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ॐ,ओंकार रहस्य ओ३म् सभी मन्त्रों का बीज राजा सेतु है

ओ३म् मन्त्रों का राजा है


ओ३म् मन्त्रों का राजा है साथ ही निराकार ओंकार निर्गुण रूप है,ओ३म्,ॐ (OM | AUM | OMKAR),सभी मन्त्रों को अपनी प्राण-शक्ति से भावित करता है। उनको अभीष्ट क्रिया-सिद्धि की दिशा में गति शील होने की शक्ति देता है। इसी से उसे सभी मन्त्रों का सम्राट् कहा गया है— 


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माङ्गल्यं पावनं धर्म्य सर्व-काम-प्रसाधनम् । 
ओंकारः परमं ब्रह्म, सर्व-मन्त्रेषु नायकम् ॥

ओ३म् सभी मङ्गलों को देने वाला है, पवित्रता का संचार करने वाला है, धर्ममय है, समस्त कामनाओं की पूर्ति का प्रसाधन है। अतः परब्रह्म रूप ओंकार को मन्त्र-राज कहना सर्वथा उपयुक्त है। सभी मनोरथों की सिद्धि और परमगति का ओ३म् स्वतन्त्र साधन भी हैं और दूसरे दूसरे साधनों ( मन्त्रों ) की सफलता का हेतु भी है। सभी मन्त्रों में एवमेव मूल शक्ति वही है। 


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ओ३म् सभी मन्त्रों का बीज है । 


'ओ३म्' को बीज या बीज मन्त्र भी कहा जाता है। यथा 


अनादिनिधानं देवप्रमेयं सनातनम् । 
परं परतर बीजं निर्मल निष्फलं शुभम् || 

ओ३म् अनादि है। सर्व निधान है,वह अद्वितीय सनातन देव है,सबसे परे हैवह निर्मल, निष्कल, शुभ और परतर ( परमाणु से भी सूक्ष्म ) बीज है। 


ओ३म् को बीज मन्त्र या मन्त्र राज कहना उचित है, क्योंकि यह सभी मन्त्रों का बीज है। जब सभी ध्वनियाँ, सभी भाषायें ओ३म् रूपीं अनाहत ध्वनि के ही व्यक्त रूप हैं, तो उन भाषाओं के सभी मन्त्र भी तो उसी से निःसृत है, यह तथ्य आप से आप उजागर हो जाता है। फिर अन्य मन्त्र तब पंगु या कीलित ही माने गये हैं, जब तक उनके आदि में ओ३म् का विनियोग नहीं किया जाता है। ओ३म् ही मन्त्र विशेष को प्राणवान बनाता है। 


बीज पेड़ के मूल का भी मूल होता है। पत्तों को सींचने से हरा-भरा नहीं रखा जा सकता, मूल को सींचने से ही वह पुष्ट होता है, उन्नत होता है। ठीक उसी प्रकार सभी मन्त्रों के बीज रूप ओ३म् की साधना करने से जीवन तरु खिलता फलता है। सभी साधनों, सभी योगों और सभी तन्त्रों का बीज ओ३म् ही है, वही सब का मूल है। 


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ओ३म् मन्त्रों का सेतु है 


प्रणव को मन्त्रों का सेतु कहा गया है। क्यों? सेतु का अर्थ पुल होता है। पुल अगाध सरिता के पार करने का सुखद साधन है। सभी मन्त्र भव सागर से पार उतरने के अनुपम माध्यम हैं। परन्तु ओ३म् के बिना वे अपूर्ण हैं चाहे वैदिक मन्त्र हो, चाहे तांत्रिक या पौराणिक। चाहें सार्थक हो अथवा अनुभूति मूलक ध्वनियों का समाहार। जब तक वे मन्त्र ॐ से योजित नहीं होते, तब तक वे कीलित से निष्प्राण रहते हैं। 


