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कहानी पोस्टमास्टर: रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां

कहानी पोस्टमास्टर | रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां :- टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने

रबीन्द्रनाथ टैगोर(रवीन्द्रनाथ ठाकुर) की श्रेष्ठ कहानियां कहानी "पोस्टमास्टर":- टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं। यह कहानी रवीन्द्र बाबू की श्रेष्ठ कहानियों का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द-सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता, अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं। 


विश्व के महान साहित्यकार रबीन्द्रनाथ ठाकुर ऐसे अग्रणी लेखक थे, जिन्हें नोबल पुरस्कार जैसे सम्मान से विभूषित किया गया। उनकी अनेक कृतियां प्रमुख भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर चर्चित हुईं।


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रबीन्द्रनाथ टैगोर की श्रेष्ठ कहानियां- कहानी "पोस्टमास्टर"


नौकरी लगते ही पोस्टमास्टर को ओलापुर गांव में आना पड़ा। साधारण-सा गांव। पास ही एक नीलहे साहब की कोठी है। साहब ने ही बड़ी कोशिश से यहां नया डाकघर खुलवाया है। 


हमारे ये पोस्टमास्टर कलकत्ता के रहनेवाले हैं। पानी की मछली को रेत पर डाल देने से उसकी जैसी दशा हो जाती है, इस ठेठ देहात में आकर पोस्टमास्टर की भी वही दशा हुई। एक अंधियारे अठचाले 'में उनका दफ्तर है, जिसके पास ही एक सेहला-भरा तालाब है और उसके चारों ओर जंगल। कोठी में गुमाश्ता आदि जो कर्मचारी हैं, उन्हें किसी से मिलने-जुलने की फुरसत ही नहीं और वे किसी भले आदमी से मिलने के काबिल भी नहीं हैं। 


खासतौर से कलकत्ता के लड़के मिलनसार होते नहीं। किसी अपरिचित स्थान में आकर या तो वे अक्खड़ बन जाते हैं या बिल्कुल सुस्त और लजीले। इसी वजह से स्थानीय लोगों से उनका मेल जोल नहीं हो पाता। इधर हाथ में काम-काज भी कुछ ज्यादा नहीं है। कभी-कभी वे दो-एक कविताएं लिखने की कोशिश करते हैं। इन कविताओं में वे ऐसा भाव व्यक्त करते हैं, जैसे दिन-भर पेड़-कोंपलों का कम्पन और आकाश के बादल देखकर ही जीवन बड़े सुख से बीता जा रहा हो, लेकिन अन्तर्यामी जानते हैं कि अगर 'अलिफलैला' का कोई देव आकर इन डाली-के साथ सारे पेड़ों को काटकर पक्की सड़क बना देता और बड़ी-बड़ी इमारतें आकाश के बादल को आंखों से ओट कर रख देता, तो इस अधमरे भले आदमी के लड़के को फिर नया जीवन मिल जाता। 


पोस्टमास्टर की तनख्वाह बहुत कम है। खुद खाना पकाकर खाना पड़ता है और गांव की अनाथ लड़की उनका काम-काज कर देती है। इसके बदले उसे दो जून कुछ खाने को मिल जाता है। लड़की का नाम है रतन। उम्र बारह-तेरह साल की। ब्याह की कोई विशेष सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती।


शाम को, जब गांव की गोशालाओं से घना धुआं कुंडली बनाकर ऊपर उठता, झाड़ियों में झींगुर बोलने लगते, दूर गांव के नशेबाज गवैयों को टोली मृदंग-करताल बजाकर ऊंची आवाज में गाना शुरू कर देती, तब अंधेरे चबूतरे पर बैठे-बैठे वृक्षों का कम्पन देखते हुए कवि के हृदय में भी धड़कन होने लगती। उस घड़ी घर के कोने में एक छोटा-सा दीया जलाकर पोस्टमास्टर पुकारते, “रतन!" रतन दरवाजे पर बैठी इसी पुकार का इन्तजार किया करती थी, लेकिन एक ही पुकार पर भीतर न आती, कहती, “क्या है बाबू, काहे बुलाते हो? 


