौड़ती हुई आई और हांफती हुई बोली, “दादा, मुझे बुला रहे हो?” पोस्टमास्टर ने कहा," तुझे मैं थोड़ा-थोड़ा पढ़ना सिखाऊंगा।” कहकर सारी दोपहर 'छोटा अ', 'बड़ा आ' सिखाते रहे और इस तरह धोड़े ही दिनों में उसे 'संयुक्ताक्षर' तक पढ़ा दिया। 


सावन में वर्षा का कोई अन्त नहीं। ताल-तलैया, नदी-नाले सब पानी से लबालब भर गए थे। दिन-रात मेंढ़कों की टर्र-टर्र और वर्षा की अम-झम गूंजती रहती थी। गांव के रास्तों पर चलना-फिरना बन्द हो गया था। नाव पर बैठकर हाट जाना पड़ता था। 


एक दिन सवेरे खूब बादल छाए हुए थे। पोस्टमास्टर की छात्रा बहुत देर तक दरवाजे के पास प्रतीक्षा में बैठी थी, किन्तु दूसरे दिनों की तरह नियमित पुकार जब देर तक नहीं सुन पड़ी, तो वह अन्त में खुद ही अपनी पोथी और बस्ता लिए कमरे मे अन्दर पहुंची। देखा, पोस्टमास्टर अपनी चारपाई पर पड़े हैं। यह सोचकर कि वे आराम कर रहे हैं, उसने चुपके से बाहर निकल जाना चाहा। सहसा उसे सुनाई पड़ा, "रतन!” झट पलटकर वह बोली, “दादा, तुम सो रहे थे न?" पोस्टमास्टर ने करुण स्वर में कहा, "तबीयत कुछ अच्छी नहीं लग रही है, देख तो जरा मेरे माथे पर हाथ रखकर।" - पोस्टमास्टर READ MORE


लल्ला बाबू की वापसी


रायचरण जब पहले-पहल नौकरी पर बहाल हुआ तब उसकी उमर थी कुल बारह साल की। जैसोर जिले में उसका घर था। लम्बे-लम्बे बाल, बड़ी-बड़ी आखें और काली-चिकनी छरहरी देह थी उसकी। वह जाति का कायस्थ था, और उसके मालिक भी कायस्थ थे। मालिक के घर साल-भर का एक बच्चा था, उसे खिलाना-सम्हालना और घुमाना-फिराना, यही उसकी नौकरी थी। 

धीरे-धीरे उस बच्चे ने रायचरण की गोद छोड़कर कालेज में और आखिर में कालेज छोड़कर मुंसिफी में कदम रखा। और रायचरण अब भी उनके यहां नौकर है। अब उसका एक मालिक और बढ़ गया है, घर में  'बहुजी' आ गई हैं। इसलिए अनुकूल बाबू पर रायचरण का पहले जितना अधिकार था, उसका अधिकांश नई गृहिणी के हाथ लग गया है। 


किन्तु मालकिन ने जैसे रायचरण का पहले का हक कुछ घटा दिया है, वैसे ही एक नया हक देकर उसकी बहुत कुछ भरपाई भी कर दी है। थोड़े ही दिन हुए, अनुकूल के एक लड़का पैदा हुआ है; और रायचरण ने उसे सिर्फ अपनी कोशिश और मेहनत से जरूरत से ज्यादा अपना लिया है। 


बच्चे को वह ऐसे उत्साह के साथ झूला झूलाता है, ऐसी चतुराई से उसके दोनों हाथ पकड़कर ऊपर को उछालता है, जवाब की कोई आशा न रखकर उससे ऐसे ऐसे बेमतलब के सवाल पूछता रहता है, और उसके मुंह के पास अपना सिर ले जाकर ऐसा हिलाया करता है कि वह नन्हा सा आनुकौलव रायचरण को देखते ही मारे खुशी के फूलकर कुप्पा हो जाता है। 


वह नन्हा-सा बच्चा जब पेट और घुटनों के बल चलकर चौखट पार होता और कोई पकड़ने आता तो खिलखिलाकर हंसता हुआ जल्दी से निरापद स्थान में दुबकने की कोशिश करता, तब रायचरण उसकी असाधारण होशियारी और अकल को देखकर आश्चर्य में पड़ जाता। उसकी मां के पास जाकर वह बड़े गर्व और आश्चर्य के साथ कहता, "बहूजी, तुम्हारा यह लड़का बड़ा होने पर 'जज' होगा, पांच हज्जार रुपये पाया करेगा!"


संसार में और भी कोई मानव-सन्तान इस उमर में चौखट पार करने आदि ऐसी-ऐसी होशियारी का परिचय दे सकती है, यह बात रायचरण के कयास के बाहर थी। उसका खयाल था कि सिर्फ भावी जजों के लिए ही ऐसी बातें सम्भव हैं, औरों के लिए नहीं। 


आखिर बच्चे ने जब डगमगाते हुए चलना शुरू किया, तो वह भी बड़े आश्चर्य की बात हो गई, और जब वह मां को 'म्मा', बुआ को 'उआ' और रायचरण को 'चन्ना' कहकर पुकारने लगा, तब तो रायचरण इस अनोखे संवाद को बड़े उत्साह से चारों तरफ घोषित करने लगा। 


