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चांटा- हिंदी कहानी | Chaanta Short Hindi Story

 चांटा एक Short Story  


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कहानी हरीशचंद्र पांडे 


चांटा-Hindi Kahani: एक-एक पैसे को दांत से पकड़ने वाले पूंजीलाल जी ने जिंदगी का दूसरा रूख देखा ही नहीं था। एक वे ख़ुद हेर-फेर करके सामान बेचने वाले और दूसरी तरफ़ ख़रीदार, जो उनके झांसे में आने वाला ही था। तीसरी तस्वीर कौन-सी होती है ? चांटे की तरह सामने आई एक दिन और उनके होश सदा के लिए ठिकाने लग गए।


सड़क की दोनों तरफ से आती-जाती गाड़ियां और बाज़ार की उमड़ती भीड़ से हटकर चलते हुए पूंजीलाल जी ने अपने दोनों हाथों को कुर्ते की जेब में डालकर नोटों के सही- सलामत होने पर सुकून की सांस ली। और ज्यादा सुरक्षित रहने के लिए वे एक गली से होकर आगे मैदान की तरफ और कम भीड़ वाली जगह से चलते-चलते सोचने लगे। अजीब हाल हो गया है इस स् का। जब वो छोटे थे तब एक छोर से दूसरे छोर को देखना कितना आसान था। एक रामलीला मैदान था, उसी में शीतकालीन खेल होते थे और बरसात के बाद पहले जन्माष्टमी की झांकी और फिर स्वयं सहायता समूह का मेला लगता था। अब एक मैदान और बन गया है कस्बे के बिलकुल दक्षिण की तरफ। वहां तो अलग ही काम होते हैं। निजी कंपनियां अपने अलग ही खेल-तमाशे करती हैं।


विचारमग्न वे नया बाजार से होकर गुजरने लगे। तभी एक महिला गुलाब का गुच्छा थामे एकदम सामने ही आ गई। 'ख़रीद लो ना, आज बोहनी तक नहीं हुई है।' ये अजीब नाटक है! वे कसमसा कर रह गए। पर कहते क्या । तब ही कहते न, जब बोलने का अवसर मिल पाता।उनकी हालत ही अजीब हो रही थी, न वो फूल ख़रीदना चाहते थे,न उसके सामने कोई बहस करने के इच्छुक थे। उनको उससे कोई लेना-देना था भी नहीं, बस अपनी दुकान तक पहुंचना था। मगर वो अपने सारे तरीके आजमा रही थी। 


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'दस का ही है यह एक ताजा गुलाब। पूरा गुच्छा एक सौ पचास का ले लो। बीस गुलाब हैं और चमकीली पत्ती भी। ये गुलाब तो दो-तीन दिन तक ताजा रहेंगे।' 


वे झुंझला रहे थे यह सोचकर कि अब हमारे इस क़स्बे ने भी शहर की नशेबाजी सीख ली है। नया साल हो या बसंत पंचमी, होली हो या दीपावली, राखी हो या नवरात्र- ये गुलाब के गुच्छे बनाकर बेचने आ ही जाते हैं। इनको न कोई कोर्स करना होता है न कोई डिप्लोमा, ये अपनी दुकान चलाना और अपना माल बेचना खूब जानते हैं। कुछ न हो तो शक्ल बिगाड़कर भीख ही मांगने लगेंगे। सब सीख लिया है, अजीब हैं बेकार लोग।


यही सब सोचते-सोचते उन्होंने अपना सर झटका और तभी उनको याद आया कि आज तो उनके पड़ोसी का जन्मदिन है। उनके पड़ोसी तीस साल से उनके पक्के ग्राहक भी हैं। 'इसी से एक गुच्छा ले लेता हूँ।' अब उनका कारोबारी दिमाग़ चलने लगा था।


'ओ, अब सही दाम लगा तो ख़रीद भी लूं।'


'बोला ना दस का एक गुलाब।'


'ला तो यह गुच्छा ही दे दे, सौ रुपये दे रहा हूं।' अभी विद्यालय से नकद भुगतान लाए थे, वो सब पांच सौ रुपये के नोट थे। 'ले, चार सौ वापस दे।'