की आत्म चेतना ही उन मन्त्रों को चैतन्य करती हैं, प्राणवानू बनाती है। सो मंत्रों की क्षमता का वाहक होने से, मन्त्रों में भी प्राण प्रतिष्ठा करने से ओ३म् को मन्त्रों का सेतु कहा जाता है क्योंकि वह मन्त्रों का त्राण करता है। तत्तत् मन्त्रों में जो-जो शक्ति सामर्थ्य है, उन मन्त्रों की जो जो महिमा है, वह उनकी अपनी न होकर मंत्रराज ओ३म् की ही कृपा है। 


प्रथम परम पावन ध्वनि 


सृष्टि के अत्यन्त समारम्भ काल में ब्रह्मा के कण्ठ से जो प्रथम पावन ध्वनि निःसत हुई, ॐ उसी की प्रतिध्वनि है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण और कल्याणकारी है। 


सर्वव्यापी और सर्वधर्मीय ध्वनि है। प्रत्येक धर्म की प्रार्थनाओं में ॐ रूपान्तर विद्यमान हैं। ईसाई अपनी प्रार्थना के अन्त में 'अमेन' ( Amen ) का, मुसलमान अपनी नमाज में 'आमीन' का प्रयोग करते हैं । ॐ पीड़ा मोचिनी ध्वनि है। दारुण पीड़ा के काल में की रूपान्तरित ध्वनि वाहः ऊंह, हुँ, हूँ आदि पीड़ा को हल्का कर आनन्द की अनुभूति कराती है। 'हँसी की बेला का हँ भी ॐ का ही एक रूप है। इस प्रकार ॐ की पवित्र ध्वनि सुख दुःख दोनों में हमारी सहचरी है।


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बच्चे के रुदन की ॐ ॐ की ध्वनि भी ॐ का दूसरा रूप है। अविकसित ध्वनि यन्त्र से शिशु ॐ ॐ के माध्यम से ॐ का ही संकीर्तन करता है। परिश्रम परिहार के लिए धोबी का हाँ, हाँ, हूँ, हूँ, उल्कापात की और शृङ्गालों के हुआ, हुआ, में ओइम् की ही गुंजार है। अनन्त रूपी प्रकृति में प्रतिक्षण अनवरत ओ३म् का नाद निनादित हो रहा है। अखिल सृष्टि अपनी अनन्त ध्वनियों के माध्यम से ओ३म् का निरन्तर जाप कर रही है। श्रद्धा पूर्वक ओ३म् का जाप एवं स्मरण ही भक्ति है। सर्व व्याप्त, सर्वाधार परमब्रह्म की सन्निहिति ओ३म् में ही है। 


सभी भाषाओं, शब्दों, ध्वनियों, वर्णों की उद्भावना ओ३म् से ही हुई है। वेदों का सूक्ष्मतम तत्व ओ३म् है। जो इसके विराट अर्थतत्व को हृदयगम कर लेता है, वह समस्त धर्म ग्रन्थों के सार से परिचित हो जाता है। ओ३म् सच्चिदानन्द का प्रतिरूप है। यह सारे धर्मों में सुव्याप्त है। ओ३म्, अमेन, आमीन तीनों ही अभिन्न हैं। प्रभु की आराधना का समारम्भ ओ३म् से ही होता है ओ३म् के अभाव में किसी आराधना और साधना की भावना नहीं हो सकती। ओ३म् सगुण-निर्गुण साकार निराकार ब्रह्म स्वरूप की अपने अन्दर आत्मसात किए हुए है।


तत्काल मुक्ति प्रदाता तथा सर्वोत्तम मन्त्र ओ३म् है। इसकी  महिमा का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है। कि वेद की प्रत्येक ऋचा के आदि अन्त में ओम् विद्यमान है, उपनिषदों का समारम्भ ओ३म से ही हुआ है। ओ३म् परम पावन गायत्री का आदि अक्षर है। देवताओं की आराधना भी ओ३म् से ही आरम्भ होती है। इसका का महत्व अनन्त है। स्वयं परम भगवती पार्वती इसी ओ३म् का गुणगान करते करते नहीं थकती। यह अध्यात्म और दर्शन का परम सत्व है।


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सर्वश्रेष्ठ और स्वाभाविक नाम 


