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व्याकरण अर्थ परिभाषा और हिन्दी भाषा से अन्तर्सम्बन्ध

सामान्य हिन्दी: -व्याकरण अर्थ परिभाषा और हिन्दी-भाषा से अन्तर्सम्बन्ध अपभ्रंश-दशा से विकास मार्ग पर बढ़ती हुई हिन्दी में पहले पद्य की रचनाएँ आरम्भ हुई। पध में व्याकरण की वैसी आवश्यकता नहीं होती जैसी गद्य में।

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अत: पद्य-काल तक हिन्दी भाषियों का व्याकरण रचना की ओर ध्यान नहीं गया और गद्य का विकास आरम्भ होने पर भी जब तक गद्य की अपूर्णावस्था रही और गद्य में ग्रन्थ नहीं के बराबर थे,व्याकरण की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई पर उन्नीसवीं सदी में अँगरेज़ों का ध्यान इस ओर गया। आवश्यकता और इच्छा से प्रेरित हो अँगरेज़ी-विद्वान् हिन्दी में व्याकरण-रचना करने पर तत्पर हुए। 

सर्वप्रथम फोर्ट विलियम कॉलेज के अध्यक्ष डॉ ० गिलक्राइस्ट ने अंगरेज़ी में हिन्दी का एक व्याकरण लिखा तदुपरान्त प्रेमसागर के लेखक लल्लूजी लाल ने क़वायद हिन्दी नामक एक लघु व्याकरण-पुस्तक की रचना की उसके लगभग २५ वर्षों पश्चात् कलकत्ता के पादरी ऐडम महोदय ने एक छोटा हिन्दी व्याकरण प्रस्तुत किया,जो वर्षों तक स्कूलों कॉलेजों में प्रचलित रहा।

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१८५७ ई० के प्रसिद्ध सिपाही विद्रोह के बाद शिक्षा विभाग की स्थापना होने पर पं० रामजन की भाषा तत्त्वबोधिनी प्रकाशित हुई,जिसमें संस्कृत मिश्रित नियमों का उपयोग किया गया। उसके बाद पं० श्रीलाल का भाषा चन्द्रोदय , नवीन चन्द्रराय का नवीन चन्द्रोदय और पं० हरिगोपाल पाध्ये की भाषा तत्त्वदीपिका नाम की व्याकरण पुस्तकें निकलीं । इनके अलावा केलाग आदि के व्याकरण भी अँगरेज़ी में छपे 

भारतेन्दु-काल में राजा शिवप्रसाद और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र,दोनों ने एक-एक पुस्तक तैयार की । तत्पश्चात् पादरी एथरिंग्टन साहब का भाषा भास्कर प्रकाशित हुआ । तब से हिन्दी व्याकरण की रचना का सिलसिला सा शुरू हुआ और आज तक हिन्दी में व्याकरण की कई पुस्तके लिखी जा चुकी हैं । उनमें पं० कामता प्रसाद गुरु का हिन्दी-व्याकरण संशोधन समिति द्वारा पुनरावृत्ति होकर विस्तृत और प्रामाणिक बनाया गया है । 

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व्याकरण अर्थ और परिभाषा

'व्याकरण' शब्द की व्युत्पत्ति वि + आ + करण' से होती है । 'व्याकरण' शब्द का अर्थ "व्याक्रियन्ते शब्दा अनेन'' अर्थात् जिसके द्वारा शब्दों की व्युत्पत्ति का ज्ञान ( पदार्थ ज्ञान ) किया जाए। भाषा के वर्ण शब्द और अर्थ ही प्रधान माने गये हैं। इन्हीं तीनों का ही व्याकरण में विवेचन होता है। व्याकरण का आश्रय भाषा है और भाषा के अंग वाक्य,शब्द और वर्ण हैं। इस कारण हिन्दी भाषा के व्याकरण में भी इन विभागों पर विचार होना उचित है परन्तु विशेष सम्बन्ध गद्य भाग से ही रहता है; पद्य भाग का सम्बन्ध छन्दशास्त्र से है,जिसका विस्तृत विवरण व्याकरण का विषय नहीं है फिर भी उसका आरम्भिक ज्ञान ज़रूरी है।

