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सौत-1: कहानी मुंशी प्रेमचंद | Saut Munshi Premchand Stories

प्रेमचंद कि सर्वश्रेठ कहानियाँ  , premchand best stories,


सौत प्रेमचंद कि सर्वश्रेठ कहानियाँ Saut- Premchand Best StorY


Premchand Ki Kahaniyaपंडित देवदत्त का विवाह हुए बहुत दिन हुए, पर उनके कोई संतान न हुई। जब तक उनके मां-बाप जीवित थे तब तक वे उनसे सदा दूसरा विवाह कर लेने के लिए आग्रह किया करते थे पर वे राजी न हुए। उन्हें अपनी पत्नी गोदावरी से अटल प्रेम था। संतान के होने वाले सुख के निमित्त वे अपना वर्तमान पारिवारिक सुख नष्ट न करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त वे कुछ नये विचार के मनुष्य थे। कहा करते थे कि संतान होने से मां-बाप की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। जब तक मनुष्य में यह सामर्थ्य न हो कि वह उसका भले प्रकार से पालन-पोषण और शिक्षण आदि कर सके तब तक उसकी संतान से देश, जाति और निज का कुछ भी कल्याण नहीं हो सकता। 


पहले तो कभी-कभी बालकों को हंसते-खेलते देख कर उनके हृदय पर चोट लगती थी, परन्तु अब अपने अनेक देश-भाइयों की तरह वे भी शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगे। अब किस्से-कहानियों के बदले धार्मिक ग्रंथों से उनका अधिक मनोरंजन होता था। अब संतान का ख्याल करते ही उन्हें भय सा लगता था। 


पर, गोदावरी इतनी जल्दी निराश होनेवाली न थी। पहले तो वह देवी-देवता गंडे ताबीज और यंत्र-मंत्र आदि की शरण लेती रही, परन्तु जब उसने देखा कि ये औषधियां कुछ काम नहीं करतीं तब एक महौषधि की फिक्र में लगी जो कायाकल्प से कम नहीं थी। उसने महीनों, बरसों इसी चिंता-सागर में गोते लगाते काटे। उसने दिल को बहुत समझाया; परन्तु मन में जो बात समा गयी थी किसी तरह न निकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़ेगा। शायद पति-प्रेम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके हाथ से निकल जाय, पर क्या ऐसा हो सकता है? पंद्रह वर्ष तक लगातार जिस प्रेम के वृक्ष की उसने सेवा की है क्या वह हवा का एक झोंका भी न सह सकेगा?  


गोदावरी ने अन्त में अपने प्रबल विचारों के आगे सिर झुका ही दिया। अब सौत का शुभागमन करने के लिए वह तैयार हो गयी थी। 


पंडित देवदत्त गोदावरी का यह प्रस्ताव सुन कर स्तम्भित हो गये। उन्होंने अनुमान किया कि या तो वह प्रेम की परीक्षा कर रही है या मेरा मन लेना चाहती है। उन्होंने उसकी बात हंस कर टाल दी। पर जब गोदवरी ने गंभीर भाव से कहा, तुम इसे हंसी मत समझो, मैं अपने हृदय से कहती हूं कि संतान का मुंह देखने के लिए मैं सौत से छाती पर मूंग दलवाने के लिए भी तैयार हूं, तब तो उनका संदेह जाता रहा। इतने ऊंचे और पवित्र भाव से भरी हुई गोदावरी को उन्होंने गले से लिपटा लिया। वे बोले, मुझसे यह न होगा। मुझे संतान की अभिलाषा नहीं।


गोदावरी ने जोर देकर कहा, तुमको न हो मुझे तो है। अगर अपनी खातिर से नहीं तो तुम्हें मेरी खातिर से यह काम करना ही पड़ेगा। 