'अच्छा, ये गुच्छा रखो,' एक अखबार में लपेटकर वह गुच्छा थमाती महिला ने हिदायत दी, 'ऐसे, सीधा पकड़ो।' यह कहकर पैसे लेते हुए टेढ़ी-सी नज़र से उस महिला ने किसी को देखा और वहां से सरपट भाग गई। 'अरे, अरे, मेरे रुपये...?" पूंजीलाल जी चीख़ उठे, पर महिला का कुछ अता-पता नहीं था। तभी उनका मोबाइल फोन बज उठा। वो फोन नहीं उठाते मगर यह प्रधानाचार्या जी का था। 'आपको याद दिला रही थी कि कल आकर अतिरिक्त भुगतान ले लीजिएगा और हमें दो सौ जोड़ी जूते भिजवा दीजिए।' 'जी, जी हां, मैकल ख़ुद ही लेकर आता हूं।' वे सामान्य आवाज में जवाब देते रहे। और जब फोन कट गया तो इधर-उधर जाकर उस महिला को खोजने लगे। ट्रैफिक की रेलमपेल वैसी ही थी, बस उस महिला का कहीं अता-पता नहीं था। वे मन मसोसकर दुकान पहुंच गए।


नकद रुपये वहां बैठे पुत्र को सौंप दिए और निर्देश दिए कि खराब पड़े दो सौ जोड़ी जूते तैयार करवा देना, स्कूल में सप्लाई करने हैं। ऐसा कहकर वे घर चल दिए। सबसे पहले अपने पड़ोसी मित्र को गुलाब का गुच्छा भेंट किया और जन्मदिन की बधाई दी। शाम से पहले वो एक चक्कर दुकान का लगाने फिर चल दिए। इन दिनों छाते, झोले, जूते आदि का काम बेटा ही देखता है और सरकारी संस्थानों और स्कूल की सप्लाई वे करते हैं। आज भी वो ख़ुश थे कि सुबह- सुबह दो सौ बरसाती का नकद भुगतान मिला था। वे तो अधिक मुनाफ़े में सस्ती बरसाती बेच आए और अब दो सौ जोड़ी जूते का ऑर्डर भी मिल गया था। पर आज थोड़ा दुख हो रहा था। चार सौ रुपये का नुकसान जो हो गया था। 


वे टहलते हुए दुकान पहुंच गए तो बेटे ने पूछा, 'ये आपके हैं चार सौ रुपये ?"


'हां, मेरे हैं!' उन्होंने त्वरित प्रतिक्रिया दी। 'अभी एक महिला दे गई है। उसका शराबी पति नोट छीनने आ रहा था इसलिए वो छिपकर दूसरे रास्ते से आपको चार सौ रुपये देने आ रही थी। आपका तक पीछा किया, पर फिर आप चले गए, इसलिए मुझे दे गई ।'


अच्छा...इतनी ईमानदारी ।' पूंजीलाल का मन बेचैन हो गया। वो ' सारी रात सो न सके। एक ग़रीब औरत जो शराबी पति से परेशान है, जिसकी रोज की आमदनी का पता नहीं, लेकिन पेट रोज ही भरना है, वो मन से कितनी साफ़ निकली। और वे खुद ? वे सुबक रहे थे और ख़ुद की फितरत को कोस रहे थे। अगले दिन वे दो सौ जोड़ी एकदम नए जूते छांटकर पैक करवाकर स्कूल ले गए।


'आपका आज का भुगतान ले लीजिए।' प्रिंसिपल ने कहा। '


जी, ले लिया है और ये लीजिए दस हजार। आप मेरी ओर से बच्चों को पौष्टिक आहार खिला दीजिए।'


'जी अच्छा, यह बहुत मदद की आपने। आप तो जानते हैं कि सारे बच्चे अनाथ हैं और अपने खर्च के लिए दानदाताओं पर निर्भर हैं। आप इसकी रसीद ले लीजिएगा।'


'जी बिलकुल नहीं, मन की रसीद बहुत है। नमस्कार।' कहकर पूंजीलाल जी उठे और चल दिए।


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