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हिन्दी भाषा का जन्म इतिहास कालखंड परिचय उत्पत्ति लेख और विकास

हिन्दी भाषा का ऐतिहासिक परिशीलन

History of Hindi Language: हिन्दी-भाषा के इतिहास लिखनेवाले अनेक विद्वानों ने हिन्दी का जन्म काल संवत् ७०० के लगभग माना है। इसकी पुष्टि में वे पुष्प नामक एक कवि का उल्लेख करते हैं, जिसने दोहों में अलंकार विषयक एक ग्रन्थ की रचना की थी। खेद है, यह ग्रन्थ अब नहीं मिलता किन्तु हमारे विचार में, जिस भाषा में यह ग्रन्थ लिखा गया होगा, उसे 'अपभ्रंश' कहना अधिक युक्तियुक्त होगा क्योंकि पुष्प कवि ने प्रसिद्ध राजा भोज के पूर्व-पुरुष राजामान से 'अलंकारशास्त्र' का ज्ञान प्राप्त किया था। राजा भोज के चाचा मुञ्ज ने अपने भाई अर्थात् भोज के पिता की हत्या करके सिहासन हड़प लिया था। यह वाक्पतिराज मुज्ज जैसा पराक्रमी था वैसा ही उच्चकोटि का कवि भी था। इसकी कविता के कुछ उदाहरण आगे दिये गये हैं। 

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'अनहिलवाडे' के महाराज सिद्धराज जयसिंह के यहाँ आश्रय पानेवाले आचार्य हेमचन्द ने, जिनका जन्म संवत् १९४५ में हुआ था, अपने प्राकृत व्याकरण में, जो संवत् ११६८ में लिखा गया है, अपभ्रंश भाषा के जो उदाहरण दिये हैं, उनमें 'मुज्ज' की भी रचना है। जब संवत् १०२५ के पीछे की मुज्ज की रचना अपभ्रंश में समझी जाती है तब उससे ३०० वर्षों पहले की पुष्प की रचना भी अपभ्रंश ही में क्यों न समझी जाए? उस समय अपभ्रंश का दौर भी था यद्यपि पीछे से यही अपभ्रंश भाषा पुरानी हिन्दी में बदल गयी।

प्रथम हिन्दी-साहित्य सम्मेलन के सभापति के रूप में महामना मदनमोहन मालवीय ने संवत् १९६७ में जो वक्तव्य दिया था, उसमें उन्होने संवत् ८०२ मे होनेवाले किसी कवि के विषय में कहा था परन्तु उसका नाम तथा उसके ग्रन्थ के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।

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इसके बाद खुमानरासो का विवरण मिलता है। यह संवत् ८९० के पूर्व की कृति हो सकती है क्योंकि चित्तौड़ के रावल खुमान का राज-काल संवत् ८६६ से ८९० तक है। खेद है, यह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध है किन्तु पूर्व में बताये कारणों से इसका भी अपभ्रंश में ही होना अधिक सम्भव है।

संवत् ९९० के लगभग देवसेन सूरि ने नय चक्र नाम का ग्रन्थ दोहों में लिखा तद्पश्चात् माइल्ल धवल नाम के एक और विद्वान् ने प्राकृत में रचना की। यह भी हमारी समझ में अपभ्रंश में ही रचा गया होगा।

विक्रम संवत् से कोई ५०० वर्षों पहले मगध में प्रसेनजित् नाम का एक राजा था, जिसकी राजधानी राजगृह में थी। किसी कवि ने अपभ्रंश भाषा में उसका चरित्र लिखा है, जिसमें से कितने ही दोहे शुभशील गणि ने अपने कथा- कोष में, जो उन्होंने संवत् १०५९ में लिखा था, दिये हैं। उनमें से केवल एक दोहा उदाहरण के लिए यहाँ दिया गया है। राजा ने सभा में अपने पुत्र को किसी बात पर अप्रसन्न होकर कुछ कठोर वचन कह दिये थे, जिससे रूठकर वह घर से निकल गया और कहीं जाकर किसी का घर जमाई होकर रहने लगा। राजा ने उसे बुलाने के लिए श्लेष- युक्त एक दोहा लिखा था। पुत्र ने उसका उत्तर दिया। राजा ने फिर दो दोहे लिखे, जिनमें से एक अग्रलिखित है,

"जे मि सभा मह बोलिऊँ ते अपमान कि मान 

सोजि सँभारि बिचारि करि तो आरोग उधान।"

इसमें पुरानी हिन्दी का ही नहीं, और भी कितनी ही प्रान्तीय बोलियों का स्वरूप स्पष्ट झलक रहा है। मुञ्ज के विषय में आपको बताया जा चुका है। उसका शासन काल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण के अन्त में अनुमान किया जाता है। अन्तिम युद्ध में वह कल्याण के सोलंकी राजा तैलप द्वितीय के हाथों क़ैद कर लिया गया। क़ैद में तैलप की बहन मृणालवती से उसका प्रेम हो गया और उसने सुरंग में होकर निकल कर भागने की जो युक्ति सोची थी, वह मृणालवती को बता दी। मृणालवती ने मुञ्ज का मंसूबा अपने भाई से कह दिया, जिससे मुज्ज पर और भी कड़ाई होने लगी।