पंडित जी सरल स्वभाव के आदमी थे । हामी तो उन्होंने न भरी, पर बार-बार कहने से वे कुछ कुछ राजी अवश्य हो गये। उस तरफ से इसी की देर थी। पंडित जी कुछ भी परिश्रम न करना पड़ा। गोदावरी की कार्य कुशलता ने सब काम उनके लिए सुलभ कर दिया। उसने इस काम के लिए अपने पास से केवल रुपये ही नहीं निकाले, किन्तु अपने गहने और कपड़े भी अर्पण कर दिये। लोक-निंदा का भय इस मार्ग में सबसे बड़ा कांटा था। देवदत्त मन में विचार करने लगे कि जब मैं मौर सजा कर चलूंगा तब लोग मुझे क्या कहेंगे? मेरे दफ्तर के मित्र मेरी हंसी उड़ायेंगे और मुस्कराते हुए कटाक्षों से मेरी ओर देखेंगे। उनके वे कटाक्ष छुरी से भी ज्यादा तेज होंगे। उस समय मैं क्या करूंगा? 


गोदावरी ने अपने गांव में जाकर इस कार्य को आरम्भ कर दिया और इसे निर्विघ्न समाप्त भी कर डाला। नयी बहू घर में आ गयी। उस समय गोदावरी ऐसी प्रसन्न मालूम हुई मानो वह बेटे का ब्याह कर लायी हो। वह खूब गाती-बजाती रही। उसे क्या मालूम था कि शीघ्र की उसे इस गान के बदले रोना पड़ेगा। 


कई मास बीत गये। गोदावरी अपनी सौत पर इस तरह शासन करती थी मानो वह उसकी सास हो, तथापि वह यह बात कदापि न भूलती थी कि मैं वास्तव में उसकी सास नहीं हूं। उधर गोमती को अपनी स्थिति का पूरा ख्याल था।इसी कारण सास के शासन की तरह कठोर न रहने पर भी गोदावरी का शासन उसे अप्रिय होता था। उसे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए भी गोदावरी से कहते संकोच होता था। 


कुछ दिनों बाद गोदावरी के स्वभाव में एक विशेष परिवर्तन दिखायी देने लगा। वह पंडित जी को घर में आते-जाते बड़ी तीव्र दृष्टि से देखने लगी। उसकी स्वाभाविक गंभीरता अब मानो लोप-सी हो गयी, जरा-सी बात भी उसके पेट में नहीं पचती! जब पंडित जी दफ्तर से आते तब गोदावरी उनके पास घंटों बैठी गोमती का वृत्तांत सुनाया करती।वृत्तांत-कथन में बहुत सी ऐसी छोटी-मोटी बातें भी होती थीं कि जब कथा समाप्त होती तब पंडित जी के हृदय से बोझ-सा उतर जाता। गोदावरी क्यों इतनी मृदुभाषिणी हो गयी थी, इसका कारण समझना मुश्किल है। शायद अब वह गोमती से डरती थी। उसके सौन्दर्य से, उसके जीवन से, उसके लज्जायुक्त नेत्रों से शायद वह अपने को पराभूत समझती। बांध को तोड़ कर वह पानी की धारा को मिट्टी के ढेलों से रोकना चाहती थी। 


एक दिन गोदावरी ने गोमती से मीठा चावल पकाने को कहा। शायद वह रक्षाबंधन का दिन था। गोमती ने कहा, शक्कर नहीं है। गोदावरी यह सुनते ही विस्मित हो उठी। उतनी शक्कर इतनी जल्दी कैसे उठ गयी! जिसे छाती फाड़ कर कमाना पड़ता है  उसे अखरता है, खानेवाले क्या जानें? 


जब पंडित जी दफ्तर से आये तब यह जरा-सी बात बड़ा विस्तृत रूप धारण करके उनके कानों में पहुंची। थोड़ी देर के लिए पंडित जी के दिल में भी यह शंका हुई कि गोमती को कहीं भस्मक रोग तो नहीं हो गया। 


ऐसी ही घटना एक बार फिर हुई। पंडित जी को बवासीर की शिकायत थी। लालमिर्च वह बिल्कुल न खाते थे। गोदावरी जब रसोई बनाती थी तब वह लालमिर्च रसोई घर में लाती ही न थी। गोमती ने एक दिन दाल मसाले के साथ थोड़ी-सी लालमिर्च भी डाल दी। पंडित जी ने दाल कम खायी पर गोदावरी गोमती के पीछे पड़ गयी। ऐंठ कर वह बोली ऐसी जीभ जल क्यों नहीं जाती?


