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आर्य भाषा प्रकार वर्गीकरण और विश्व भाषा का विभाजन एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

आदिम स्थान प्राचीनतम् काल में कोई था अवश्य,चाहे वह एशिया माइनर हो,चाहे पामीर की अधित्यका अथवा आर्यावर्त, उसी आदिम स्थान की भाषा सब की आदिम भाषा थी. आदिम स्थान से जाति विभाग के अनुकूल स्थान और जलवायु के प्रभाव से भिन्न भिन्न स्थानों में उस आदिस भाषा में भी पार्थक्य घटित हुआ। गये हुए लोगों की भाषाएँ शनैः शनै: आदिम स्वरूप गंवाकर नया रूप धारण करती गयीं। 

आर्य भाषा प्रकार,वर्गीकरण और विश्व - भाषा का विभाजन एक विश्लेषणात्मक अध्ययन

फलत: आज एक मूलभाषा के स्थान में अनेक भाषाएँ मिलती हैं। संसार की आधुनिक भाषाएँ तुलनात्मक दृष्टिकोण से तीन बड़ी शाखाओं में बाँटी जा सकती हैं-

आधुनिक भाषाएँ 

सेमिटिक भाषाएँ

( सामी Semetic )

तूरानी भाषाएँ

आर्य - भाषाएँ

 

सेमिटिक भाषाओं के अन्तर्गत हिब्रू , अरबी , ईरानी , इथियो आदि भाषाएँ हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनकी धातु तीन व्यञ्जनों से बनी होती है और सभी दशाओं में वे वैसा ही रहती हैं; अर्थान्तर भी स्वर बदल कर ही प्रकट किये जाते हैं। 

तूरानी-शाखा में शीथिया, द्रविड़ मलय आदि उप-शाखाओं की अनेक भाषाएँ सम्मिलित है। तुर्की, हंगेरीय, मंगोल, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, जापानी, चीनी, बर्मी, तिब्बती, बास्क्यु आदि सभी भाषाएँ यद्यपि एक-सी नहीं हैं तथापि उनके पद और धातु में कुछ ऐसे मुख्य शब्द हैं, जो समानता रखते हैं और उनसे हमें उनका पारस्परिक सम्बन्ध प्रतीत होता है। 

आर्य-भाषाएँ और उनका विभाजन 

आर्य-भाषाओं से उस आर्य-जाति की भाषाओं का अभिप्राय है, जिसके वंशज भारत, फारस, जर्मनी, एशिया, पोलैण्ड, सर्विया, बुलगारिया, इटली, फ्रांस, इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड आदि विश्व विख्यात देशों में फैले हुए हैं और जिनकी सभ्यता संसार के इतिहास में अपना स्वतन्त्र और अद्भुत स्थान रखती है। भारत की राष्ट्रभाषा पद सम्मानित हिन्दी का सम्बन्ध इसी प्रमुख शाखा से है।

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आर्य भाषाओं को छ: श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है जैसे: - संस्कृत, फारसी, स्लैवानिक, केल्टिक, पेलैसिक और ट्यूटनिक। संस्कृत का सम्बन्ध भारत की भाषाओं से है और फारसी का फारस की पुरानी और आधुनिक भाषा से। स्लैवानिक के भीतर पूर्वी यूरोप की रशिया, पोलैण्ड, सर्विया, बुल्गारिया, बोहेमिया और हंगरी के कुछ भागों में बोली जानेवाली भाषाएँ मानी गयी हैं। 

केल्टिक की गैलिक और कैम्ब्रियान नामक दो उप श्रेणियाँ हैं, जिनमें ऑयरलैण्ड,स्कॉटलैण्ड, मैनद्वीप, वेल्स, कार्नवाल ( पुराना ) की बोलियाँ आ जाती है। जहाँ पेलेस्मिन श्रेणी का सम्बन्ध यूनानी, लैटिन, फ्रेंच, स्पैनिश, इटैलियन तथा पुर्तगाली भाषाओं से है, वहीं ट्युटनिक श्रेणी के अन्तर्गत गोथिक और स्कैण्डिनेवियन उप श्रेणियों की स्वीडिश, नारवेजिन, डेनिश, जर्मन डच, फ्लेमिश, सैक्सन तथा अंगरेज़ी भाषाएँ है ।ऐसे विभाग का आधार भाषा साम्य के अतिरिक्त-कुल के अन्तिम निवास का ऐतिहासिक सिद्धान्त भी है। 