इस दोहे में जो उदाहरण दिये गये हैं वे 'मुञ्ज' की उसी समय की रचनाएँ हैं :-

"जा मति पच्छइ संपज्जइ सा मति पहिली होइ 

मुंज भणइ मुणालवइ बिधन न बेढइ कोइ।"

अर्थात् जो बुद्धि पीछे से, यानी कुछ खोकर, पैदा होती है, वह यदि पहले से हो जाए तो मुञ्ज कहता है- हे मृणालवती! कोई विघ्न न पड़े।

कहा जाता है कि संवत् १०८० के लगभग जब महमूद ग़ज़नवी ने कालिंजर के राजा नन्द पर चढ़ाई करने का विचार किया था तब राजा नन्द ने एक छन्द लिखकर सुलतान के पास भेजा, जिसका अर्थ जान-समझकर वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने न केवल कालिंजर पर चढ़ाई करने का विचार छोड़ दिया बल्कि १५ क़िले राजा को और दे दिये? खेद है, वह छन्द देखने में नहीं आता।

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आचार्य हेमचन्द के सम्बन्ध में अनहिलवाड़े महाराज सिद्धराज जयसिंह के नाम का उल्लेख किया जा चुका है। उनके शासन काल में कुतुब अली नाम का एक मुसलमान कवि था, जिसकी मस्जिद कुछ लोगों ने खोद डाली थी। इस पर कुतुब अली ने महाराज से छन्दबद्ध प्रार्थना की थी। महाराज ने प्रसन्न होकर न केवल मस्जिद फिर से बनवा दी थी बल्कि मस्जिद खोदनेवालों को उचित दण्ड भी दिया। खेद है, कुतुब अली की भी कोई रचना नहीं मिलती। वैसे यह घटना संवत् ११५० से १२०० तक के बीच में कभी घटी होगी क्योंकि उन महाराज का शासन-काल यही माना जाता है। संवत् १९८० के लगभग साद का बेटा मसऊद भी हिन्दी का कवि था। खेद है, उसकी रचना भी नहीं मिलती।

बीकानेर के साईंदान चारण- द्वारा संवत् ११९१ में लिखे गये समन्त सार नाम के ग्रन्थ का पता चलता है। डीडवाणा (मारवाड़) के अकरम फ़ैज़ का जन्म संवत् ११७९ में हुआ था। कहा जाता है, वे जयपुर के महाराज माधव सिंह के आश्रित थे। उन्होंने वर्तमाल काव्य की रचना की और वृत्तरत्नाकर का अनुवाद किया था।

यद्यपि इस समय की भी कितनी ही रचना अपभ्रंश (जिसको उस समय पुरानी चाल की हिन्दी समझा जाता रहा होगा) में मिलती हैं तथापि हमारी राय में तब तक हिन्दी को स्वतन्त्र रूप प्राप्त हो गया था। चन्द और जगनिक की रचनाओं पर ध्यान देने से इस अनुमान के सत्य होने में तनिक भी सन्देह नहीं रहता। चन्द का जन्म संवत् ११८३ में लाहौर में हुआ था। वे पृथ्वीराज के आश्रित थे। उनका समकालीन जगनिक महोबे के परमाल राजा का आश्रित था। चन्द की रचना में सभी प्रान्तीय भाषाओं की झलक दिखायी देती है। उन्होंने फारसी और अरबी के भी शब्दों का बेधड़क प्रयोग किया है।

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सन्धि

समास

उपसर्ग

प्रत्यय

संस्कृत के प्रमुख ' तद्धित ' प्रत्यय | tadhit suffix of Sanskrit

हिन्दी के प्रमुख ' तद्धित ' प्रत्यय |Hindi's main 'tadhit' suffix

पृथ्वीराज रासो की भाषा के विषय में वह स्वयं कहता है,

"उक्तधर्मविशालस्य राजनीति नवं रसम् 

षट् भाषा पुराणं च कुरानं कथितं मया।'

यहाँ कुरान से मतलब अरबी-फारसी के शब्दों से है। चन्द के पहले तथा उसके समय में भी कितने ही और कवि रहे होंगे परन्तु खेद है, दो-एक को छोड़कर बाक़ी का पता नहीं चलता । पृथ्वीराज का जन्म संवत् १२०५ में हुआ था और संवत् १२४८ में वे मोहम्मद गोरी- द्वारा मारे गये थे। कहा जाता है, चन्द की मृत्यु भी उन्हीं के साथ हुई। उस समय भी कोई-कोई कवि अपभ्रंश- भाषा में रचना करते थे किन्तु उनकी भाषा भी पुरानी हिन्दी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। उदाहरण के लिए, अनहिलवाड़े के सोमप्रभ सूरि के लिखे कुमारपाल प्रतिबोध का नाम लिया जा सकता है, जो संवत् १२४१ में रचा गया था। उसमें से केवल एक उदाहरण दिया गया है। इसे समझने का प्रयास करें,

"अम्हे थोड़ा रिउ बहुय इयु कायर चिन्तन्ति 

मुद्धि निहालहि गयण यलु कह उज्जोउ करन्ति।"

अर्थात् "हम थोड़े हैं, रिपु बहुत हैं", यो कायर सोचते हैं। हे मुग्धे! देख, आकाश में कितने (नक्षत्र) हैं, जो उजाला करते हैं।

