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रिश्ता-दिल छू लेने वाली एक मॉरल कहानी

Hindi Kahani: सेहत की फ़िक्र में शुरू किया प्रातः भ्रमण बेजुबान के प्यार में डाल देगा, यह सुधाकर नहीं जानता था। इस नए रिश्ते के अचानक गुम हो जाने ने सिद्धांत को भी उसका अहसास करा दिया था ।


रिश्ता-दिल छू लेने वाली एक मॉरल कहानी , MORAL KAHANI , RISHTA DIL CHHU LENE WALI KAHANI


रिश्ता-दिल छू लेने वाली एक मॉरल कहानी 


हिंदी कहानियाँ: 'डर भी क्या अजब चीज है। हमें न जाने किन बातों पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देता है। या फिर यह भी हो सकता है कि डरा हुआ आदमी किसी विश्वास की बांह थामकर अपने सुखों को टटोलने की कोशिश करता है।' तेज क़दमों से चलते हुए सुधाकर ने सिद्धांत से कहा।


सर्दियों की सुबह होने के बावजूद सुधाकर के ललाट पर हल्का पसीना छलक आया था। आखिर तेज क़दमों से दोनों इस सर्द सुबह में भी लगभग चार किलोमीटर पैदल जो चल लिए थे। तेज गति से चलने के कारण सुधाकर की धड़कनों की गति भी सामान्य से तेज हो गई थी। इसलिए बोलते-बोलते वह कुछ देर रुका, फिर बोला, 'अब मुझे ही देख लो। कब से सोच रहा था कि मॉर्निंग वॉक शुरू करूं, लेकिन सुबह-सुबह बिस्तर छूटता ही नहीं था। अब जब डॉक्टर ने कह दिया है कि मैंने अपनी जीवनशैली में बदलाव नहीं किया तो डायबिटीज का मरीज हो सकता हूं, मुझे रोज पांच किलोमीटर पैदल चलना चाहिए, तब से बिना अलार्म के भी नींद खुल जाती है। सुबह घूमना जैसे जीवन का जरूरी हिस्सा हो गया है।'


सिद्धांत बोला, 'आस्था के आध्यात्मिक अर्थ तो मैं नहीं जानता। लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि आस्था उस प्रवृत्ति का नाम है जो कठिन परिस्थितियों में भी हमें जीवन की सकारात्मकता के प्रति चैतन्य बनाए रखती है। अब कोई वो चेतना मॉर्निंग वॉक से पाता है या किसी अनुष्ठान से- अध्यात्म को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आप सत्य, शिव और सुंदर के प्रति विनयशील बने रहें तो आपका हर संबोधन प्रार्थना की तरह पवित्र हो जाता है।'


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'अरे, हम जैसे पापी भी अध्यात्म की बात करने लगे? - इसे ब्रह्ममुहूर्त में जागरण का असर कहें या प्रभात के प्रकाश में पाखंड का प्रबल होना?' सुधाकर ने कहा तो दोनों ठठाकर हंस दिए। फिर सुधाकर चौंककर बोला, 'सुबह की ताजा हवा ने तो मेरी भाषा को भी आलंकारिक कर दिया। प्रभात के प्रकाश में पाखंड का प्रबल होना। वाह। यह शोध का विषय हो सकता है कि पहली कविता किसी के वियोग में क्या उस समय लिखी गई थी, जब लिखने वाला हमारी ही तरह मॉर्निंग वॉक कर रहा था ?' सुधाकर की बात पर एक बार फिर दोनों का कहकहा गूंज उठा।


सुधाकर और सिद्धांत सहकर्मी हैं। संयोग से दोनों रहते भी एक ही कॉलोनी में हैं। सिद्धांत तो शुरू से ही खिलाड़ी रहा है। प्रातः भ्रमण और व्यायाम हमेशा उसकी दिनचर्या के हिस्से रहे हैं, लेकिन सुधाकर ने कुछ महीनों पहले ही सुबह लंबी दूरी तक घूमना शुरू किया है। तब, जब डॉक्टर ने उसे डायबिटीज के ख़तरे के प्रति आगाह किया।