ओ३म् परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ और स्वाभाविक नाम हैं। वृक्षों के पत्तों का साँई-साँई, नदी और समुद्र की लहरों की ध्वनि और मोटर गाड़ियों की आवाज में ओंकार की ही छाप मिलती है। अँगड़ाई व डकार लेते हुये स्वयमेव यह भीतर से प्रस्फुटित होती है। प्रकृति परमात्मा के इस स्वाभाविक नाम को निरन्तर जपने की प्रेरणा देती है। यह अपार शक्ति और सामर्थ्य वाला है। ईश्वरीय सम्पदायें इसमें ओत प्रोत हैं। इसे ब्रह्म भी कहा जाता है। 


ओंकार को प्रणव कहते हैं क्योंकि इसकी बहुत स्तुति होती है। जैसे एक छोटे से बीज में एक वृहद् वृक्ष समा विष्ट रहता है, उसी तरह ओ३म् में समस्त विश्व निहित है। इसलिए इसे बीज कहते हैं। यह ब्रह्म का प्रतीक है। इसीलिए हिन्दू जगत में इसे कल्याण के मन्त्रों का शिरो मणि माना जाता है। स्वस्तिक को सर्वतोमुखी कल्याण का प्रतीकात्मक चिह्न माना जाता है। पूजा कार्यों में वह अग्रणी रहता हैं। यह स्वस्तिक ओ३म् का ही विकृत रूप हैं। सिखों के प्रमुख ग्रन्थ, 'गुरु ग्रन्थ साहब' में एक ओंकार सत गुरु प्रसाद कहकर ओ३म की ही महिमा का वर्णन किया गया है और यह उनके धर्म का प्रमुख चिह्न बन गया है। 


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जीवन की सर्व प्रथम आवश्यकता 


हिन्दू धर्म में ओंकारोपासना के महत्व का मूल्यांकन इसी तथ्य से किया जा सकता है कि शिशु जब जन्म लेता है तो स्नान के बाद सर्व प्रथम सोने की शलाका से मधु व धृत की मिश्रित करके उसकी जिह्वा पर ओंकार लिखे जाने का विधान है। यह इस बात का संकेत है कि मानव शरीर धारण कर उसका उचित उपयोग व उत्थान इसी महाशक्ति के माध्यम से हो सकेगा। यह तभी सम्भव होगा जब उसकी वाणी पर सदैव ओंकार रहेगा चलते-फिरते, उठते बैठते हर समय ओंकार जीवन में ओत-प्रोत हो। 


मृत्यु समय भी शास्त्र का यही आदेश है कि ओंकार का स्मरण करते शरीर त्यागना चाहिए। इसके शुभ परि णामों पर गीता ( ८ | १३ ) में प्रकाश डालते हुए स्पष्ट कहा है कि जो व्यक्ति ओंकार का जप और ईश्वर का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उत्तम गति को प्राप्त होता है। 


शरीर धारण करते समय और शरीर छोड़ते समय, जगत में आते और जाते हुए ओंकार के स्मरण का विधान व आज्ञा है। अन्त समय ओंकार का स्मरण तभी हो पाएगा, जब जीवन भर उसका निरन्तर अभ्यास किया जाएगा।अतः सद्गति चाहने वाले साधक को चाहिए कि वह ओंकार को ही अपना जीवन बना ले, उसे अपने जीवन में ओत प्रोत कर ले कि वह जीवन की सर्व प्रथम आवश्यकता प्रतीत होने लगे, उसके बिना जीवन नीरस सा लगने लगे, ऐसा प्रेम और अनुराग हो जाए इससे। यह स्थिति आने पर ही अन्त समय स्मरण करते हुए सद्गति प्राप्त की जा सकती है।  


