-->

आत्म बोध: भाषाटीका सहित सम्पूर्ण ज्ञान | Atmabodh BhashaTika Sahit

आत्मबोध : भाषाटीका सहितः जो जन्म मरणादि बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को चाहते हैं ऐसे मुमुक्षू पुरुष के लिये यह आत्मबोध नामक ग्रन्थ लिखा जाता है

आत्मबोध : भाषाटीका सहित


तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणाम् । 
मुमुक्षूणामपेक्षोऽयमात्मबोधो विधीयते ॥१ ॥ 

अन्वयः: - तपोभिः क्षीणपापानां शान्तानां वीतरागिणां मुमुक्षूणां अपेक्षः श्रयं प्रात्मबोधः विधीयते ॥ १ ॥ 


नित्य नैमित्तिक उपासना, चान्द्रायणादि व्रत, नेत्र आदि इन्द्रियों के निग्रहरूप अनेक प्रकार के तप करने से जिनके अन्तःकरण से राग द्वेषादि दूर हो गये हैं और पापों का नाश हो गया है, जिनकी चित्तवृत्तियां शान्त हो गई हैं, भोग वासनाओं का भी नाश हो गया है, जो जन्म मरणादि बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को चाहते हैं ऐसे मुमुक्षू पुरुष के लिये यह आत्मबोध नामक ग्रन्थ लिखा जाता है ॥ १ ॥


आत्म बोध :भाषाटीका सहित सम्पूर्ण ज्ञान | Atmabodh BhashaTika Sahit


अवतरण- तप जप योग आदि से मोक्ष हो सकता है और अन्यत्र कहा भी है। यहां केवल आत्मज्ञान से मोक्ष होना क्यों कहा? 


बोधोऽन्यसाधनेभ्यो हि साक्षान्मोक्षैकसाधनम् । 
पाकस्य वह्निवज्ज्ञानं विना मोक्षो न सिद्धयति ॥ २ ॥ 

अन्वयः- हि श्रन्यसाधनेभ्यः बोध: पाकस्य वह्निवत् साक्षात् मोक्षंकसाघनम्, ( यस्मात् ) ज्ञानं विना मोक्षः न सिद्ध्यति ॥२ ॥

 

मोक्ष के अन्यत्र जो जप तप योग आदि साधन कहे हैं वे परम्परा साधन हैं, अर्थात् जप तप योग आदि करने से आत्मज्ञान का अधिकारी होता है बाद आत्मज्ञान से मोक्ष साक्षात् कहा है। अर्थात् मोक्ष का साक्षात् कारण श्रात्मज्ञान ही है और सब सहकारी कारण हैं।


Read More: 



जैसे पाक में मुख्य कारण अग्नि ही है, काष्ठ अन्न जल स्याली चुल्ही दर्वी परिघट्टन आदि सहकारी कारण हैं। अतएव ज्ञान के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रुतियों में भी प्रति पादित है।


ज्ञान से ही मोक्ष 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्। 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः' अर्थात् होता है, ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता। और भी कहा है 'ज्ञात्वा देवं सर्वपाशापहानिः' अर्थात् प्रकाशरूप ब्रह्म को जानने पर ही सब बन्धनों की हानि ( नाश ) होती है। यही बात स्मृति में भी प्रतिपादित हैं। 


'तपसा कल्मषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते।' तप से अन्तःकरण के पापों का नाश होता है और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इससे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता ॥ २ ॥

 

अवतरण- विशिष्ट कर्मानुष्ठान से ही राजा जनक आदि श्रेष्ठ गति के भागी भये, अतः जब श्रेष्ठ कर्म के द्वारा प्रज्ञान का निर्मूल हो जाता है तब मुक्ति स्वयं ही हो जायगी, इससे ज्ञान के द्वारा प्रज्ञान का नाश मानना व्यर्थ क्यों न कहा जाय? 


नाविद्यां श्रविरोधितया कर्म विनिवर्तयेत् । 
विद्याऽविद्यां निहन्त्येव तेजस्तिमिरसंघवत् ॥ ३ ॥ 

अन्वयः- कर्म श्रविरोधतया श्रविद्यां न निवर्तयेत्, तेज: तिमिर संघवत् विद्या प्रविद्यां निहन्ति एव ॥३ ॥ 


कर्म तथा अविद्या एक दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। अर्थात् विरोधी नहीं हैं, किन्तु दोनों ही जड़ हैं। और "सति विरोधे बलवता दुर्बलो बाध्यते" इस न्याय से विरोध रहने पर हो बलवान् से दुबल बाधित होता है। अत: कर्म अविद्या का निवर्तक नहीं है किन्तु विद्या तथाविद्या परस्पर एक दूसरे के विरोधी हैं। 