चन्द ने रासों में जिन छः भाषाओं के व्यवहार करने की बात कही है, उससे और उनकी रचना देखकर भी यही प्रतीत होता है कि उस समय तक थोड़ा-बहुत भेद रखनेवाले हिन्दी के कितने ही रूप प्रचलित हो गये थे, जैसा कि आजकल भी देखने में आते हैं किन्तु जो रूप, कुछ विशेष कारणों से ऊपर आ गये, वे आ गये; शेष इस जीवन-संघर्ष में या तो लुप्त हो गये अथवा दब गये। चन्द ने 'पृथ्वी राज रासो' लिखा अथवा नहीं और यदि लिखा तो कितना लिखा, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। कुछ का मत है कि उसमें बहुत सामग्री बाद में जोड़ी गयी हैं। जो हो, उनकी रचनाओं में से कितनी ही ऐसी रचनाएँ हैं, जो अपभ्रंश रचनाएँ, राजस्थानी तथा अपभ्रंश और ब्रज भाषा के बीच के गड्ढे को भरती हुई, इतिहास-प्रेमियों के लिए गवेषणा की प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करती हैं। आगे उनकी कृति में से केवल दो उदाहरण दिये जाते हैं, जिनसे आप स्वयं अनुमान कर लेंगे कि उन्होंने किस प्रकार कहीं तो कितनी ही भाषाओं की चटनी कर दी और कहीं शुद्ध ब्रजभाषा में लिखा,

"खुरासान मुलतान खंधार मीरं

बलक सोवल तेग अच्चूक तीरं

   रुहंगी फिरंगी हलंबी समानी 

   ठटी ठट्ट बल्लोच ढालं निसानी

मँजारी चखी मुक्ख जंबक्क लारी 

हजारी हजारी इक जोध भारी

   तिनं पष्वर पीठ हय जीन सालं 

   फिरंगी कती पास सुकलात लाल"

अब ब्रजभाषा का शुद्ध रूप समझिए,

पूरन सकल बिलास रस सरस पुत्र फलदान, 

अन्त होय सहगामिनी नेह नारि को मान! "

    समदरसी ते निकट है भुगति मुकति भरपूर, 

    विषम दरस वा नरन ते सदा सरवदा दूर।

पर योषित परसे नहीं ते जीते जग बीच, 

परतिय तक्कत रैनदिन ते हारे जग नीच। "

इसमें तक्कत को छोड़कर और सब शुद्ध ब्रजभाषा में हैं।

इस समय अपभ्रंश की भाँति किसी एक भाषा का साम्राज्य न होने पर भी भिन्न-भिन्न राज्यों में बोली जानेवाली भाषाओं में बहुत समता पायी जाती है। इसका कारण उन सबका एक ही घर की बेटियाँ अथवा भतीजियाँ होना है। कहावत है, "हर बारह कोस पर भाषा बदल जाती हैं" किन्तु रूप-रंग की समता देखकर पहचाना जा सकता है कि कौन किस कुटुम्ब की है।

पिछले दिये गये उदाहरणों को ध्यान से देखने पर अनुमान लगाया जाता है कि हिन्दी के भिन्न-भिन्न रूपो का ढाँचा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से पहले ही तैयार हो गया था।

अब हिन्दी के उस रूप के विषय का अध्ययन करना युक्तियुक्त होगा, जिसमें यह पुस्तक लिखी गयी है। यह रूप आगरा, दिल्ली, मेरठ, सहारनपुर आदि के आस-पास भाषाओं के उसी तुमुलयुद्ध के समय से प्रचलित है, जब वे अपभ्रंश से अलग हुई थीं। चन्द की कविता में इसकी झलक दिखायी देती है किन्तु सबसे पुरानी क्रमबद्ध रचना, जो इसमें मिलती है, अमीर खुसरो की है। संवत् १३१२ में अमीर खुसरो का जन्म हुआ था। वे फारसी के अतिरिक्त हिन्दी के भी विद्वान् थे और बड़े मनचले थे। उनकी रचना पढ़ने से सहज में ज्ञात है कि उनके समय तक हिन्दी का यह रूप कहाँ तक विकसित और स्वतन्त्र हो चुका था।

अमीर खुसरो की रचना के कुछ नमूने यहाँ दिये गये हैं; समझने का प्रयास कीजिए,

"एक थाल मोती से भरा सबके सिर पर औंधा धरा, 

चारों ओर वह थाली फिर मोती उससे एक न गिरे।"

यह आकाश की पहेली हैं।

"बाला था जब सबको भाया बढ़ा हुआ कुछ काम न आया, 

खुसरो कह दिया उसका नाम अर्थ करो नहीं छोड़ो गाम। "

यह दीये की पहेली है।

इससे प्रमाणित होता है कि इस भाषा का नाम 'हिन्दी' खुसरो के समय तक पड़ चुका था। वैसे 'हिन्दू', ‘हिन्द' आदि शब्द बहुत पुराने हैं। फारसवालों ने सिन्ध देश का हिन्ध नाम रख लिया था। यहाँ स का ह में बदल जाना, तुलनात्मक शब्द-शास्त्र के एक व्यापक नियम के अनुसार हुआ, जिसके अनुसार संस्कृत का सप्त फ़ारसी में हफ़्त और सप्ताह को हफ़्ता कहा जाता है। हिन्ध का हिन्द हो जाना साधारण बात है। हिन्द के रहनेवाले हिन्दू अथवा हिन्दी कहलाये और उनमें जो भाषा सबसे अधिक व्यापक थी, वह अन्त में हिन्दी भाषा कहलायी। यह नाम मुसलमानों के यहाँ पधारने से कहीं पहले का है।