आर्यों की सभ्यता संसार के इतिहास में अनोखी होने के कारण उनके मूल स्थान के निर्णय में इतिहासकारों ने श्लाघनीय परिश्रम किया है। अनेक मत उन्होंने स्थिर किये हैं और तरह-तरह की युक्तियाँ प्रस्तुत कर स्वमत पुष्टि की चेष्टा की है। इसके बाद भी अभी तक वे निश्चित नहीं कर सके कि आर्यों का मूल स्थान कहाँ था। संस्कृत, फारसी, सीडी, यूनानी, लैटिन तथा अंगरेजी के वाक्यों की तुलना से इनका एक मूल से निकलना सभी मानते हैं किन्तु मूल स्थान के सम्बन्ध में वे सहमत नहीं होते। 

कोई कैस्पियन सागर के पास आर्यो का आदि-निवास कहता है कोई मध्य एशिया के होने का प्रमाण पेश करता है कोई पामीर की अधित्यका को मूल स्थान समझता है कोई तिब्बत को सृष्टि स्थान सिद्ध करता है; कोई एशिया के बाहर भी यूरोप में आर्य-कुल का प्राचीनतम् वास होने की युक्तियाँ सुझाता है कोई उत्तरी ध्रुव को वह सम्मान प्रदान करता है तथा कोई आर्यावर्त से ही आर्यों के उत्तर और पश्चिम-दिशाओं में बढ़कर भिन्न-भिन्न स्थानों में फैलने का सिद्धान्त रखता है परन्तु एक स्थान से आर्यों का विस्तार पाना निश्चित है।

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आर्य कुल की ज्यों-ज्यों वृद्धि होती गयी अथवा जब कभी सामाजिक वैमनस्य हुआ, आदिम स्थान से आर्य दलों में विभक्त हो, अन्य देशों की ओर विस्तार पाते गये और यथासुविधा अपने वास स्थान के लिए मार्ग प्रशस्त करते गये। नये स्थानों पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके आचार-विचार भी बदलते गये और उनकी मूलभाषा विकारग्रस्त होती गयी। भारत में बसे हए आर्यो के प्राचीनतम् धर्म-ग्रन्थ संहिता की भाषा बहुत पुराने समय में उनकी बोलचाल की भाषा थी लेकिन आज उसे समझना भी कठिन है और उसके स्थान पर हिन्दी, बाँग्ला, मराठी आदि भाषाएँ बोली और लिखी जाती हैं। ये आधुनिक भाषाएँ क्रमश: मुख्य भाषाओं से ही विकसित हुई है। उस क्रमविकास पर विचार करने से ही हिन्दी के विकास और हिन्दी शब्द भण्डार के स्वरूप का ज्ञान सम्भव है। 

भारत के आर्यों की प्राचीनतम् भाषा के ग्रन्थ वेद हैं। उनमें भी विद्वान् ऋग्वेद को सबसे पुराना मानते हैं। वेदों की ऋचाएँ संस्कृत भाषा में हैं किन्तु वे संस्कृत,'रामायण', 'महाभारत', 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्', 'उत्तर रामचरितम्, पञ्चतन्त्र' आदि की संस्कृत से भिन्न हैं।

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इस कारण वेदों के समय की संस्कृत 'वैदिक ( पुरानी ) संस्कृत' कही जाती है और वही भारतीय आर्यों की प्राचीनतम् लिखित भाषा भी मानी जाती है परन्तु मानव समाज की स्वाभाविक दशा यह है कि शिक्षितों और अशिक्षितों की केवल बुद्धि नहीं, भाषाएँ भी भिन्नता रखती हैं। अत: वैदिक संस्कृत के समय में भी ऋचाओं की भाषा लिखित और बोलचाल की होने पर भी अशिक्षितों की भाषा उससे भिन्न ही रही होषाविज्ञान-विशारदों द्वारा उस बोलचाल की भाषा को प्राकृत का नाम दिया गया है  