सबसे बड़ी ताज्जुब की बात तो यह है कि मा को 'म्मा' कहता है, बुआ को 'उआ' कहता है, पर उसे कहता है 'चन्ना'  वास्तव में बच्चे के दिमाग में यह अकल आई कहां से, बतलाना कठिन है। अवश्य ही कोई ज्यादा उमर का आदमी ऐसी तेज अकल का परिचय न दे सकता था, और देने पर भी उसके 'जज' होने की सम्भावना में सबको पूरा-पूरा शक रह जाता। 


कुछ दिन से रायचरण को मुंह में रस्सी दबाकर घोड़ा बनना पड़ता है। पहलवान बनकर बच्चे के साथ कुश्ती भी लड़नी पड़ती है, और उसमें अगर वह हारकर जमीन पर नहीं गिर पड़ता तो बेचारे की शामत आ जाती है।


इसी समय अनुकूल बाबू का पद्मा नदी के किनारे के किसी जिले में तबादला हो गया। वहां जाते वक्त वे अपने बच्चे के लिए कलकत्ता में एक छोटी-सी ठेलागाड़ी लेते गए थे। रायचरण सुबह-शाम दोनों वक्त नवकुमार को साटन का कुरता, सिर पर जरीदार टोपी, हाथ में सोने के कड़े और पैरों में लच्छे पहनाकर उस गाड़ी में विठाकर हवा खिलाने ले जाता। 


वर्षा ऋतु आई। भूखी पद्मा नदी खेत, बाग-बगीचे, गांव सबको एक-एक ग्रास में निगलने लगी। चर की रेती पर के पेड़-पौधे सब पानी में गए। नदी के किनारे के कगारे धसकने की डरावनी आवाज और पानी की गरज से दसों दिशाएं मुखरित हो उठीं। तेजी से दौड़ती हुई फेनराशि ने नदी के तेज बहाव को और भी भयानक कर दिया।-लल्ला बाबू की वापसी READ

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4-दृष्टि दान


मैं पूरे आठ बरस की भी न हो पाई थी कि मेरा ब्याह हो गया। किन्तु शायद पहले जन्म के पाप के कारण मैं अपने अच्छे पति को पाकर भी पूरा न पा सकी। माता त्रिनयनी ने मेरी दोनों आखें ले ली। उन्होंने मुझे जीवन के अन्तिम क्षण तक पति को देखते रहने का सुख नहीं दिया। 


बचपन से ही मेरी अग्नि-परीक्षा शुरू हुई। चौदहवां साल पूरा भी न हो पाया कि मैंने एक मरा हुआ बच्चा जना, और खुद भी लगभग मौत के पास पहुंच गई। किन्तु जीवन में जिसे दुख भोगने हैं, भला वह मर कैसे सकती है? जो दिया जलने के लिए पैदा हुआ है, उसमें तेल कम नहीं होता, वह तो रात-भर जलकर फिर बुझता है। 


मरते-मरते बच तो गई, किन्तु देह की कमजोरी, मानसिक दुख या और किसी भी कारण से हो, मेरी आंखों में दर्द शुरू हो गया, और आखें खराब होने लगी। 


मेरे पति उन दिनों डाक्टरी पढ़ रहे थे। नई विद्या सीखने के उत्साह में इलाज करने का कोई मौका हाथ लगते ही वे निहायत खुश हो जाते । मेरी आखें खराब होने लगी तो उन्होंने खुद ही मेरा इलाज करना शुरू कर दिया। 


मेरे बड़े भाई साहब उस साल वकालत की परीक्षा देने के लिए ला कालेज में पढ़ रहे थे। उन्होंने एक दिन आकर मेरे पति से कहा, "तुम यह कर क्या रहे हो, भाई? कुमुद को अन्धी ही कर डालोगे क्या? किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?'


मेरे पति ने कहा, “अच्छा डाक्टर आकर नया इलाज क्या करेगा? दवा वगैरह तो सब मालूम ही है।" 


भाई साहब को कुछ गुस्सा-सा आ गया, बोले, "तब तो फिर तुममें और तुम्हारे कालेज के प्रिंसिपल में कोई फर्क ही नहीं!" 


पति ने कहा, “तुम कानून पढ़ रहे हो, डाक्टरी का तुम क्या जानो! जब तुम ब्याह कर चुकोगे तब तुमसे मैं पूछूगा कि तुम्हारी पत्नी की जायदाद पर अगर कोई मुकदमा चला बैठे, तो तब तुम क्या मेरी सलाह पर चलोगे?"


में मन-ही-मन सोच रही थी कि 'राजा-राजाओं की लड़ाई में बेचारे सिपाहियों की शामत है। मेरे पति के साथ भइया की खटपट हो गई, पर दोनों ओर से चोट मुझ ही पर पड़ने लगी। मैंने सोचा, 'मायकेवालों ने जब मुझे दान ही कर दिया है, तब फिर मेरे बारे में क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इन सब बातों में वे क्यों पड़ते हैं? मेरी बीमारी और तन्दुरुस्ती, मेरा सुख और दुख, सबकुछ मेरे पति का ही तो है।' 


उस दिन मेरे इस मामूली-से आंख के इलाज को लेकर भाई साहब के साथ मेरे पति का मनमुटाव-सा हो गया। एक तो वैसे ही मेरी आंखों से पानी गिरता था, और फिर तो मेरी वह आंसुओं की धारा और भी बढ़ गई। इसका असल कारण मेरे पति या भाई साहब दोनों में से कोई भी न समझ पाए। 


