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फांस: एक Hindi Kahani | Phans Hindi Story

Phans Hindi Story: फांस कहानी सब के दुख-सुख में शामिल वाली वाली प्रियंवदा के इर्दगिर्द धूमती है,जो अपना कर्तव्य समझती थी पर उपेक्षा की मार झेलते-झेलते जब ऊब गई तो उस का मन विद्रोह कर उठा. फिर भाई के प्रति कैसे सहज हुई ? तो आइये जानते है - फांस एक hindi kahani | Phans hindi story | कहानी  के बारे में -


फांस एक hindi kahani | Phans hindi story 


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खाना खा कर, मैं थोड़ा लेटने का मन बना रही थी कि अम्मां पास आ कर बैठ गईं . नवीन के लिए पान लगाते हुए मुझ से शिकायत की, "अम्मां जब तक बड़ी दीदी से सलाहमशवरा न कर लें, चैन नहीं पड़ता, दीदी . इस बार आप भी तो कितनी देर से पहुंची हैं ? पता है, हमारा प्लान तो आप के साथ शौपिंग करने का था . आप की च्वाइस से साड़ियां खरीदते तो मजा भी आता . अब तो जैसा समझ में आया, ले लिया ."

मृदुला खिलखिलाते हुए कमरे से बाहर निकली तो अम्मां धीरे से फुसफुसाईं, "प्रियंवदा, अगर बहुत ज्यादा थकी न हो तो तैयार हो जा . ये सब तो सो रही हैं . तब तक 'त्रिभुवन साड़ी हाउस ' हो आते हैं . नवीन की गाड़ी और ड्राइवर बाहर ही खड़ा है . किसी को भनक भी नहीं पड़ेगी . कल तो पूरा दिन फंक्शन की व्यस्तता रहेगी ." 


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मेरी बगल में लेटी हुई अम्मां, टखनों में दर्द के बावजूद तुरंत उठ गईं और मुझे भी उठा दिया . सचमुच उन्होंने किसी को भनक नहीं पड़ने दी . दरवाजे से बाहर निकलते समय बस, नवीन के बेटे को जता दिया कि जरा बाहर जा रहे हैं, देर हो सकती है . 


ज्यादा समय नहीं लगा . अम्मां शायद पहले से ही सोच कर निकली थीं . फिरोजी कांजीवरम साड़ी रश्मि के लिए और सफेद पर पीली बूटी वाली चंदेरी की साड़ी आरती के लिए. फिर 2 भागलपुरी सिल्क के कुरतेपाजामे, दोनों दामादों के लिए खरीद कर मुझ से बोलीं,"तू भी अपने और अखिलेश के लिए कुछ ले ले ." 


अम्मां के मुख से अपने और अखिलेश के प्रति प्रेमभाव देख कर कुछ आश्चर्य सा हुआ, क्योंकि लेनदेन के मामलों में हमारा दरजा हमेशा से ही दोयम दरजे पर रहता है . मैं ने 2-1 डब्बे डरतेडरते खुलवाए, फिर एक प्रिंटेड सिल्क की साड़ी और लखनवी चिकन का कुरतापाजामा अखिलेश के लिए खरीदा , तो अम्मां खुश हो गईं . मैं सोच रही थी, शायद अम्मां कहें कि इतनी सस्ती साड़ी क्यों खरीदी तुम ने ? कम से कम कुछ तो कायदे का लेती . पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि संतोष की चितवन उन के चेहरे पर मुखर हो उठी थी . वह बोलीं कि वे दोनों तो नकचढ़ी हैं . दामाद भी रोब वाले हैं . बातबेबात रूठ जाते हैं . इन कपड़ों के ऊपर शगुन का लिफाफा, फलमिठाई दे कर विदा कर दूंगी . कुछ कम लगे तो बताना . 


कल सुबह ही तो मैं अमृतसर एक्सप्रेस से यहां पहुंची थी . नवीन की बहू मृदुला और दोनों बहनें, 'दीदी आ गईं, दीदी आ गईं ' कह कर मुझ से लिपट गई थीं . 


अब तो दीदी ही संभालेंगी सब . हम से तो कुछ भी नहीं होता मृदुला और दोनों बहनों ने कहा . 


अम्मां ने उन्हें बुरी तरह डपट दिया, “रात भर सफर कर के आई है लड़की . जरा कमर तो सीधी कर लेने दी होती ."


तीनों चुपचाप उठ कर वहां से खिसक लीं तो मैं ने मन ही मन अम्मां को धन्यवाद दिया . सचमुच मैं बहुत थकी हुई थी . पूरी रात आंखों ही आंखों में काटी थी मैं ने . अटैची में ज्वेलरी और हीरों का सेट था . जोखिम तो था ही . अखिलेश ने निकलते समय मुझे 10 हजार रुपए की गड्डी थमाई तो उन से झड़प भी हो गई थी . अटैची बंद करते समय मैं ने पूछा था, "यह क्या है ? " 

"रुपए हैं, शायद अम्मां को जरूरत पड़े ." 