जैसे प्रकाश के प्रादुभवि होने परन्धकार का नाश हो जाता है, उसी तरह विद्या के प्रादुर्भूत होने पर अविद्या का नाश हो जाता है। अर्थात् विद्या ही विद्या का निवर्तक है। मैं शुद्ध बोध मुक्तस्वरूप ब्रह्म हूं, इस प्रकार ज्ञान होने पर मैं मनुष्य हूं, सुखो हूं, दुखो हूं, इत्यादि अविद्यारूप ज्ञान का नाश हो जाता है ॥ ३ ॥ 


अवतरण- आत्मा प्रतिशरीर में परिच्छिन्न है, अर्थात् जन्म से ही नाशवान् प्रतीत होता है तो जीव ब्रह्म को एकता के ज्ञान होने से अज्ञान की निवृत्ति केसे?  


परिच्छिन्न इवाज्ञानात्तन्नाशे सति केवलः । 
स्वयं प्रकाशते ह्यात्मा मेघापायेंऽशुमानिव ॥४ ॥ 

अन्वयः- आत्मा अज्ञानत: परिच्छिन्न इव ( आभाति ) तन्नाशे सति मेघापाये अशुमान् इव केवलः स्वयं हि प्रकाशते ॥ ४ ॥ 


यद्यपि आत्मा अज्ञान से प्रतिशरोय में परिच्छिन्न ( परिमित ) के समान प्रतीत होता है तथापि अज्ञान के नाश होने पर अपरिच्छिन्न स्वयं प्रकाशरूप रहता है अर्थात् व्यापकरूप अद्वितीय आत्मा, अज्ञान से कल्पित देव मनुष्य आदि शरोर के अध्यास से परिच्छिन्न के समान प्रतीत होता है और जब 'तत्वमसि' 'तदेवाहं ब्रह्म' इत्यादि महा चाक्यों के द्वारा आत्मा और ब्रह्म में ऐक्य ज्ञान होने पर तथा अज्ञान से होने वाले मिथ्या अध्यारूप आरोप का नाश होने से सजातीय, विजातीय, स्वगत भेदों से रहित स्वप्रकाश ब्रह्मरूप प्रतीत होता है। 


जैसे अखण्ड सूर्यमण्डल बादलों के समूह से प्राच्छादित होने पर उसकी ज्योति जिस तरह जगह जगह बादलों के छिद्रों में से प्रकाशित होती है और बादलों के हट जाने पर सूर्यमण्डल का पूर्ण प्रकाश हो जाता है उसी तरह जब तक जीव इस अविद्यारूप शरीर में घिरा रहता है तब तक अखण्ड प्रात्मतत्त्व का ज्ञान नहीं होता और जब अविद्या दूर हो जाती है तब स्वयं ही प्रकाशमान ब्रह्मरूप प्रतीत होने लगता है ॥४ ॥ 


अवतरण-ज्ञान के नाश से केवल ( अद्वितीय ) ब्रह्मरूप आत्मा का होना सम्भव है, क्योंकि ज्ञान को नाश करने वाले वृत्तिज्ञान के होने से द्वेत की सिद्धि होगी, ब्रह्मज्ञान को नहीं। 


प्रज्ञानकलुष जीवं ज्ञानाभ्यासाद्धि निर्मलम् । 
कृत्वा ज्ञानं स्वयं नश्येज्जलं कतकरेणुवत् ॥ ५ ॥ 

अन्वय:- ज्ञानाभ्यासात् ज्ञानम् अज्ञानकलुषं जोवं हि निर्मलं कृत्वा जलं निर्मलं कृत्वा कतकरेणुवत् स्वयं नश्येत् ॥ ५ ॥


जीवात्मा अज्ञान से मलिन है परन्तु वास्तव में शुद्ध है। यह जीवात्मा कर्ता भोक्ता नहीं है किन्तु सत् चित् आनन्द स्वरूप है। जब जीवात्मा अज्ञान से अपने को कर्ता भोवता जीवरूप भ्रम के द्वारा मानता है। इस अवस्था में अज्ञान से मलिन भी जीवात्मा ज्ञान के अभ्यास से निर्मल है अर्थात् कर्ता भोक्ता से भिन्न सत् चित् आनन्द कूटस्थ साक्षोरूप ब्रह्म है। 


यह पूर्वोक्त ज्ञानाकार वृत्तिज्ञान को उत्पन्न कर जल को निर्मल करने वाली कतकरेणु ( निर्मली बूटी ) के समान बाप भी नष्ट हो जाता है। यह बात संशय रहित है ॥५ ॥  


अवतरण- जब संसार साक्षात् प्रत्यक्षरूप से सत्य प्रतीत होता है तो आत्मा के केवलरूपता के ज्ञान से ब्रह्म की अद्वैतता किस प्रकास सिद्ध हो सकती है? 