मेरे पति के कालेज चले जाने पर, एक दिन शाम को, अचानक भाई साहब आ गए डाक्टर लेकर। डाक्टर ने परीक्षा करके कहा, "सावधानी से इलाज न हुआ और इसी तरह बदपरहेजी होती रही, तो ताज्जुब नहीं कि आँखों से ही हाथ धोना पड़े।' डाक्टर ने दवा लिख दी और भाई साहब ने उसी वक्त दवा मंगाने के लिए आदमी भेज दिया।


डाक्टर के चले जाने पर मैने भाई साहब से कहा, "भइया, तुम्हारे में पैरों पड़ती हूँ, मेरा जो इलाज हो रहा है उसमें तुम अब किसी तरह की रुकावट मत डालो। 


बचपन ही से मैं भाई साहब से खूब डरा करती थी। उनसे मैं इस तरह मुह खोलकर बात कर सकी, मेरे लिए यह बड़े आश्चर्य की बात थी। किन्तु मैंने यह खूब अच्छी तरह समझ लिया था कि मेरे पति से छिपाकर भइया जो मेरा इलाज करा रहे हैं, मेरे लिए यह अशुभ के सिवा शुभ हर्गिज नहीं हो सकता। भाई साहब को भी मेरी इस ढिठाई से शायद कुछ अचम्भा हुआ। वे कुछ देर चुप रहकर, खूब सोच-विचारकर, अन्त में बोले, “अच्छा, अब में डाक्टर नहीं लाऊंगा। लेकिन, जो दवा मंगाई है उसे ठीक तरीके से ले लेना, फिर देखा जाएगा। 


दवा आने पर मुझे उसकी सेवन-विधि समझाकर भाई साहब चले गए। 


पति के कालेज से वापस आने के पहले ही मैंने दवा की शीशी, डिबिया, फुरफुती वगैरह सब उठाकर अपने आंगन के कुएं में फेंक दी। 


भाई साहब के साथ मानो कुछ विरोध करके ही पति ने दूने उत्साह से मेरी आंखों का इलाज करना शुरू कर दिया। वे सुबह-शाम दोनों वक्त दवा बदलने लगे। आंखों पर पट्टी बांधी, चश्मा लगाया, बूंद-बूंद दवा डाली, पाउडर लगाया, बदबूदार मछली का तेल पीया, भीतर का खाया-पीया और अंतड़ियां तक सब बाहर निकल आने लगी, उसे भी सहा। पति पूछते, “अब कैसी मालूम होती हैं? मैं कहती, “अच्छी ही हैं, फायदा है।' और मैं भीतर से भी महसूस करने की कोशिश किया करती कि मुझे आराम हो रहा है। जब ज्यादा पानी गिरने लगता तो सोचती कि पानी का निकल जाना ही अच्छा है और जब पानी गिरना बन्द हो जाता तो सोचती कि 'अब तो आराम हुआ ही समझो।'-दृष्टि दान READ MORE


5-  देन-लेन


पांच-पांच लड़कों के बाद जब लड़की पैदा हुई तो मां-बाप ने बड़े प्यार से उसका नाम रखा निरुपमा। इस घराने में ऐसा शौकीनी नाम इसके पहले कभी सुनने में नहीं आया। अब तक अकसर देवी-देवताओं के नाम पर ही सबके नाम रखे जाते थे; जैसे गणेश, महेश, सीता, पार्वती आदि। 


इधर कुछ दिनों से निरुपमा की सगाई की बात चल रही है। उसके पिता रामसुन्दर ने बहुत तलाश किया, परन्तु पसन्द का कोई लड़का ही नहीं मिला। आखिर एक जबरदस्त रायबहादुर रईस के घर उनके इकलौते लड़के की उन्हें टोह लगी। हालांकि रायबहादुर के बाप-दादों की जमीन-जायदाद और धन-दौलत बहुत कुछ खत्म हो चुकी थी, किन्तु था वह खानदानी घराना। 


वर पक्ष की तरफ से दस हजार रुपये नकद और काफी से ज्यादा दहेज की मांग पेश हुई। रामसुन्दर बिना कुछ सोचे-समझे इस बात पर राजी हो गए। कारण, उन्होंने सोचा कि ऐसे अच्छे लड़के को किसी भी तरह हाथ से न जाने देना चाहिए। 


किन्तु रुपयों का इन्तजाम आखिरी-दम तक कोशिश करते रहने पर भी नहीं हुआ तो नहीं ही हुआ। बहुत कुछ गिरवी रखकर, बेचकर, बहुत कोशिश करने पर भी छह-सात हजार की कमी रह ही गई। और इधर ब्याह के दिन करीब आ पहुंचे। 


अन्त में ब्याह का दिन भी आ गया। बहुत ज्यादा ब्याज पर एक ने बाकी रुपया देना कबूल भा कर लिया था, किन्तु वक्त पर वह लापता हो गया। विवाह-मंडप में बड़ी भारी काय-काय मच गई और बड़ी भारी नाराजगी फैल गई। रामसुन्दर ने रायबहादुर के हाथ जोड़े, खुशामद की और कहा, "शुभ कार्य पूरा हो जाने दीजिए, आपके रुपये मैं जरूर अदा कर दूंगा।" 


रायबहादुर बोले, “बगैर रुपया पाए लड़का मंडप में नहीं जा सकता।" 


इस अप्रिय घटना से घर के भीतर औरतों में रोना सा पड़ गया। और, इस भारी मुसीबत का जो मूल कारण है, वह ब्याह के कपड़े पहने, गहने पहने, माथे पर चन्दन लेपे चुपचाप बैठी थी। भावी ससुर-खानदान पर उसकी भक्ति और प्रेम खूब बढ़ रहा हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। 