"पञ्च खानाः सप्त मीरा नव साहा महाबलाः, 

हिन्दूधर्मप्रलोप्तारो जायन्ते चक्रवर्तिनः।"

(२)

"हिन्दूधर्म प्रलोप्तारो भविष्यन्ति कलौ युगे। "

क्रमशः मेरुतन्त्र और शिवरहस्य के इन श्लोकों को पीछे से मिलाये गये भी मान लियेजाएँ तो भी ईसा मसीह से बहुत पहले फारस में लिखी गयी दसातीर नामक पारसी धर्मपुस्तकमें जो अकनू बिरहमने व्यास नाम अज़ हिन्द आमद बसदाना के अकिल चुनानस्त और चूँ व्यास हिन्दी बलख़ आमद लिखा है, वही हिन्दी शब्द की प्राचीनता के प्रमाण में यथेष्ट है। 

अमीर खुसरो के अतिरिक्त और भी मुसलमान लेखकों ने इस शब्द का प्रयोग किया है। किसी मुसलमान लेखक ने धार्मिक विषय को लेकर नूरनामा नाम की पुस्तक पहले कभी तैयार की थी। उसमें उसने उस भाषा को भी हिन्दी ही बताया है, जिसको आजकल उर्दू कहते हैं। देखिए,

"ज़ुबाने अरब में य' था सब कलाम, 
किया नज्म हिन्दी में मैंने तमाम । 
अगरचे था अफ़सः वो अरबी जुबाँ 
व लेकिन समझ उसकी थी बस गिरौँ। 
समझ उसकी हरइक को दुश्वार थी.
कि हिन्दी जबाँ याँ तो दरकार थी। 
इसी के सबब मैंने कर फ़िक्रोगौर, 
लिखा नूरनामे को हिन्दी के तौर।"

मलिक मोहम्मद जायसी ने शेरशाह के समय में पद्मावत नामक एक प्रसिद्ध काव्य- ग्रन्थ की रचना की थी। उसमें उन्होंने कहा है,

"तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेतो आहि, 

जामें मारग प्रेम का सबै सराहें ताहि।"

जटमल ने संवत् १६८० में जो गोरा-बादल की कथा लिखी है, उसमें 'हिन्दवी' शब्द लिखा है। इन सब बातों से सूचित होता है कि उस समय तक हिन्दी के अरबी-फारसी मिश्रित रूप का नाम 'उर्दू' नहीं पड़ा था। प्राकृत अथवा संस्कृत से भेद प्रकट करने के लिए हिन्दी को 'भाषा' भी कहा जाता था। आज भी 'भाषा टीका सहित' पुस्तकों के विज्ञापन देखने में आते हैं।

पहले गद्य होता है तब पद्य। यह बात दूसरी है कि पुस्तकें पद्य में लिखी जाएँ। जब तक कोई भाषा बोल-चाल में न आये तब तक उसमें कोई कैसे काव्य-रचना कर सकता है? खुसरो की रचना उस समय की बोल-चाल की भाषा का सुन्दर और स्वच्छ स्वरूप दिखा रही है परन्तु प्रसिद्ध विद्वान् डॉक्टर सर जॉर्ज ग्रियर्सन, जिनके ऋण से हिन्दी-संसार कभी उऋण नहीं हो सकता, कहते हैं कि गिल क्राइस्ट की प्रेरणा से फोर्ट विलियम कॉलेज में लल्लूजी लाल ने बोल-चालकी भाषा में से अरबी-फारसी के शब्द हटाकर और उनकी जगह 'इण्डो-आर्यन' शब्द रखकर नयी भाषा गढ़ ली। पहले तो लल्लूजी लाल की रचना शैली ही इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि उन्होंने कोई नयी भाषा नहीं गढ़ी, केवल आगरा की बोली में जिसको उन्होंने, ब्रजभाषा से अरबी-फारसी के शब्द मिली हुई बोली से, जो उस समय रेख्ते की बोली कहलाती थी, भेद बताने के लिए खड़ी बोली कहा है-पुस्तक लिखी लालचन्द्रिका में अपना हाल देते हुए लल्लूजी लाल स्वयं कहते हैं, "इसमें जो पोथियाँ ब्रजभाषा औ खड़ी बोली औ रेखते की बनाई सो सब प्रसिद्ध हैं।" दूसरे, उनकी शैली में कहीं-कहीं ब्रज भाषा का पुट दिखता है, जिसका होना, अगर केवल शब्दों में हेर-फेर करके वह पुस्तक लिखी जाती तो असम्भव था।

खुसरो ने जिस भाषा में और जिस ढंग से रचना की है, उससे प्रकट होता है कि भाषा का वह रूप उससे पहले भी बोल-चाल में पर्याप्त आता था और उसमें पद्य रचनाएँ भी होती थी। खुसरो की भाषा में नयेपन अथवा फ़ौजीपन का नाम भी नहीं है। उसमें, वह स्वतन्त्रता और सामर्थ्य दिखायी देती है, जो किसी ठेठ भाषा में होनी चाहिए।

जिस समय लल्लूजी लाल ने फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रेमसागर की रचना की थी, उसी समय सदल मिश्र ने नासिकेतोपाख्यान और मीर अम्मन ने उर्दू में बाग़ोबहार की रचना की थी। डॉ० ग्रियर्सन ने उर्दू और हिन्दी गद्य के जन्म के विषय में स्वयं ही अपने Linguistic Survey of India नामक ग्रन्थ में लिखा है,

"Urdu prose came into existence, as a literary medium, at the beginning of the last century in Calcutta. Like Hindi prose, it was due to English influence and the need of textbooks in both forms of Hindostani for the college of Fort William. The 'Bagh O' Bahar' of Mir Amman and the 'Khirade-Afroze of Hafiz-Uddin Ahmad are familiar examples of the earlier of these works in Urdu as the already mentioned 'Prem Sagar' written by Lallu Lall is an example of those in Hindi."