"पोस्टमास्टर" क्या कर रही है तू?" 


रतन, “अभी चूल्हा सुलगाने जाना है चौके में ...।" 


पोस्टमास्टर, "चौके का काम बाद में होता रहेगा। जा, जरा तमाखू तो बना ला।"


थोड़ी देर में दोनों गाल फुलाए चिलम पर फुके मारती हुई रतन अन्दर आती। 


उसके हाथ से चिलम लेकर पोस्टमास्टर झट पूछ बैठते, "क्यों रतन, तुझे अपनी मां याद आती है?” वह बड़ा लम्बा किस्सा है। कुछ याद है, तो कुछ याद नहीं। मां से ज्यादा उसका बाप उसे प्यार करता था। बाप की याद थोड़ी-थोड़ी आती है। मेहनत-मजदूरी कर शाम को बाप घर लौट था, उन्हीं में दो-एक सन्ध्या उसके मन पर चित्र की तरह स्पष्ट बहुत अंकित हैं। यही नाते करते-करते रतन पोस्टमास्टर के पैरों के पास जमीन पर बैठ जाती। उसे याद आता, उसका एक छोटा भाई था। बहुत दिन पहले, बरसात के एक दिन गढैया के किनारे दोनों भाई-बहिन मिलकर एक पेड़ की डाली को बंसी बनाकर झूठ-मूठ मछली शिकार करने का खेल खेले थे। बहुत-सी महत्त्वपूर्ण घटनाओं से अधिक यही बात उसे ज्यादा याद आती थी। इसी तरह वातचीत करते-करते कभी-कभी रात हो जाती और मारे आलस के पोस्टमास्टर को खाना बनाने की इच्छा न होती। सवेरे की बासी भाजी-तरकारी बची होती और चूल्हा सुलगाकर रतन दो-चार रोटी सेंक लाती। उसी से दोनों का रात का खाना हो जाता। 


किसी दिन उस अठपहलू झोपड़ी के कोने में दफ्तर की लकड़ी के बने तख्त पर बैठकर पोस्टमास्टर भी अपने घर की बात छेड़ देते। छोटे भाई, मां और दीदी की बातें और परदेस में अकेले घर में बैठे-बैठे जिनके लिए हृदय काफी व्यथित हो उठता था, उनका बातें करने लगते। ये बातें हर घड़ी मन में उमड़ती-मुमड़ती रहती थीं, पर नीलकोठी के गुमाश्तों से नहीं कही जा सकतीं। वे ही बातें वे एक अनपढ़ छोटी लड़की से कहते चले जाते। उन्हें यह कतई असंगत न लगता। अन्त में ऐसा हुआ कि वह लड़की बातचीत के दौरान उनके घर के लोगों का मां, दीदी या दादा कहकर जिक्र करने लगी, यहां तक कि उसने अपने छोटे-से हृदय-पट पर उनके काल्पनिक चित्र भी बना लिए।


एक दिन बरसात के बादलों से मुक्त दोपहर को कुछ गर्मी-भरी सुख देनेवाली हवा चल रही थी। भीगी घास और पेड़-पौधों से धूप पड़ने के कारण एक तरह की गन्ध निकल रही थी। ऐसा लगता था जैसे थकी हुई धरती की गर्म सांस शरीर पर पड़ रही हो। न जाने कहां का एक जिद्दी पंछी इस भरी दुपहरी में प्रकृति के दरबार में अपनी सारी एकरस शिकायतें बार-बार बड़े ही करुण स्वर में दुहराता जा रहा था। पोस्टमास्टर के पास कोई काम न था। उस दिन वर्षा से धुले नर्म-चिकने पत्तोंवाले पेड़-पौधों को हिलोरें और पराजित वर्षा की धूप से उजियाले खंडहर जैसे बादलों के स्तूप वास्तव में देखने योग्य थे। पोस्टमास्टर यही देख रहे थे और सोच रहे थे कि काश इस समय अपने पास कोई अपना सगा होता, हृदय से सटी हुई स्नेह-भरी कोई मानव-मूर्ति होती। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा कि वह पंछी बार-बार इसी बात को दुहरा रहा है। पेड़ों की छाँह में डूबी सुनसान दुपहरी को इन पत्तों की मर्मर ध्वनि का भी अर्थ कुछ-कुछ वैसा ही है। कोई विश्वास नहीं करता और जान भी नहीं पाता, लेकिन इस छोटे से गांव के मामूली तनख्वाह पानेवाले सब-पोस्टमास्टर के मन में ऐसे ही भावों का उदय होना असम्भव नहीं है। 