इतने में एक नई बात पैदा हो गई। लड़का अकस्मात् ही अपने बाप के खिलाफ हो गया। वह अपने बाप से कह बैठा, “खरीद-बिक्री और भाव-ताव की बात मैं नहीं समझता। मैं ब्याह करने आया हूं, ब्याह करके ही लौटूंगा।" 


बाप बेचारे, जो भी उनके सामने पड़ा उसी से कहने लगे, "देखा, साहब, आजकल के लड़कों का ढंग ...” दो-एक जो समझदार और होशियार पुरुष थे, उन्होंने कहा, “धर्मशास्त्र और न्यायनीति की शिक्षा अब तो बिलकुल रही ही नहीं, उसी का तो यह नतीजा है।" 


आधुनिक शिक्षा का जहरीला फल अपनी ही सन्तान में फला हुआ देखकर रायबहादुर कोशिश से हारे हुए बैठे रहे। ब्याह तो किसी कदर हो गया, किन्तु बिना आनन्द के उदास मन से। 


समधियाने में ऐसा अपमान तो अब सहा नहीं जाता। रामसुन्दर ने तय किया कि 'जैसे भी हो रुपया अब अदा कर ही देना चाहिए।'


किन्तु अभी जितना कर्ज का बोझ सिर पर लदा है, उसी से छुटकारा पाना मुश्किल हो रहा है, आगे की तो बात ही क्या! घर-गृहस्थी का खर्च भी किसी तरह खींचातानी से चल रहा है और कर्ज देनेवाले महाजनों की निगाह से बचने के लिए तो उन्हें रोज तरह-तरह के हीले-हवाले सोचने पड़ते हैं। 


इधर ससुराल में निरुपमा को रात-दिन उठते-बैठते जली-कटी सुननी पड़ती है। मायके की निन्दा सुनते-सुनते जब बरदाश्त से बाहर हो जाता है, तब वह अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके अकेली बैठी आंसू बहाया करती है; और यह उसका रोज का काम हो गया। 


खासकर सास की घुड़की-झिड़की तो कभी रुकती ही नहीं। यदि कोई कहता कि 'अहा, कैसी शकल है! जरा बहू का मुंह तो देखो! 'तो सास झमककर बोल उठती हैं,' होगी नहीं! जैसे घर की लड़की है, शकल भी तो वैसी ही होगी!


और तो क्या, बहू के खाने-पहनने तक की कोई खबर नहीं लेता। अगर कोई दयावान पड़ोसिन किसी गलती का जिक्र करती तो सास कहती, 'बस-बस, बहुत है इतना ही!' अर्थात अगर बाप पूरे रुपये देता तो लड़की की पूरी खातिर होती। सभी ऐसा भाव दिखाते जैसे बहू का यहां कुछ हक ही नहीं, जैसे यहां वह धोखे से घुस आई हो। शायद लड़की के इस अनादर और अपमान की बात उसके पिता के कानों तक पहुंच गई। और उसका फल यह हुआ कि रामसुन्दर रहने का मकान तक बेचने की। कोशिश करने लगे।   


ससुराल विदा करते समय पिता ने अपनी प्यारी बेटी को छाती से लगा लिया, उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी।


लड़की ने चिन्तातुर होकर पूछा, "वहांवाले क्या अब मुझे यहां कभी पिता ने रुंधे हुए कंठ से कहा, "क्यों नहीं आने देंगे, बेटी! मैं खुद आने नहीं देंगे, बापूजी?" 


पिता ने रुंधे हुए कंठ से कहा," क्यों नहीं आने देंगे, बेटी! में खुद जाकर तुझे ले आऊंगा।


रामसुन्दर अकसर लड़की को देखने जाते हैं, पर समधी के घर उनका कोई आदर नहीं। नौकर-चाकर तक उन्हें नीची निगाह से देखते हैं। अंत:पुर के बाहर एक अलहदा कमरे में पांच मिनट के लिए किसी दिन लड़की से मिल पाते, और किसी दिन योंही बिना मिले ही वापस चले आते।- देन-लेन READ MORE


6- दुलहिन


हुत पुरानी बात है। बचपन में जिस स्कूल में मैं पढ़ता था उसमें नीचे के दरजे में पंडित शिवनाथ से हम लोग पहाड़ा पढ़ा करते थे। उनकी दाढ़ी-मूछे सफाचट, सिर के बाल जड़ तक छंटे हुए और उस पर छोटी-सी चोटी शोभा पाया करती थी। उन्हें देखते ही लड़कों की जान सूख जाती थी। 


प्राणियों में अकसर यह बात देखने में आती है कि जिनके डंक हैं, उनके दांत नहीं होते। पर हमारे पंडितजी में दोनों बातें एक-साथ मौजूद थीं। एक ओर उनके थप्पड़-घूसे हम पौधों पर ओलों की तरह बरसते तो दूसरी ओर सख्त वचन सुनकर सबको छठी की याद आ जाती। 


पंडितजी को इस बात का बड़ा अफसोस था कि 'गुरु-शिष्य का सम्बन्ध अब पुराने जमाने जैसा नहीं रहा, विद्यार्थी अब देवता के समान गुरु की भक्ति नहीं करते। इस तरह अपना अफसोस जाहिर करके वे अपनी उपेक्षित देव-महिमा को बालकों के सिर पर जोरों से पटक दिया करते, और कभी-कभी गहरा हुंकार भरते, किन्तु उसके भीतर इतनी ओछी बातें मिली रहतीं कि उसे देवता के वज्र की आवाज का दूसरा रूप समझ लेने का भ्रम किसी को नहीं होता। 