संसार: स्वकाले स्वप्नतुल्यो हि रागद्वेषादिसंकुलः  
सत्यवद्भाति प्रबोधेऽसत्यवद्भवेत् ॥६ ॥ 

अन्वयः- हि रागद्वेषादिसंकुलः स्वप्नतुल्यः संसार: स्वकाले सत्यवत् भाति, प्रबोधे असत्यवत् भवेत् || ६ || 


मिथ्या जगत् से आत्मा की अद्वैतता में हानि नहीं हो सकती। क्योंकि राग द्वेष आदि से व्याप्त यह संसार स्वप्न तुल्य है। स्वप्न के समय की जो अवस्था है वह स्वप्न काल में ही सत्य के समान प्रतीत होती है, किन्तु जब प्रबोध होता, अर्थात् जाग्रत अवस्था का प्रारम्भ होता है तब आत्मा और ब्रह्म की एकता के ज्ञान के बाद क्षण मात्र में असत्य ( मिथ्या ) सा दीखने लगता है। अतः मिथ्या जगत् से आत्मा की अद्वैतता में हानि नहीं हो सकती है ॥ ६ ॥ 


Read More: 



अवतरण - यदि संसार यथार्थ में स्वप्न के समान असत्य ही तो कब तक सत्य समान तथा असत्य किस प्रकार प्रतीत होता है?

 

तावत्सत्यं जगद्भाति शुक्तिकारजतं यथा ।
यावन्न ज्ञायते ब्रह्म  सर्वाधिष्ठानमद्वयम् ॥७

अन्वयः- यावत् सर्वाधिष्ठानं श्रद्वयं ब्रह्म न ज्ञायते, तावत् यथा शुक्तिकारजतं तथा सत्यं भाति ॥७ ॥ 


जब तक नील पृष्ठ वाला त्रिकोणाकार शुक्ति ( सोपी ) का ज्ञान नहीं होता तभी तक शुक्ति ( सोपो ) का रतन ( चांदी ) सत्य सा प्रतीत होता है। उसो तरह जब तक सब के अधिष्ठान अद्वेत ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता है तभी तक यह जगत् ( ससार ) सत्य सा दिखाई पड़ता है और ब्रह्मज्ञान के बाद हो शुक्तिरजत के समान मिथ्या प्रतीत होने लगता है ॥ ७ ॥ 


अवतरण- यह सम्पूर्ण जगत् ( संसार ) ब्रह्म में वास्तविक या कल्पित है इसको दृष्टान्त द्वारा स्थिर करते हैं


 सच्चिदात्मन्यनुस्यूते नित्ये विष्णौ प्रकल्पिता: । 
व्यक्तयो विविधाः सर्वा हाटके कटकादिवत् ॥ ८ ॥ 

अन्वय:- सच्चिदात्मनि मनुस्यूते नित्ये विष्णौ सर्वाः विविधा। व्यक्तयः हाटके कटकादिवत् प्रकल्पिता: ॥ ८ ॥


सत् चित् आत्मा धनुस्यूत अर्थात् जैसे मणियों में सूत्र पुहा रहता है और मणियां सूत्र में अनुगत हैं, इस प्रकार ओत-प्रोत और नित्य औौर व्यापक सब जगत् के उपादान कारणरूप ब्रह्म अनेक प्रकार की देव मनुष्य पशु कीट आदि व्यक्तियां इस प्रकार कल्पित हैं जैसे सुवर्ण में कटक कुण्डल आदि कल्पना मात्र हैं। वस्तुतः यथार्थ में सुवर्ण ही सत्य है इससे नानारूपात्मक जगत् कटक कुण्डल के समान मिथ्या है ओर शुद्धस्वरूप आत्मा सत्य है ॥५ ॥ 


अवतरण- यदि प्रपञ्च मिथ्या और जीव भेद असत्य है तो प्रपञ्च का अधिष्ठान रूप जो परमात्मा है वह सत्य और अद्वितीय किस प्रकार प्रतीत होता है?


यथाऽऽकाशो हृषीकेशो नानोपाधिगतो विभुः । 
दानिवद्भाति तनाशे सति केवलः ॥ 9॥

अन्वयः- यथा नानापाघिगतः विभुः प्राकाशः तद्भेदात् भिन्नवत् भाति, तन्नाशे सति केवलः हृषीकेशः ॥६ ॥ 


जिस तरह आकाश व्यापक है, परन्तु घट मठ गृह आदि उपाघियों में प्रविष्ट होने से उन उपाधियों के भेद से घटाकाश, मठाकाश धौर गृहाकाश इत्यादि रूप प्रतीत होता है और घट मठ गृह आदि पदार्थों के नष्ट हो जाने पर केवल आकाशमात्र शेष रह जाता है। 