"अब क्यों जरूरत पड़ेगी ? नवीन फाइनेंशियल एडवाइजर हो गया है . अच्छा कमाता है . 3 मंजिला मकान बनाया है. पिछली बार गई थी तो बता रहा था, ऊपर की दोनों मंजिलें किराए पर देगा . अच्छी आमदनी हो जाएगी ." 


"फिर भी ..." उन्होंने मुसकरा कर कहा तो मैं ने गड्डी सहेज कर रख ली थी . 


गले दिन सुबह से ही मैं ने मुस्तैदी से हर काम का दायित्व अपने जिम्मे ले लिया था . कैटरर को मीनू, टैंट वालों से सजावट, गृहप्रवेश पर बंटने वाली मिठाई और लेनदेन का जिम्मा, यहां तक कि संगीतसंध्या पर बजने वाली सीडी का चुनाव भी मुझे ही करना था . दोनों बहनें निश्चित हो कर घूम रही थीं . दामादों का रोब अपनी चरम सीमा पर था . मृदुला को उस का नन्हा अनिरुद्ध व्यस्त रखता . सारा काम निबटा कर मैं जरा सी देर को भी सुस्ताने बैठती तो मृदुला और नवीन का बड़ा बेटा विक्रांत मेरी गोद में बैठ कर कहानी सुनने को मचलने लगता . 


शाम 6 बजे से ही मेहमानों की आवाजाही शुरू हो गई . मैं हंसने का उपक्रम कर तो रही थी पर मन उदास थी . दोनों बहनें फंक्शन का आनंद उठा रही थीं. नवीन, उस की पत्नी मृदुला और अम्मां थोड़ीथोड़ी देर बाद दोनों बेटियों और दामादों की खातिर में जुट जाते थे . एक बार कहीं रूठ गए तो दोबारा कभी भी कदम नहीं रखेंगे ससुराल की देहरी पर अनजाने ही अखिलेश का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूम गया था . घर के बड़े दामाद हैं , फिर भी अभिमान तो छू तक नहीं गया . जितने शांत, उतने ही सौम्य और शालीन . सज्जनता तो कूटकू ' कर भरी है . तभी तो अम्मां जब भी बुलावा भेजती हैं, चली आती हूं 


फंक्शन समाप्त हुआ. देर रात तक गपशप का सिलसिला चलता रहा . अम्मां रश्मि और आरती को कुछ दिन और ठहरने के लिए कह रही थीं . लेकिन वे दोनों अकड़ कर, अपना अपना सामान बांधने में व्यस्त थीं . दोनों दामाद आरामकुरसी पर बैठ कर झूला झूल रहे थे . सब कुछ औपचारिक सा था . इस बीच अम्मां ने भारी नेग के साथ साड़ियों और करतेपाजामे के डब्बे आरती और रश्मि को थमाए, तो नन्हा विक्रांत मेरी साधारण सी कश्मीरी सिल्क की साड़ी देख कर उछल पड़ा, "बड़ी बूआ की साड़ी गंदी है ." 

"तेरी बड़ी बूआ तो बुद्ध है . जो दे दो, चुपचाप ले लेती है, " नवीन ने हंस कर कहा तो मेरी आंखें नम हो आई थीं.


कल शाम से ही उन दोनों बहनों के प्रति अम्मां की उदारता और मेरे और अखिलेश के प्रति कृपणता का भाव भूला नहीं था मुझे उस पर नवीन की हंसी ? ऐसा लगा जैसे जानबूझ कर वह मेरी खिल्ली उड़ा रहा हो . 


उस भीड़ भरे माहौल से बाहर निकल कर अपने कमरे में आ तो गई पर मन बेचैन था . नवीन के मुख से निकले शब्द बारबार मेरे कानों में गूंज रहे थे बड़ी बूआ बुद्ध, बुद्ध ... ' घबरा कर मैं चहलकदमी करने लगी . 


नवीन का फंक्शन संपन्न हो गया. अब मैं यहां क्यों रुकू? वे दोनों भी तो लौट ही रही हैं . देर रात तक चहलकदमी करती रही कमरे में, नींद आंखों से कोसों दूर थी . अलसुबह उठ कर मैं ने बैग में कपड़े लूंस लिए और बाहर निकल कर बरामदे में आ गई . नवीन दोनों बहनों का सामान अपनी गाड़ी में रखवा रहा था . मुझे देख कर बोला  यह क्या दीदी ? आप कहां जा रही हैं ? 

" अपने घर . " 


" इतनी जल्दी ? " 


मृदुला मेरे पास ही आ कर खड़ी हो गई . बोली, "दीदी, कल तक तो मेहमान ही निबटे हैं . आज रश्मि और आरती जा रही हैं. अभी तो बहुत सारे काम निबटाने हैं . घर को व्यवस्थित करना है ." 


"वह सब तो तुम भी कर सकती हो, "मैं ने रुखाई से कहा तो वह चुप हो गई . 