पंडित जी बड़े ही सीधे आदमी थे। दफ्तर से आये, खाना खाया, पड़ कर सो रहे थे एक साप्ताहिक पत्र मंगाते थे। उसे कभी-कभी महीनों खोलने की नौबत न आती थी। जिस काम में जरा भी कष्ट या परिश्रम होता, उससे वे कोसों दूर भागते थे। कभी उनके दफ्तर में थियेटर के ' पास ' मुफ्त मिला करते थे। पर पंडित जी उनसे कभी काम नहीं लेते, और ही लोग उनसे मांग ले जाया करते। रामलीला या कोई मेला तो उन्होंने शायद नौकरी करने के बाद फिर कभी देखा हो नहीं। गोदावरी उनकी प्रकृति का परिचय अच्छी तरह पा चुकी थी। पंडित जी भी प्रत्येक विषय में गोदावरी के मतानुसार चलने में अपनी कुशल समझते थे। 


पर रूई-सी मुलायम वस्तु भी दब कर कठोर हो जाती है। पंडित जी को यह आठों पहर की चह-चह असहा-सी प्रतीत होती, कभी-कभी मन में झुंझलाने भी लगते। इच्छा शाक्ति जो इतने दिनों तक बेकार पड़ी रहने से निर्बल-सी हो गयी थी, अब कुछ सजीव सी होने लगी थी। 


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पंडित जी यह मानते थे कि गोदावरी ने सौत को घर लाने में बड़ा भारी त्याग किया है। उसका यह त्याग अलौकिक कहा जा सकता है; परन्तु उसके त्याग का भार जो कुछ है वह मुझ पर है, गोमती पर उसका क्या एहसान? यहां उसे कौन-सा सुख है जिसके लिए वह फटकार पर फटकार सहे? पति मिला है वह बूढ़ा और सदा रोगी, घर मिला है वह ऐसा कि अगर नौकरी छूट जाय तो कल चूल्हा न जले। इस दशा में गोदावरी का यह स्नेह-रहित बर्ताव उन्हें बहुत अनुचित मालूम होता। 


गोदावरी की दृष्टि इतनी स्थूल न थी कि उसे पंडित जी के मन के भाव नजर न आवें। उनके मन में जो विचार उत्पन्न होते वे सब गोदावरी को उनके मुख पर अंकित से दिखायी पड़ते। यह जानकारी उसके हृदय में एक ओर गोमती के प्रति ईर्ष्या की प्रचंड अग्नि दहका देती, दूसरी ओर पंडित देवदत्त पर निष्ठुरता और स्वार्थप्रियता का दोषारोपण कराती फल यह हुआ कि मनोमालिन्य दिन-दिन बढ़ता गया। 


गोदावरी ने धीरे-धीरे पंडित जी से गोमती की बातचीत करनी छोड़ दी, मानो उसके निकट गोमती घर में थी ही नहीं। न उसके खाने-पीने की वह सुधि लेती, न कपड़े लत्ते की। एक बार कई दिनों तक उसे जलपान के लिए कुछ भी न मिला। पंडित जी तो आलसी जीव थे। वे इन अत्याचारों को देखा करते, पर अपने शांतिसागर में घोर उपद्रव मच जाने के भय से किसी से कुछ न कहते। तथापि इस छिछले अन्याय ने उनकी महती सहन शक्ति को भी मथ डाला। एक दिन उन्होंने गोदावरी से डरते-डरते कहा, क्या आजकल जलपान के लिए मिठाई-विठाई नहीं आती?


गोदावरी ने क्रुद्ध हो कर जवाब दिया, तुम लाते ही नहीं तो आये कहां से! मेरे कोई नौकर बैठा है?


