Type Here to Get Search Results !

अतिथि: रवींद्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियां | अतिथि: रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी

अतिथि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानी:  रवीन्द्रनाथ ठाकुर( 7 मई सन 1861) बंगला साहित्य में कहानियों के प्रणेता माने जाते हैं। अतिथि कहानी इनकी श्रेष्ठ Kahaniyon में से एक है। और समालोचक इनकी कहानियों को अमर कीर्ति देनेवाली बताते हैं। यह Kahani Rabindra Babu कि Best Stories का संकलन है, जो कला, शिल्प, शब्द -सौन्दर्य, गठन-कौशल, भाव-पटुता, अभिव्यक्ति की सरसता आदि का बेजोड़ नमूना हैं।


विश्व के महान साहित्यकार Rabindranath Tagore ऐसे अग्रणी लेखक थे, जिन्हें नोबल जैसे पुरस्कार सम्मान से विभूषित किया गया। उनकी अनेक कृतियां प्रमुख भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित होकर चर्चित हुईं। तो आइये अतिथि रवींद्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियां | अतिथि रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 


Atithi Best Stories of Rabindranath Tagore ,रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानी,Best Stories of Rabindranath Tagore


अतिथि रवींद्रनाथ ठाकुर की श्रेष्ठ कहानियां | अतिथि रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 


कटहलिया के जमींदार मतिलाल बाबू अपनी नाव में परिवार के साथ कलकत्ता से अपने देहात जा रहे थे। रास्ते में दोपहर को एक मैदान के पास नाव रुकवाकर खाने-पीने का इन्तजाम कर रहे थे कि एक ब्राह्मण लड़के ने आकर पूछा ,“आप लोग कहां जा रहे हैं, बाबू साहब ? ” उसकी उम्र पन्द्रह-सोलह साल से अधिक न होगी। 


मति बाबू ने जवाब दिया,“कटहलिया।" 


ब्राह्मण बालक बोला,“मुझे रास्ते में नन्दीगांव उतार देंगे?" 


बाबू ने बात कबूल करते हुए पूछा,“तुम्हारा क्या नाम है? 


ब्राह्मण लड़के ने जवाब दिया,“तारापद।” 


लड़का देखने में सुन्दर और गोरा था,बड़ी-बड़ी आंखों और मुस्कान भरे होंठों से एक तरह की बड़ी खूबसूरत नजाकत जाहिर हो रही थी। देह पर एक मैली धोती के अलावा और कोई कपड़ा नहीं था। उसका उभरा हुआ बदन सभी तरह से सन्तुलित था, जैसे किसी कलाकार ने बड़ी मेहनत से सुन्दर और सुडौल बनाकर उसे सिरजा हो। जैसे वह पिछले जन्म में तप करनेवाला लड़का था और अब उस पवित्र तपस्या के असर से उसकी देह से विकार का बहुत-सा भाग खत्म होकर उसमें एक तरह का ब्राह्मण-श्री का तेज फूट उठा हो। 


Read More Kahani:-



मतिलाल बाबू बहुत नर्म होकर एवं स्नेह-भरे स्वर में बोले,"बेटा, अब तुम नहा लो। नहाने के बाद यहीं खाना खाना।"


तारापद ने कहा,“अच्छा!" फिर वह उसी वक्त बेझिझक भाव से रसोई के काम में लग गया। मतिलाल बाबू का नौकर पश्चिम का था। वह मछली वगैरह बनाने में उतना होशियार न था। तारापद ने झटपट उसका काम अपने हाथ में लेकर पूरा कर डाला तथा एक-दो सब्जी भी अपनी चतुरता दिखाते हुए बना डालीं। रसोई का काम खत्म करके वह नदी में नहा आया और अपनी गठरी से एक साफ धोती निकालकर पहिन ली। एक छोटा-सा लकड़ी का कंघा निकालकर उसने अपने लम्बे-लम्बे बालों को संवारकर आगे से पीछे की ओर कर लिया। इसके बाद साफ एवं शुद्ध जनेऊ को ठीक से छाती पर से लटकाकर,मतिलाल बाबू के पास आ खड़ा हुआ। 


मतिलाल बाबू उसे अपने साथ नाव में ले गए। वहां पर उनकी पत्नी और उनकी एक नौ साल की लड़की बैठी हुई थी। मतिलाल बाबू की स्त्री अन्नपूर्णा उस खूबसूरत बालक को देखते ही प्यार से उमगकर मन ही मन बोलीं,'न जाने किसका बच्चा है, कहां से आया है? इसकी मां इसे छोड़कर कैसे जिन्दा है?" 


ठीक वक्त पर मतिबाबू एवं उस लड़के के लिए पास-पास आसन और पीढ़े बिछाए गए। लड़का बहुत कम खाता था। उसको ऐसे खाते देखकर अन्नपूर्णा सोचने लगीं,'शायद शर्म से नहीं खा रहा है। इसलिए उन्होंने उससे और खाने के लिए बहुत जिद की, लेकिन जब वह खाना खत्म कर चुका तो फिर उसने कोई बात नहीं सुनी। देखने में आया कि लड़का सब काम अपनी मर्जी से ही करता है और ऐसे सहज स्वभाव से करता है कि उससे किसी तरह की जिद या बेअदबी जाहिर नहीं होती। उसके बरताव में झिझक का भी कोई रंग-ढंग देखने को नहीं मिला।


अन्नपूर्णा ने सबके खा-पी चुकने के बाद उसे अपने पास बैठा लिया। फिर उससे उसके जीवन का इतिहास पूछने लगीं। लेकिन उससे इस मामले में कुछ भी सुराग हाथ न आया। केवल इतना ही पता चला कि वह सात-आठ साल की उम्र में ही अपनी मर्जी से घर छोड़कर चला आया है।


अन्नपूर्णा ने पूछा,“तुम्हारे मां-बाप नहीं हैं?” 


तारापद ने कहा,"हैं।" 


अन्नपूर्णा ने पूछा,“वे तुम्हें प्यार नहीं करते?" 


तारापद इस सवाल को बेकार समझकर हंस दिया। बोला,“क्यों, प्यार क्यों नहीं करेंगे?" 


अन्नपूर्णा ने पूछा,"तो फिर तुम इस तरह उन्हें छोड़कर क्यों चले आए?" 


तारापद ने जवाब दिया,“उनके यहां मेरे अलावा और भी चार लड़के तथा तीन लड़कियां हैं।" 


अन्नपूर्णा तारापद के इस जवाब से दुखी होकर बोलीं,"यह कैसी बात? पांच उंगलियों में से एक उंगली को भी कोई अलग कर सकता है?" 