इस प्रकार वैदिक काल में दो भाषाएँ सिद्ध होती हैं- वैदिक संस्कृत, जो साहित्यिक और शिक्षितों की भाषा थी तथा अनपढ़ों की वैदिक प्राकृत, जो उस पुराने समय में साधारण बोलचाल की शूद्र-स्त्री-बालक की भाषा मानी गयी है। बहुत समय व्यतीत हो जाने पर भी ये भेद बने रहे यद्यपि वैदिक संस्कृत और वैदिक प्राकृत में भी परिवर्तन होते रहे। धीरे-धीरे, वैदिक संस्कृत आधुनिक रूप की ओर बढ़ने लगी और लोगों के बदलने हुए विचारों के साथ उसकी भाषा में भी अन्तर पड़ता गया।

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प्राकृत का प्रभाव संस्कृत पर भी पड़ने लगा और संस्कृत के प्रयोग में मनमाने नियम। के प्रयोग के आ जाने के भय के कारण संस्कृत के विद्वानों और तैयाकरणों द्वारा संस्कृत को नियम बद्ध करने के भी यत्न समय-समय पर किये गये। उनमें पाणिनि ने पूरी ख्याति पायी।पाणिनि का समय ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में माना जाता है। ऐसा ही वैदिका प्राकृत के साथ भी घटित हुआ.

वैदिक प्राकृत केवल बोल-चाल की भाषा से लिखित भाषा की स्थिति की ओर बढ़ायी गयी और संस्कृत की भांति उसके भी व्याकरण प्रस्तुत किये गये। इसका सबसे पुराना व्याकरण आज वररुचि का लब्ध है। वररुचि का होना ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में कहा जाता है। प्राकृत को लिखित और साहित्यिक भाषा का रूप वर्द्धमान महावीर और गौतम बुद्ध की धार्मिक शिक्षा के समय से प्राप्त हुआ। उनके पहले आर्यों की धर्म-पुस्तकें संस्कृत में रची जाती थीं पर इन लोगों ने सर्वसाधारण के लाभार्थ धर्म के उपदेश प्राकृत यानी स्वाभाविक ग्रामीण भाषा में दिये और उन उपदेशों के संग्रह प्रस्तुत किये गये तथा धर्म-पुस्तकें भी प्राकृत में ही तैयार हुईं। इससे प्राकृत भाषाओं के भाव और शब्द भण्डार में अभिवृद्धि हुई।

प्राकृत की दूसरी अवस्था पालि नाम से जानी जाती है। पालि का अर्थ है 'पली' अथवा 'पल्ली' की भाषा। पली पर्याय है, पल्ली अथवा टोले का। इस तरह पालि गाँव की भाषा थी। प्रारम्भ में ग्रामीण भाषा के प्रयोग में निश्चित नियम न होने के कारण स्थानभेद के अनुसार पालि के कई रूप थे और मगध के बाहर भी। जहाँ बौद्ध और जैन बस गये, वहाँ की ग्रामीण भाषाएँ पालि रूप में प्राकृत में सम्मिलित होती गयीं। काल-क्रम में तीन प्रान्तों की प्राकृत मुख्य हुई।मगध में बौद्ध और जैन मत का आरम्भ हुआ। इस कारण मगध की प्राकृत मागधी सर्वप्रथम मुख्य हुई। तदुपरान्त बम्बई बरार आदि प्रान्तों में महाराष्ट्री तथा गंगा-यमुना-मध्यस्थ शूरसेन प्रदेश में शौरसेनी विख्यात हुई। जैनमत प्रवर्तक महावीर की धार्मिक शिक्षा की भाषा मागधी से मिलती-जुलती शौरसेनी की छाप ली हुई थी । 

