इस पोस्ट में हम एक पारिवारिक छोटी कहानी 'गई भैंस पानी में' लेकर आये है। चलिए शुरू करते है Short Story Gai Bhains Pani Mein
कहानी - मधु गोयल
गई भैंस पानी में Gai Bhains Pani Mein
सुराल से विदा होकर आए अभी निकिता का दिन भी नहीं बीता कि दादी की झन्नाटेदार दार आवाज सुनाई दी, "बहू ओ बहू! आज अपनी बहू से रोटी छुआई की रस्म करवा लेना। कल तो सब चले जाएंगे। जरा सब जानें तो सही कि बहू खाना कैसा बनाती है।"
निकिता की सास सुषमा की आवाज गले में फंसने लगी, "अरे मां जी, अभी तो आई है। रात भर की जगी हुई है।"
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अरे इतनी नाजुक है तुम्हारी बहू? हम तो चौदह साल की उम्र में ब्याह कर आए थे। जाते ही सास ने चूल्हे में झोंक दिया था। इतनी भी हिम्मत नहीं थी कि कुछ कहते। "जब से पोते देवेश का रिश्ता पक्का हुआ था, दादी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं। उनका कहना था कि हॉस्टल में रहकर पढ़ी लड़कियां कुछ काम धाम नहीं करतीं, बिन लगाम की घोड़ी होती हैं। निकिता सासू मां का मुंह देखने लगी, "मां, आप परेशान न हों। मैं कोशिश करती हूं।"
दादी की त्यौरियां सातवें आसमान पर चढ़ गईं, “वाह री सुषमा, तुम तो बहू की निपुणता का बड़ा बखान करती थीं। इतनी उम्र में अपनी मां से कुछ नहीं सीखा इसने?”
इतने में देवेश मिठाई का डिब्बा लेकर आया और दादी को मिठाई का एक टुकड़ा खिलाते हुए बोला, “अरे दादी, बधाई हो! आपकी बहू साक्षात लक्ष्मी है, मेरा प्रमोशन ऑर्डर आ गया।"
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दादी एकदम चुप हो गईं। उन्होंने "उं-उं" करते हुए मुंह बंद कर लिया। तभी सुषमा बात संभालते हुए बोली, "मां जी, आज बहू पूजा नहीं करेगी। यह रस्म देवेश के जन्मदिन पर हो जाएगी।"
"जो मर्जी, करो।" दादी ने मुंह बिचकाते हुए कहा। अगले दिन मेहमान विदा हो गए। धीरे-धीरे शादी को भी एक महीना बीत गया। देवेश और निकिता हनीमून पर भी नहीं जा पाए। बाहर घूमने के लिए शुभ दिन नहीं थे, दादी ने इजाजत नहीं दी। निकिता अपनी जिम्मेदारी समझने लगी थी। भोला नाम का नौकर निकिता के काम में हाथ बंटा देता था। आते जाते सुषमा भी काम में हाथ बंटा देती थी। देवेश बार-बार रसोई में आता-जाता रहता। दादी से यह देखा न गया। बोल पड़ीं, “जा, वहीं बैठ जा उसके पास घूम-फिरकर रसोई में घुस जाएगा। आजकल के लड़कों को जरा भी सब्र नहीं है। बीवी के आगे पीछे नाचते रहेंगे।"
'अरे दादी इसी में तो मजा है जिंदगी का।"
"देखो जरा, बिल्कुल भी शर्म-लिहाज नहीं रही आजकल के बच्चों में।"
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देवेश के जन्मदिन पर घर में मेहमान आने थे। खाना निकिता को बनाना था। दादी ने सुषमा को सख्त हिदायत दे दी, "खाना निकिता को ही बनाने दो। मैं भी तो जानूं, क्या-क्या जानती है तुम्हारी बहू? हॉस्टल की पढ़ी-लिखी। अरे, आग में तपकर ही सोना निखरता है। लगाम कसकर रखो बहू की। मेरी बात मानेगी तो सुखी रहेगी।” सुषमा की आंखों के सामने अपनी शादी से लेकर अब तक की सारी यादें ताजा होने लगीं।
इतने सालों के वैवाहिक जीवन के बाद भी सुषमा आज तक अपनी सास से कुछ कह नहीं पाई। लेकिन आज वह चुप नहीं रह पाई और कह बैठी, "माफ कीजिएगा मां जी, मेरी तो गुजर गई। जिस जगह आप थीं, आज उस जगह मैं हूं। जो मैंने सहा, वह निकिता नहीं सहेगी। बेटी बनाकर लाई हूं, वह बेटी बनकर ही रहेगी।”
“अरे वाह सुषमा, तुम बहू क्या ले आईं, तुम्हारी तो जुबान भी निकल आई।"
भोला को घर में आए काफी साल हो चुके थे। वह कमरे में सफाई कर रहा था और दोनों की बातें सुन रहा था। बीच-बीच में टिप्पणी करने की उसकी आदत थी। अचानक वह बोल पड़ा, "दादी जी, गई भैंस पानी में।"
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