इसका अर्थ यह है— पिछली शताब्दी के प्रारम्भ में उर्दू-गद्य पहले-पहल कलकत्ते में साहित्य-रचना के काम में लाया गया। हिन्दी गद्य की भाँति यह भी अँगरेज़ों के प्रभाव से ही उद्भूत हुआ और इसलिए भी कि 'हिन्दोस्तानी' भाषा के दोनों रूपों में पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता थी, फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए। मीर अम्मन का 'बाग़ोबहार' और हाफ़िजुद्दीन अहमद का 'ख़िराद-ए-अफ़रोज' उर्दू के प्रारम्भिक गद्य के नमूने हैं; जैसा कि लल्लू लाल का 'प्रेमसागर ' हिन्दी- गद्य का नमूना हैं।

इससे यह साबित होता है कि हिन्दी और उर्दू-गद्य में पुस्तकें पहले-पहल फोर्ट विलियम कॉलेज में लिखी गयी। इस मत के विरुद्ध हम मुंशी सदासुख सिंह (जिनका जन्म संवत् १८०३ में दिल्ली में हुआ तथा मृत्यु संवत् १८८१ में प्रयाग में हुई थी) और सय्यद इंशाअल्लाह ख़ाँ (जो दिल्ली के रहनेवाले थे किन्तु वहाँ से लखनऊ के नवाब सआदत अली खाँ के यहाँ जाकर रहे थे और जिनकी मृत्यु संवत् १८७४ में हुई थी) को पेश करते हैं।

निश्चित रूप में खड़ी बोली के कई गद्य-लेखक मुंशी सदासुख सिंह से पहले के थे; सम्भव है, उनकी रचनाएँ खोज में मिलें। सय्यद इंशाअल्लाह ख़ाँ की पुस्तक रानी केतकी की कहानी को डॉक्टर ग्रियर्सन स्वयं संवत् १८५७ के लगभग की अनुमान करते हैं। मुंशी सदासुख सिंह का गद्य अभी कहीं छपा नहीं। हमें पुस्तक का परिचय लाला भगवानदीन और रामदास गौड़ की हिन्दी भाषासार नामक पुस्तक में मिलता है।

यहाँ चारों की शैलियों के थोड़े-थोड़े नमूने प्रस्तुत हैं,

"कितने जन्मान्ध किसी गाँव में बसते थे। वहाँ हाथी आय निकला। जितने अंधे थे, यह बात सुनकर बहुत फूले और मुदित हुए। सब मिलकर कहने लगे कि चलो हाथी देखिए। सब मिलकर आए। आँखों से तो अंधे थे। किसी ने सूँड़ पकड़ी हाथ से उसने कहा हाथी अजगर के बराबर है।"- मुंशी सदासुख सिंह

"एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ आई कोई कहानी ऐसी कहिए जिसमें हिन्दुई छूट और किसी बोली की पुट न मिले। तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले ।'-सय्यद इंशाअल्लाह खाँ

"महाराज, सब रानियाँ तो देवी के द्वार पर धरना दे यों मनाय रही थीं और उग्रसेन बसुदेव आदि सब यादव महाचिन्ता में बैठे थे कि इस बीच श्रीकृष्ण अविनाशी द्वारका- वासी हँसते-हँसते जामवन्ती को लिए आय राजसभा में खड़े हुए। "-लल्लूजी लाल

"इस प्रकार से यमपुरी का दक्षिण द्वार अति डरावना है कि जहाँ दूतों के बस होकर पापी लोग एस महानरक में पड़ते वो नाना भाँति के दुःख को सहते हैं।"-सदल मिश्र

अब इन चारों उदाहरणों को देखकर पाठक स्वयं ही निश्चित कर सकते हैं कि पिछले दो उदाहरणों की भाषाएँ फोर्ट विलियम में गढ़ी गयी है अथवा उस पुरानी बोली के विकसित रूप हैं, जिनमें अमीर खुसरो ने रचना की थी। पहले दो उदाहरण पाठको को अपना मत स्थिर करने में बहुत सहायता करें क्योंकि एक तो उनका फोर्ट विलियम कॉलेज से कोई सम्बन्ध नहीं; दूसरे, कुछ लोगों की राय में वे इतने पहले के लिखे हुए हैं, जब उर्दू-गद्य का जन्म भी नहीं हुआ था।

डॉ॰ ग्रियर्सन उर्दू और हिन्दी (खड़ी बोली) गद्य का जन्म एक साथ मानते हैं परन्तु प० चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने पुरानी हिन्दी शीर्षकवाले लेख में कहा है,