पोस्टमास्टर ने एक लम्बी सांस लेकर पुकारा, "रतन!" रतन उस समय अमरूद के नीचे आराम से बैठी एक कच्चा अमरूद खा रही थी मालिक की आवाज सुनकर फौरन दौड़ती हुई आई और हांफती हुई बोली, “दादा, मुझे बुला रहे हो?” पोस्टमास्टर ने कहा," तुझे मैं थोड़ा-थोड़ा पढ़ना सिखाऊंगा।” कहकर सारी दोपहर 'छोटा अ', 'बड़ा आ' सिखाते रहे और इस तरह धोड़े ही दिनों में उसे 'संयुक्ताक्षर' तक पढ़ा दिया। 


सावन में वर्षा का कोई अन्त नहीं। ताल-तलैया, नदी-नाले सब पानी से लबालब भर गए थे। दिन-रात मेंढ़कों की टर्र-टर्र और वर्षा की अम-झम गूंजती रहती थी। गांव के रास्तों पर चलना-फिरना बन्द हो गया था। नाव पर बैठकर हाट जाना पड़ता था। 


एक दिन सवेरे खूब बादल छाए हुए थे। पोस्टमास्टर की छात्रा बहुत देर तक दरवाजे के पास प्रतीक्षा में बैठी थी, किन्तु दूसरे दिनों की तरह नियमित पुकार जब देर तक नहीं सुन पड़ी, तो वह अन्त में खुद ही अपनी पोथी और बस्ता लिए कमरे मे अन्दर पहुंची। देखा, पोस्टमास्टर अपनी चारपाई पर पड़े हैं। यह सोचकर कि वे आराम कर रहे हैं, उसने चुपके से बाहर निकल जाना चाहा। सहसा उसे सुनाई पड़ा, "रतन!” झट पलटकर वह बोली, “दादा, तुम सो रहे थे न?" पोस्टमास्टर ने करुण स्वर में कहा, "तबीयत कुछ अच्छी नहीं लग रही है, देख तो जरा मेरे माथे पर हाथ रखकर।" 


ऐसे निपट अकेले प्रवास में, घोर वर्षा में बीमार देह जरा सेवा पाने की इच्छा करती है। गर्म माथे पर चूड़ियोंवाले गर्म हाथों का स्पर्श याद आ जाता है। इस घोर परदेस में बीमारी के कष्ट से पीड़ित हो ऐसा सोचने का जी करता है कि बगल में स्नेहमयी नारी के रूप में मां या दीदी बैठी हो। यहाँ इस परदेस की अभिलाषा व्यर्थ न गई। बालिका रतन अब बालिका न रही। उसी क्षण उसने जननी का स्थान ले लिया। वैद्य बुला लाई, वक्त पर दवा की टिकिया खिला दी, रात-भर सिरहाने बैठी जागती रही, खुद ही जाकर नाश्ता बना लाई और सौ-सौ बार पूछती रही, “क्यों दादा, कुछ आराम मालूम पड़ता है?" 