विक्रांत मेरी टांगों से लिपट गया और बोला, "आप चली जाएंगी तो हमें कहानी कौन सुनाएगा ? " 


मैं ने उसे अपनी बाहों में समेट लिया और समझाया, "तुम्हारे फूफाजी को खाना कौन खिलाएगा ? उन के कपड़े कौन धोएगा ? " 


"तो उन्हें भी बुलवा लीजिए, "उस ने जिद की तो मैं ने उस के गाल थपथपा दिए और गोद में उठा लिया, "उन्हें दफ्तर भी तो जाना है . देखो, मैं तो यहां बढ़ियाबढ़िया पकवान खा रही हूं और वहां तुम्हारे फूफाजी ब्रेड और दलियाखिचड़ी पर गुजारा कर रहे होंगे . " 


पर दोनों बच्चों ने और जिद पकड़ ली . जोरजोर से रोने लगे तो मृदुला बोली, “दीदी, जीजाजी को तो आदत है . वह तो अकेले रह लेते हैं . पिछली बार जब आप अम्मां की सर्जरी के समय आई थीं तब भी तो 15 दिन रही थीं . आरती , रश्मि के ब्याह पर भी 10 दिन पहले ही आ गई थीं. मेरे दोनों बेटों की डिलीवरी पर भी आप 1 महीने तक रुकी थीं. अम्मां से तो ज्यादा काम होता नहीं है . आरती, रश्मि को इतनी छुट्टी नहीं मिलती है . 


'इसीलिए मेरी और अखिलेश की भलमनसाहत का फायदा उठाते हो तुम लोग? हम दोनों में कर्तव्यबोध की भावना कूटकूट कर भरी है . इसीलिए दुखसुख में चले आते हैं, ' मैं ने मन ही मन कहा और बैग में ताला लगा दिया . 


"रुक जा प्रियंवदा, अब तो तेरी बहुएं भी आ गई हैं, "अम्मां ने अधिकार जताया तो मैं ने मजबूरी बयान की," वे भी तो दफ्तर जाती हैं ." 


"अरे, कुछ ही दिनों की तो बात है, संभाल लेंगी ." 


मेरी बहुएं घरदफ्तर दोनों का कार्यभार संभालें और मृदुला? अपने ही घर के फंक्शन के बिखराव को समेट नहीं सकती ? वे दोनों भी तो आई थीं. उन्हें क्यों नहीं रोका? पर कैसे रोकते ? और वे क्यों रुकती ? अक्लमंद जो हैं . तभी तो नाजनखरे सहते हैं उन के ये सब . क्या उन दोनों का कोई कर्तव्य नहीं इस घर के प्रति ? 


मैं ने नवीन के लौटने तक की भी प्रतीक्षा नहीं की. मेरे पांव उखड़ चुके थे. थ्री व्हीलर नवीन के घर के बाहर ही मिल गया . स्तब्ध खड़ी मृदुला और टखने सहलाती अम्मां को छोड़ कर स्टेशन पहुंच गई थी . 


बिना रिजर्वेशन के थर्ड क्लास में ही बैठना पड़ा. थोडाबहुत सहयात्रियों से हीलहुज्जत कर के मैं ने खुद को सीट पर व्यवस्थित किया, फिर खिड़की से सिर टिका कर सोने का उपक्रम करने लगी, पर जब मन परेशान हो तो नींद कोसों दूर चली जाती है . 


इनसान सचमुच नियति के चक्रों का खिलौना है . वे राहें, जो हम ने स्वयं नहीं चुनी फिर भी उन पर चलने के लिए मजबूर हो जाते हैं . हम दोष तो किस्मत और कर्मों को देते हैं, पर सच तो यह है कि हमारा अहं, दंभ और क्रोध हमारे आड़े आ जाता है 


जब तक हम जीने की कला को समझ पाते हैं, बहुत देर हो चुकी होती है . यह ठीक है, अतीत को याद करने से भविष्य कुपित हो जाता है . 


परंतु अतीत ही मनुष्य के भविष्य की दिशा भी तय करता है . अनजाने ही मेरा अतीत मेरे सामने आ कर खड़ा हो गया था . मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी, पलीबढ़ी ज्येष्ठ कन्या को हमेशा खुद पर ही तरस खा कर रह जाना पड़ता है . 


बाबूजी की क्लर्की की नौकरी में से मिलने वाली मुट्ठी भर आमद, मकान का किराया और राशन आदि का जुगाड़ करतेकरते, पहले सप्ताह में ही पूरी हो जाती थी . 


खर्चों की कंटीली बाड़ में हरदम यों उलझी रहती अम्मां कि लगता छोटी सी चादर से खुद को ढांपा हुआ है और ऊपर से तडातड़ शोलों की बौछार पड़ रही है . 


पैर ढांपने की कोशिश में चेहरा झुलसा जा रहा है . चेहरा ढकने की कोशिश में पैर उघड़ रहे हैं . 