उसे अर्द्धमागधी नाम दिया गया और जैनमत के पुराने ग्रन्थ उसी में लिखे गये है। धार्मिक उपदेश-निमित्त लिखित भाषा का सम्मान किये जाने पर प्राकृत में काव्य नाटक आदि भी लिखे गये और कुछ काल तक प्राकृत सबकी प्रेम भाजन रही पर ज्यों ही बौद्ध और जैन मतों का पतन और ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान आरम्भ हुआ, प्राकृत भाषाओं की ओर से लोगों की रुचि हटने लगी तथा संस्कृत को एक बार पुनः समादर प्राप्त हुआ। क्या ब्राह्मण मतानुयायी, क्या बौद्ध, क्या जैन- सभी संस्कृत की ओर झुक। फलतः प्राकृत की उपेक्षा शुरू हुई। 

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प्राकृत जिस समय लिखित भाषा हो रही थी, उस समय भी लिखित से भिन्न प्राकृत पहले की ही भाँति साधारणतया बोल-चाल के काम में आती थीं। जब लिखित प्राकृत का बल कम हो गया और उसकी ओर लोगों की रुचि साहित्य के लिए नहीं रही तब साहित्यिक प्राकृत की तीसरी दशा का आरम्भ हुआ। उस दशा का नाम अपभ्रंश रखा गया है क्योंकि वह प्राकृत की विकृत दशा थी, जिसका कोई निर्णायक अथवा सुधारक नहीं था। लिखने और बोलने में मनमाना प्रयोग किया जाता था। प्रमुख विद्वान् संस्कृत में लिखते थे और प्राकृत साधारण लोगों के लिए थी। इसी से संस्कृत के नाटकों में चाकर , चेरी, शूद्र और स्त्रियों के कथन प्राकृत में ही लिखे गये हैं। 

यह शैली उस समय के समाज में संस्कृत और प्राकृत, दोनों के व्यवहार के प्रमाण समुपस्थित करती है तथा उस पर ध्यान देने से यह भी विदित होता है कि प्राकृत की तीसरी दशा में तीन भाषाएँ काम में आती थीं- संस्कृत, साहित्यिक प्राकृत तथा अपभ्रंश। 

संस्कृत विद्वानों की भाषा और साहित्य रचना के लिए थी,बोल-चल के लिए नहीं। साहित्यिक प्राकृत अपने पूर्व-निश्चित रूप पर नाटकादि में मनोरंजन और परिवर्तन के विचार से  व्यवहत होती थी पर न उसमे बल था,न उसका मान। अपभंश साधारणतय बोल चल की भाषा थी,जिसका प्रयोग समाज के शिक्षित और अशिक्षित,दोनों ही करते थे।  कारण इसमें संस्कृत और साहित्यिक प्राकृत,इन दोनों के किये विकृत रूप के और परवर्ती प्रांतों के अन्याय व्यवहार के शब्द अप्रभंश में स्वाभावगत्वा प्रयुक्त हुआ करते थे। 

सबके पारस्परिक वार्तालाप की भाषा अपभ्रंश हो होती जाती थी अतः धीरे-धीरे लोग अपयश को लिखने भी लगे और वह साहित्य की भाषा बनने लगी। क्रमशः भिन्न प्रान्तों में पालि के सदृश कुछ अपभ्रंश रूप भी साहित्यिक दृष्टि में मुख्य हो गये और उनमें रचनाएँ की गयी। यही नहीं, अपभ्रंश के रूप भी प्रान्त भेद से भिन्न-भिन्न हुए किन्तु उनमें मुख्य मागधी, महाराष्ट्री नागर और ब्राचड़ नागक रूप हुए। पुरानी पूर्वी प्राकृत के स्थान परमागधी अपभ्रंश का जन्म हुआ और उससे विकास प्राप्त ओड़ी-गौड़ी रूप ढक्की नाम से उड़ीसा, गौड़, असम, बंगाल, ढाका, सिलहट, मैमनसिंह आदि प्रान्तों में प्रचलित हुए। महाराष्ट्री प्राकृत की जगह वैदर्भी ( दक्षिणात्य ) अपभ्रंश ने ग्रहण की और उसका प्रधान स्थल विदर्भ था। 

पश्चिमी भारत में 'नागर' अपयश की प्रधानता रही और नागर के तीन रूपान्तर-शौरसेनी, आवन्ती तथागौर्जरी नाम से गंगा-यमुना के मध्यवर्ती भाग, उज्जैन प्रान्त, गुजरात और उसके आस-पास में फैले। ब्राचड़ नाम को अपाश सिन्ध नदी के अधोभाग के आस-पास विकसित हुई तथा उसी के समान अपभ्रंश से कोहिस्तानी और कश्मीरी के आरम्भिक रूप निकले। 