तारापद की उम्र कम है, उसी तरह उसकी कहानी भी छोटी-सी है, लेकिन वह अजीब लड़का है। वह अपने मां-बाप का चौथा लड़का है। उसके पिता का उसके बचपन में ही निधन हो गया था। घर में बहुत सारे बच्चे होने पर भी तारापद की पूछ थी और सब लोग उसे लाड़-प्यार भी करते थे। मोहल्ले के लोग और भाई-बहन भी उससे प्यार करते थे। यहां तक कि स्कूल में अध्यापक भी उसे मारते-पीटते नहीं थे। यदि कभी पीट भी देते तो उसके घर छोड़ने की कोई खास वजह नहीं थी। जो उपेक्षित बीमार लड़के हैं, जो हमेशा चोरी से पेड़ों के फल और गृहस्थों से अपने हक का चौगुना वसूल करते फिरते हैं, वे भी अपने जाने-पहचाने कस्बे की सीमा के अन्दर अपनी परेशान मां के नजदीक पड़े रहते हैं, और जिसे पूरा गांव प्यार करता हो वह लड़का एक दूसरे देश की नाटक-मंडली के साथ मिलकर बिना किसी डर के गांव छोड़कर चला आया था। 


सब लोग ढूंढ़कर उसे फिर गांव में ले आए थे। माता ने उसे अपनी छाती से लगाते हुए रो-रोकर उसे आंसुओं से गीला कर दिया था, उसकी बहनें बहुत देर तक रोती रही थीं और बड़े भाई ने एक अभिभावक की सख्त जिम्मेदारी को निभाते हुए उसे मीठी-मीठी फटकार देकर, आखिर में बहुत ही खुश मन से पहला इनाम दिया था। मोहल्ले की औरतों ने उसे अपने मकान पर बुलाकर, बहुत प्यार और कई तरह के लालच दिखाकर, अपने ही गांव में रहने के लिए आग्रह किया था। फिर भी बन्धन ही नहीं, प्यार एवं स्नेह का बन्धन भी उसे बरदाश्त नहीं हो सका। जन्म के नक्षत्र ने उसे घर से अलग ही कर दिया था। 


जब कभी वह देखता कि नहर में यात्री नौका जा रही है, या बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे दूर देश के साधु महाराज टिके हुए हैं या बनजारे नहर के पासवाले खुले मैदान में छोटी-छोटी लकड़ियों को छीलकर टोकरियां बना रहे हैं, तभी किसी अनहोनी प्रेरणा के अधीन होकर धरती की रूखी-सूखी आजादी के लिए उसका मन रोने लगता था। दो-तीन बार गांव से बाहर भागने के बाद भी फिर चौथी बार भागने को निकल पड़ा। तब उसके घरवाले ही नहीं, गांववाले भी, उसके गांव में रहने की उम्मीद छोड़कर चुप बैठ गए। 


पहले उसने जिस नाटक-मंडली का साथ पकड़ा था, उसके अध्यक्ष तक उसे बेटे जैसा प्यार करते थे तथा मंडली के बड़े तथा छोटे सभी लोगों का वह प्यारा हो उठा था। जब कभी किसी भी जगह कोई खास खेल होता तो उस मकान के मालिक और खासकर मालकिनें उसे खासतौर से अपने नजदीक बुलाकर उसकी खातिर करने लगती थीं।लेकिन वह चुपचाप एक दिन किसी से कुछ कहे-सुने बगैर ही गायब हो गया। किसी को पता तक न चला। 


तारापद हिरनी के बच्चे के समान संगीत-प्रेमी तथा हिरनी के जैसा स्वच्छन्द मन का है। नाटक के गीतों ने उसे घर से अलग रहनेवाला बना दिया था। गीतों की आवाज ने उसकी सारी नसों में थिरकन और ताल ने उसके पूरे शरीर में हरकत पैदा कर दी थी। जब वह छोटा बच्चा था, तब उसे संगीत-सभा में युवकों की भांति जमकर बैठे तथा गम्भीरतापूर्वक झूमते देखकर हंसी नहीं रुकती थी। 


केवल संगीत ही नहीं, बल्कि पेड़ों के पत्तों पर जब बारिश होती, आसमान में जब बादल गरजने लगते और जंगल में बिना मां के शिशु की तरह जब हवा रोती रहती, तब भी उसका मन बेकाबू हो उठता था। दोपहरी में दूर आसमान में चीलों का चीखना, बारिशवाली शाम को मेंढकों का टर्राना तथा अंधेरी रात में गीदड़ों का शोर मचाना-सभी बातें उसे बेचैन बना देती थीं। वह इस संगीत के मोह से खिंचकर एक संगीत-मंडली में शामिल हो गया था। मंडली प्रधान ने उसे बड़ी मेहनत से गाना सिखाया था और दिल के पिंजरे में बसनेवाली चिड़िया की तरह उसे चाहने भी लगा था। चिड़िया ने कुछ-कुछ गाना सीखा भी, लेकिन एक दिन सवेरा होते ही वह उड़कर चली गई। 


आखिरी बार एक नटों की मंडली में शामिल हुआ। जेठ से लेकर आषाढ़ के आखिर तक इस प्रान्त में मेले लगा करते हैं। तब नाटक, यात्रा-गान, लोक-गीत, नटों का खेल, नाचनेवालियों के नाच वगैरह तरह-तरह के खेल हुआ करते हैं। यह खेल दिखानेवाले नावों में इधर से उधर आते-जाते रहते हैं; पिछले साल ऐसा ही एक नटों का दल नाव में घूमधाम रहा था, जिसके साथ तारापद भी था। 


इस दल को छोड़कर उसका भागना आखिरी भागना था। जब उसने सुना कि नन्दीगांव के जमींदार एक बहुत बड़े जलसे के लिए अच्छी नाटक-मंडली बना रहे हैं, तो वह झटपट अपनी गठरी बांधकर नन्दीगांव को तैयार हो गया था और नाव के इन्तजार में नदी के किनारे चहलकदमी करने लगा था। तभी उसकी भेंट मतिबाबू से हो गई थी।


तारापद एक-एक कर कई मंडलियों में रहने के बावजूद सहज कल्पनाशील मन के आलस से किसी भी एक मंडली में उभर न सका। वह मन में बिलकुल अलग-थलग और आजाद तबीयत का आदमी था। उसने दुनिया की बहुत-सी बुरी बातें सुनी थीं और बहुत से बुरे-बुरे नजारे भी देखे थे। लेकिन वे उसके हृदय में पल-भर के लिए भी जगह नहीं पा सके थे। उसके मन को और बन्धनों की तरह किसी तरह की किसी आदत की पकड़ भी काबू न रख सकी। असल में वह इस दुनिया के पंकिल जल में हमेशा स्वच्छ पंख राजहंस की भांति तैरता रहा है। जब-जब उसने डुबकी लगाई, तब-तब उसके पंख न तो भीगे ही और न मैले हुए। इसलिए घर छोड़नेवाले इस लड़के के चेहरे पर हमेशा एक प्रकार का साफ-सही यौवन का दमकता रूप बना ही रहा है। यही वजह है कि उसके उस जवान चेहरे को देखकर बुद्धिमान मतिबाबू भी मोहित हो गए और बिना शक-सन्देह के उसे अपना लिया। 