इतना तो तय था कि न इन शोलों की बौछार थमेगी और न ही कद छोटा होगा . चादर के तानेबाने भी वैसे ही रहेंगे, जैसे हैं . ऐसी परिस्थिति में 4-4 बच्चों का पालनपोषण कैसे होता. 10 वीं की परीक्षा का परिणाम घोषित होते ही मैं ने छोटीमोटी ट्यूशन करनी शुरू कर दी. उस के बाद इन ट्यूशनों का सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक मैं ने एम.ए., बी.एड. कर के शहर के स्थानीय कालेज में नौकरी नहीं कर ली . जरूरतों का सिलसिला, शरीर चलफिर सके इतने भोजन का जुगाड़, तन ढक सके इतने कपड़ों का प्रबंध करना, यह सब मेरे कर्तव्य में शामिल था और मैं करती भी जाती थी, उस पर भी अम्मां हर छोटीबड़ी जरूरत के लिए मेरा पर्स खोलने का मौका कभी नहीं छोड़ती थीं . 


कभीकभी मैं सोचती, यदि इन छोटीबड़ी जरूरतों के समीकरण से ही फुरसत नहीं मिली तो अपनी तनख्वाह में से जो थोड़ीबहुत बचत करती थी, उस में कटौती करनी पड़ेगी, जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं चाहती थी, क्योंकि दोनों बहनों का ब्याह और नवीन के कैरियर बनाने की सामर्थ्य भी तो मुझे ही जुटानी थी . 


विष्य निधि योजना में जोड़ी गई रकम में से पैसे निकलवा कर दोनों बहनों का ब्याह रचाया. गहने अम्मां की टूटीफूटी चूड़ियों और कंगनों से बन गए थे . आरती ससुराल गई तो मन उचटाउचटा सा रहता था. न घर में मन टिकता था, न ही स्कूल में अंधेरे कोने में बैठ कर न जाने क्याक्या सोचा करती थी . ऐसे पलों में नवीन मेरे पास बैठ कर मुझे हंसाता, मन बहलाता तो अच्छा लगता था. उस का मासूम चेहरा देख कर मन में ममता का सागर हिलोरें लेने लगता. कामना करती, इसे कभी भी किसी की नजर न लगे . 


घर से स्कूल, स्कूल से घर. जब से होश संभाला, अम्मां को टखने सहलाते ही देखा. पुराना आर्थराइटिस उन्हें हमेशा परेशान करता रहता था . इसलिए उन से तो किसी भी प्रकार की उम्मीद नहीं की जा सकती थी . मेरा बचाखुचा समय घर के रोजमर्रा के कामों को निबटाने और ट्यूशन पढ़ाने में ही बीतता था . 


2 बरस के अंतराल में रश्मि और आरती ने 1-1 पुत्ररत्न को जन्म दिया. घर भर में खुशी की लहर दौड़ गई . दोनों बेटियों को छूछक देने के लिए अम्मां ने जिस तरह से भूमिका बांधी थी, मैं समझ गई थी, उन्हें कुछ पैसे चाहिए और ये पैसे वह महीने के पैसों में से निकालेंगी नहीं . एक फिक्स्ड डिपाजिट तुड़वा कर मैं ने अम्मां को रकम जुटा तो दी, पर मन के कोने से एक आवाज जरूर उभरी थी . काश , कोई मेरे बारे में भी सोचता कभी . उम्र के इस पड़ाव पर अन्य कुंआरी कन्याओं की तरह इच्छाएं, कामनाएं, आकांक्षाएं मेरे अंदर भी तो साकार रूप ले रही होंगी 


लेकिन कुदरत ने कहीं न कहीं मेरे लिए भी दूल्हा तजवीज किया था . अखिलेश से मेरी मुलाकात कौफी हाउस में बड़े ही दिलचस्प अंदाज में हुई थी. नववर्ष की पूर्व संध्या पर मैं ने अपनी कुछ सहकर्मियों के साथ कौफी हाउस में एकत्र होने का कार्यक्रम तय किया था. बाद शौपिंग, पिक्चर और घर लौटने तक मौजमस्ती. अम्मां की लिस्ट में से सब फुजूलखर्ची ही था पर उस दिन न जाने कैसे चुप हो गई थीं . 


एक घंटे तक मैं सभी की प्रतीक्षा में बाट जोहती रही . लेकिन कोई नहीं आया तभी अचानक एक पुरुष स्वर उभरा, "क्या मैं आप के साथ बैठ कर कौफी पी सकता हूं ? " 


मैं ने चौंक कर उन्हें देखा, फिर हां कह दी . कौफी के साथ सैंडविच खाते समय मैं ने महसूस किया, अखिलेश मुझे ही निहार रहे थे . कुछ देर बाद हम कनाट प्लेस के रीगल थिएटर में फिल्म देख रहे थे. किसी गैरमर्द के साथ मेरा यों बाहर घूमना और फिल्म देखना सर्वथा नया अनुभव था, फिर भी सब कुछ भला लग रहा था . 