शक्ति व सिद्धि का प्रतीक 


मन्त्र शिरोमणि ॐ शक्ति और सिद्धिदाता हैं। जीवन में निराश और उत्साहहीन व्यक्तियों को नवजीवन और नई प्रोरणा देना इसकी विशेषता है। संकट और विपत्ति में आत्मविश्वास को जाग्रत करना इसका स्वभाव है। अज्ञान और अन्धकार का तो यह शत्रु है क्योंकि प्रकाश की करोड़ों ज्योतियाँ इससे जुड़ी रहती है। शक्ति का यह अवतार है, इसके प्रत्येक उच्चारण से शक्ति का विकास होता है। अमरता की अनुभूति का यह सोमरस है। इसके पान बिना ब्रह्म पद प्राप्त करना असम्भव है। समस्त सिद्धियाँ इसकी द्वारपाल हैं और हर क्षण इसकी आज्ञा की प्रतीक्षा में रहती हैं। जीवन का कायाकल्प करना, उसमें नवस्फूर्ति, नवजीवन और नबोत्साह भरते रहना इसका विशेष गुण है। अतः हर क्षेत्र में प्रगति चाहने वाले साधक के लिए इसका अवलम्बन आवश्यक है क्योंकि ॐ में बल, शक्ति, जीवन और बुद्धि निहित है और अनन्त देवी शक्तियाँ इस के आह्वान पर उपस्थिति होती हैं। इस तरह से वह शक्ति और सिद्धि का आगार सा बन जाता है। 


ॐ में अनन्त शक्तियों का भण्डार भरा हुआ है। इस के उच्चारण अथवा जप से विचार शुद्ध होते हैं, मन पवित्र होता है और सात्विक दैवी भावों का उदय होता है क्योंकि ओंकार स्वयं सिद्ध परब्रह्म का शक्तिदायक नाम है। विराट्, अग्नि, विश्व आदि ईश्वर के नाम 'अ' में, हिरण्य गर्भ, वायु, तेजस आदि 'उ' में और ईश्वर, आदित्य, परमात्मा के नाम 'म' अक्षर में समाविष्ट रहते हैं, वह अनन्त दैवी शक्तियों का आगार सा ही बन जाता है। उसके बल बुद्धि और जीवन के हर क्षेत्र में नया उत्साह, नई शक्ति अवतरित होती है। उसके अङ्ग अङ्ग में तेजस्विता भरी रहती हैं। वहाँ अभाव, निर्बलता, हीनता, असफलता, निराशा जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं रहता क्योंकि साधक अपने में किसी अज्ञात दैवी शक्ति का अनुभव करता है।


वैज्ञानिकों की दृष्टि में 


पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने श्रद्धा से नहीं, जिज्ञासा की दृष्टि से इस पर खोजें की हैं। The Practical Yoga ( L. N. Fowler & Co. London . ) पुस्तक में क्रियात्मक अनुभव के आधार पर विद्वान लेखक ने लिखा है "भारतीय संस्कृति और साहित्य में रुचि रखने वाले समस्त पाश्चात्यों का ध्यान 'ॐ' के पवित्र शब्द ने अपनी ओर आकर्षित किया है। इस शब्द के उच्चारण से जो कम्पन होते हैं, वह इतने शक्तिशाली है कि यदि उन्हें बराबर जारी रखा जाये तो वह एक बड़े विशाल भवन को गिराने की क्षमता रखते हैं। इस कथन पर विश्वास करना कठिन प्रतीत होता है जब तक कि इसे क्रियात्मक रूप से किया न जाय। परन्तु एक बार अनुभव करने पर इसकी सत्यता की प्रतीति होती है और इसे सुविधापूर्वक समझा जा सकता है। मैने इस कम्पनों शक्ति का अनुभव है और पुरे विस्वास के साथ सकता हूं कि जैसा मैने कहा है, इसका वैसा ही परिणाम उपस्थित होगा। 