उनके मिश्रण से कई उपभेद प्रादुर्भूत हुए, जिनका पृथक्-पृथक् निराकरण निश्चित रूप में करना कठिन है पर उनके प्रचार के प्रमाण मिलते हैं और उनकी समता भी मुख्य मुख्य भेदो से पायी जाती है। इस कोटि में अर्द्धमागधी के अपभ्रंश का नाम उल्लेखनीय है। ये सभी अपभ्रंश-भाषाएँ कुछ काल तक विकसित होती रही और उनके विकास से ही आधुनिक हिन्दी, बांग्ला, उड़िया, असमी, मराठी, सिन्धी, राजस्थानी, गुजराती और पहाड़ी भाषाओं की व्युत्पत्ति हुई। 

भाषाविद् हिन्दी को सरस के अतिरिक्त सरल और सर्वांगपूर्ण समझकर उसके विशेष प्रचार को भारतीयों के लिए हितकर मानते हैं और भिन्न-भिन्न संस्थाओं द्वारा हिन्दी के प्रचार और उसके साहित्य को समुन्नत करने के लिए यलवान् हैं। वास्तव में, प्रान्तीय भाषाओं का विकास अन्य भाषाओं की तरह आकस्मिक न होकर, क्रमशः भिन्न - भिन्न स्थितियों का अतिक्रमण करके हुआ। उनका मान अपने-अपने स्थान में प्रान्तीय दृष्टि से होते रहने के कारण, आज उनमें से अनेक समुत्रत स्थिति में हैं और उन्हें संस्कृत-प्राकृत आदि के सम्पर्क तथा केवल अपने-अपने साहित्य से सीमित हो जाने के कारण यथेष्ट साहित्यिक सम्मान भी प्राप्त है किन्तु सारी प्रान्तीय भाषाओं में सर्वोच्च स्थान हिन्दी को मिलता गया परिणामतः आज वह 'हिन्दुस्थानी भाल बिन्दी' है। 

आज हिन्दी का जो स्वरूप देखने समझने को मिलता है, उसके मूल में चार शाखाओं या श्लाघनीय योगदान है: पहले हिन्दी का विकास ईसा की बारहवीं सदी के लगभग पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, दक्षिणी हिन्दी और हिन्दुस्थानी- इन चार शाखाओं में हुआ। 

पूर्वी हिन्दी - का आरम्भ में विशेष सम्बन्ध अर्धमागधी अपभ्रंश से रहा और विकास क्रम में उसमें अवधी, बोली तथा छत्तीरागढ़ी नामक तीन बोलियाँ सम्मिलित हुईं। 

पश्चिमी हिन्दी - जो राजस्थानी, गुजराती तथा पंजाबी की भगिनी मानी गयी है अन्ततः शाखा से सम्बन्ध रखती है। वह नागर अपभ्रंश से विकसित हुई है। कन्नौजी, बुन्देली,भाषा तथा बांग्ला इसी शाखा में शामिल है। इसमें बज भाषा की सन्तोषपद साहित्यिक समूत्रति ही नहीं हुई प्रत्युत्त आधुनिक हिन्दी के प्रचलन तक उससे और अवधी, दो ही में हिन्दी का भाषा के परमविख्यात महाकवि प्रादुर्भूत हुए। शाम सार्थक हुआ। हिन्दी गगन के सूर्य और शशि ( सूर और तुलसी ) तथा अवधि और ब्रजभाषा के परम विख्यात महाकवि हुए।

दक्षिणी हिन्दीी - दक्षिण के वेदभ्री आदि अपभ्रंश से सम्पर्क रखती हुई, भारत के दक्षिण भाग में पालित हुई और उसका पोषण मुसलमानी शासन काल में दक्षिण में परिव्याप्त मुसलमानों के हाथो हुआ  आरम्भ में वह भाषा मुसलमानों द्वारा फारसी- अक्षरों में मध्य प्रदेश, बरार, बम्बई, हैदराबाद, कोचीन, कुर्ग, मैसूर और प्रावणकोर में वृद्धि पाती रही। 