खैर, कुछ भी हो, हमारे स्कूल का कोई भी लड़का इस तीसरे दरजे के दूसरे विभाग के देवता को इन्द्र, चन्द्र, वरुण अथवा कार्तिक न समझता था। सिर्फ एक ही देवता के साथ उनकी तुलना होती थी, जिसका कि नाम यमराज है, और इतने दिनों बाद अब तो यह मानने में कोई दोष ही नहीं और न डर है कि हम लोग मन-ही-मन चाहते थे कि उक्त देवालय जाने में अब वे ज्यादा देर न करें तो अच्छा है।


पर इतना तो हम लोगों ने अच्छी तरह समझ लिया था कि नरदेवता के समान दूसरी बला नहीं। देवलोक में रहनेवाले देवता बखेड़ा नहीं करते। पेड़ से दो-एक फूल तोड़कर चढ़ा लेने से वे खुश हो जाते हैं, और न दो तो तकाजा नहीं करते। किन्तु हमारे पंडित देवता बहुत अधिक की आशा रखते थे, और हमसे जरा भी गलती हो जाती तो वे लाल-लाल आंखें निकालकर मारने दौड़ते थे। उस समय वे किसी भी तरफ से देवता जैसे नहीं दिखाई देते। 

लड़कों को तकलीफ देने के लिए हमारे शिवनाथ पंडित के पास एक हथियार था, जो सुनने में मामूली, किन्तु वास्तव में बहुत खतरनाक था। वे लड़कों के नए-नए नाम रखा करते थे। नाम यद्यपि शब्द के सिवा और कुछ भी नहीं, पर, आदमी जो अपने से अपने नाम को ज्यादा चाहता है! अपने नाम की प्रसिद्धि के लिए लोग क्या-क्या कष्ट नहीं सहा करते? यहां तक कि नाम की रक्षा के लिए लोग मरने से भी नहीं हिचकिचाते। - दुलहिन READ MORE


7- सजा


दुखी और छदामी कोरी, दोनों भाई सवेरे उठकर जब हंसिया-गंड़ासा हाथ में लिए काम पर निकले तब उन दोनों की बहुओं में खूब जोर की लड़ाई शुरू हो चुकी थी। मुहल्लेवाले प्रकृति की और और प्रकार की खटपट और शोर-शराबे की तरह इस घर के कलह और उससे पैदा हुए शोरगुल के आदी हो गए थे। जोर की चीख-चिल्लाहट और नारी-कंठ की गाली-गलौज कान में पड़ते ही लोग आपस में कहने लगते, 'लो, हो गया शुरू' यानी जैसी कि आशा थी, आज भी उस स्वाभाविक नियम में कोई फर्क नहीं पड़ा। सवेरा होते ही पूरब में सूरज निकलने पर जैसे कोई उसका कारण नहीं पूछता, ठीक वैसे ही कोरियों के इस घर में जब दोनों बहुओं में तकरार और गाली-गलौज शुरू हो जाती, तो फिर उसका कारण जानने के लिए मुहल्ले में किसी को भी रत्ती भर आश्चर्य नहीं होता। 


हां, इतना जरूर है कि कलह-आन्दोलन पड़ोसियों की अपेक्षा दोनों पतियों को ज्यादा परेशान करता है, किन्तु फिर भी वे उसे किसी खास दिक्कत में नहीं गिनते। उनके मन का भाव ऐसा है, मानो दोनों भाई संसार-यात्रा का लम्बा सफर किसी इक्के में बैठकर तय कर रहे हैं, और उनके दोनों बिना कमानी के पहियों के लगातार घड़घड़-खड़खड़ शब्द को उन्होंने जीवन-रथयात्रा के बाकायदा नियमों में ही शामिल कर लिया है। बल्कि, घर में जिस रोज कोई शोरगुल नहीं होता, चारों ओर सन्नाटा-सा रहता है, उस दिन कब क्या आफत आ खड़ी हो, कोई कुछ अन्दाज लगाकर नहीं कह सकता।


हमारी कहानी की घटना जिस दिन से शुरू होती है उस दिन शाम को दोनों भाई मेहनत-मजूरी करके हारे-थके जब घर लौटे, तो देखा कि घर में सन्नाटा छाया हुआ है। 


बाहर भी काफी उमस है। दोपहर को एक बार खूब जोर से पानी बरस चुका है और अब भी बादल घुमड़ रहे हैं। हवा का नामो-निशान तक नहीं, वर्षा से घर के चारों तरफ का जंगल और घास-पौधे वगैरह बहुत बढ़ गए हैं, वहां से, और पानी में डूबे हुए पटसन के खेतों में से एक तरफ की घनी बदबूदार भाप-सी निकल रही है, और उसने चारों तरफ मानो एक निश्चल चारदीवारी-सी खड़ी कर दी है। गुहाल के बगलवाली छोटी-सी तलैया में मेंढक टर्र-टर्र कर रहे हैं, और शाम का सूना आकाश मानो झींगुरों की झनकार से बिलकुल भर-सा गया है।