Read More Kahani:-



खाना खा लेने के बाद नाव फिर खोल दी गई। अन्नपूर्णा उस ब्राह्मण लड़के से बड़े प्यार से उसके घर-परिवार के लोगों की बातें पूछने लगीं। तारापद ने उनकी सब बातों को थोड़े में जवाब देने के बाद बाहर आकर छुटकारा पाया। बाहर बरसाती नदी पूरी तरह भरी हुई थी। एक तरह से उसने अपनी चंचलता से प्रकृति मां को परेशान कर रखा था। नदी के किनारे पानी में आधी डूबती हुई कांस की कतारें, खुले आसमान की धूप और उसके ऊपर ईख के घने खेत, और उससे ऊपर क्षितिज को छूती नीले रंग की वन रेखा जैसे किसी एक रूप-कथा की जादू की लकड़ी की छुअन से पैदा हुई सुन्दरता के समान शान्त नीले आसमान की अपलक नजरों के सामने लहरा उठी थी। चारों ओर का नजारा जैसे सजीव, कम्पनयुक्त, पहले प्रकाश से जगमगाकर नवीनता से चिकना-चिकना एवं अधिकता से पूरी तरह भर उठा था। 


नाव की छत पर पाल की छाया के नीचे तारापद आकर बैठ गया। हरे-भरे ढालू मैदान पाट के पानी से भरे हुए थे। धान के हरे-भरे, खेत घाट से गांव की ओर जानेवाले तंग रास्ते एवं छायादार घने पेड़ों से घिरे हुए गांव बारी-बारी से उसकी आंखों में आ आकर बढ़ने लगे। जल-थल और आसमान के चारों ओर की जीवन्तता और वाचालता, ऊपर और नीचे के अस्तित्व और मुक्त सुन्दरता, विशाल और चिरस्थायी, चुपचाप एकटक देखता संसार उस जवान लड़के के परम मित्र थे। 


तब भी वे इस मानवपुत्र को पल-भर के लिए भी अपनी प्रेम की जकड़ में बांधने की कोशिश नहीं करते थे; नदी के किनारे एक बछड़ा अपनी पूंछ उठाए दौड़ रहा है। गांव का एक घोड़ा, जिसके पैर बंधे हुए हैं, उछल-उछलकर घास खा रहा है। जल-मुर्गी मछुओं की जालवाली खूंटी से पानी में कूदकर,मछली पकड़ने की कोशिश कर रही है।गांव के लड़के पानी में कई तरह से ऊधम मचा रहे हैं। औरतें कमर तक पानी में नहाती हुई आपस में इस-हंसकर बातें कर रही हैं। इन सब नजारों को वह जैसे पहली बार और बहुत कौतूहल से बैठा हुआ देख रहा है। उसकी आंखों की प्यास किसी भी तरह नहीं मिट पा रही थी। 


नाव की छत पर जाकर तारापद ने धीरे-धीरे डांड चलानेवाले माझियों के साथ गप्पें लड़ाना शुरू कर दिया। बीच-बीच में जब कभी जरूरत होती, तब वह मल्लाहों के हाथों से लग्गी लेकर खेलना शुरू कर देता। जब किसी मांझी को तम्बाकू पीने की जरूरत होती, तो वह उसका डांड थाम लेता और जिस ओर घुमाना चाहिए, उसे होशियारी से घुमाने लगता। 


शाम होने से पहले अन्नपूर्णा ने तारापद को बुलाकर कहा, "तुम रात के वक्त क्या खाते हो?" 


तारापद बोला, "जो मिल जाता है, वही खा लेता हूं। अगर किसी दिन नहीं भी मिलता, तो यों ही रह जाता हूं।" 


उस सुन्दर ब्राह्मण लड़के की ओर से मेहमानी कबूल करने की इस उदासीनता को देखकर अन्नपूर्णा को मन-ही-मन कुछ तकलीफ हुई। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे घर से भाग निकले हुए इस लड़के को कुछ खिला-पिलाकर सन्तुष्ट कर दें। लेकिन वह किस तरह सन्तुष्ट होगा, बात समझ में ही नहीं आती थी। नाव को किनारे लगवाकर अन्नपूर्णा ने नौकर द्वारा गांव से दूध, दही तथा मीठा मंगाने के लिए हो-हल्ला मचा दिया। तारापद ने पेट भरकर खाना खाया, लेकिन दूध को हाथ भी नहीं लगाया। चुपचाप रहनेवाले मतिबाबू ने भी उससे दूध पी लेने का आग्रह किया लेकिन उसे उनका आग्रह कबूल नहीं हुआ। वह कहने लगा, “दूध मुझे अच्छा नहीं लगता।” 


नदी के ऊपर ही दो-तीन दिन बीत गए। रसोई बनाने से लेकर नाव चलाने तक के सभी कार्यों में तारापद अपनी इच्छा और मुस्तैदी के साथ भाग लेता रहा। उसकी आंखों के सामने जो भी नजारा आता, उसकी अचरज-भरी दृष्टि तुरन्त उस ओर खिंच जाती थी तथा उसके सामने जो भी काम दिखाई पड़ता, उसे वह बहुत दिलचस्पी के साथ करने लगता था। उसकी दृष्टि, उसका मन तथा उसके हाथ-पांव हर वक्त चलते ही रहते थे। वह निरन्तर गतिशील प्रकृति की भांति हमेशा निश्चिन्त उदासीन और साथ-ही-साथ कुछ-न-कुछ करता रहता था। हरेक आदमी की अपनी एक स्वतन्त्र विचार-भूमि होती है, लेकिन इस नीलाम्बरवाही विश्वप्रवाह और आनन्दपूर्ण लहर की तरह तारापद का जैसे भूत-भविष्य के साथ किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने सामने की ओर चलते जाना ही उसका एकमात्र कार्य है। 


उसने इधर बहुत दिनों तक अनेक बिरादरियों में घुलमिलकर हर तरह की दिल बहलानेवाली विद्याएं पा ली थीं। बेफिक्र होने के कारण उसके साफ-स्वच्छन्द मन पर सभी बातें अद्भुत सरलता से अंकित हो जाती थीं। पांचाली, गीत, कथाएं, कीर्तन, गान, यात्रा तथा नाटक के लम्बे-लम्बे कथोपकथन उसे याद हो गए थे। एक दिन शाम को मतिलाल बाबू हमेशा की तरह अपनी पत्नी तथा लड़की को रामायण पढ़कर सुना रहे थे। अभी लव और कुश की कथा शुरू हुई थी कि तारापद अपने उत्साह भरे जोश को किसी तरह नहीं रोक सका। वह नाव की छत से भीतर आकर बोला, "आप पुस्तक खोल लीजिए, मैं लव-कुश का गीत गाता हूं। आप लोग उसे सुनिए।" 


यह कहकर उसने पांचाली गाना शुरू कर दिया। बांसुरी से मीठे एवं भरे-भरे स्वर में वह दासुराय की तुकबन्दियों की तड़ातड़ बारिश करने लगा। सब मांझी दरवाजे के पास आकर झुक गए थे। उस शाम नदी के किनारे पर हास्य, करुणा और संगीत का एक अनोखा रस-भरा सोता बहने लगा  दोनों ही किनारे उत्सुकता से भर गए। बगल से दो नावें आ रही थीं, उनके यात्री जरा देर के लिए कान खड़े कर गर्दन उठाकर इसी और कान लगाए रहे और जब यह गीत खत्म हुआ तो सब लोग खुश मन से सोचने लगे, 'ओह, यह सब जल्दी खत्म हो गया।' 