उस दशा में उस पर उधर को अन्य प्रान्तीय भाषाओं की छाप पड़ी और उसके शब्द हिन्दी के शब्दों में आवश्यकतानुसार मिलते गये। कालान्तर में, हिन्दी की शाखाओं के एकीकरण की रुचि पैदा होने पर धीरे-धीरे हिन्दी के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाने लगा और उर्दू को स्वतन्त्र रूप मिलने के कारण उर्दू भाषियों की प्रवृत्ति फारसी की शैली और शब्दावली की ओर हुई तथा हिन्दी को वे उर्दू से भिन्न भाषा समझने लगे । वैसे भी हिन्दी का प्रचार दक्षिणी भारत में स्वतन्त्र और विशेष रूप में होता गया। 

हिन्दुस्थानी से अभिप्राय है, हिन्दी के उस रूप का, जो दोआब से दिल्ली तक की अपभ्रंश भाषा को देहली बाज़ार के तुर्को, पारसियों और अफग़ानों द्वारा आरम्भ में प्राप्त हुआ। वही रूप उर्दू का भी प्रारम्भिक रूप है किन्तु उस समय उसका जन्म किसी जाति अथवा धार्मिक दृष्टि से न होकर, आवश्यकतानुसार हुआ। उस भाषा में फारसी-अरबी के शब्दों का बाहुल्य न था और न हो संस्कृत के अत्यधिक शब्द थे। मुग़ल बादशाहों के समय में उसकी उन्नति पर्याप्त मात्रा में हुई। वैसे भी, हिन्दी-शैली एकमात्र उसी की शैली नहीं थी, न पीछे ही रही। इस कारण साहबों द्वारा कभी-कभी, जो भारत व्यापिनी आधुनिक हिन्दी को ' हिन्दुस्तानी ' नाम दिया जाता है अथवा जो लोग मीर अमान के बागो-बहार की भाषा के समान हिन्दी को रखने के लिए बताते हैं, वे वस्तुत: हिन्दी के स्वरूप और उसके शब्द भण्डार के वैशिष्ट्य पर ध्यान नहीं देते।

संसार की प्रत्येक भाषा का विकास जातीय उत्कर्ष के सदृश अपनी स्वतन्त्र गति रखता है, जो चेष्टा करने पर भी सदा के लिए स्थिर नहीं बनायी जा सकती। गाथा-काल, धम्म-काल और मध्य-काल से गुज़रती आधुनिक हिन्दी का रूप जिस प्रकार निर्मित हुआ है, उस पर प्रतिबन्ध डालने की कोई चेष्टा ऐसा करने का मनोरथ सिद्ध नहीं कर सकती क्योकि भाषा-संसार में प्रतिबन्ध से भाषा किसी एक निश्चित रूप में कभी रोकी नहीं जा सकती। हिन्दी में कोई संस्कृत के क्लिष्ट शब्द रखता है कोई उर्दू शब्दों का पुट देकर शैली को मनोहारी रूप देता है; कोई ठेठ बोली में भावों का व्यक्तीकरण अतिशय मोहक ढंग से करता है तथा कोई अंगरेज़ी फारसी उद्धरणों द्वारा ही शैली का कलेवर सुसज्जित करते पाया जाता है। 

उस समय से आज तक भारत में अनेक राजनीतिक परिवर्तन हुए और उनका प्रभाव भारतीयों के आचार विचार तथा सामाजिक जीवन पर पड़ता गया। भाषाओं में काल स्रोत ने अनेक परिवर्तन उपस्थित किये और उनका साहित्य उन बदलती हुई दशाओं से प्रभावित होता रहा। आधुनिक हिन्दी ने भी अब तक के जीवन में अनेक राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे और उसका अपनी मूल भाषाओं के अतिरिक्त मुसलमानों-अंगरेज़ों की भाषाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। ऐसी दशा में उस पर उन भाषाओं का केवल बाहरी नहीं, आन्तरिक प्रभाव भी पड़ा और उन भाषाओं शब्दों का हिंदी शब्द भंडार में प्रवेश हुआ । इस कारण हिन्दी में छ: प्रकार के शब्द पाये जाते हैं, जो नीचे दिये गये हैं: -