पास ही बरसात की पद्मा नदी नए बादलों से छाई हुई होकर बेहद ठहरी और भयंकर रूप धारण करके आजादी से बह रही है। ज्यादातर खेतों को नष्ट करके वह बस्ती के करीब तक आ पहुंची है। यहां तक कि उसने आसपास के दो-चार आम-कटहल के पेड़ तक उखाड़कर गिरा दिए हैं, और उनकी जड़ें पानी से बाहर दीख रही हैं। मानो वे अपनी मुट्ठी की उंगलियों को आकाश में फैलाकर किसी आखिरी सहारे को पकड़ने की कोशिश कर रही हों।


दुक्खी और छदामी उस दिन गांव के जमींदार के यहां बेगार खटने गए थे। उस पार की रेती पर धान पक गए हैं। बरसात के पानी में डूब जाने के पहले ही धान काट लेने के लिए देश के गरीब किसान और मजदूर सब कोई अपने-अपने खेत के कामों में या पटसन काटने में लग गए हैं। सिर्फ इन दोनों भाइयों को जमींदार के लोग जबरदस्ती बेगारी में पकड़ ले गए थे। जमींदार की कचहरी के छप्पर में से जगह-जगह पानी चू रहा था। उसकी मरम्मत के लिए कुछ टट्टियां बनाने के लिए वे दिन-भर कड़ी मेहनत करते रहे हैं। खाने तक की छुट्टी न मिली कि घर आकर पेट में कुछ डाल जाते, कचहरी की तरफ से थोड़े-से चने खाने को मिल गए थे। बीच-बीच में मेह में भी भीगे हैं। हक की मजूरी भी मिल जाती सो भी नहीं, बल्कि उसके बदले जो उन्हें गालियां और फटकार मिली है वह उनकी मजूरी से बहुत ज्यादा थी। 


कीच कद्दड़ और पानी में होकर बड़ी मुश्किल से दोनों भाई शाम को घर आए। देखा तो, छोटी बहू चन्दा जमीन पर आंचल बिछाए चुपचाप औंधी पड़ी है, आज के बदली के दिन की तरह उसने भी दोपहर को बहुत आंसू बरसाकर शाम होते-होते खामोश होकर अपने अन्दर जोरों की उमस कर रखी है। और बड़ी बहू राधा मुंह फुलाए दरवाजे पर बैठी थीं; उसका डेढ़ बरस का छोटा बच्चा रो रहा था। अब दोनों भाइयों ने जब घर में पैर रखा तो देखा कि बच्चा नंग-धड़ंग आंगन में एक तरफ चित्त पड़ा सो रहा है। 


भूखे दुक्खी ने आते के साथ ही कहा, "चल उठ, परोस खाने को। "बड़ी बहू एकदम गरज उठी, मानो बारूद के बोरे में चिनगारी पड़ गई हो," खाने को है कहां, जो परोस दूं? चावल तू दे गया था? मैं क्या आप कहीं जाकर रोजगार कर लाती!"


सारे दिन की थकावट और डांट-फटकार सहने के बाद बिना अन्न के बेमजा अंधेरे घर में जलती हुई भूख की आग पर स्त्री के रूखे वचन खासकर अन्तिम वाक्य का छिपा हुआ भद्दा श्लेष दुक्खी को सहसा न जाने कैसे बर्दाश्त के बाहर हो उठा। 


क्रोधित बाघ की तरह वह फंसी हुई गम्भीर गरज के साथ बोला, "क्या कहा!" और उसी दम उसने हंसिया उठाकर स्त्री के सिर पर जमा दिया। - सजा READ MORE


8-व्यवधान 


नाते की दृष्टि से देखा जाए तो वनमाली और हिमांशुमाली, दोनों ममेरे-फुफेरे भाई हैं, सो भी बहुत हिसाब लगाने पर, किन्तु इन दोनों का परिवार बहुत दिनों से पड़ोसी रहा है। बीच में सिर्फ एक बगीचे का फासला है और इसीलिए इनका नाता नजदीक का न होने पर भी मेलजोल और घनिष्ठता काफी है। वनमाली हिमांशु से बड़ा है। जब दांत नहीं निकले थे और वह बोल भी न सकता था, तब वनमाली ने उसे गोद में लेकर इसी बगीचे में सुबह-शाम हवा खिलाई है, खेल सिखाया है, रोना बन्द कराया है, थपकियां देकर मीठी नींद सुलाया है और बच्चों को बहलाने के लिए परिणत-बुद्धि प्रौढ़ व्यक्तियों को जोर से सिर हिलाना और अंटसंट बोलना आदि जो भी कुछ उम्र के खिलाफ शरारत और जोर का प्रयत्न करना पड़ता है, उसमें भी वनमाली ने कोई बात उठा नहीं रखी। 


वनमाली ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हैं। उसे शुरू से ही बगीचे का शौक था, और था इस दूर के नाते के छोटे भाई पर प्यार का लगाव। वह उसे एक दुर्लभ और कीमती लता की तरह अपने दिल का प्यार सींचकर पाल रहा था। जब वह लता उसके समूचे अन्तर-बाहर को ढंककर खूब फलने-फूलने लगी तब वनमाली अपने को धन्य समझने लगा।