इसी तरह हृषीकेश अर्थात् सम्पूर्ण इन्द्रियों का ईश्वर ( प्रेरक ) जो परमात्मा है वह विभु अनेक प्रकार के देहादि उपाधियों में प्रविष्ट होने से उन उपाधियों के भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, परन्तु उपाधियों के नष्ट हो जाने पर केवल एक सङ्ग ब्रह्मरूप ही रह जाता है ॥६ ॥ 


अवतरण - जब कि आत्मा केवल असङ्ग ब्रह्मरूप हो है, तो मैं ब्राह्मण हूं, मैं ब्रह्मचारी हूं, मैं सन्यासी हूं, मैं क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, इत्यादि, जाति वर्ण प्राश्रम आदि अनेक प्रकारके भेदों से युक्त आत्मा प्रतीत होता है, यह प्रतीत होना कैसा?


 नानोपाधिवशादेव  जातिनामाश्रमादयः ।
श्रात्मन्यारोपितास्तोये रसवर्णादिभेदवत् ।।१० ।। 

अन्वयःनानोपाधिवशात् एव तोये रसवर्णादिभेदवत् आत्मनि जातिनामाश्रमादयः प्रारोपिता: ( वर्तन्ते ) ॥ १० 


वस्तुतः आत्मा में जाति वर्ण आश्रम आदि धर्म कल्पित हो हैं अथार्थ नहीं हैं, जिस प्रकार जल में रस अर्थात् तिक्त कषाय लवण यादि के सम्बन्ध से जल का स्वाद भी कटु तिक्त कषाय लवण सा प्रतीत होने लगता है, और वर्ण अर्थात् नील पीत रक्त श्याम आदि रङ्ग के सम्बन्ध से नील पीत रक्त श्याम प्रतीत होने लगता है, परन्तु जल में वास्तविक मिष्ट रस और श्वेत वर्ण ही है। 

इसी प्रकार अनेक जाति वर्ण आाश्रम आदिकों के साथ एकता होने से आत्मा में भी भाषाटीका सहितः अनेक जाति वर्ण आश्रम श्रादि प्रतीत होते हैं, यह प्रतीत होना भ्रम है। वास्तव में जिस तरह जल निमन और शुद्ध है, उसो तरह आत्मा भी निर्मल और शुद्ध है। ॥ १० ॥ 


अवतरण- आत्मा में अविद्या से कल्पित स्थूल शरीर रूप उपाधियों का स्वरूप वर्णन


पञ्चीकृतमहाभूतसम्भूतं कर्मसञ्चितम् । 
शरीरं सुखदुःखानां भोगायतनमुच्यते ॥११ ॥

अन्वयःपञ्चीकृत महाभूतसम्भवं कर्मसञ्चितं शरीरं सुख दु.खानां भोगायतनं उच्यते ।।११ ।। 


पञ्चीकरण किये गये जो पञ्च महाभूत अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये जगत् के परिणामी उपादान कारण हैं, इनसे उत्पन्न और प्रारब्ध कर्मों से सञ्चित अर्थात् रचित जो स्थूल शरीर है वह शरीर प्रात्मा में कल्पित सुख दुःखों के भोगने का स्थान है ॥ ११ ॥ 


अवतरण- आत्मा में विद्या से कल्पित सूक्ष्म शरीर रूप उपाधियों का स्वरूप वर्णन


पञ्चप्राणमनोबुद्धि दशेन्द्रिपसमन्वितम् । 
प्रपञ्चीकृत मूतोत्थं सूक्ष्माङ्ग भोगसाधनम् ॥ १२ ॥ 

अन्वयः- पञ्चप्राणमनोबुद्धिदशेन्द्रिय समन्वितं प्रपञ्चीकृत मू तोत्थं सूक्ष्माङ्ग भोगसाधनं उच्यते || १२ || 


पञ्च प्राण अर्थात् प्राण, श्रपान, समान, उदान, व्यान और सङ्कल्प अन्तःकरण वृत्तिस्वरूप बुद्धि और दशेन्द्रिय अर्थात् पञ् ज्ञानेन्द्रिय ( आस्य, हस्त, लिङ्ग, गुदा, पाद ) इन सत्रह तत्त्वों से सम न्वित ( युक्त ) औौर प्रपञ्चोकृत पांच सूक्ष्म महाभूतों से उत्पन्न जो सूक्ष्म शरीर है वह भोगों का साधन अर्थात् कारण है ॥ १२ ॥ 


अवतरण - कारण शरीर रूप उपाधि स्वरूप वर्णन-


अनाद्यविद्यानिर्वाच्या कारणोपाधिरुच्यते । 
उपाधित्रितयादन्यमात्मानमवधारयेत् ॥१३ ॥ 