अखिलेश के व्यवहार में जरा भी अशिष्टता नहीं थी . घर लौटते समय चिरपरिचितों की तरह उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड पकड़ाया, फिर बोले, "मेरी तरफ से आप की फ्रेंड्स को ढेर सारा थैक्स ." 

"मेरी फ्रेंड्स को ? ” मैं ने चौंक कर पूछा . 


"हां, उन्हीं के कारण तो हम मिल सके." मैं ने भी उन की मुसकान के प्रत्युत्तर में मुसकान बिखेर दी. उस के बाद तो मिलने का बहाना मिल गया और क्रम भी .


आंखों के रास्ते वह कब दिल में उतर गए पता ही नहीं चला . दिन, सप्ताह, माह बीतने के साथसाथ हम दोनों एकदूसरे में सिमटते चले गए . उन का सौम्य व्यवहार आंखों के सामने से ओझल नहीं होता था . फिर एक दिन मैं ने अम्मां और बाबूजी के सामने अखिलेश के साथ विवाह बंधन में बंधने की बात की तो उन्हें विशेष प्रसन्नता नहीं हुई थी. कभी अखिलेश के व्यक्तित्व में दोष निकालते, कभी उस की तनख्वाह में. अखिलेश की पीडब्ल्यूडी की नौकरी उन्हें कतई नहीं भा रही थी. शायद अम्मां डर रही थीं कि उन की नौकरीपेशा लड़की घर से बाहर देहरी लांघ कर निकली तो उन का वित्तीय घाटा कौन पूरा करेगा ? 


 आखिर बेमन से, यहीं आंगन में, 4 खंभे गाड़ कर मंडप बना लिया . महल्ले की एक पुरानी धर्मशाला में डिनर का इंतजाम कर दिया गया . पत्तलों पर सब को खाना खिला कर विदा कर दिया गया . कार्ड्सवार्ड्स का तो चक्कर ही नहीं था . बस, सब को कायदे से पीली चिट्ठी भेज दी गई . 2 माह भी नहीं बीते थे मेरे ब्याह को एक दिन अम्मां का फोन आया . घबरा कर बोली कि तुम्हारे बाबूजी ने नौकरी छोड़ दी है . 


'क्या' आने वाले अघटित की कल्पना कर के मन बेसाख्ता चीख उठा. बिना अपना नफानुकसान सोचे मैं भागी हुई पीहर चली गई थी और आंचल में समेट लाई थी अम्मां के आंसू और बहनभाई के रहेसहे दायित्व . 


बहनें तो ब्याह कर अपनेअपने घर की हो गईं, भाई को तो बिरवा से वृक्ष बनने में अभी काफी दिन थे. जीवन में पहली बार बाबूजी से चिढ़ हो गई थी . 


अपने सहकर्ता के डिसमिस होने पर स्वयं क्यों इस्तीफा दे आए ? क्यों नौकरी छोड़ी ? नैतिकता की दुहाई देने वाले बाबूजी से पूछने का मन किया कि अगर नेतागीरी ही करनी थी, तो बेटी की कमाई क्यों खाते रहे ? सहकर्ता ही तो था, सहोदर तो नहीं ? जब अपनी ही बेटी दिनरात एक कर के पैसों का जुगाड़ करती थी और ये सब उस की गाढ़ी कमाई पर ऐसे टूटते थे जैसे कबूतरों के झुंड दानों पर टूटते हैं तो 


नैतिकता की भावना कहां चली गई थी ? 


उस समय मैं सब से ज्यादा चिंतित नवीन के कैरियर को ले कर थी. 12 वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उस ने कहीं से भी प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण नहीं की थीं. मैं और अखिलेश उसे अपने साथ पूना लिवा ले आए थे और रामजस इंजीनियरिंग कालेज में, कैपिटेशन दे कर दाखिला दिलवा दिया था. नवीन को संतुष्ट देख कर मैं भी खुश रहती थी . 


उन्हीं दिनों गांव से सासससुर आ गए थे. उन के आने से रिश्तेदारों की आवाजाही भी बढ़ गई थी. खर्च का अतिरिक्त भार बढ़ा तो घर का बजट डगमगाने लगा. एक बार मन में आया अखिलेश से कहूं, अपने मातापिता को समझाएं कि हर समय महफिल जमी रहने से खर्च का भार काफी बढ़ गया है लेकिन फिर चुप हो गई थी . अखिलेश भी तो उलाहना दे सकते थे कि तुम्हारा भाई हमारे पास रहता है . क्या इज्जत रह जाती मेरी तब ?


अंतिम वर्ष में आतेआते नवीन ने एमबीए के फार्म भरने शुरू कर दिए थे. एकएक फार्म हजारों की कीमत रखता था. मेरे मन में विचार आया 1-2 साल नौकरी करने के बाद अगर नवीन एमबीए करता तो ठीक रहता, क्योंकि खर्चे बुरी तरह बढ़ गए थे. दोनों बेटों की पब्लिक स्कूल की फीस . एकाएक दोगुनी हो गई. सासससुर की दवाएं, बच्चों की स्कूल फीस और घर के खर्च के चतुर्भुज में मैं अपने जीवन की परिधि ढूंढने की कोशिश करती ही रह जाती थी . अम्मां से बात की तो, दिलासे में रख कर बोलीं कि नौकरी लगते ही नवीन तेरे सारे कर्जे उतार देगा . 