देवदत्त को गोदावरी के ये कठोर वचन तीर-से लगे। आज तक गोदावरी ने उनसे ऐसी रोषपूर्ण बात कभी न की थी। 


वे बोले, धीरे बोलो, झुंझलाने को तो कोई बात नहीं है। गोदावरी ने आंखें नीची करके कहा, मुझे तो जैसा आता है वैसे बोलती हूं। दूसरों की सी मधुर बोली कहां से लाऊं। " 


देवदत्त ने जरा गरम होकर कहा, आजकल मुझे तुम्हारे मिजाज का कुछ रंग ही नहीं मालूम होता। बात-बात पर उलझती रहती हो! 


गोदावरी का चेहरा क्रोधाग्नि से लाल हो गया। वह बैठी थी खड़ी हो गयी। उसके होंठ फड़कने लगे। वह बोली, मेरी कोई बात तुमको क्यों अच्छी लगेगी। अब मैं सिर से पैर तक दोषों से भरी हुई हूं। अब और लोग तुम्हारे मन का काम करेंगे। मुझसे नहीं हो सकता। यह लो संदूक की कुंजी! अपने रुपये-पैसे संभालो, यह रोज-रोज की झंझट मेरे मान की नहीं। जब तक निभा, निभाया। अब नहीं निभ सकता। 


पंडित देवदत्त मानो मूर्छित से हो गये। जिस शांति-भंग का उन्हें भय था उसने अत्यंत भयंकर रूप धारण करके घर में प्रवेश किया। वह कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ़ जाने का भय था। वह बाहर चले आये और सोचने लगे कि मैंने गोदावरी के साथ कौन-सा अनुचित व्यवहार किया है। उनके ध्यान में आया कि गोदावरी के हाथ से निकल कर घर का प्रबंध कैसे हो सकेगा। इस थोड़ी-सी आमदनी में वह न जाने किस प्रकार काम चलाती थी? क्या-क्या उपाय वह करती थी? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेंगे। उसे मनाना पड़ेगा, और हो ही क्या सकता है। गोमती भला क्या कर सकती है, सारा बोझ मेरे ही सिर पड़ेगा। मानेगी तो, पर मुश्किल से।

 

परन्तु पंडित जी की ये शुभकामनाएं निष्फल हुईं। संदूक की कुंजी विषैली नागिन की तरह वहीं आंगन में ज्यों की त्यों तीन दिन तक पड़ी रही, किसी को उसके निकट जाने का साहस न हुआ। चौथे दिन पंडित जी ने मानो जान पर खेल कर उस कुंजी को उठा लिया। उस समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानो किसी ने उनके सिर पर पहाड़ उठा कर रख दिया। आलसी आदमियों को अपने नियमित मार्ग से तिल भर भी हटना बड़ा कठिन मालूम होता है।


यद्यपि पंडित जी जानते थे कि मैं अपने दफ्तर के कारण इस कार्य को सम्भालने में असमर्थ हूं, तथापि उनसे इतनी ढिठाई न हो सकी कि वह कुंजी गोमती को दें। पर यह केवल दिखावा ही भर था। कुंजी उन्हीं के पास रहती थी, काम सब गोमती को करना पड़ता था। इस प्रकार गृहस्थी के शासन का अंतिम साधन भी गोदावरी के हाथ से निकल गया। गृहिणी के नाम के साथ जो मर्यादा और सम्मान था वह भी गोदावरी के पास से उसी कुंजी के साथ चला गया। देखते-देखते घर की महरी और पड़ोस की स्त्रियों के बर्ताव में भी पड़ गया। गोदावरी अब पदच्युता रानी की तरह थी। उसका अधिकार अब केवल दूसरों की बहुत अंतर सहानुभूति पर ही रह गया था। 


गृहस्थी के काम-काज में परिवर्तन होते ही गोदावरी के स्वभाव में भी शोकजनक परिवर्तन हो गया। ईर्ष्या मन में रहने वाली वस्तु नहीं। आठों पहर पास-पड़ोस के घरों में यहीं चर्चा होने लगी, देखा दुनिया कैसे मतलब की है। बेचारी ने लड़-झगड़ कर ब्याह कराया, जानबूझ कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी। यहां तक कि अपने गहने कपड़े तक उतार दिये। पर अब रोते-रोते आंचल भीगता है। सौत तो सौत ही है, पति ने भी उसे आंखों से गिरा दिया। बस, अब दासी की तरह घर में पड़ी पड़ी पेट जिलाया करे। यह जीना भी कोई जीना है? 