अन्वयः- प्रनिर्वाच्या अनाद्य विद्या कारणोपाविः उच्यते , श्रात्मानं उपावित्रितयात् ग्रन्यम् प्रवधारयेत् || १३ ||

 

सत्य तथा असत्यरूपा कहने से अनिर्वचनीय जो अनादि सिद्ध अविद्या अर्थात् माया है, वह समष्टि व्यष्टिरूप जगत् स्थूल सूक्ष्मरूप शरीर आदि का उपादान कारण है और कारणोपाधि कही जाती है, परन्तु पूर्वोक्त स्थूल, कारण शरीररूप ( इन तीन ) उपाधियों से आत्मा को भिन्न तथा साक्षीरूप समझ लें ॥ १३ ॥

 

अवतरण- उपाधित्रय से भिन्न सत् चित् आनन्दस्वरूप आत्मा हो परन्तु 'स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः' अर्थात् वह यह पुरुष अन्नरसमय है, इस श्रुति के प्रमाण से अन्नरसमय कोश रूप हो आत्मा प्रतीत होता है-


 पञ्चकोशादियोगेन तत्तन्मय इव स्थितः । 
शुद्धात्मा नीलवस्त्रादियोगेन स्फटिको यथा ॥ १४ ॥ 

अन्वयः- यथा स्फटिक: नीलवस्त्रादियोगेन तत्तन्मय इव ( प्रतीयते ), तथा शुद्धात्मा पञ्चकोशादियोगेन ( तत्तन्मय इव ) स्थितः || १४ || 


जिस तरह स्वभाव से शुद्ध स्फटिक मणि भी नील पीत रक्त आदि वस्त्रों के सम्बन्ध से भ्रमवश नील पोत रक्त वर्ण प्रतीत होता है; इसी प्रकार आत्मा भी निर्मल तथा शुद्ध है। 


परन्तु पञ्चकोश अर्थात् अन्न के रस से प्राप्त स्थूल देह अन्नमय काश, पञ्च कर्मेन्द्रिय तथा पञ्च प्राण अपानादिवायु प्राणमय कोश, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन मनोमयकोश, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा बुद्धि विज्ञानमयकोश, मलिन सत्त्वगुण के साथ कारण शरीरभूत प्रिय मोदादि वृत्ति सहित अविद्या मानन्दमयकोश कहा जाता है। 


Read More: 



इत्यादि के योग अर्थात् सम्बन्ध से आच्छादित सत् चित आनन्द स्वरूप आत्मा तत्तत् कोशों के साथ एकता के भ्रमवश अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय प्रौर आनन्दमय प्रतीत होता है। अन्नमयकोश के साथ एकता के भ्रम से अन्नमय प्रतीत होने पर, मैं स्थूल तथा कृश हूं। 


प्राणमय कोश के साथ एकता के भ्रम से मैं बुभुक्षित हूं'। मनोमय कोश के साथ ऐक्य भ्रम से मनोमय प्रतीत होने पर 'मैं शरोरी हूं'। विज्ञानमय प्रतीत होने पर मैं ज्ञानी तथा मूर्ख हूं। आनंदमय कोश के साथ एकता के भ्रम से आनन्दमय प्रतोत होने पर 'मैं सुखी हूं'। इत्यादि तत्तत् कोशमय आत्मा ही प्रतीत होने लगता है। अर्थात् कोशों के मिथ्या धर्म प्रात्मा में भ्रम से ही प्रतीत होते हैं। 


वस्तुतः श्रात्मा शुद्ध और पूर्वोत धर्म रहित एक है। 'स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः' इस श्रुति से संशयात्मक प्रश्नकर्त्ता आत्मा के विषय में निश्चय कर रहा है कि आत्मा क्या है? प्रश्न रसमय या इससे भिन्न है। अतः यह श्रुति भी संगत हो गई ॥ १४ ॥ 


अवतरण- आत्मा की कोशरूप प्रतीति होने का कारण पञ्चकोश के साथ आत्मा के सम्बन्ध से कोश में ही आत्मा का अध्यास होता है, परन्तु कोश तथा आत्मा के विचार करने से आत्मा कोश से भिन्न शुद्ध होता है। यह बात आगे के श्लोक से स्पष्ट हो जाती है। 


वपुस्तुषादिभिः कौशैयुंक्तं युक्तयाऽवघाततः । 
श्रात्मानमन्तरं शुद्धं विविच्यात्तण्डुलं यथा ॥ १५ ॥ 

अन्वय:- यथा तुषादिभिः कोश: ( युक्तम् ) तण्डुलम् अवघाततः ( तथा ) वपुः कोश: ( युक्तम् ) अन्तर शुद्धम् श्रात्मानं युक्तया विविच्यात् ॥१५ ॥ 