अन्नपूर्णा की आंखें पानी से भर उठी थीं। वे चाहने लगी कि वे बच्चे को अपनी गोद में बैठाकर तथा छाती से लगाकर खूब प्यार करें। मतिलाल बाबू विचार करने लगे, 'यदि किसी प्रकार मैं इस बच्चे को अपने पास रखूं तो अपने पुत्र का अभाव दूर हो जाए। केवल नन्हीं लड़की चारुशशि के मन में ही डाह और जलन पैदा हो गई थी।


चारुशशि अपने माता-पिता की अकेली औलाद थी और प्यार-दुलार की एकमात्र अधिकारिणी थी। उसकी इच्छा और जिद का कोई अन्त नहीं था। खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने तथा तरह-तरह के बाल बनाने में उसकी अपनी रुचि थी, लेकिन उसकी कोई भी एक राय मन में टिकी हुई नहीं थी। जिस दिन उसको कहीं बुलावे पर जाना होता, उस दिन उसकी मां को बराबर यही डर लगा रहता कि न जाने लड़की आज पहनने-ओढ़ने के बारे में क्या जिद पकड़ बैठे। अगर संयोग से किसी तरह उसके मन मुताबिक बाल नहीं बंधे तो फिर उस दिन उन्हें चाहे जितनी बार खोलकर तरह-तरह से क्यों न बांधा जाए, वे उसे पसन्द ही नहीं आते थे। जब चाहती, तभी रोना शुरू कर देती थी। सभी बातों में उसका यही हाल था। जब कभी उसका मन खुश रहता तब उसे किसी बात को मानने में किसी तरह का कोई ऐतराज नहीं होता। तब वह अपनी मां से लिपटकर बहुत-बहुत लाड़ जताती हुई बातें करती और इन्हें बहुत परेशान कर डालती थी। असल में, यह छोटी-सी लड़की एक मुश्किल पहेली थी। 


वह लड़की अपने आजाद दिल के पूरे जोर का इस्तेमाल करके मन-ही-मन तारापद को कोसने और मारने लगी।उसने माता-पिता को भी हर तरह से परेशान कर डाला। घर की नौकरानियों को पीटने लगी। खाते वक्त रूठकर थाली फेंक देती। सभी बातों में बेमतलब शिकायत कर रो बैठती। तारापद की विद्याएं अन्य सब लोगों का जितना मन बहलाव करतीं, उतना ही ज्यादा उसका गुस्सा बढ़ने लगता। चारुशशि को यह मानना ठीक नहीं लगता था कि तारापद में कोई गुण है। ज्यों-ज्यों तारापद के गुणों का सबूत मिलता गया त्यों-त्यों उसके मन का क्षोभ बढ़ता चला गया। जिस दिन तारापद ने लव-कुश का गीत गाया था, उस दिन अन्नपूर्णा ने मन में यह विचार किया था कि संगीत में जंगल के जानवरों को भी काबू में कर लेने की ताकत होती है, उसे सुनकर शायद आज मेरी लड़की का मन भी पिघल गया। 


यही विचार कर उन्होंने चारुशशि से पूछा था, “क्यों बिटिया! तुम्हें यह गाना कैसा लगा?" उनकी बात सुनकर चारु ने कोई स्पष्ट उत्तर न देकर जोर से अपना सिर हिला दिया। यदि उसके सिर हिलाने का भाषा में अनुवाद किया जाए तो निश्चित रूप से यही मालूम होगा कि उसे वह संगीत न तो तनिक भी अच्छा लगा था और न कभी लग ही सकता है। 


अन्नपूर्णा इस बात को समझ गई थी। चारुशशि के मन में तारापद के लिए जलन पैदा हो गई है। इसीलिए उन्होंने उसके सामने तारापद के लिए प्रेम दिखाना छोड़ दिया। रात होते ही जब चारुशशि खा-पीकर जल्दी सो जाती, तब अन्नपूर्णा दरवाजे के पास आकर बैठ जाती और मतिबाबू तथा तारापद बाहर बैठ जाते। उस समय अन्नपूर्णा के कहने से तारापद अपना गाना शुरू करता। तब उसके गीत से नदी के किनारे की आराम करनेवालियों की सुन्दर छवि शाम के घने अंधेरे में मुग्धता और कोमलता बिखेरने लगती। अन्नपूर्णा का कोमल हृदय प्यार और सौन्दर्य से सराबोर हो उठता, उसी समय चारुशशि अचानक ही अपने बिस्तर से उठकर जल्दी-जल्दी वहां आ धमकती और बहुत गुस्से में भरकर कहती, "इस हो-हल्ले की वजह से मेरी नींद उचट जाती है। तुम मुझे सोने भी दोगे या नहीं?" माता-पिता उसे अकेली सोने के लिए भेजकर, तारापद को घेरकर संगीत का आनन्द उठाते हैं, यह उसे बरदाश्त नहीं होता था। 


तारापद को इस दमकती काली आंखोंवाली लड़की का स्वाभाविक तीखापन बहुत आश्चर्यजनक लगता। वह चारु को कहानी सुनाकर, गीत गाकर एवं बांसुरी बजाकर तरह-तरह से मनाने की कोशिश करने लगा, लेकिन वह किसी तरह भी कामयाब नहीं हुआ। केवल दोपहर को नदी में नहाते समय तारापद का गोरा शरीर जब गहरे पानी में बहुत आराम से हरकत करता रहता, तब चारु को ऐसा लगता था, जैसे कोई जवान जल-देवता क्रीड़ा कर रहा हो, और केवल यही समय ऐसा होता है, जब उसका मन तारापद की ओर खिंचे बिना नहीं रहता था। वह इस समय का इन्तजार बराबर करती रहती थी। जब तारापद नदी में कूदकर तैरने लगता, वह सभी ओर से ध्यान हटाकर ऊनी गुलूबन्द बुनते-बुनते बीच-बीच में बहुत लापरवाही से उसका तैरना दबी आंखों से देखा करती थी। 


नन्दीग्राम कब निकल गया, तारापद को इसका पता ही नहीं चला। वह बड़ी नाव कभी पाल तानकर और कभी रस्से से खींचकर धीमी गति में अनेकों नदियों की शाखा-उपशाखाओं में होकर चलने लगी। नाव के मुसाफिरों के दिन भी इन नदी उपनदी के समान ही हैं, जो सहज सौन्दर्य और विचित्रता में से सहज सम्पूर्ण चाल से कल-कल सुर में बह रहे हैं और जिसमें किसी तरह से भी कोई जल्दी नहीं है। दोपहर को नहाने और खाने में काफी वक्त बीत जाता था। फिर शाम होने से पहले ही किसी बड़े गांव अथवा घाट के किनारे झींगुरों के स्वर और जुगनुओं की जगमगाहट-भरे जंगल के नजदीक नाव को बांध दिया जाता था। 