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ये सहानुभूतिपूर्ण बात सुनकर गोदावरी की ईर्ष्याग्नि और भी प्रबल होती जाती थी। इसे इतना न सूझता था कि वह मौखिक संवेदनाएं अधिकांश में उस मनोविकार से पैदा हुई हैं जिससे मनुष्यों को हानि और दुःख पर हंसने में विशेष आनंद आता है।


गोदावरी को जिस बात का पूर्ण विश्वास और पंडित जी को जिसका बड़ा भय था, वह न हुई। घर के कामकाज में कोई विघ्नबाधा, कोई रुकावट न पड़ी। हां, अनुभव न होने के कारण पंडित जी का प्रबन्ध गोदावरी के प्रबन्ध जैसा अच्छा न था। कुछ खर्च ज्यादा पड़ जाता था। पर काम भलीभांति चल जाता था। हां, गोदावरी को गोमती के सभी काम दोषपूर्ण दिखाई देते थे! ईर्ष्या में अग्नि है। परन्तु अग्नि का गुण उसमें नहीं। वह हृदय को फैलाने के बदले और भी संकीर्ण कर देती है। अब घर में कुछ हानि हो जाने से गोदावरी को दुःख के बदले आनंद होता! बरसात के दिन थे। कई दिन तक सूर्यनारायण के दर्शन न हुए। संदूक में रक्खे हुए कपड़ों में फफूंदी लग गयी। तेल के अचार बिगड़ गये। गोदावरी को यह सब देख कर रत्ती भर भी दुःख न हुआ। हां, दो-चार जली-कटी सुनाने का अवसर अवश्य मिल गया। मालिकिन ही बनना आता है कि मालिकिन का काम करना भी। 


पंडित देवदत्त की प्रकृति में भी अब नया रंग नजर आने लगा! जब तक गोदावरी अपनी कार्यपरायणता से घर का सारा बोझ सम्भाले थी तब तक उनको कभी किसी चीज की कमी नहीं खुली। यहां तक कि शाक-भाजी के लिए भी उन्हें बाजार नहीं जाना पड़ा। पर अब गोदावरी उन्हें दिन में कई बार बाजार दौड़ते देखती। गृहस्थी का प्रबंध ठीक न रहने से बहुधा जरूरी चीजों के लिए बाजार ऐन वक्त पर जाना पड़ता। गोदावरी यह कौतुक देखती और सुना-सुना कर कहती, यही महाराज हैं कि एक तिनका उठाने के लिए भी न उठते थे। अब देखती हूं, दिन में दस दफे बाजार में खड़े रहते हैं। अब मैं इन्हें कभी यह कहते नहीं सुनती कि मेरे लिखने-पढ़ने में हर्ज होगा। 


गोदावरी को इस बात का एक बार परिचय मिल चुका था कि पंडित जी बाजार-हाट के काम में कुशल नहीं हैं। इसलिए जब उसे कपड़े की जरूरत होती तब वह अपने पड़ोस के एक बूढ़े लाला साहब से मंगवाया करती थी। पंडित जी को यह बात भूल सी गयी थी कि गोदावरी को साड़ियों की जरूरत पड़ती है। उनके सिर से तो जितना बोझ कोई हटा दे उतना ही अच्छा था। खुद वे भी वही कपड़े पहनते थे जो गोदावरी मंगा कर उन्हें दे देती थी। पंडित जी को नये फैशन और नये नमूनों से कोई प्रयोजन न था। पर अब कपड़ों के लिए भी उन्हीं को बाजार जाना पड़ता है। एक बार गोमती के पास साड़ियां न थीं। पंडित जी बाजार गये तो एक बहुत अच्छा सा जोड़ा उसके लिए ले आये। बजाज ने मनमाने दाम लिये। उधार सौदा लाने में पंडित जी जरा भी आगा-पीछा न करते थे। गोमती ने वह जोड़ा गोदावरी की दिखाया। गोदावरी ने देखा और मुंह फेर कर रुखायी से बोली, भला तुमने उन्हें कपड़े लाना तो सिखा दिया। मुझे तो सोलह वर्ष चीत गये, उनके हाथ का लाया हुआ एक कपड़ा स्वप्न में भी पहनना नसीब न हुआ। 