जिस प्रकार तप अर्थात् छिलके से युक्त चावल कूटने के द्वारा छिल्के से रहित होकर शुद्ध रूप प्रतीत होता है, उसी प्रकार वपुः अर्थात् शरीर रूप कोश से युक्त आत्मा पञ्चकोशों के अन्दर तथा विचारयुक्ति के द्वारा पञ्चकोशों से भिन्न और शुद्धरूप है ऐसा जानना। 


पञ्चमहाभूतों का कार्य अन्नमयकोश जो शरीर है वह आत्मा नहीं है, क्योंकि शरोर अनित्य है और आत्मा जन्म के पूर्व मरण के बाद भी रहने वाला नित्य है। पञ्चमहाभूतों का कार्य प्राण मय कोश जो पञ्चकर्मेन्द्रिय तथा पंच प्राण अपानादि वायु है वह आत्मा नहीं है, क्योंकि वह प्राणमय कोश जड़ है और वह आत्मा चेतन है। 


मनोमय कोश जो पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन है वह आत्मा नहीं है, क्योंकि वह मन संकल्प विकल्पात्मक है और आत्मा संकल्प विकल्प से रहित है। विज्ञानमय कोश जो पञ्त्र ज्ञानेन्द्रिय तथा बुद्धि है, वह परिणामी है और आत्मा सदा एक रूप रहने वाला है। 


आनन्दमय कोश जो मलिन सत्त्व गुण के साथ कारण शरीरभूत, प्रिय, मोद आदि वृत्ति सहित अविद्या है। वह आनन्दमय कोश तथा प्रिय मोदादि वृत्तियों से युक्त है, और आत्मा इन वृत्तियों से रहित, नित्य है। इसलिये क्षणस्थायी इस पञ्चकोश से भिन्न, नित्य, सत् चित् आनन्दरूप आत्मा है ।।१५ ।।


अवतरण– जब प्रात्मा नित्य और व्यापक है तो सर्वत्र देखने में क्यों नहीं आता है ? 


सदा सवगतोऽध्यात्मा न सर्वत्रावभासते ।
बुद्धावेवावभासेत स्वच्छेषु प्रतिबिम्बवत् ॥ १६ ॥ 

अन्वयः आत्मा सदा सर्वगतः अपि सर्वत्र न अवभासेत, स्वच्छेषु प्रतिबिम्बवत् बुद्धो एव अवभासेत || १६ || 


यद्यपि आत्मा सर्वदा ( भूत भविष्य वर्तमान काल में ) सर्वत्र घट पटादि पदार्थों में वर्तमान है, तथापि उस आत्मा की प्रतोति केवल बुद्धि में ही होती है, जैसे स्वच्छ पदार्थों में प्रतिबिम्ब की प्रतीति होती है। अर्थात् स्वच्छ दर्पण में स्वच्छ जल में प्रतिबिम्ब का भान होता है, इसी तरह स्वच्छ सत्त्वबुद्धि में ही आत्मा बसता है। और मलिन रजोगुण तमागुण से जायमान घट पटादि शरीर में आत्मा का भास नहीं होता ॥ १६ ॥ 


अवतरण- आत्मा सर्वत्र देह इन्द्रियादिकों में व्यापक रूप से रहकर भी उनसे भिन्न तथा विलक्षण स्वरूप है


 बेहेन्द्रियमनोबुद्धिप्रकृतिभ्यो विलक्षणम् । 
सद्वृत्तिसाक्षिणं विद्यादात्मानं राजवत्सदा ॥१७ ॥ 

अन्वय:- आत्मानं सदा राजवत् देहेन्द्रियमनोबुद्धिप्रकृतिभ्य: विलक्षणं तद्वृत्तिसाक्षिण विद्यात् ॥ १७ ॥ 


आत्मा सर्वदा राजा के समान देह इन्द्रिय मन बुद्धि प्रकृति से भिन्न तथा विलक्षण ( अर्थात् प्रकृति के कार्य जड़ तथा परिणामी कहे गये हैं धौर यह आत्मा इनसे भिन्न चेतन स्वरूप परिणाम रहित ) हैं औौर देह इन्द्रिय मन बुद्धि प्रकृति के कार्य का साक्षी है। अर्थात् जैसे सभास्थित राजा समस्त प्रजावर्ग से भिन्न और उन प्रजावर्ग के कार्य का साक्षी ( द्रष्टा ) मात्र है। इसी तरह आत्मा भी देह इन्द्रिय आदि से भिन्न उनके कार्य का साक्षीमात्र है ।। १७ ।। 