आमतौर पर ऐसा देखने में नहीं आता, किन्तु कोई-कोई स्वभाव ऐसा होता है, जो एक छोटी-सी कल्पना या एक छोटे से बच्चे या किसी बेमुख्यत मित्र के लिए बड़ी आसानी से अपने को पूरी तरह बिखेर देता है, और इस विशाल पृथ्वी पर सिर्फ एक छोटे से प्यार के कारोबार में वह अपने जीवन का सारा मूलधन लगाकर निश्चिन्त हो जाता है। फिर, या तो वह जरा-से मुनाफे पर गहरे सन्तोष के साथ जीवन बिता देता है, या सहसा किसी दिन सवेरे अपना घर द्वार सबकुछ बेचकर राह का भिखारी हो जाता है। 


हिमांशु की उमर जब थोड़ी बढ़ गई तब, उम्र और नाते का काफी सिलसिला होने पर भी, वनमाली का उसके साथ मानो मित्रता का बन्धन कायम हो गया। दोनों में मानी छोटे-बड़े का कोई भेद ही न रहा। 


ऐसा होने का एक कारण भी था। हिमांशु पढ़ता-लिखता था और उसकी ज्ञान की प्यास आदतन बहुत तेज थी। पुस्तक पाते ही वह पढ़ने बैठ जाता। इससे फालतू पुस्तकें भी बहुत पढ़ी गई, फिर भी चाहे जैसे भी हो, चारों तरफ से उसके मन ने एक पूर्णता प्राप्त कर ली थी। वनमाली खास श्रद्धा के साथ उसकी बात सुनता, उससे सलाह लेता, उसके साथ छोटी-बड़ी सब बातों की चर्चा करता, किसी भी विषय में बालक समझकर कभी उसकी उपेक्षा न करता। दिल के पहले स्नेह-रस से जिसे पाल-पोसके आदमी बनाया गया हो, उम्र पाकर वही अगर अपनी बुद्धि, ज्ञान और ऊंचे स्वभाव के कारण श्रद्धा का अधिकारी बन जाए, तो उसके समान ऐसी बेहद प्यारी वस्तु संसार में शायद ही कोई हो। - व्यवधान READ MORE


9- स्वर्ण मृग


आदिनाथ और बैजनाथ चक्रवर्ती दोनों की साझे में जमींदारी है। दोनों में बैजनाथ की हालत कुछ खराब है। बैजनाथ के पिता महेशचन्द्र में जमीन-जायदाद की रक्षा करने या उसे बढ़ाने की अकल तनिक भी न थी। वह अपने बड़े भाई शिवनाथ पर पूरा भरोसा रखते थे। शिवनाथ ने छोटे भाई महेशचन्द्र को स्नेह के बड़े दमदार झांसे दिए और उसके बदले उनकी सारी जायदाद हड़प ली। केवल थोड़े-से प्रामेसरी नोट उनके पास बचे थे। जिन्दगी के समन्दर में बैजनाथ को अब केवल अपने उन्हीं थोड़े-से सरकारी कागजों की नाव का सहारा था। 


शिवनाथ ने बड़ी खोज के बाद एक बड़े आदमी की इकलौती बेटी के साथ अपने बेटे आदिनाथ का विवाह कर दिया। इस प्रकार वह सम्पत्ति बढ़ाने का एक रास्ता छोड़ गए। महेशचन्द्र ने सात-सात लड़कियों के से दबे एक गरीब ब्राह्मण पर दया करके, दहेज में एक पैसा भी न लेकर, उसकी बड़ी लड़की के साथ अपने बेटे का विवाह कर दिया। समधी की सातों बेटियों को वह इसलिए अपने घर न ला सके कि उनके केवल एक ही लड़का था। उस ब्राह्मण ने भी कोई खास आग्रह नहीं किया, फिर भी सुनते हैं कि शेष बेटियों के विवाह के लिए उन्होंने समधी को अपनी हैसियत से ज्यादा रुपये-पैसे से मदद की थी।


पिता की मृत्यु के बाद बैजनाथ अपने प्रामेसरी नोटों को लेकर बिलकुल निश्चिन्तता और सन्तोष के साथ जिन्दगी बिताने लगे। काम धन्धे की बात उनके मन में कभी आती ही न थी। उनका काम बस इतना ही था कि पेड़ की डाली काटकर बैठे-बैठे उसकी छड़ी बनाया करते। दुनिया भर के बच्चे और युवा उनके पास आते और छड़ी प्राप्त करना चाहते। वह उन्हें छड़ी बना-बनाकर दे देते। इसके अलावा उदारता की तेजी में मछली पकड़ने का डंडा और पतंग उड़ाने की चरखी वगैरह बनाने में ही उनका काफी समय लग जाता। ऐसा कोई काम हाथ में आ जाए कि जिसमें बड़ी होशियारी से बहुत दिनों तक छीलने-घिसने की आवश्यकता हो और दुनिया की उपयोगिता को देखते हुए उसमें उतना समय बरबाद करना व्यर्थ लगे, तो उनके उत्साह की सीमा ही न रहती। 


प्रायः देखा जाता है कि मौहल्ले में जब दलबन्दी और षड्यन्त्र के पीछे बड़े पवित्र चंडीमंडप और चौबारे धुआंधार हो उठते, तब बैजनाथ एक कलम छीलनेवाला चाकू और एक डाली हाथ में लिए सवेरे से दोपहर तक और खाने-पीने के बाद शाम तक अपने चबूतरे पर अकेले अपनी धुन में मस्त बैठे रहते। 