ओंकार से शक्तिकोशों के जागरण की वैज्ञानिक प्रक्रिया का अनुभव भारतीय योगियों ने किया था। समाधि अवस्था में वह अनुभव करते थे कि प्रकृति के उच्च अन्तराल में निरन्तर एक ध्वनि होती है। इन ध्वनि को उन्होंने 'ॐ' रूप में परिणित किया। स्वर विज्ञान के आचार्यों ने उसी ध्वनि से सूक्ष्म प्रकृति से एकता स्थापित करने का विधान बनाया। यह एकता ही अपार शक्ति और सामर्थ्य का अवतरण करने वाली है। जिस तरह घड़ियाल पर चोट करने से एक झनझनाहट सी उत्पन्न होती हैं, उसी तरह 'ॐ' के उच्चारण से एक ऐसी स्वरलहरी उत्पन्न होती है। जो क्षण मात्र में सारे ब्रह्माण्ड में फैल जाती है और सृष्ट के प्रत्येक अणु से अपना सम्बन्ध जोड़ लेती है क्योंकि वह भी निरन्तर यही ध्वनि करते हुए क्रियाशील रहते हैं। एकता और संगठन ही शक्ति और सिद्धि का रूप है। 'ॐ' से जाग्रत होने वाली शक्तियों का कारण उसकी ध्वनि से उत्पन्न विशिष्ट प्रकार के कम्पन ही हैं जो विकास और प्रगति का आधार बनते हैं। 

ओंकार आत्म संजीवनी है 


ब्रह्म के कण्ठ से निःसृत सर्वाधिक पावन एवं माधुर्य पूर्ण ओ३म् की ध्वनि आकाश की भाँति सर्वव्याप्त है, ओ३म् जगन्माता है, यह सर्वस्व है। ओ३म् अत्यन्त विस्मय कारी शक्तियों की आपूरित महाध्वनि है। ॐ सारी प्रकृति, भावनाओं तथा चिन्तनाओं का परम आलम्बन है। यह समस्त रूपों, नामों ध्वनियों का 'मुख्य अधिष्ठान' है। अत एव यह ब्रह्मत्व को उसकी सम्पूर्णता के साथ ज्ञापित प्रकट करने वाली प्रतीकात्मक महाशक्ति है। ओ३म् ऐसा महा सागर है जिसमें असंख्य रूप, नाम एवं ध्वनियों की सरि ताएँ लीन हो जाती हैं। ओ३म् अनादि तथा अनन्त परम चेतन का विराट सागर है। 


ओ३म् सृष्टि का प्रतीक रूप है। ओ३म् गुरु वाणी है। कार्यब्रह्म का परम उद्घोष है। ओ३म् वेदों की जननी और समस्त ध्वनियों की संजीवनी है। अध्यात्म विद्या प्राप्त करने के उत्सकों के हेतु ओं३म् की ध्वनि अत्यन्त मूल्यवान शब्द कोष है। ओ३म् समस्त ध्वनियों तथा विद्याओं का विश्व कोष है। ओ३म् की नौका पर आरूढ़ होकर ही अभय अमृत रूप आत्मा के महासागर तक पहुँचा जा सकता है। 


सरलतम साधना 


'ओ३म्' का उच्चारण अत्यन्त सरल है और कोई भी ऐसा मन्त्र नहीं है जिसका शुद्ध उच्चारण सहज में ही सीख लिया जाए। 'ओ३म्' शब्द अत्यन्त कोमल, महा मधुर और सुगम है हिन्दी संस्कृत न जानने वाला कोई भी देशी व विदेशी व्यक्ति, बच्चा, बूढ़ा, स्त्री-पुरुष इसका उच्चारण कुछ ही क्षणों में सीख सकता है। प्रकृति का मन्त्र होने के नाते यही इसकी एक महान विशेषता है। यह हर आयु व जाति के स्त्री पुरुषों के लिये अभिहित परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ व स्वाभाविक नाम है। परन्तु खेद है कि कुछ स्वार्थी तत्वों ने ईश्वर के इस सरलतम नाम पर भी प्रति बन्ध लगाने का प्रयत्न किया और एक सम्प्रदाय विशेष तक ही सीमित रखने का प्रयत्न किया। ईश्वर के इस सरलतम नाम पर कैसा प्रतिबन्ध? 'ओ३म्' सारे विश्व का है, सभी के लिए है, सभी को इसका नित्य नियमित जप करना चाहिए। इससे सर्वविध कल्याण होगा। 


अतः जीवन के चतुमुखी विकास के लिए आप ओंकार की जप, लेखन और ध्यान साधना करें। यह सरलतम, प्राचीनतम और श्रेष्ठतम साधना है। 


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