नवीन ने एमबीए कर लिया. कैंपस में उस को नौकरी नहीं मिली. 4-5 बार इंटरव्यू देने के बाद भी उसे जब नौकरी नहीं मिली तो वह बच्चों की तरह मेरी गोद में सिर रख कर बिलखने लगा . मैं उस का मनोबल बढ़ाती, धीरज बंधाती. एक दिन सच में उस की मेहनत रंग लाई और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उस की उच्च पद पर नियुक्ति हो गई . अश्रुपूरित नेत्रों से उस ने मेरी ओर देख कर कृतज्ञता प्रदर्शित की, “दीदी, जन्मजन्मांतर से तुम मेरी मां हो ." 


उस दिन ऐसा लगा जैसे मैं ने एक बेटी का नहीं, बेटे का फर्ज निभाया हो . मेरा भाई सेटल हो गया और क्या चाहिए थी मुझे ? 


नवीन की खूबसूरती, उस की तेजस्विता, उस का भोलापन, मेरे परिचितों, रिश्तेदारों में चर्चा का विषय बन गया था . लोग रिश्ता ले कर आते तो मैं उन्हें अम्मां का पता बता देती, लेकिन नवीन को मुझ पर ही भरोसा था, इसलिए बोला कि जब इतना किया है तो यह फर्ज भी तुम्हीं निभाओगी . 


अखबारों में इतिहार छपे. अखिलेश इंटरनेट पर मेल का आदानप्रदान तो करते ही, मेरे दोनों बेटे भी उन्हें पूरा सहयोग प्रदान करते. मृदुला मेरी ही पसंद थी. घराना, शिक्षा रीतिरिवाज, गुणों को अच्छी तरह परख कर ही मैंने हामी भरी थी, जिसे खुल कर सब ने स्वीकार किया था .


शगुन हुआ, फलदान हुआ. अखिलेश, जिन्होंने मेरे भाई के लिए, पिता से भी बढ़ कर फर्ज निभाया था, फलदान में यों उपेक्षित हुए जैसे उन का होना न होना बराबर माने रखता हो . अम्मां ने तब मेरे साथ सलाहमशवरा कर के आरती और रश्मि को बढ़िया सा नेग, साड़ी और दामादों को चेन दी थी . अखिलेश को तो शगुन देना भी भूल गई थीं. डरतीसहमती अम्मां बारबार यही दोहराती जाती कि दोनों दामाद ऊंची नाक रखते हैं . कुछ कमीबेशी रह गई तो बेटियों को सुनना पड़ेगा . 


उस समय भी मन में एक सी उठी थी, 'क्या मैं अम्मां की बेटी नहीं या अखिलेश दामाद नहीं, फिर क्यों नकारा जाता है हमें ? ' 


फिर खुद ही दिलासा दिया था मन को नवीन ने अभी तक कमाया ही कितना है ? बाबूजी तो बेरोजगार हैं . थोड़ी आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो सब ठीक हो जाएगा . विचारों के बियाबान से निकल कर मैं वर्तमान में लौट आई थी .


गाड़ी झटके से रुकी और मैं अपनी अटैची ले कर नीचे उतर आई . स्टेशन पर किसी के आने का प्रश्न ही नहीं उठता था, क्योंकि मैं ने अपने आने की पूर्व सूचना तो किसी को दी नहीं थी. मुझे यों अचानक आया देख कर अखिलेश हैरान रह गए थे, “यह क्या, न चिट्ठी न पत्री, न ही फोन पर कोई सूचना? अचानक ही कैसे चली आईं ? " 


मैं उन की बांहों में सिमट कर बिलखबिलख कर रो दी  अखिलेश समझ नहीं पा रहे थे यह बिन बादल बरसात कैसे हो रही है ? 


"क्या बात है ? किसी से कुछ खटपट हो गई ? कोई मनमुटाव ? झगड़ा ? "


 "हां, हां, मैं तो हूं ही झगड़ालू . मुझे तो किसी से निभाना ही नहीं आता . 


मेरे मन में अपमान की आग प्रज्वलित हो कर सुलगने लगी . अपने भावों से मैं ने जता दिया था, गुस्सा करना मुझे भी आता है और पैर पटकते हुए मैं अपने कमरे में चली गई . 


अखिलेश क्या कहते? मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित सा था. मेरे पीछेपीछे , कमरे में आए और प्यार से बोले, “मैं तो भूल ही गया था, मेरी प्रियं, यथा नाम, यथा गुणों वाली सरल, सीधीसादी सी प्रियंवदा है ." 