  • तत्सम
  • तद्भव
  • अनुकरणज 
  • अर्द्ध तत्सम
  • देशज
  • विदेशज तत्सम 

तत्सम शब्द -  संस्कृत के वे शब्द है, जो अपने वास्तविक रूप में हिन्दी में प्रचलित है; जैसे- पिता, माता, कवि, मनीषी, आज्ञा, लता, पति, वत्स, अग्नि, वायु आदि। 

अर्द्ध-तत्सम ' शब्द वे हैं, जो संस्कृत के शब्द होते हुए भी प्राकृत के प्रभाव अथवा उच्चारण से विकृत हो, कुछ और रूप के हो गये हैं जैसे- वत्स से वच्छ आज्ञा से अग्यां; अग्नि से अगिन, कार्य से कारज, रात्रि से रात; अक्षर से अच्छर; दैव से दई इत्यादि। जहाँ तक तद्भव शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, वे प्राकृत द्वारा संस्कृत से निकले हैं अथवा सीधे प्राकृत से हिन्दी भाषा में आये हैं; जैसे बच्चा, आग, काज, साँई, कान आदि। हिन्दी में प्रचलित मराठी, बाँग्ला, उड़िया आदि के शब्द भो इसी कोटि के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि वास्तव में, वे भी तत्सम, अर्द्ध-तत्सम अथवा तद्भव ही है।

देशज शब्द वे हैं, जिनकी व्युत्पत्ति का पता ही नहीं चलता और न उनका संस्कृत अथवा प्राकृत मूल जान पड़ता है। उनकी व्युत्पत्ति ठेठ बोलचाल की मिश्रित भाषाओं से सम्भव है। ऐसे शब्द भी हिन्दी में अनेक है; जैसे— खिड़की, ठेस, तेंदुआ, लकड़ी आदि। 

जो शब्द किसी पदार्थ की यथार्थ अथवा कल्पित ध्वनि की आकुलता में बने हैं, वे अनुकरण शब्द कहलाते हैं; जैसे - धम्म, सट, धक-धक, फक-फक्, फटर-फटर, चटर-चटर, पटर पटर कच् - कच् आदि। जो शब्द विदेशी भाषाओं के हैं और सम्पर्क - वश ठीक उसी रूप में अथवा बदली दशा में हिन्दी में व्यवहृत होने लगे हैं, वे विदेशी शब्द हैं। 

भारतीयों के बाहर जाने अथवा विदेशियों के भारत में आने से ऐसे शब्द भारतीय भाषाओं में प्रवेश पाते गये हैं तथा मुसलमानी और अँगरेज़ी शासन के कारण उनका समावेश भारतीय भाषाओं में सहज में हो गया है। हिन्दी भाषा में ऐसे शब्द अनेक है। वे फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेज़ी, फ्रेञ्च आदि से हिन्दी में आकर हिन्दी की ध्वनि और उसके उच्चारण के अनुसार रूप पाये गये हैं। उनमें कुछ शब्द तो इस प्रकार हिन्दी में प्रचलित हो गये हैं कि उनका विदेशीपन समझ में ही नहीं आता 

विदेशी शब्द हैं- अरबी के औरत, अदालत, तनख़्वाह, तारीख़, सिफ़ारिश, हाल आदि; तुर्की के कोतल, तोप, लाश इत्यादि; फारसी के आदमी, उम्मीदवार, ख़र्च, गुलाब, चश्मा, चाकू, दूकान, बाग, मोज़ा आदि; अंगरेजी के अपील, इंच, कोट, टिकट, नोटिस, डॉक्टर, डिगरी, फण्ड, रेल, समन, स्कूल, स्टेशन, हैट इत्यादि। 

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सन्धि

समास

उपसर्ग

प्रत्यय

संस्कृत के प्रमुख ' तद्धित ' प्रत्यय | tadhit suffix of Sanskrit

हिन्दी के प्रमुख ' तद्धित ' प्रत्यय |Hindi's main 'tadhit' suffix

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