ऐसी घटनाएं गोदावरी की ईर्ष्याग्नि को और भी प्रज्वलित कर देती थीं। जब तक उसे यह विश्वास था कि पंडित जी स्वभाव से ही रूखे हैं तब तक उसे संतोष था। परन्तु अब उनकी ये नयी नयी तरंगें देखकर उसे मालूम हुआ कि जिस प्रीति को मैं सैकड़ों यत्न करके भी न पा सकी उसे इस रमणी ने केवल अपने यौवन से जीत लिया। उसे अब निश्चय हुआ कि मैं जिसे सच्चा प्रेम समझ रही थी वह वास्तव में कपटपूर्ण था। वह निरास्वार्थ था। 


दैवयोग से इन्हीं दिनों गोमती बीमार पड़ी। उसमें उठने-बैठने की भी शक्ति न रही। गोदावरी रसोई बनाने लगी, पर उसे इसका निश्चय नहीं था कि गोमती वास्तव में बीमार है। उसे यही ख्याल था कि मुझसे खाना पकवाने के लिए ही दोनों प्राणियों ने यह स्वांग रचा है, पड़ोस की स्त्रियों से कहती कि लौंडी बनने में इतनी ही कसर थी वह पूरी हो गयी। 


पंडित जी को आजकल खाना खाते वक्त भागभाग-सी पड़ जाती है। वे न जाने क्यों गोदावरी से एकांत में बातचीत करते डरते हैं। न मालूम कैसी कठोर और हृदय विदारक बातें वह सुनाने लगे। इसीलिए खाना खाते वक्त वे डरते थे कि कहीं उस भयंकर समय का आगमन न हो जाय। गोदावरी अपने तीव्र नेत्रों से उनके मन का भाव ताड़ जाती थी, पर मन ही मन में ऐंठकर रह जाती थी। 


एक दिन उससे न रहा गया। वह बोली, क्या मुझसे बोलने की भी मनाही कर दी गयी है? देखती हूं, कहीं तो रात-रात भर बातों का तार नहीं टूटता, पर मेरे सामने मुंह खोलने की भी कसम सी खायी है। घर का रंगढंग देखते हो न? अब तो काम तुम्हारे इच्छानुसार चल रहा है न? 


पंडित जी ने सिर नीचा किये हुए उत्तर दिया, ऊंह! जैसे चलता है, वैसे चलता है। उस फिक्र से क्या अपनी जान दे दूं? जब तुम चाहती हो कि घर मिट्टी में मिल जाय तब फिर मेरा क्या वश है? 


स पर गोदावरी ने बड़े कठोर वचन कहे। बात बढ़ गयी। पंडित जी चौके पर से उठ आये। गोदावरी ने कसम दिला कर उन्हें बिठाना चाहा, पर वे वहां क्षण भर भी न रुके! तब उसने भी रसोई उठा दी। सारे घर को उपवास करना पड़ा। 


गोमती में एक विचित्रता यह थी कि वह कड़ी से कड़ी बात सहन कर सकती थी पर भूख सहन करना उसके लिए बड़ा कठिन था। इसलिए कोई व्रत भी न रखती थी। हां, कहने-सुनने को जन्माष्टमी रख लेती थी। पर आजकल बीमारी के कारण उसे और भी भूख लगती थी। जब उसने देखा कि दोपहर होने को आयी और भोजन मिलने के कोई लक्षण नहीं, तब विवश हो कर बाजार से मिठाई मंगायी। सम्भव है उसने गोदावरी को जलाने के लिए ही खेल खेला हो, क्योंकि कोई भी एक वक्त खाना न खाने से मर नहीं जाता। गोदावरी के सिर से पैर तक आग लग गयी। उसने भी तुरन्त मिठाइयां मंगवायीं। कई वर्ष के बाद आज उसने पेट भर मिठाइयां खायीं। ये सब ईर्ष्या के कौतुक हैं। 