अखिलेश ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था. मेरा व्यवहार अचानक ही आक्रामक और असहिष्णु हो उठा था. बेइज्जती की भी हद होती है. एक तो काम करो , दूसरे इन शब्दों की मार. मैं लगभग चीखने लगी. इन के शब्द तीर की तरह मेरे कलेजे में जा धंसे, "हां, हां, मैं तो हूं ही सीधीसादी बुद्धू . तभी तो चल पड़ती हूं सब का सुखदुख बांटने. अम्मांबाबूजी का व्यवहार तो हमेशा से ही शुष्क था, अब नवीन भी वैसा ही हो गया है . ' 


अखिलेश समझ नहीं पा रहे थे कि हर समस्या का समाधान चुटकियों में करने वाली उन की प्रियंवदा किस भंवरजाल में फंसी है ? उन्होंने मुझे जी भर कर रो लेने दिया. जब मैं कुछ संभली, तो उन्होंने अपना सवाल पुनः दोहराया . 


मैं अटैची में से वह साड़ी और चिकन का कुरतापाजामा ले आई थी और जो कुछ वहां मेरे पीहर में हुआ था, वह सब कुछ अखिलेश को बता दिया . उत्तेजना में मुझे यह भी याद नहीं रहा था कि अखिलेश उस घर के दामाद हैं . यदि तानोंउलाहनों से बींधने लगे मुझे तब क्या होगा या फिर बहुओं के सामने ही नीचा दिखाने लगे तब ? लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. मेरे आवेश पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए अखिलेश ठठा कर हंस पड़े और बोले, "यह तो सोचो, उन सब को तुम पर कितना विश्वास है ? तुम पर अपना अधिकार समझते हैं ? तभी तो अपना हर दायित्व तुम्हें सौंप देते हैं . "


'नौकर समझते हैं मुझे,” मैं फुफकारते हुए बोली . 


"नहीं  अधिकार भावना के तहत कहते हैं तुम्हें . मृदुला तो पराए घर की है . वर्चस्व जमा सकती है घर पर . इतना तो कह सकती है, तुम्हारा हस्तक्षेप उसे पसंद नहीं . पर उस ने भी तो नहीं कहा कभी, "अखिलेश ने लाख समझाने की कोशिश की, मगर मैं नहीं पिघली . 


अब मैं किसी भी प्रकार की सकारात्मक प्रतिक्रिया सुनने की मनोस्थिति में नहीं थी. मेरे तेवर यथावत बने रहे. मेरे भड़के विकराल रूप के सामने अखिलेश की एक न चली . 


वह चुपचाप कमरा छोड़ कर चले गए. मैं एकदम निःशब्द हो गई . सारी चेतना जड़ हो गई थी मेरी . 


इस बात को कई महीने बीत गए. मैं ने एक बार भी मायके फोन नहीं किया, न ही हालचाल पूछा . नवीन कभी फोन करता भी तो मैं साफ टाल जाती. मैं समझ नहीं पा रही थी कि संपूर्ण दायित्व मेरे हिस्से में ही क्यों आते हैं? मानसम्मान की अधिकारिणी वह ही क्यों बनती है हमेशा ? मुझे क्यों नकारा जाता है ? इन चक्करों में मैं ने अपने घरपरिवार और बच्चों की कितनी अवहेलना की है, यह मैं ही जानती हूं. जब तक आर्थिक विपन्नता थी तब तक तो ठीक था पर अब बेटियों से पक्षपात क्यों ? 


क्षाबंधन का पर्व आया. दोनों बहुओं को शगुन की थाली , उपहार, सभी कुछ सुंदर सी पैकिंग में सजा कर उन्हें विदा किया और स्वयं खिड़की से लगी आरामकुरसी पर आ कर बैठ गई . चारों ओर सुनसान बियाबान की अनुभूति थी . सड़कों पर रेंगते वाहनों के स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहे थे . झील के पार का विस्तार बनती इमारतें, आंखों के सामने थीं, लेकिन विजन की अनुभूति, अकेलेपन का एहसास, बराबर बना हुआ था. बारबार ध्यान दरवाजे की घंटी की तरफ चला जाता . कान फोन की घंटी का स्वर सुनने को बेताब हो उठते थे . शायद नवीन का फोन हो . लेकिन मात्र भ्रम था मेरा . मन का चोर फुसफुसाया, करती रहो, भाईभावज की प्रतीक्षा, तुम्हीं ने तो रिश्ता तोड़ा है. उस ने तो नहीं . ' 


अखिलेश ने दोएक बार फोन मिलाने की कोशिश भी की पर मैं ने साफ मना कर दिया था. मन अड़ियल तुरंग की तरह पिछले पैरों पर खड़ा हो गया था, "जहां मानसम्मान नहीं, मात्र गिलेशिकवे, तिरस्कार, अनादर मिले, वहां रिश्ता रखना ही क्यों है ? " 


विचारों के चक्रवात में उलझी रही मैं . घबराहट सी होने लगी . पुराना ब्लडप्रेशर सिर पर चढ़ कर परेशान कर रहा था . मस्तिष्क की शिराओं में तनाव सा महसूस होने लगा. पूरा कमरा घूमता सा दिखाई देने लगा. हाथपांव में कंपन सा महसूस हुआ और मैं गश खा कर गिर पड़ी . 