अवतरण - पूर्वश्शोक में आत्मा को साक्षी बतलाया, परन्तु साक्षी साक्ष्य से भिन्न होता है और यह आत्मा तो देह तथा इन्द्रियों के साथ व्यवहार करता हुआ प्रतीत होता है सो क्यों? ( वास्तव में आत्मा सभी व्यापार से रहित है केवल साक्षीमात्र है, जैसा कि गीता कहा है- " उपद्रष्टाऽनुमत्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । 


परमात्मेति चाप्युक्ती देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ " 


अर्थ- उपद्रष्टा अर्थात् प्रकृति के गुणों के समीप बैठ कर देखने वाले अनुमोदन करने वाले, भर्ता अर्थात् प्रकृति के बढ़ाने वाले और उपभोग करने वाले को ही इस देह में परपुरुष महेश्वर ओर परमात्मा कहते हैं। 


व्यापृतेष्विन्द्रियेष्वात्मा व्यापारीवाऽविवेकिनाम् । 
दृश्यतेऽभ्रेषु धावत्सु धावनिव यथा शशी ॥१८ ॥

अन्वयः– यथा शशी श्रभ्रषु धावत्सु धावन् इव दृश्यते, तथा अविवेकितां इन्द्रियेषु व्यापृतेषु झात्मा व्यापारी इव दृश्यते ॥ १८ ॥


जैसे चन्द्रमा मेघों के दौडने पर दौड़ता हुआ देखने में प्रतीत होता है उसी प्रकार अविवेकियों ( प्रविवारियों ) को विषयों के साथ इन्द्रियों के लीन होने पर अर्थात् जब इन्द्रियां विषयों के पास पहुंच कर व्यापार करने लगती हैं तब आत्मा भो व्यापार करता है ऐसा प्रतीत होता है अर्थात् मूर्ख पुरुष आत्मा को व्यापारी मान लेता है ॥ १८ ॥ 


अवतरण- जब जड़ पदार्थ देह तथा इन्द्रियां व्यापारी हैं तो इनमें चेतनता भी होनी चाहिए और चैतन्य होने से आत्म - सरूपता भी होनी चाहिये


श्रात्मचैतन्यमाश्रित्य देहेन्द्रियमनोधियः । 
स्वकीयार्थेषु वर्तन्ते सूर्यालोकं यथा जनाः | १६ ॥ 

अन्वयः- यया जनाः सूर्यालोकं आश्रित्य स्वकीयार्थेषु वर्तन्ते तथा देहेन्द्रियमनोधियः श्रात्मचैतन्यं श्राश्रित्य स्वकीयार्थेषु वर्त्तन्ते ॥१६ ॥ 


जैसे सांसारिक जन सूर्यनारायण के प्रकाश के आश्रय से अपने 'कार्यों में लगे रहते हैं, उसी तरह देह तथा समस्त इन्द्रियां और मन तथा बुद्धि ये सब आत्मा के नैतन्य का आश्रय लेकर स्वकार्य अर्थात् अपने विषयों में लगे रहते हैं। जैसा सूर्यालोक का जनसमुदाय के साथ सम्बन्ध है वैसा ही देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि का आत्मचैतन्य के साथ सम्बन्ध है। वास्तव में देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि में चेतनता नहीं है, इनमें केवल आत्मा की चेतनता का आभासमात्र होता है, यह भी प्रविवेकियों को। इसलिये जब ये देहादि चंतव्यहोन है तो इनमें आत्मसरूपता भी नहीं हो सकती है ॥ १६ ॥


अवतरण- ऊपर कहे हुए दृष्टान्तों से देहादि चेतनरूप नहीं है किन्तु आत्मा चेतन रूप है। परन्तु इस आत्मा में जन्म, योवन, वृद्धि, मरण, काण, अन्ध, बधिर, दर्शत, स्पर्श, श्रवण आदि के प्रतीत होने से प्रात्मा भी जन्म मृत्यु आदियुक्त प्रतीत होता है। सो अविवेक से आरोपित है वास्तव में आत्मा उपरोक्त धर्मों से रहित और शुद्ध है-


 देहेन्द्रियगुणान् कर्माण्यमले सच्चिदात्मनि।
श्रध्यस्यन्त्यविवेकेन गगने नीलिमादिवत् ॥ २० ॥ 

अन्वयः- मनले सच्चिदात्मनि अविवेकेन देहेन्द्रियगुणान् कर्माणि च गगने नोलिमादिवत् अध्यस्यन्ति ॥ २० ॥ 


शुद्ध सत् चित् आनन्दरूप आत्मा में अविवेक अर्थात् ज्ञान से देह इन्द्रिय के गुणों का तथा कर्मों का आरोप करते हैं। जैसे आकाश में नील पीत रक्त आदि का आरोप किया जाता है || २० || 