बहुत दिनों बाद पोस्टमास्टर कमजोर शरीर लेकर रोग-शय्या से उठे। उन्होंने मन-ही-मन इरादा कर लिया कि बस, अब और नहीं, यहां से किसी भी तरह तबादला कराना ही है। इस जगह की अस्वास्थ्यकर आबोहवा का उल्लेख कर फौरन उन्होंने कलकत्ता के अधिकारियों के पास अर्जी भेज दी। 


तीमारदारी से छुट्टी पाकर रतन दरवाजे के बाहर फिर अपनी जगह पर जा बैठी, लेकिन पहले की तरह उसकी बुलाहट नहीं हुई। बीच-बीच में वह झांककर देखती कि पोस्टमास्टर अनमने-से तख्त पर बैठे हैं या चारपाई पर लेटे हुए हैं। रतन जब बुलाहट की प्रतीक्षा में बाहर बैठी रहती थी, तब वह बेचैनी से अपनी दरख्वास्त के जवाब की प्रतीक्षा करते रहते। बालिका दरवाजे के बाहर बैठी अपना पुराना पाठ हजार बार पढ़ती रही। उसे डर था कि जिस दिन अचानक उसकी बुलाहट होगी, उस रोज कहीं संयुक्ताक्षरों का पाठ वह भूल गई तो? अन्त में, हफ्ते-भर के बाद एक दिन शाम को पुकार हुई। व्याकुल हृदय लिए रतन भीतर गई और बोली, "दादा, मुझे बुला रहे थे?"


 पोस्टमास्टर बोले, "रतन, मैं कल ही जा रहा हूँ।"


 रतन, “कहां जा रहे हो दादा?" 


पोस्टमास्टर, "घर जा रहा हूं।'  


रतन, "फिर कब आओगे?" 


पोस्टमास्टर, "फिर नहीं आऊंगा।" 


रतन ने फिर कोई बात नहीं पूछी। पोस्टमास्टर ने खुद ही उससे कहा कि उन्होंने बदली की अर्जी दी थी, वह अर्जी मंजूर नहीं हुई। इसलिए, नौकरी से इस्तीफा देकर घर जा रहे हैं। बहुत देर तक कोई कुछ भी न बोला। दीया टिमटिमाता रहा और एक जगह मडैया की पुरानी छाजन से चूकर एक मिट्टी के सकोरे में टप-टप बारिश का पानी टपकता रहा। 


कुछ देर बाद रतन धीरे-से उठकर रसोई में रोटी सेंकने चली गई। दूसरे दिनों की तरह उसमें फुर्ती न थी। शायद बीच-बीच में बहुत-सी चिन्ताएं उसे आ घेरती थीं। पोस्टमास्टर का भोजन समाप्त होने पर बालिका एकाएक पूछ बैठी, “दादा, मुझे अपने घर ले चलोगे?" 


पोस्टमास्टर ने हंसकर कहा, “सो कैसे हो सकता है?" किन-किन कारणों से वे उसे नहीं ले जा सकते, यह बताने की जरूरत उन्होंने न समझी। 


रात-भर जागते हुए या सपने में बालिका के कानों में पोस्टमास्टर की वह हंसी गूंजती रही, सो कैसे हो सकता है?


सवेरे उठकर पोस्टमास्टर ने देखा कि उनके नहाने का पानी तैयार है। कलकत्ता की आदत के अनुसार वे बाल्टी में भरे हुए पानी से नहाते थे। कब किस वक्त वे जाएंगे, यह बात वह बालिका किसी कारण न पूछ सकी थी, इसलिए कहीं भोर-सवेरे ही जरूरत न पड़ जाए, यह सोचकर रतन रात रहते ही नदी से पानी भर लाई थी। स्नान के बाद रतन की पुकार हुई। रतन चुपचाप घर के भीतर गई और आज्ञा की प्रतीक्षा में उसने एक बार मालिक के मुंह की ओर खामोश होकर देखा। मालिक ने कहा, “रतन, मेरी जगह पर जो बाबू आएंगे, उन्हें मैं बता जाऊंगा कि तुझे मेरी ही तरह जतन से रखें। मैं जा रहा हूं, इसीलिए फिक्र मत कर।" इसमें सन्देह नहीं कि ये बातें अत्यन्त स्नेह-भरे और करुण हृदय से निकली थीं, लेकिन नारी-हृदय को कौन समझ सकता है? रतन ने बहुत दिन तक मालिक की बहुत डाट-फटकार सही हैं लेकिन ये कोमल बाते उससे नहीं सही गई। सहसा वह फफककर रो पड़ी, बोली,  नहीं, तुम्हें किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मैं भी नहीं रहना चाहती हूँ। 


