शिक्षा लघुकथा
Laghukatha-प्रदीप माथुर
हुनर की विरासत का वो जीता - जागता उदाहरण था । उसका उत्साह और लगन जैसे पीढ़ियों का सिलसिला था ।
शिक्षा
मई में माह की दोपहरी , चिलचिलाती धूप और प्रतिदिन की भांति मेरा कोर्ट से वापस घर लौटना । सुनसान सड़क । गतिमान स्कूटर और घर जल्दी पहुंचने का मानसिक दबाव ! इसी बीच एक स्वर उभरा , ' साब ! तरबूज ले जाइए ना ! '
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आवाज सुन मैंने ब्रेक लगाया और पीछे मुड़कर देखा , फुटपाथ पर तिरपाल के नीचे रखे तरबूजों के ढेर के बीच खड़े छोटे से बालक ने मुझे रोकने के लिए आवाज लगाई थी । मैं उसके नजदीक गया , ' अरे परसों ही तो तुम्हारे पिताजी से लेकर गया था , आज तो बच्चों ने लाने को कहा भी नहीं है । ' वह अपने पिता की भांति ही तपाक से बोला , ' साब ! ले जाइए ना , आज ही नया माल आया है , इस मौसम में तो रोज ही खाना चाहिए , गर्मी में तरावट देता है । '
उसकी चातुर्यपूर्ण सेल्समैनशिप के आगे हथियार डालते हुए मैंने कहा , ' अच्छा ला , एक पांच किलो तक वजन का दे दे । '
उसने एक तरबूज उठाया और उस पर दूसरे हाथ से थप्पी मारी और वापस रख दिया । फिर दूसरा उठाया और उस पर भी दो - तीन थप्पी मारीं और उसे भी रख दिया । फिर तीसरा तरबूज उठाया और उसी तरह थपका कर बोला , ' साब ! ये लीजिए बढ़िया निकलेगा पूरा लाल और मीठा । '
इसी बीच मुझसे बातें करते हुए उसने बड़ी फुर्ती से उसे तराजू पर रख कर तौला और थैली में रख भी दिया और घोषणात्मक मुद्रा में बोला , ' पांच किलो पांच सौ ग्राम है , आप परमानेंट ग्राहक हैं पांच किलो के ही दे दीजिए , एक सौ पच्चीस बनते हैं सौ रुपये दे दीजिए । ' उसकी वाकपटुता में लिपटे इस अहसान को मन ही मन मैंने स्वीकार किया और तरबूज की थैली स्कूटर के हुक में लगाते हुए पूछा , ' आज पिताजी कहां हैं ? वो तो जब भी देते हैं मीठा और लाल ही निकलता है । '
' आज भी मीठा और लाल ही निकलेगा , पिताजी के बताए माफिक ही थप्पी मार कर दिया है , चिंता न करो साब ! '
एक पिता की दी हुई शिक्षा और आत्मविश्वास से भरपूर सेल्समैनशिप को मन ही मन नमन करते हुए हल्की सी मुस्कान स्वतः ही मेरे चेहरे पर बिखर गई , बेटे में गुरु पिता की छवि देख कर । मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और चल दिया अपने गंतव्य की ओर ।