जो गोदावरी दोपहर के पहले मुंह में पानी न डालती थी वही अब प्रातः काल ही कुछ जलपान किये बिना नहीं रह सकती। सिर में वह हमेशा मीठा तेल डालती थी, पर अब मीठे तेल से उसके सिर में पीड़ा होने लगती थी। पान खाने का उसे नया व्यसन लग गया। ईर्ष्या ने उसे नयी नवेली बहू बना दिया। 


जन्माष्टमी का शुभ दिन आया। पंडित जी का स्वाभाविक आलस्य इन दो-तीन दिनों के लिए गायब हो जाता था। बड़े उत्साह से झांकी बनाने में लग जाते थे। गोदावरी यह व्रत बिना जल के रखती थी और पंडित जी तो कृष्ण के उपासक ही थे। अब उनके अनुरोध से गोमती ने भी निर्जल व्रत रखने का साहस किया, पर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ जब महरी ने आकर उससे कहा, बड़ी बहू निर्जल न रहेंगी, उनके लिए फलाहार मंगा दो। 


संध्या समय गोदावरी ने मान मंदिर जाने के लिए इक्के की फरमाइश की। गोमती को यह फरमाइश बुरी मालूम हुई। आज के दिन इक्कों का किराया बहुत बढ़ जाता था। मान मंदिर कुछ दूर भी नहीं था। इससे वह चिढ़ कर बोली-व्यर्थ रुपया क्यों फेंका जाय? मन्दिर कौन बड़ी दूर है। पांव-पांव क्यों नहीं चली जातीं हुक्म चला देना तो सहज है। अखरता उसे है जो बैल की तरह कमाता है। 


तीन साल पहले गोमती ने इसी तरह की बातें गोदावरी के मुंह से सुनी थीं। आज गोदावरी को भी गोमती के मुंह से सुननी पड़ीं। समय की गति! 


इन दिनों गोदावरी बड़े उदासीन भाव से खाना बनाती है। पंडित जी के पथ्यापथ्य के विषय में भी अब उसे पहले की-सी चिंता न थी। एक दिन उसने महरी से कहा कि अंदाज से मसाले निकाल कर पीस ले, मसाले दाल में पड़े तो मिर्च जरा अधिक तेज हो गयी। मारे भय से पंडित जी से वह न खायी गयी। अन्य आलसी मनुष्यों की तरह चटपटी वस्तुएं उन्हें भी बहुत प्रिय थीं, परन्तु वह रोग से हरे हुए थे। गोमती ने जब यह सुना तब भौंहें चढ़ा कर बोली, क्या बुढ़ापे में जबान गज भर की हो गयी है। 


कुछ इसी तरह से कटु वाक्य एक बार गोदावरी ने भी कहे थे आज उसकी बारी सुनने की थी। 


आज गोदावरी गंगा से गले मिलने आयी है। तीन साल हुए वह वर और वधू को ले कर गंगा जी को पुष्प और दूध चढ़ाने गयी थी। आज वह अपने प्राण समर्पण करने आयी है। आज वह गंगा जी की आनंदमयी लहरों में विश्राम करना चाहती है। 


गोदावरी को अब उस घर में एक क्षण रहना भी दुस्सह हो गया था। जिस घर में रानी बन कर रही उसी में चेरी बन कर रहना उस जैसी सगर्वा स्त्री के लिए असम्भव था  अब इस घर में गोदावरी का स्नेह उस पुरानी रस्सी की तरह था जो बराबर गांठ देने पर भी कहीं न कहीं से टूट ही जाती है। उसे गंगा जी की शरण लेने के सिवाय और कोई उपाय न सूझता था। कई दिन हुए उसके मुंह से बार-बार जान देने की धमकी सुन पंडित जी खिजला कर बोल उठे थे, तुम किसी तरह मर भी तो जातीं। गोदावरी उन विषभरे शब्दों को अब तक न भूली थी। चुभनेवाली बातें उसको कभी न भूलती थीं। आज गोमती ने भी वहीं बातें कहीं, यद्यपि उसने बहुत कुछ सहन करने के पीछे कठोर बातें कही थीं तथापि गोदावरी को अपनी बातें तो भूल-सी गयी थीं। केवल गोमती और पंडित जी के वाक्य ही उसके कानों में गूंज रहे थे। पंडित जी ने उसे डांटा तक नहीं। मुझ पर ऐसा घोर अन्याय और वे मुंह तक न खोलें।


