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हिन्दू धर्म में ईश्वर का स्वरुप क्या है? क्या यह बहु देवोपासना है?

हिन्दू धर्म में ईश्वर का स्वरुप क्या है?- एक ईश्वर में हिन्दुओं की श्रद्धा है तो वे शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश- जैसे भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की उपासना क्यों करते हैं? यह बहुदेवोपासना (Multiple Worship) हुई न? पुराणों के आख्यानों को विश्वसनीय मानें तो देवी-देवता आपस में होड़ा-होड़ी और संघर्ष में उलझे लगेंगे न? 


What is the nature of God in Hinduism?,Ishwar Ka Swaroop Kya Hai ? || ईश्वर का स्वरुप क्या है


What is the nature of God in Hinduism?


हिन्दू धर्म अनेक आराध्यों का अस्तित्व स्वीकार भले ही करे, किन्तु वह एक ईश्वर, परमसत्ता, को ही मानता है। इन आराध्यों में इन्द्र हम और आप जैसे ही हैं जो पिछले जन्म की सृष्टि प्रक्रिया में असाधारण पुण्य कमाने के कारण उस ऊँचे पद पर पहुँचे हैं। प्रकृति के नाना रूपों पर अधिकार चलाने वाले ये आराध्य देव उन सरकारी अफसरों के समान हैं जो राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त अपने-अपने अधिकार चलाते हैं। यह पुण्य क्षीण होते ही उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ता है और मुक्ति या मोक्ष के लिए साधना करनी पड़ती है।


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ब्रह्मा, विष्णु, शिव की बात पर आइए। ये कोई तीन स्वतंत्र और भिन्न आराध्य नहीं हैं। एक ही परम सत्ता के ये तीन स्वरूप मात्र हैं। सृजन, पालन, संहार क्रम से इनका दायित्व है। एक ही व्यक्ति घर पर पिता है, दफ्तर में बॉस है और दुकान पर ग्राहक है। इन तीनों का हाल भी वैसा ही है। अन्य आराध्यों को भी इसी प्रकार परमसत्ता के विभिन्न स्वरूप मानना चाहिए जिनका अपना-अपना विशिष्ट क्षेत्र है। 


इन आराध्य देवों की शक्तियाँ सरस्वती, पार्वती या शिवा तथा लक्ष्मी हैं जो इनसे उसी प्रकार अभिन्न हैं जिस प्रकार आग से जलाने की शक्ति अभिन्न होती है। ये देवियाँ इन देवताओं की पत्नियों के रूप में मानी गई हैं। इसका यह मतलब न लगाया जाना चाहिए कि सभी आराध्य देव कल्पनाप्रसूत हैं। चीनी से बनी गड़ियाँ जिस प्रकार चीनी ही है उसी प्रकार निर्विवाद रूप से सब आराध्य देव परमात्मा, ईश्वर, परमसत्ता के ही अलग-अलग रूप हैं। इसमें अपवाद के लिए गुंजाइश नहीं।


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हम साधारण व्यक्ति ठहरे। ईश्वर की, उसके सहज रूप में, उपासना नहीं कर पाते। अतः तप से, कठोर साधना से, ईश्वर से ही इन नाम रूपों को प्राप्त कर ऋषियों ने हमारा उपकार किया है। अतः ध्यान-समाधि में इनके माध्यम से ईश्वर-साक्षात्कार या परमात्मानुभूति हो सकती है। कुछ पुराणों में परस्पर विरोधी लगने वाली चर्चा मिलती है। उस पर भी विचार कर लेना अच्छा होगा। सदियों से उनका विकास होता आया है। अतः मूल से प्रक्षेपों को अलग करना सरल नहीं है। 


ऐसा सोचना गलत न होगा कि अनेक पंथों-सम्प्रदायों में अपने को श्रेष्ठ जतलाने की होड़ में कुछ ऐसे वक्तव्य बाद में जोड़ दिये गये होंगे जिनका मूल में कोई संकेत नहीं है। अतः यह विरोधाभास उपेक्षणीय हो जाता है।


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