"हिन्दी गद्य की भाषा लल्लू लाल के समय से आरम्भ होती है। उर्दू-गद्य उससे पुराना है। खड़ी बोली-कविता हिन्दी में नई है... उर्दू पद्य-भाषा उसके बहुत पहले हो गई है। हिन्दू कवियों का यह संप्रदाय रहा है कि हिन्दूपात्रों से प्रादेशिक भाषा कहलवाते थे और मुसलमान पात्रों से खड़ी बोली।"

इसी लेख में एक जगह वे कहते हैं,

"मुसलमानों में बहुतों की घर की बोली खड़ी बोली है। "

भला सोचने की बात है कि जो भाषा विश्व के किसी कोने में बोली ही नहीं जाती थी, उसमें चौदहवीं सदी में पद्य रचना कैसे कर दी गयी थी। चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' ही के कथनानुसार, चौदहवीं शताब्दी में लिखी गयी 'शार्ङ्गधरपद्धति' में श्रीकण्ठ के लिखे हिन्दी और संस्कृत के असंगत श्लोक में खड़ी बोली कहाँ से आ घुसी ? वह श्लोक यों है,

"नूनं बादल छाइ खेह पसरी निःश्राण शब्दः खरः

शत्रुपाडि लुटालि तोडि हनिसौ एवं भणन्त्युद्धटाः;

झूठे गर्व भरा मघालि सहसा रे कन्त मेरे कहे 

कंठे पाग निवेश जाह शरणं श्रीमल्लदेवं विभुम्।

इस श्लोक के सम्बन्ध में चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' का विचार है

"इन अवतरणों से जान पड़ता है कि उस समय हिन्दी के दोनों रूप प्रचलित थे- खड़ा और,पड़ा।"

खड़ी बोली की कविता भी हिन्दी में नयी नहीं साबित होती । सम्भव है, गुलेरी ने अमीर खुसरों की रचना को उनके मुसलमान होने के कारण ही, उर्दू मान लिया हो; हालाँकि 'उर्दू' का तब तक कहीं नामो-निशाँ भी नहीं था। जिस रचना को स्वयं खुसरो ने हिन्दी बताया है, उसे हिन्दी छोड़कर कुछ और क्यों मान लिया जाए, यह समझ में नहीं आता। उर्दू-पद्य-भाषा को खड़ी बोली का अरबी- फारसी शब्द- मिश्रित रूप न बताकर, यह कहना कि उर्दू-पद्य-भाषा खड़ी बोली से पहले की है, ऐसा ही है जैसा बेटी की उत्पत्ति माँ से पहले मान लेना। हिन्दी कवियों ने यदि मुसलमान पात्रों से खड़ी बोली में बातचीत करायी तो क्या इसी से साबित हो गया कि खड़ी बोली मुसलमानी भाषा है; जैसा कि गुलेरी ने कहा है। इसका कारण तो केवल यह था कि यह भाषा आगरा और दिल्ली- जैसे शहरों की थी, जो उस समय सभ्यता और वैभव के केन्द्र समझे जाते थे। 

हिन्दी में अरबी- फारसी के शब्द देखकर ही मुसलमानी भाषा ठहराना भी ठीक नहीं क्योंकि इन भाषाओं के शब्द हिन्दी-कवियों की कविता में पाये जाते हैं; यहाँ तक कि तुलसी और सूर की रचनाओं में भी ऐसे असंख्य शब्द हैं। यह भी बात नहीं कि खड़ी बोली को मुसलमान पात्रों से ही बुलवाया गया हो। कबीर, नानक, दादू आदि सन्तों की कितनी ही रचनाएँ खड़ी बोली में हैं। ब्रज-भाषा के लब्ध- प्रतिष्ठ हस्ताक्षर कवि आनन्द घन ने अपनी विरह-लीला खड़ी बोली में ही लिखी है; और भी कितने ही भक्त कवियों की कविताएँ खड़ी बोली में हैं। इन बातों से गुलेरी की उक्ति की निस्सारता प्रकट हो जाती है। आगे चलकर, गुलेरी का यह कहना कि मुसलमानों में बहुतों के घर की बोली खड़ी बोली है, हमें अचरज में डालता है।

आगरा, दिल्ली, मेरठ आदि स्थानों को छोड़कर, जहाँ हिन्दी का यह स्वरूप अपभ्रंश-काल के पीछे से ही प्रचलित है, आप प्रयाग, काशी, पटना चाहे जहाँ निकल जाइए, सभी अपढ़ मुसलमान और कितने ही पढ़े-लिखे मुसलमान भी अपने घरों में राज्यीय भाषा बोलते हैं। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि खड़ी बोली का प्रचार शिक्षा के साथ ही दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है और वह भी दोनों जातियों में प्राचीन भाषाओं के विद्वानों की बोलचाल की हिन्दी को म्लेच्छ-भाषा बताना उतना ही अनुचित है, जितना कि हिन्दू-सभ्यता से परिचय प्राप्त करने की चिन्ता न करनेवाले अरबी- फारसी के विद्वानों का यह कहना कि हिन्दी तो कोई भाषा ही नहीं है, वह कहीं बोली ही नहीं जाती।

वर्तमान युग में कितने ही अँगरेज़ी लिखे-पढ़े व्यक्ति कुछ इस प्रकार की भाषा बोलते हुए सुने जाते हैं,