सुबह-सुबह कॉलोनी से बाहर निकलते ही कई बार आवारा श्वान उनके पीछे चलने लगते थे। शुरू-शुरू में तो दोनों उन्हें भगा देते थे, लेकिन एक दिन एक छोटा-सा श्वान शिशु आकर बार-बार उनके पांवों के पास लोट लगाने लगा तो सुधाकर स्वयं को उसके मोह में पड़ने से नहीं बचा सका। एकदम काला शरीर और माथे पर तिलक की तरह का सफ़ेद निशान। वो श्वान शिशु दूर से ही पहचान में आ जाता था। सुधाकर उसे लाड़ लड़ाने लगा। अब तो यह रोज का ही क्रम हो गया। उन्हें दूर से देखते ही वो फुदकते हुए आता और इनके पांवों के पास अठखेलियां करने लगता। अब तो जैसे इस प्राणी को प्यार करना भी उसके जीवन का हिस्सा हो गया। 'डायबिटीज के डर ने मुझसे मॉर्निंग वॉक ही शुरू नहीं कराई बल्कि आवारा श्वानों के प्रति मेरे मन में एक मोह भी जगाया है।' एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा था।


लेकिन जीवन में सबकुछ मनुष्य की इच्छा के अनुसार कहां होता है? एक दिन वो छोटा-सा श्वान कहीं गायब हो गया। सुधाकर और सिद्धांत की नजरें उसे तलाशती रहीं लेकिन वो कहीं नहीं दिखा। चार-पांच दिन बीत गए। गली के बाहर उसे तलाशती नजरें फेंकते हुए सुधाकर ने कहा, 'पता नहीं कहां चला गया वो। एक अनजाना-सा रिश्ता बन गया था जैसे उससे।' सिद्धांत बोला, 'आख़िरी बार जब मिला था तो कैसे देख रहा था तुम्हें? उसकी आंखें जैसे एक साथ बहुत कुछ कह देना चाहती थीं।' 


'हो सकता है कि वो यही कहना चाहता हो कि अब हमेशा के लिए जा रहा हूं। पता नहीं क्या हुआ होगा उसे ? कहीं किसी दुर्घटना का शिकार न हो गया हो। लोग सड़क पर अपनी गाड़ियां भी तो बहुत तेज चलाते हैं,' सुधाकर ने भावुक होते हुए कहा । 'हो सकता है कि किसी मनहूस क्षण की आहट उसे पहले आ गई हो। बुजुर्ग बताते हैं कि इनकी छठी इंद्रिय बहुत तेज होती है। मौत को पहले से भांप लेते हैं,' सिद्धांत ने सुधाकर के डर का समर्थन किया। सुधाकर केवल इतना ही कह सका, 'ईश्वर करे, ऐसा नहीं हुआ हो।' फिर उसने आसमान की ओर देखा, मानो मन ही मन कोई मन्नत मांग रहा हो।


आठ-दस दिन ही बीते थे कि उसी मोड़ के पास दोनों को वही श्वान शिशु दिखाई दिया। वही काला रंग और माथे पर सफ़ेद तिलक। दूर से दौड़ता हुआ वो इन्हीं की तरफ आ रहा था। उसे देखकर सुधाकर तो जैसे ख़ुशी से दीवाना ही हो गया। पास पहुंचते ही उसे लपककर अपनी बांहों में उठाया और हुलसकर बोला, 'तू कहां चला गया था रे? क्या तुझे. हमारी याद नहीं आती थी?' उसने कितने ही सवाल दाग दिए, मानो वो बेजुबान प्राणी उसके सवालों को समझ रहा हो और सुधाकर की ही भाषा में भी जवाब भी देगा। सुधाकर बावलों की तरह उससे बतियाए जा रहा था। सिद्धांत की आंखों की कोरें भी भीग गई थीं। पता नहीं कौन-सा रिश्ता था जिसके बंधन ने उस दिन सुधाकर और सिद्धांत को तब तक वहां रोके रखा था, जब तक वो नन्हीं जान ख़ुद ही उसकी गोदी से उतरकर भागने के लिए नहीं मचल उठी।


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