वास्तव में व्याकरण वह विद्या है, जिसके द्वारा किसी भी भाषा का शुद्ध-शुद्ध बोलना, लिखना तथा पढ़ना समझ में आ जाए। मनोगत भावों के व्यक्तीकरण की भाषा का आख्यान व्याकरण करता है अत: व्याकरण का प्रयाजन भाषा सम्बन्धी विषयों की सम्यक् व्याख्या करना होता है। उस व्याख्या के अन्तर्गत भाषा के भूत और मान, दोनों रूपों का समावेश होता है। व्याकरण एक शास्त्र रूप में उन नियमों का निरूपण करता है, जिनके द्वारा भाषा के भूत-रूप का ज्ञान वक्ता को हो जाए, ताकि उसे उस काल के भाव को समझने में कोई कठिनता न हो सके।

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इसी भाँति प्रचलित रूप को भी बोलने लिखने में और शुचितापूर्वक व्यवहार में लाने का पथ-प्रदर्शन व्याकरण द्वारा ही होता है। ऐसे वैशिष्ट्य की दृष्टि से व्याकरण को किसी भाषा के लिखित और वाचिक रूपों का यथार्थतः समझाने और ज्ञान कराने वाला शास्त्र कहा गया है।वास्तव में, व्याकरण का विषय भी यही है। हाँ, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि व्याकरण भाषा का अंकुश है और वह जैसा चाहता है, भाषा को घुमाया करता है । वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है। 

वस्तुत: भाषा का रूप परिवर्तन मानव समाज के भावाधीन है और समाज जिस प्रयोग को स्वीकार कर लेता है, वह व्याकरण को भी ग्राह्य होता है। फलत: व्याकरणशास्त्र भाषा का प्रगतिविरोधक अथवा पूर्ववर्ती नहीं है प्रत्युत व्याकरणशास्त्र भाषा का अनुगामी है और उसका वैशिष्ट्य भाषा के स्वरूप का अनुशीलन करनेवालों के लिए रहता है। 

व्याकरण को अनावश्यक समझनेवालों का कहना है कि भाषा का व्याकरण पर आश्रित न होने के कारण व्याकरण का निर्माण और अध्ययन निष्पयोजन है। इसे सत्य मान लेने पर यह भी मानना पड़ेगा कि वीर अथवा विद्वान संसार में आप ही उत्पन्न होते और बनते हैं । उनकी जीवनियों की कोई आवश्यकता नहीं। आविष्कार के आरम्भ में भी आविष्कारक के पास उसका कोई ग्रन्थ नहीं था और आविष्कारक के मस्तिष्क ने स्वभावतः कार्य किया। शिल्पी के लिए भी शिल्प-विषयक विवरण की आवश्यकता नहीं। वहीं व्यापार वाणिज्य भी साधारणत: होते ही रहते हैं, उन पर भी शास्त्र रचना व्यर्थ है।निःसन्देह, ये सारे कथन सामाजिक लाभ की दृष्टि से भ्रमपूर्ण है। इस कारण व्याकरण की रचना अथवा अध्ययन निष्प्रयोजन कदापि नहीं। अपने जगत् में उसका भी प्रयोजन है। उस प्रयोजन के अनुसार, व्याकरण अन्य शास्त्रों की भाँति एक आवश्यक शास्त्र है।

आचार्यों ने हिन्दी व्याकरण के निम्नलिखित विभाग किये हैं: -

  • वर्ण-विचार 
  • शब्द-विचार 
  • वाक्य-विचार 
  • छन्द-विचार  

वर्ण-विचार व्याकरण का वह विभाग है, जिसमें वर्णो के भेद, आकार, उच्चारण तथा उनके मेल से शब्द निर्माण के नियम दिये जाते हैं।

शब्द-विचार वर्ण-ज्ञान के बाद का विभाग है, जिसमें शब्दों के भेद, अवस्था, रूपान्तर, संरचना तथा व्युत्पत्ति का वर्णन रहता है।

वाक्य-विचार वह विभाग है, जिसमें शब्दों से वाक्य बनाने के नियम दिये जाते हैं और वाक्यों के अवयवों का पारस्परिक सम्बन्ध बताया जाता है। विराम-भेद को, जिसका उद्देश्य लेख के भाव का हृदयंगम करना है, वाक्य विचार के ही अन्तर्गत रखना तर्क-संगत है क्योकि वाक्य के भाव के साथ उसका महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहता है।

 छन्द-विचार से छन्द के नियमादि का ज्ञान होता है किन्तु इसका सम्बन्ध केवल पद्य से है।

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