आज सब लोगों के सो जाने पर गोदावरी घर से बाहर निकली, आकाश में काली घटाएं छायी हुई थीं। वर्षा की झड़ी लग रही थी। उधर उसके नेत्रों से भी आंसुओं की धारा बह रही थी। प्रेम का बंधन कितना कोमल है और दृढ़ भी कितना ! कोमल है अपमान के सामने, दृढ़ है वियोग के सामने ! गोदावरी चौखट पर खड़ी खड़ी घंटों रोती रही, कितनी ही पिछली बातें उसे याद आती थीं। हा ! कभी यहां उसके लिए प्रेम भी था, मान भी था, जीवन का सुख भी था। शीघ्र ही पंडित जी के वे कठोर शब्द भी याद आ गये। आंखों से फिर पानी की धारा बहने लगी। गोदावरी घर से चल खड़ी हुई। 


इस समय यदि पंडित देवदत्त नंगे सिर, नंगे पांव पानी में भीगते दौड़े आते और गोदावरी के कम्पित हाथों को पकड़ कर अपने धड़कते हुए हृदय से उसे लगा कर कहते,' प्रिये! ' इससे अधिक और उनके मुंह से कुछ भी न निकलता, तो भी क्या गोदावरी अपने विचारों पर स्थिर रह सकती? 


कुआर का महीना था। रात को गंगा की लहरों की गरज बड़ी भयानक मालूम होती थी। साथ ही जब बिजली तड़प जाती तब उसकी उछलती हुई लहरें प्रकाश से उज्ज्वल हो जाती थीं। मानो प्रकाश उन्मत्त हाथी का रूप धारण कर किलोलें कर रहा हो। जीवन संग्राम का एक विशाल दृश्य आंखों के सामने आ रहा था। 


गोदावरी के हृदय में भी इस समय विचार की अनेक लहरें बड़े वेग से उठतीं, आपस में टकरातीं और ऐंठती हुई लोप हो जाती थीं। कहां? अंधकार में। 


क्या यह गरजने उमड़नेवाली गंगा गोदावरी को शांति प्रदान कर सकती है? उसकी लहरों में सुधासम मधुर ध्वनि नहीं है और न उसमें करुणा का विकास ही है। वह इस समय उद्दंडता और निर्दयता की भीषण मूर्ति धारण किये हुए है। 


गोदावरी किनारे बैठी क्या सोच रही थी, कौन कह सकता है? क्या अब उसे यह खटका नहीं लगा था कि पंडित देवदत्त आते न होंगे? प्रेम का बंधन कितना मजबूत होता है। 


उसी अंधकार में ईर्ष्या, निष्ठुरता और नैराश्य की सताई हुई वह अबला गंगा की गोद में गिर पड़ी। लहरे झपटीं और उसे निगल गयीं। 


सवेरा हुआ। गोदावरी घर में नहीं थी। उसकी चारपाई पर यह पत्र पड़ा हुआ था 


" स्वामिन, संसार में सिवाय आपके मेरा और कौन स्नेही था? मैंने अपना सर्वस्व आपके सुख की भेंट कर दिया। अब आपका सुख इसी में है कि मैं इस संसार से लोप हो जाऊं। इसीलिए ये प्राण आपकी भेंट हैं। मुझसे जो कुछ अपराध हुए हों, क्षमा कीजियेगा। ईश्वर सदा आपको सुखी रक्खे? " 


पंडित जी इस पत्र को देखते ही मूर्छित हो कर गिर पड़े। गोमती रोने लगी। पर क्या वे इसके विलाप के आंसू थे?


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