इस प्रकार दसवें दिन नाव कटहलियां जा पहुंची। जमींदार के आने की खबर पाकर उसके घर से पालकी तथा घोड़े भेजे गए। लाठीधारी-बन्दूकधारी सिपाही तथा प्यादों ने आकर बारम्बार बन्दूक की आवाज करके समाज में जरूरत से ज्यादा चहल-पहल ला दी। 


इस सब समारोह में जितनी देर होने की थी, उस बीच में तारापद नाव से उतरकर एक बार जल्दी-जल्दी सारे गांव में घूम आया। दो-तीन घंटे के भीतर ही उसने किसी को भाई साहब, किसी को चाचा, किसी को जीजी और किसी को मौसी कहकर गांव-भर में मेल कर लिया। उसके लिए कहीं भी कोई रोक-टोक नहीं थी, इसीलिए वह इतनी जल्दी सबसे जान-पहचान कर लेता था। देखते-देखते कुछ ही दिनों में उस गांव के ज्यादातर लोगों के दिल पर उसने अपना कब्जा जमा लिया। 


इतनी आसानी से सबका दिल जीतने का कारण यह था कि तारापद सभी के साथ बराबरी से पेश आता था। वह किसी भी तरह के विशेष संस्कार में बंधा हुआ न था। सभी हालात में, सभी कामों के लिए उसमें एक तरह का कुदरती झुकाव था। बच्चों में वह पूरी तरह स्वाभाविक बच्चा था, लेकिन उनसे बेहतर एक स्वतन्त्र था। बूढ़ों में यदि बड़ा-बूढ़ा नहीं तो निरा बच्चा भी न था। चरवाहों के साथ वह चरवाहा था, लेकिन उसका ब्राह्मणत्व उससे अलग नहीं होता था। वह सबके कामों में सदा के सहयोगी की तरह, जानकार की तरह दखल दे सकता था। जब वह हलवाई की दुकान में गप्पे लड़ाने बैठ जाता तो हलवाई उससे यह कहकर अपना कार्य पूरा कराने के लिए बेझिझक चला जाता था, “पंडित भाई, तुम जरा यहीं बैठे रहना। 


मैं अभी आता हूं। "जब वह चला जाता तो तारापद चेहरे पर शिकन लाए बिना दुकान पर बैठा हुआ, बड़े मजे से पत्तलों के सहारे मक्खियां उड़ाया करता था। मिठाई बनाने में वह बहुत होशियार है। बुनाई के काम में भी अनजान नहीं है। और कुम्हार का चाक चलाने में भी वह अनाड़ी नहीं है। 


तारापद ने पूरे गांव को अपने वश में कर लिया, लेकिन गांव की एक लड़की की ईर्ष्या पर अभी तक जीत हासिल नहीं कर सका। शायद यह जानकर ही कि लड़की उसे गांव से बहुत दूर निकाल फेंकने की इच्छा रखती है, वह इतने दिनों तक इस गांव में टिक रहा था। 


लेकिन चारुशशि ने इस बात का श्रेष्ठतम प्रमाण उसके सामने हाजिर कर दिया कि स्त्री के मन के रहस्य का उसकी बचपन की उम्र में भी भेद करना बहुत कठिन होता है। 


ब्राह्मण महाराज की लड़की सोनामणि पांच वर्ष की आयु में विधवा हो गई थी। वह चारु की हमउम्र और सखी थी। तबीयत ठीक न होने के कारण वह कलकत्ते से आई हुई अपनी सहेली से कुछ दिन नहीं मिल सकी। जिस दिन वह स्वस्थ होकर मिलने के लिए आई, उस दिन बिना किसी वजह के ही उन दोनों सखियों में कुछ मनमुटाव-सा हो गया। 


चारुशशि ने एक बड़ी भूमिका बांधकर कहानी की शुरुआत की। उसने सोचा था कि यह तारापद नामक बाल-रत्न के हरण की कहानी पूरे ब्यौरे के साथ सुनाकर अपनी सखी की उत्सुकता और कौतूहल को आखिरी सिरे पर चढ़ा देगी। लेकिन जब उसे यह मालूम हुआ कि तारापद सोनामणि के लिए अनजाना नहीं है और वह उसकी माता को मौसी कहता है, और सोनामणि उसे 'भैया' कहकर पुकारती है और यह कि तारापद ने सोनामणि तथा उसकी मां को केवल बांसुरी बजाकर ही नहीं सुनाई, बल्कि उसके कहने पर उसने उसके लिए भी अपने हाथ से बांसुरी बनाकर दे दी है। इसी तरह कितनी ही बार ऊंची डाली पर से फल तथा कांटेवाली टहनी पर से फूल तोड़कर भी दिए हैं, तब चारुशशि के मन में एक दबा हुआ शूल-सा बिंध गया। 


चारु यह समझती थी कि तारापद केवल उन्हीं लोगों का तारापद है। वह बहुत छिपे-छिपे तौर पर उसकी संरक्षिका है। बाहरवाले उसकी थोड़ी-बहुत आहट भले ही पा लें, लेकिन वे उसके पास नहीं पहुंच सकते और जो लोग दूर रहकर उसके रूप-गुण पर लट्टू हैं, वे चारु को धन्यवाद दिए बिना न रहेंगे। लेकिन इस समय चारुशशि यह सोच रही थी कि ऐसा अद्भुत, दुर्लभ और दैवी ब्राह्मण बालक सोनामणि को कैसे सहज ही ऐसे मिल गया। अगर हम लोग इसे ऐसे ध्यान से न लाते, सहेज न रखते तो सोनामणि उसे कहां से देख पाती? वह सोनामणि का भैया है, यह सुनकर तो पूरी देह में आग सी लग जाती है। जिस तरह तारापद के लिए चारुशशि मन-ही-मन जलन रखती थी और उसकी बिगाड़ करने की कोशिश में लगी रहती थी, उसी के एकाधिकार को लेकर मन में ऐसी बेचैनी क्यों हुई, इस रहस्य को भला कौन जान सकता है? 


उस दिन इसी मासूम-सी बात पर सोनामणि के साथ चारु की अनबन हो गई और तभी वह तारापद की कोठरी में जाकर उसकी प्रिय बांसुरी को निकालकर, उस पर छलांग लगाती हुई, बेरहमी से उसे तोड़ने तथा कुचलने की कोशिश करने लगी। 


जिस समय चारुशशि पर्याप्त जोश से उस बांसुरी को तोड़ने लगी थी, ठीक तभी तारापद कहीं से अपनी कोठरी के अन्दर आया। वह लड़की की इस भयानक छवि को देखकर दंग रह गया। बोला, “चारु, मेरी बांसुरी को इस तरह क्यों तोड़ रही हो?" यह सुनकर तोडूंगी, फिर तोडूंगी, कहती हुई चारु उस पर दो-चार लात जमाकर हांफती और रोती हुई कोठरी से निकलकर बाहर भाग गई। तारापद ने बांसुरी को उलट-पलटकर देखा कि उसमें अब कुछ जान नहीं रही है। वह इस निर्दोष और पुरानी बांसुरी की ऐसी गत देखकर अपनी हंसी न रोक सका। दिन-प्रतिदिन चारु उसके लिए ज्यादा-से-ज्यादा उत्सुकता का विषय बनती जा रही थी। 