"मैं इस पॉइण्ट (point) पर ईल्ड (vield) नहीं कर सकता, मेरा फुल कन्विक्शन (full conviction) है कि मेरा स्टेटमेण्ट (statement) टुथ (truth) पर बेज्ड (based) है। शायद कहीं सम्थिंग बेटर इन् स्टोर फॉर मी (something better in store for me) हो।"

इधर पढ़े-लिखों का यह हाल है, उधर तकिया और तौलिया बेचनेवाला अँगरेज़ी फ़ौजों में यों कहकर आवाज़ लगाता था,

"साहब! पिलुआ, गुदड़ी तौल बाई (Buy)।"

जवाब में साहब धमकाता था,

"वेल (Well), चला जाओ, अदरवाइज़ (otherwise) हम तुमको पुलिस को हैण्ड-ओवर (handover) कर देगा।"

हिन्दी को ठीक यही दशा उस समय हुई थी, जब मुसलमानों ने इस देश को जीता और यहाँ अपना प्रभाव फैलाया था। हिन्दी का ज्ञान न होने के कारण अपना मतलब समझाने के लिए उन्हें अरबी-फारसी तुर्की आदि के शब्द प्रयोग में लाने पड़ते थे। ठेठ हिन्दी में इन शब्दों के फैल जाने के कारण ही पहले इसे रेखता की बोली कहा गया। अधिकतर मुसलमान यहाँ फ़ौजियों की हैसियत से आये थे इसलिए अरबी फारसी शब्द मिली हुई हिन्दी को उर्दू-हिन्दी अर्थात् 'फ़ौजी हिन्दी' भी कहते थे, जिस प्रकार बुन्देलखण्डी हिन्दी, बैसवाड़ी हिन्दी, बाबू इंग्लिश आदि कहा जाता है। अब बैसवाड़ी हिन्दी अथवा बुन्देलखण्डी अथवा राजस्थानी हिन्दी कहने का कष्ट न उठाकर लोग जैसे ''बैसवाड़ी', 'बुन्देलखण्डी' और राजस्थानी कहते हैं।

उर्दू के प्रसिद्ध लेखक शम्सुलउलमा मौलाना मोहम्मद हुसेन साहब आज़ाद ने अपनी चर्चित पुस्तक आबेहयात में लिखा है,

"इतनी बात हर शख़्स जानता है कि हमारी उर्दू जुबान ब्रजभाषा से निकली है और ब्रज- भाषा खास हिन्दोस्तानी जुबान हैं।"

आज़ाद की देखा देखी बाबू बालमुकुन्द गुप्त भी ऐसा ही कहते हैं। सम्भव है, व्रजभाषा के उत्कृष्ट काव्य को देखकर अथवा अपभ्रंश तक पहुँच न होने के कारण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने ऐसा लिख दिया हो किन्तु बालमुकुन्द गुप्त ने क्यों उनसे सहमत होना उचित समझा. यह समझ में नहीं आता।

आधुनिक हिन्दी की उत्पत्ति 'शौरसेनी', 'अर्द्धमागधी' और 'पंजाबी' के मेल से हुई है, इसका ज्ञान आप पिछले पृष्ठों में कर हैं। ब्रजभाषा तो बहुत कुछ 'शौरसेनी' का अपभ्रंश है। उससे खड़ी बोली की उत्पत्ति होना असम्भव है। हिन्दी भाषा पर एक बहुत ही विचारपूर्ण लेख झालावाड़ के विद्वान् महाराणा सर भवानी सिंह ने लिखा है। इधर, मिस्टर क्रीज़ ने हिन्दी- साहित्य का छोटा-सा किन्तु श्लाघ्य इतिहास लिखा है। इन विचक्षणों ने जो मत स्थिर किये हैं, उनकी आलोचना के साथ ही हो जाती है। 

अतएव उनकी अलग से आलोचना भी डॉ० ग्रियर्सन और गुलेरी के मतों की आलोचना करने की आवश्यकता नहीं। केवल दूसरी भाषाओं के कुछ शब्द आ जाने से किसी भाषा का नाम बदल नहीं सकता। भला सोचने की बात है, 'मीडिक' भाषा के कुछ शब्द मिलाकर भी पारसी लोग जिस भाषा में बोलते हैं, वह 'गुजराती' क्यों नहीं कहलाती? भाषा कौनसी है और कौनसी नहीं, इसका ज्ञान उसकी विशेषताओं अथवा उसके व्याकरण के आधार पर किया जा सकता है।

कुछ उर्दू-लेखक अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार करके और फारसी-व्याकरण तक का कहीं-कहीं अनुकरण करके भाषा के रूप को बिगाड़ने में सदा से तत्पर रहते आये हैं, यह उनकी भूल है। उनकी इस कृत्य से हिन्दी की संरचना तनिक भी प्रभावित नहीं हो सकती। वे अपना मन समझाने के लिए इसे भले ही विदेशी आवरण से सजा लें परन्तु शरीर को नहीं बदल सकते।