आंख खुली तो मैं अस्पताल में थी . सिर पर पट्टी बंधी हुई थी . आंख खोलने की कोशिश करती भी तो आंखें मुंदने लगतीं , फिर भी धुंधलके में अखिलेश और अपने बच्चों का चेहरा स्पष्ट देख पा रही थी मैं . कुछ अस्फुट से स्वर मेरे कानों से टकरा कर लौट जाते. सिर पर भारी चोट लगने की वजह से मेरा बहुत खून बह गया था . कई बोतलें खून की चढ़ीं . तब कहीं मेरी जान बच पाई थी . 


मैं ने अखिलेश और बच्चों को धन्यवाद दिया तो अखिलेश की आंखें नम हो आई थीं . मेरे कांपते हाथों को अपनी हथेलियों में दबा कर बोले, धन्यवाद के अधिकारी हम नहीं, कोई और है ." 


"कौन?" कहतेकहते मेरी सांसें तेज हो गईं और छाती जोरजोर से धड़कने लगी . 


"नवीन, तुम से राखी बंधवाने घर आया था अपनी पत्नी और नन्हे बेटे के साथ. तुम कब से फर्श पर गिरी हुई थीं. काफी खून बह चुका था. उसी ने तुम्हें अस्पताल में भरती कराया और हमें इस दुर्घटना की सूचना दी. प्रियं, यदि उस समय नवीन तुम्हें अस्पताल नहीं ले गया होता और अपना खून दे कर तुम्हारी जान नहीं बचाई होती तो अनर्थ हो जाता . " 


"नवीन ने अपना खून दिया ?" 


"हां, अस्पताल में तुम्हारे ब्लड ग्रुप का खून उपलब्ध नहीं था उस समय," कह कर अखिलेश चुप हो गए ."


 'अवश्य ही मनुष्य को अंतर्दृष्टि नाम की कोई शक्ति प्राप्त है तभी तो दूसरे की मनोदशा भांप लेता है. नवीन को भी यह शक्ति प्राप्त है , ऐसा मैं ने कभी नहीं सोचा था . पगली, आज के इस मशीनी युग में प्यार समाप्त हो गया है. भावनाओं, संवेदनाओं का मोल ही नहीं रहा . सभी भौतिकता के अंधे कुएं में डूब रहे हैं. ऐसे में प्रेम की वर्षा से नहलाने वाला एक भी प्राणी मिल जाए तो सब को अच्छा लगता है, अखिलेश का धीमा स्वर उभरा तो मैं मन ही मन मुसकरा दी . 


"है कहां नवीन? "


 "दूसरे वार्ड में है . मिलना चाहोगी ? " 


"हां," मेरे हामी भरते ही अखिलेश मुझे अपने साथ नवीन के पास ले गए . मृदुला वहीं पति के पास बैठी थी. मुझे देखते ही बोली, दीदी, आप अपने भीतर इतना कुछ छिपाए रहीं ? आप किनकिन कठिनाइयों से गुजरी, कैसकैसे, उतारचढ़ाव बरदाश्त किए, क्याक्या समीकरण बनाए, हमें आभास भी नहीं होने दिया ? "


"आप के प्यार, त्याग , बलिदान और ममता की तो मिसाल देते हैं लोग. दीदी, जिस प्यार और अपनेपन से आप, हम सब के साथ व्यवहार करती हैं, वह हर किसी के बस का नहीं . आप तो हम सब के दिलों पर राज करती हैं, नवीन का उखड़ता स्वर उभरा . 


उस के पीत वर्ण और कृशकाया देख मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा ईर्ष्या, द्वेष और गुस्से का खरपतवार जल कर राख हो गया था . वह भाई , जो जब भी उदास होता या खुश होता मेरी गोद में सिर रख कर ऐसे लेट जाता जैसे मां के गर्भ में पहुंच गया हो . टूटन, विघटन और बिखराव के इस स्वार्थी दौर में भी वैसा का वैसा ही है . 


न जाने किस सुख के प्रलोभन की चाहत से मैं भाई से अलग हुई थी . मन के भीतर से पुरजोर स्वर उभरा, जैसे सांझ होने पर छांव पेड़ से लिपट जाती है, उसी तरह तुम भी भाई को गले से लगा लो. जब तक मैं कुछ कहती, नवीन ने आगे बढ़ कर मेरे चरण स्पर्श किए तो मैं ने उसे गले से लगा लिया. मुंह से बेसाख्ता निकल गया, जुगजुग जिओ फूलोफलो. मेरी उम्र भी तुम्हें लग जाए . 


आंसू की अविरल धारा अपने सारे तटबंध तोड़ कर फूट चली . हम दोनों भाईबहन एक हो गए , हमेशाहमेशा के लिए . 


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