तारापद के लिए वे तस्वीरोंवाली किताबें, जो मतिलाल बाबू के पुस्तकालय में रखी थीं, एक और उत्सुकता की चीज थीं। वह बाहरी दुनिया का तो काफी जानकार हो चुका है, लेकिन तस्वीरों की दुनिया में किसी तरह भी दाखिल नहीं हो पा रहा है। अपने मन में कल्पना द्वारा बहुत कुछ पूरा कर लिया करता है, लेकिन उससे मन की अतृप्ति नहीं मिट पाती। 


एक दिन मतिलाल बाबू ने तारापद का तस्वीरोंवाली किताबों से लगाव देखकर कहा, "अंग्रेजी पढ़ोगे तभी उन सब तस्वीरों का मतलब समझ सकोगे।" तारापद तुरन्त बोल उठा, “पढूंगा।" 


मति बाबू को यह सुनकर बहुत खुशी हुई। उन्होंने तुरन्त स्कूल के हेडमास्टर रामरतन बाबू को बुलाकर शाम को रोज तारापद को अंग्रेजी पढ़ाने का भार सौंप दिया। 


तारापद अपने तेज हाफिजे और बेहद उत्साह के साथ अंग्रेजी पढ़ने में जुट गया। जैसे वह पुरानी दुनिया से अपना वास्ता तोड़ करके किसी नए दुर्गम राज्य में घूमने निकला हो। अब उसे मोहल्ले के लोग  देख ही नहीं पाते थे। शाम को जब वह नदी किनारे अकेले में जल्दी-जल्दी टहलता हुआ पाठ याद करता है, तब उसको चाहनेवाले बच्चे दूर से ही आदर के साथ उसका यह काम देखते रहते हैं, उसकी पढ़ाई में बाधा डालने की हिम्मत नहीं करते। 


चारु भी अब उसे कम ही देख पाती थी। तारापद पहले अन्दर जाकर अन्नपूर्णा की स्नेह की दृष्टि-छाया में बैठकर खाना खाता था, लेकिन इसमें कभी-कभी उसे देर हो जाया करती थी। इस कारण उसने मतिबाबू से कहकर अपने खाने का इन्तजाम बाहर ही करा लिया। अन्नपूर्णा ने इस पर दुखी होकर एतराज किया, लेकिन मति बाबू ने तारापद की पढ़ाई के उत्साह से खुश होकर, इस नए इन्तजाम में छेड़छाड़ करना ठीक नहीं समझा। चारु भी एक दिन अंग्रेजी सीखने की जिद कर बैठी। पहले तो उसके मां-बाप ने अपनी जिद्दी लड़की की इस पेशकश को मजाक की बात समझकर प्यार से हंसी में उड़ा दिया, लेकिन जब चारु ने उस पेशकश के मजाकवाले हिस्से को रो-रोकर आंसुओं से धोकर साफ कर दिया, तब लाचार होकर उन्हें उसके गम्भीर भाव को कबूल करना पड़ा। चारु भी उन्हीं हेडमास्टर के पास तारापद के साथ ही पढ़ने लगी। 


लेकिन इस शोख लड़की के लिए पढ़ना-लिखना स्वाभाविक नहीं था। उसने खुद तो कुछ सीखा नहीं, उलटे तारापद की पढ़ाई में भी रोड़े अटकाने लगी। वह पढ़ाई में पीछे रह जाती; अपना सबक याद नहीं कर पाती, फिर भी तारापद से किसी भी तरह पीछे नहीं रहना चाहती थी। अगर तारापद उसे छोड़कर नया सबक पढ़ना चाहता तो वह गुस्सा हो उठती थी, यहां तक कि रोना शुरू कर देती थी। तारापद पुरानी किताब खत्म करके नई लाता तो उसके लिए भी नई किताब खरीदनी पड़ती। छुट्टी के वक्त तारापद अपने कमरे में बैठा लिखता और सबक याद किया करता था, यह भी उसे जलन के मारे सहन नहीं होता था। वह छिपकर उस कमरे में जाती और कापी पर स्याही फैलाकर कलम छिपा देती। यहां तक कि उसके पढ़ने की किताब के पन्ने भी फाड़ आती। तारापद इस लड़की की तोड़फोड़ को अचरज के साथ सहन करता, परन्तु कभी-कभी बरदाश्त से बाहर होने पर मार भी बैठता था। फिर भी वह उसे काबू में न ला सका। 


अचानक एक दिन रास्ता निकल आया। तारापद बहुत गुस्सा करके और निराश होकर अपनी स्याही पड़ी कापी को फाड़-फूड़कर चुपचाप बैठा था। दरवाजे के पास आते ही चारु समझ गई कि आज उस पर मार पड़ेगी, लेकिन उसकी आशा की पूर्ति न हुई। तारापद उससे कुछ न कहकर, उसी तरह चुपचाप बैठा रहा। लड़की कमरे के अन्दर और बाहर इधर से उधर घूमती-फिरती रही। बार-बार उसके इतने पास पहुंच जाती थी कि अगर तारापद चाहता तो बड़ी आसानी से उसकी पीठ पर थप्पड़ जमा सकता था। लेकिन ऐसा न करके तारापद चुपचाप ही बैठा रहा । इससे चारु को बड़ा अचरच हुआ। 


उसने जिन्दगी में यह कभी महसूस नहीं किया था कि माफी कैसे मांगी जाती है। लेकिन उसका छोटा-सा बेचैन दिल अपने सहपाठी से माफी मांगने के लिए बार-बार कहने लगा। आखिर में कोई और चारा न देखकर उसने फटी हुई कापी का एक टुकड़ा उठाकर उस पर लिखा, 'मैं अब तुम्हारी कापी पर कभी स्याही नहीं डालूंगी।' यह लिखकर वह उस पर तारापद की दृष्टि खींचने के लिए कई तरह से कोशिश करने लगी। यह देखकर तारापद अपनी हंसी न रोक सका। चारु तब शर्म और गुस्से के मारे पागल-सी हो उठी और जल्दी ही कमरे से बाहर भाग गई। असल में जिस कागज के टुकड़े पर उसने अपने हाथ से जो भाव जाहिर किए हैं, उसे अन्तिम दशा में पहुंचाकर इस अपार संसार से गायब करने के बाद ही उसके दिल को चैन मिल सकता था। 


इधर शर्मीली सोनामणि दो-एक दिन पढ़ाईवाले कमरे में बाहर से झांक-झांककर चली गई है। उसकी सहेली चारुशशि के साथ उसका और सभी बातों में वह विशेष प्यार बरकरार था, लेकिन तारापद के बारे में वह चारु को बहुत डर-डरकर और प्यार भरी नजरों से देखने लगी थी। जब चारु अन्दरवाले मकान में रहती, तब सोनामणि बहुत झिझकते हुए तारापद के पास आकर खड़ी हो जाती। तारापद अपनी किताब से नजर उठाकर, प्यार से पूछता, "क्यों सोना, क्या खबर है? मौसी तो ठीकठाक हैं न?" 