पोस्टमास्टर ने रतन का ऐसा व्यवहार कभी नहीं देखा था इसलिए विस्मित रह गए। 


नया पोस्टमास्टर आया। उसे सब बातें समझाकर पुराने पोस्टमास्टर चलने की तैयारी करने लगे। जाते वक्त रतन को बुलाकर कहा, "रतन, मैं तुझे कभी कुछ दे नहीं सका। आज जाते वक्त तुझे कुछ दिए जा रहा हूं। इससे तेरे कुछ दिनों का काम चल जाएगा।" 


अपने राह-खर्च के लिए कुछ रुपये रखकर तनख्वाह के जितने रुपये थे, जेब से सब निकालकर उसे देने लगे।रतन धूल में लोट पड़ी और उनके पैर पकड़कर बोली, "दादा, तुम्हारे पांव पड़ती हूं, पांव पड़ती हूं, मुझे कुछ देने की जरूरत नहीं। तुम्हारे पांव पड़ती हूं, मेरे लिए किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं।" इतना कहकर वह वहां से दौड़कर चली गई। 


भूतपूर्व पोस्टमास्टर ने एक गहरी सांस ली, फिर कार्पेट का बैग लटकाए, कन्धे पर छतरी रखे, मजदूर के सिर पर नीले और सफेद रंग से चित्रित टीन का बक्सा रखवाकर धीरे-धीरे घाट की ओर चल दिए। 


जब वे नाव पर सवार हुए और नाव छूट गई, वर्षा में फैली हुई नदी धरती के आवेश से निकले आंसुओं की तरह चारों ओर झिलमिलाने लगी, तब हृदय में वह एक गहरी टीस का अनुभव करने लगे। एक मामूली गंवई लड़की का करुण मुखड़ा जैसे एक विश्वव्यापी बड़ी और अनकही मर्म-व्यथा बनकर उनके हृदय को व्यथित करने लगा। एक बार बड़ी इच्छा हुई कि लौट जाएं, संसार की गोद से छिटकी हुई उस अनाथ बालिका को साथ लेते आएं, लेकिन तब तक बादबान में हवा भर चुकी थी, वर्षा का प्रवाह वेग से बह रहा था, गांव पार कर नदी-किनारे श्मशान दिखाई दे रहा था और वर्षा प्रवाह पर बहते हुए मुसाफिर के उदास हृदय में इस सत्य का उदय हो रहा था, जीवन में ऐसी बिछुड़नें कितनी ही और आएगी, कितनी मौतें आती रहेंगी, इसलिए लौटने से क्या फायदा? दुनिया में कौन किसका है?' 


किन्तु रतन के मन में किसी भी सत्य का उदय नहीं हुआ। वह उस पोस्ट-ऑफिस-गृह के चारों और केवल आंसू ढरकाती चक्कर लगा रही थी। शायद उसके मन में क्षीण आशा जाग रही थी कि दादा लौट आएं और इसी बन्धन में फंसी वह किसी तरह भी कहीं दूर नहीं जा सकती थी। हाय रे, बुद्धिशून्य मानव-हृदय! भ्रान्ति किसी तरह से भी मिटती नहीं। युक्तिशास्त्र का विधान बहुत देर में मन में बैठता है। प्रबल प्रमाण का भी अविश्वास कर, झूठी आशा को दोनों बांहों में लपेटकर अपनी छाती से चिपकाए रखा जाए, तो वह अन्त में एक दिन सारी नाड़ियों को काटकर हृदय का खून चूसकर भाग जाती है और तभी चेतना आती है। चेतना आने के बाद भी दूसरे भ्रान्तिजाल में फंसने के लिए उसका चित्त व्याकुल होता रहता है।


विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह जिन्होंने उन्हें अमर कीर्ति दी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर (रबीन्द्रनाथ  टैगोर) की श्रेष्ठ कहानियां -


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