हिन्दी ही उर्दू है, यह बात मैं अपने मन से नहीं कह रहा हूँ। डॉ० राजेन्द्र लाल मित्र और मि० बीम्स-सरीखे विद्वानों की भी यही राय है। पुराने समय के मुसलमान लेखक भी ऐसा ही मानते रहे हैं, जिसका अध्ययन आप पूर्व में कर चुके है। उर्दू नाम पुराना नहीं, नया है। १६७३ ई० में फ्रायर नामक एक विदेशी विद्वान् ने बादशाही दरबार की भाषा को फारसी और सर्वसाधारण की भाषा को इण्डोस्टान बताया है। पीट्रोडैलावेल नामक यात्री का यात्रा विवरण १६६३ ई० में प्रकाशित हुआ था। उसने एक ऐसी भाषा के विषय में कहा है, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रचलित थी और नागरी लिपि में लिखी जाती थी। वह भाषा हिन्दी के अतिरिक्त और कौन हो सकती है? जॉन ऑगिलबी ने १६७३ ई० में एक बड़ी पुस्तक एशिया के सम्बन्ध में लिखी थी, जिसमें उसने नागरी को लिपि और भाषा, दोनों बताया है। उसने लिखा है कि मधुर हिन्दोस्तानी भाषा बायीं ओर से सीधी और को लिखी जाती है। भला सोचने की बात है, क्या वह भाषा हिन्दी के अतिरिक्त कोई दूसरी हो सकती है?

वैसे भी उर्दू की उत्पत्ति शाहजहाँ के समय से मानी जाती है। विजेता मुसलमान हमारे घरों से दूर कोठियों में नहीं रहते थे और न वे यहाँ से लौटकर चले जाने की इच्छा से यहाँ आये थे। वे हमारे मोहल्लों और गलियों में रहते थे; बाज़ारों में दूकाने करते थे; यहाँ के करोड़ो हिन्दुओ ने भी उनका धर्म स्वीकार कर लिया था और उन्हीं में घुल-मिल गये थे। बहुत-से हिन्दुओं ने उनके यहाँ नौकरी कर ली थी; बहुत से उनके यहाँ "पिलुआ गुदड़ी तौल बाई" करने जाया करते थे। इन्हीं सब कारणों से अरबी-फारसी की शब्दवाली हिन्दी की जड़ जम गयी। 

अगर अँगरेज़ लोग भी इसी तरह हिन्दुस्तानियों से घुल-मिल जाते तो ऍग्लो- हिन्दुस्तानी भाषा की जड़ जमना असम्भव नहीं था, न है । वह उर्दू-हिन्दी पहले मुसलमानों और हिन्दुओं में पारस्परिक भाव प्रकट करने के काम में आयी। मनचले लोग इसमें कविता करने लगे। उसमें कुछ ढंग था; कुछ बात थी । वह कविता पसन्द की जाने लगी। बादशाहों और नवाबों ने उसे अपनाया।

उन्नति का अवसर उसके हाथ आया। धीरे-धीरे उसने साड़ी उतारकर पाजामा पहन लिया। दरबारों में उसका ज़िक्र होने लगा। सचमुच, ऐसा ही फिर हो, यदि अँगरेज़ लोग भी मुसलमानों की तरह यहाँ अपना घर बना लें और एंग्लो-हिन्दुस्तानी की कविता को प्रोत्साहन दें। बोल-चाल की ठेठ भाषा में भी रचना हुई किन्तु उसमें कोई समर्थ कवि नहीं हुआ। हुआ भी तो चमकने न पाया क्योंकि उसकी पहुँच तथाकथित दिग्गजों तक न थी। उस समय नयी अर्थात् अरबी-फारसी शब्दोंवालों की यों पूछ हुई, पुरानी का कोई धनी-धोरी न रहा। इसमें सुन्दरता की कमी न थी; मधुरता भी बहुत थी; सोच भी थी किन्तु अवसर न मिला। हाँ, जन-साधारण की भाषा होने के कारण यह जीवित रही। यह रूप अमर है।

इतिहास साक्षी है कि अतीव प्राचीन काल में आज की भिन्न-भिन्न जातियों के पूर्वज किसी एक स्थान पर बसते थे और वहाँ से तत्कालीन सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति में वे कई दलों में विभक्त हो, भिन्न-भिन्न दिशाओं में रवाना हुए। जहाँ कहीं आराम पाया, वे बस गये। आज उन्हीं के वंशज भारत, फारस, अरब, मलक्का, जावा, स्पेन, फ्रांस, इंग्लैण्ड, स्कैण्डिनेविया, जर्मनी आदि देशों में अनेक जातियों में विद्यमान मिलते हैं। इसके प्रमाण में इतिहासविद् जातीय आकार-स्वभाव आदि की तुलना कर आश्चर्यजनक समानता समुपस्थित करते हैं। 

तुलनात्मक भाषा-विज्ञान-विज्ञाता भी ऐतिहासिकों के आदिम स्थान-सम्बन्धी सिद्धान्त का समर्थन करते हुए कहते हैं कि सभी जातियों की भाषाओं में एकमूलता विद्यमान है, जिसका कारण यही है कि कभी उनके पूर्वजों का मूल स्थान एक ही था। उस मूल स्थान की नैतिक आवश्यकताओं के शब्द विभक्त होने पर भी त्यागे नहीं जा सके। इसी कारण पिता-माता, भाई-बहन, एक-दो, लेना-देना आदि पदों और धातुओं की तुलना करने से भिन्न-भिन्न भाषाओं में पूरा सादृश्य सहस्रों बाद भी बना हुआ है। यद्यपि पुरातन आदिम स्थान को भूतल पर दृढ़तापूर्वक इंगित करना असम्भव है तथापि मूल स्थान को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।

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