सोनामणि कहती, "तुम बहुत दिनों से वहां आए ही नहीं। तुम्हें मां ने बुलाया है। मां की कमर में दर्द है। इससे वे यहां नहीं आ सकीं।" 


तभी अक्सर चारु आ पहुंचती। सोनामणि यह देखकर घबरा जाती, जैसे वह अपनी ही सखी की सम्पत्ति को छिपकर चुराने आई है। चारु अपने गले को तेज करके आंख मुंह घुमाकर कहती, "क्यों सोना, तू यहां पढ़ते वक्त शोर मचाने आई है? मैं बाबू जी से जाकर अभी कहती हूं।" जैसे वह स्वयं तारापद की बहुत बड़ी शुभचिन्तक हो और दिन-रात इसी फिक्र में रहती हो कि तारापद की पढ़ाई में किसी भी तरह की जरा भी कोई बाधा न पड़ने पाए। लेकिन वह खुद अभी तारापद के पढ़ने के कमरे में किस इरादे से आई थी, वह भगवान से छिपा नहीं था और तारापद भी यह अच्छी तरह जानता था। 


लेकिन सोनामणि बेचारी डरकर उसी वक्त बहुत-सी झूठी-मूठी बातें गढ़ना शुरू कर देती। आखिर में, जब चारु उसे हेठी दिखाते हुए 'झूठी कहीं की' कहकर बुलाती तो वह शर्माकर और डरते हुए हार मानकर दुखी मन से अपने घर लौट जाती। तब कोमल हृदय तारापद उसे बुलाकर कहता, “सोना, अच्छा, आज शाम को मैं तुम्हारे घर आऊंगा।" चारु यह सुनकर सांप-सी फुंफकारकर कहती, "हां, हां, वहां क्यों नहीं जाओगे। तुम्हें सबक थोड़े ही याद करना है; मैं मास्टर साहब से सबकुछ कह दूंगी।" 


तारापद चारु के इस शासन की बिना परवाह किए दो-एक दिन शाम को अपनी पंडितानी मौसी के घर गया था। चारु ने तीसरी या चौथी बार खोखली हुकूमत न करके, चुपचाप उसके कमरे के दरवाजे की सांकल बन्द कर दी और रसोई घर से लाकर ताला भी लगा दिया। लगातार कई घंटे बन्द रखने के बाद आखिर में जब शाम गुजर जाने पर खाने का वक्त हुआ तब चारु ने दरवाजा खोल दिया। गुस्से में भी तारापद शान्त ही रहा और बिना कुछ खाए-पिए ही जाने के लिए तैयार हो गया। तब पछतावे और दुख से परेशान लड़की बड़ी विनय के साथ हाथ जोड़कर बार-बार कहने लगी, "मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूं, अब ऐसा नहीं करूंगी। तुम खाना खाकर जाओ।" तारापद, जब ऐसे भी बस में न आया तो धीरज खोकर उसने रोना शुरू कर दिया। आखिर में, तारापद धर्म-संकट में पड़कर खाना खाने के लिए बैठ गया। 


चारु ने कई बार पूरे मन से प्रतिज्ञा की है कि वह तारापद के साथ अच्छा बरताव करेगी और कभी एक पल के लिए भी उसे परेशान नहीं करेगी, लेकिन सोनामणि वगैरह पांच अन्य लोगों के बीच न जाने उसका मिजाज कैसा हो जाता है, उस वक्त उसका अपने पर कोई वश नहीं चलता। जब वह लगातार कई दिनों तक ठीक-ठाक बरतने लगती है, तब तारापद, किसी आनेवाली मुसीबत की बाढ़ के लिए सावधान होकर तैयार होने लगता है। क्योंकि कुछ भी नहीं कहा जा सकता था कि हमला कब, किस बात पर और किस ओर से होगा। उसके बाद तेज आंधी, आंधी के बाद जोर की वर्षा और उसके बाद प्रसन्न स्वच्छ शान्ति, यह सिलसिला चलता रहता था। 


इसी तरह लगभग दो साल गुजर गए। तारापद इतने लम्बे वक्त तक कहीं भी नहीं रुका था। शायद उसका मन पढ़ने-लिखने में किसी अद्भुत आकर्षण से बंध गया था, शायद उम्र के साथ-साथ उसके स्वभाव में बदलाव शुरू हो गया था या शायद उसका मन स्थाई रूप से कहीं एक जगह पर टिककर दुनियादारी और आजादी भोगने की ओर झुक रहा था। इसके अलावा, शायद उसके साथ पढ़नेवाली लड़की की रोज की शरारत और शोख खूबसूरती अनजाने में उसके दिल पर जाल फैला रही हो, यह भी कोई अचरच की बात नहीं है। 


चारु की उम्र इधर ग्यारह पार करना चाहती है। मति बाबू ने काफी खोज-ढूंढ़ करने के बाद दो-तीन अच्छे-अच्छे रिश्तों की बातचीत शुरू की। उन्होंने लड़की की उम्र देखकर उसका अंग्रेजी पढ़ना और बाहर निकलना बन्द कर दिया। अचानक ही इस रुकावट से चारु ने घर के अन्दर एक तूफान खड़ा कर दिया। 


तब एक दिन अन्नपूर्णा ने मति बाबू को बुलाकर कहा, “तुम लड़के के लिए इतने परेशान क्यों हो रहे हो? तारापद भी तो अच्छा लड़का है। वह तुम्हारी लड़की को भी पसन्द है।" 


मति बाबू ने यह सुनकर बहुत आश्चर्य जाहिर करते हुए कहा, "यह कैसे मुमकिन हो सकता है। तारापद के कुल-शील का भी तो कोई पता नहीं है। मेरी यही ले-देकर एक लड़की है। मैं इसे किसी अच्छे घर में देना चाहता हूं।" 


एक दिन रायडांगा के जमींदारों की ओर से कुछ लोग लड़की को देखने आए। चारु को पहना-उढ़ाकर आहर लाने की बहुत कोशिश की गई, लेकिन वह किसी तरह बाहर न निकली, बल्कि अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके अन्दर ही बैठी रही। मति बाबू ने उसके कमरे के बाहर खड़े होकर बहुत समझाया-बुझाया और अन्त में फटकार भी बताई, लेकिन सब बेकार ही रहा। आखिर में मति बाबू को निराश होकर बाहर जाकर रायडांगा से आए हुए लोगों से झूठ-मूठ कहना पड़ा कि लड़की की तबीयत एकाएक ही खराब हो गई है, इसलिए आज उसे बाहर नहीं लाया जा सकेगा। बस, उन लोगों ने समझ लिया कि लड़की में जरूर कोई ऐब है, इसलिए यह बात बनाई गई है। 


मति बाबू तब तारापद के बारे में सोचने लगे, 'लड़का अच्छा है, उसे अपने घर में ही रखा जा सकता है, इस तरह लड़की को पराये घर नहीं जाना पड़ेगा। 'उन्होंने सोच-विचार कर यह भी देखा कि उनकी चंचल और नटखट लड़की की शरारतें उनकी प्यार भरी नजर में भले ही अपराध न हो, लेकिन ससुराल में उन्हें कोई सहन नहीं करेगा।