षष्ठी देवी की कृपा से बैजनाथ के दो लड़के और एक लड़की पैदा हुई, पर पत्नी मोक्षदा सुन्दरी का असन्तोष दिन- पर-दिन बढ़ता ही जाता है। उन्हें अफसोस है कि आदिनाथ के घर जैसा आयोजन है, बैजनाथ के क्यों नहीं? उस घर की विन्ध्यवासिनी के जैसे और जितने गहने हैं, बनारसी और ढाके की जितनी साड़ियां हैं, उनके यहां बातचीत का जैसा ढंग और रहन-सहन का जैसा ठाठ है, वैसा मोक्षदा के घर नहीं, इससे बढ़कर नाइंसाफी की बात और क्या हो सकती है! मजा यह कि एक ही कुनबा है। छल से भाई की जायदाद हड़पकर ही इतनी उन्नति की है उन लोगों न। ज्यों सुनती, त्यों मोक्षदा के दिल में अपने ससुर और ससुर के इकलौते बेटे पर अश्रद्धा और अवज्ञा की भावना बढ़ती जाती। अपने घर में उसे कुछ अच्छा भी नहीं लगता। - स्वर्ण मृग READ MORE


10- अतिथि


कटहलिया के जमींदार मतिलाल बाबू अपनी नाव में परिवार के साथ कलकत्ता से अपने देहात जा रहे थे। रास्ते में दोपहर को एक मैदान के पास नाव रुकवाकर खाने-पीने का इन्तजाम कर रहे थे कि एक ब्राह्मण लड़के ने आकर पूछा ,“आप लोग कहां जा रहे हैं, बाबू साहब ? ” उसकी उम्र पन्द्रह-सोलह साल से अधिक न होगी। 


मति बाबू ने जवाब दिया,“कटहलिया।" 


ब्राह्मण बालक बोला,“मुझे रास्ते में नन्दीगांव उतार देंगे?" 


बाबू ने बात कबूल करते हुए पूछा,“तुम्हारा क्या नाम है? 


ब्राह्मण लड़के ने जवाब दिया,“तारापद।” 


लड़का देखने में सुन्दर और गोरा था,बड़ी-बड़ी आंखों और मुस्कान भरे होंठों से एक तरह की बड़ी खूबसूरत नजाकत जाहिर हो रही थी। देह पर एक मैली धोती के अलावा और कोई कपड़ा नहीं था। उसका उभरा हुआ बदन सभी तरह से सन्तुलित था, जैसे किसी कलाकार ने बड़ी मेहनत से सुन्दर और सुडौल बनाकर उसे सिरजा हो। जैसे वह पिछले जन्म में तप करनेवाला लड़का था और अब उस पवित्र तपस्या के असर से उसकी देह से विकार का बहुत-सा भाग खत्म होकर उसमें एक तरह का ब्राह्मण-श्री का तेज फूट उठा हो। 


मतिलाल बाबू बहुत नर्म होकर एवं स्नेह-भरे स्वर में बोले,"बेटा, अब तुम नहा लो। नहाने के बाद यहीं खाना खाना।"


तारापद ने कहा,“अच्छा!" फिर वह उसी वक्त बेझिझक भाव से रसोई के काम में लग गया। मतिलाल बाबू का नौकर पश्चिम का था। वह मछली वगैरह बनाने में उतना होशियार न था। तारापद ने झटपट उसका काम अपने हाथ में लेकर पूरा कर डाला तथा एक-दो सब्जी भी अपनी चतुरता दिखाते हुए बना डालीं। रसोई का काम खत्म करके वह नदी में नहा आया और अपनी गठरी से एक साफ धोती निकालकर पहिन ली। एक छोटा-सा लकड़ी का कंघा निकालकर उसने अपने लम्बे-लम्बे बालों को संवारकर आगे से पीछे की ओर कर लिया। इसके बाद साफ एवं शुद्ध जनेऊ को ठीक से छाती पर से लटकाकर,मतिलाल बाबू के पास आ खड़ा हुआ। 


मतिलाल बाबू उसे अपने साथ नाव में ले गए। वहां पर उनकी पत्नी और उनकी एक नौ साल की लड़की बैठी हुई थी। मतिलाल बाबू की स्त्री अन्नपूर्णा उस खूबसूरत बालक को देखते ही प्यार से उमगकर मन ही मन बोलीं,'न जाने किसका बच्चा है, कहां से आया है? इसकी मां इसे छोड़कर कैसे जिन्दा है?" 


ठीक वक्त पर मतिबाबू एवं उस लड़के के लिए पास-पास आसन और पीढ़े बिछाए गए। लड़का बहुत कम खाता था। उसको ऐसे खाते देखकर अन्नपूर्णा सोचने लगीं,'शायद शर्म से नहीं खा रहा है। इसलिए उन्होंने उससे और खाने के लिए बहुत जिद की, लेकिन जब वह खाना खत्म कर चुका तो फिर उसने कोई बात नहीं सुनी। देखने में आया कि लड़का सब काम अपनी मर्जी से ही करता है और ऐसे सहज स्वभाव से करता है कि उससे किसी तरह की जिद या बेअदबी जाहिर नहीं होती। उसके बरताव में झिझक का भी कोई रंग-ढंग देखने को नहीं मिला।


अन्नपूर्णा ने सबके खा-पी चुकने के बाद उसे अपने पास बैठा लिया। फिर उससे उसके जीवन का इतिहास पूछने लगीं। लेकिन उससे इस मामले में कुछ भी सुराग हाथ न आया। केवल इतना ही पता चला कि वह सात-आठ साल की उम्र में ही अपनी मर्जी से घर छोड़कर चला आया है।- अतिथि READ MORE


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