इसके बाद इस बारे में अन्नपूर्णा से भी उनकी बहुत-सी बातें हुईं। आखिर में तय किया गया कि तारापद के गांव आदमी भेजकर, वंश के बारे में पता लगाया जाए। आदमी भेजा गया और पता लगाकर वह आया। उसने बताया, कुल अच्छा है, लेकिन दौलत की कमी है। तब मति बाबू ने लड़के की मां और भाइयों के पास विवाह का प्रस्ताव भेजा। तारापद के घरवाले मारे खुशी के फूले न समाए। उन्होंने तुरन्त ही अपनी सहमति दे दी। 


लड़के की मां और भाई ब्याह का शुभ दिन दिखवाने लगे। लेकिन दिमाग से मन की बात जल्दी जाहिर न करनेवाले मति बाबू ने यह राज किसी पर जाहिर नहीं होने दिया। 


सबसे बड़ी परेशानी यह हुई कि चारु को घर के अन्दर रोककर नहीं रखा जा सका। वह बीच-बीच में आंधी की तरह तारापद के कमरे में पहुंच ही जाती थी। वह कभी प्यार ओर कभी गुस्से की बातें कहकर तारापद का चैन हराम कर देती और पढ़ने-लिखने में ऐसी अड़चन पैदा कर देती थी कि वह बेचारा परेशान हो उठता था। इतना सबकुछ होते हुए भी आजकल एक नई बात यह पैदा हुई कि इस निरासक्त और स्वच्छन्द मिजाज ब्राह्मण लड़के के मन में कभी-कभी पल भर के लिए बिजली की तरंग की तरह एक अनोखी चंचलता का अहसास होने लगता था। जिस बालक का हलका मन हमेशा बिना रोक-टोक के वक्त की लहरों के साथ सामने की ओर बहता चला गया था, वह आजकल कभी-कभी उलझकर एक अजीब दिवास्वप्न के जाल में फंस जाता था। 


वह किसी-किसी दिन पढ़ना छोड़कर मति बाबू के पुस्तकालय में जाकर तस्वीरोंवाली किताबों के पन्ने उलटने लगता। उन तस्वीरों को देखकर जो कल्पना की दुर्निया बनती, वह पहले से बिलकुल अलग और ज्यादा रंगीन होती। वह चारु के अजनबी बरताव का अब पहिले की तरह मजाक नहीं उड़ाता और ऊधम मचाने पर उसे मारने का विचार भी मन में नहीं आने देता था। अपने में यह बदलाव और उसके प्रति आकर्षण का भाव खुद उसी को एक सपने की तरह लगने लगा। 


मति बाबू ने सावन मास में ब्याह का शुभ दिन तय करके तारापद की मां तथा भाइयों को लाने के लिए आदमी भेज दिया; लेकिन यह बात तारापद पर जाहिर नहीं होने दी। फिर उन्होंने अपने कलकत्ता के कार्यालय को चीजों की लम्बी लिस्ट भेज दी और यह भी लिख दिया कि फौजी बैंड बाजे का इन्तजाम किया जाना चाहिए। 


आसमान में बरसाती मौसम के बादल छा गए। गांव की नदी अब भी सूखी-सी पड़ी थी। बीच-बीच में, गड्ढों में कहीं-कहीं पानी जमा था। उस गन्दे पानी में छोटी-छोटी नावें डूबी पड़ी थीं और सूखी नदी की रेत पर बैलगाड़ियों के पहियों की लकीरों के निशान पड़ गए थे। इतने में एक दिन मायके से लौटी हुई पत्नी की तरह गांव की सूखी छाती में न जाने कहां पानी की तेज धारा आ पहुंची। देखते-देखते गांव की नदी का किनारा लड़के-लड़कियों से घिर गया। 


बच्चे पानी देखकर खुशी के भारे नाचने और पानी में उतर-उतरकर नहाने लगे। झोंपड़ियों में रहनेवालियों का झुंड अपनी प्यारी सहेलियों को देखने के लिए बाहर निकल आया। सूखे बेजान गांव को जैसे किसी एक जबरदस्त प्राणवायु ने जगा दिया। छोटी-बड़ी अलग-अलग तरह की नावें आने-जाने लगीं। नदी विदेशी मांझी-मल्लाहों के गीतों से गूंज उठी। दोनों किनारों के गांवों में जो लोग साल-भर से अब तक चुपचाप अपने-अपने रोजगार के काम में लगे थे, उनमें एक तरह की अजीब हरकत आ गई। 


इन्हीं दिनों कुडुलकाटा के नाग बाबुओं के इलाके में रथ यात्रा का मेला लगता था। एक दिन, दिन छिपने के बाद चांदनी से चमकते हुए घाट पर आकर तारापद ने देखा, किसी नाव में सौदागर किसी नाव में नाटक-मंडलीवाले, किसी नाव में बाजेवाले, किसी नाव में कलकत्ते की सर्कस पार्टीवाले जोर-जोर से गाते-बजाते मेले के लिए चले जा रह थे। तारापद का मन इसे देखते ही एक अपूर्व उत्साह से भर उठा। इतने में पूरब में घने बादलों ने आकर नदी के ऊपर जैसे काला चंदोवा-सा तान दिया। पुरवैया हवा तेजी से चलने लगी, नदी का पानी कलकल सुर में हंस उठा और नदी किनारे के झूमते पेड़ों की कतारों में अंधेरा-सा छा गया। मेंढक बोलने लगे और झींगुरों ने अपनी झंकार की आरी से अंधेरों को चीरना शुरू कर दिया। तारापद के सामने आज विश्वव्यापी रथ यात्रा शुरू हो गई। रथ के पहिए घूमने लगे, झंडा हवा में फहराने लगा, धरती डोल उठी, हवा दौड़ने लगी, नदी बहने लगी, नाव चलने लगी, और बाजे बजने लगे। देखते-देखते बादल गरज उठे, बिजली चमकने लगी, दूर तक फैले हुए अंधेरे में से मूसलाधार बारिश की खुशबू आने लगी, केवल नदी किनारे का एक कटहलिया गांव ही अपने दीये बुझाकर चैन से सोता रहा। 


अगले दिन सुबह ही तारापद की मां और भाई वगैरह कटहलिया आ पहुंचे। उनके साथ-साथ सामान से भरी हुई तीन बड़ी-बड़ी नावें भी कलकत्ता से आ पहुंचीं। उसी दिन सुबह सोनामणि एक दोने में थोड़ा-सा अचार और दूसरे दोने में अमाहट लेकर डरती हुई तारापद के कमरे के दरवाजे के पास चुपचाप आकर खड़ी हुई। लेकिन तारापद वहां दिखाई नहीं दिया। प्यार, दोस्ती का साजिश-भरा बन्धन उस बाह्मण को अच्छी तरह से बांधने भी न पाया था कि इससे पूर्ण ही वह सारे गांव का दिल चुराकर, उस बादलों से ढंकी अंधेरी बारिश की रात में, निर्विकार उदासीन मां धरती की विस्तृत गोद में कहां जा छिपा, यह कोई भी नहीं जान सका।


Read More Kahani:-



Thanks for visiting Khabar's daily updateFor more कहानी, click here. 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.