अवतरण - उक्त श्लोक से यह सिद्ध हुआ। कि देह तथा इन्द्रिय के जन्म मरण आदि धर्म आत्मा में नहीं हैं, परन्तु नैयायिक के मत से आत्मा कर्त्ता भोक्ता माना गया है और मैं सुखी, दुःखी, भोक्ता कर्ता आदि व्रतोति भी ऐसी ही होती है। क्योंकि कर्तृत्व भोक्तव श्रादि धर्म अन्तःकरण के हैं; परन्तु इन वर्मों का आत्मा में प्रतोत होना अन्तःकरण और आत्मा की एकरूपता के भ्र से आरोपित ही है- 


श्रज्ञानान्मानसोपाधेः कर्तृत्वादीनि चाऽऽत्मनि । 
कल्प्यन्तेऽम्बुगते चन्द्रे चलनादि यथाऽम्भतः ॥ २१ ॥ 

अन्वयः- यथा श्रम्बुगते चन्द्रे अम्भसः चलनादि कल्प्यते तथा मानसोपाधेः कर्तृ स्वादीनि च श्रज्ञानात् प्रात्मनि कल्प्यन्ते ॥ २१ ॥ 


जिस तरह जल में चन्द्रमा के प्रतिविम्ब पड़ने से जल के चलन कम्पन आदि धर्म चन्द्रमा के भी माने जाते हैं, वास्तव में चन्द्रमा में वे धर्म नहीं हैं। उसी तरह मानसोपाधि अर्थात् अन्तःकरण के जो कर्तृत्व मोक्तत्व आदि घर्म हैं वे भी आत्मा में भ्रम से कल्पित ही हैं। वास्तव में आत्मा में कर्तृत्वादि धर्म नहीं हैं ॥ २१ ॥ 


Read More: 



श्रवतरण - उक्त श्लोक से कर्तृत्व भोक्तृत्व आदि धर्म आत्मा में भ्रम से आरापित हैं, यह सिद्ध हुआ। इसी तरह अन्तःकरण के जो रागद्वेष प्रादि धर्म हैं वे भी आत्मा में भ्रम से आरोपित हैं। इस बात को अन्वय व्यतिरेक से समझाते है 


रागेच्छासुखदुःखादि बुद्धौ सत्यां प्रवर्तते । 
सुषुप्तौ नास्ति तन्नाशे तस्माद् बुद्धेस्तु नात्मनः ॥२२ ॥ 

अन्वयः - बुद्धौ सत्यां रागेच्छासुखदुःखादि प्रवर्तते, यतः सुषुप्तौ तन्नाशे सति रागेच्छासुखदुःखादि न अस्ति तस्मात् रागेच्छासुख दुःखादि बुद्धे. प्रस्ति, न श्रात्मनः अस्ति ॥ २२ ॥


बुद्धि का होना जाग्रत् और स्वप्न अवस्था में ही कहा गया है। इसलिये बुद्धि के रहने पर राग, द्वेष, इच्छा, सुख, दुःख आदि धर्म भी होते रहते हैं, परन्तु सुषुप्त अवस्था में बुद्धि का नाश हो जाता है। इसलिये कारण रूप बुद्धि के नाश होने से कार्य रूप राग, द्वेष, इच्छा, सुख, दुःखादि का भी नाश हो जाता है। अर्थात् बुद्धि के होने पर रागादि का होना अन्वय हुआ और बुद्धि के नाश होने पर रागादि का नाश होना व्यतिरेक हुआ। अतः इस अन्वय व्यतिरेक से रागादि धर्म बुद्धि के ही हैं वे आत्मा के नहीं हैं ॥ २२ ॥ 


अवतरण - उक्त श्लोक से राग द्वेष इच्छा सुख दुःख आदि धर्म बुद्ध के हो कहे गये हैं। आत्मा का स्वभाव वर्णन करते हैं -




( १ ) तत्सत्त्वे तत्सत्त्वमन्वयः। तदभावे तदभावः इति व्यतिरेकः। अर्थात् जहां उनके होने से उसका होना सम्भव होता है, यह अन्वय हुआ और जहां उसके प्रभाव से उसका प्रभाव होना माना जाता है, तो उसका व्यतिरेक कहते हैं।



प्रकाशोऽर्कस्य तोयस्थ शैत्यमग्नेर्ययोष्णता । 
स्वभावः सच्चिदानन्द नित्य निर्मलताऽऽत्मनः ॥२३ ॥ 

अन्वयः- यथा अकंस्य प्रकाशः, तोयस्प शैत्यम्, अग्नेः उष्णता स्वभावः ( वर्तते ) तथा श्रात्मनः सच्चिदानन्द नित्यनिर्मलता स्वभावः ( वर्तते ) || २३ || 


जैसे सूर्य का प्रकाश स्वभाव है, जल का शैत्य स्वभाव है और अग्नि का उष्णता स्वभाव कहा गया है, वैसे आत्मा का सत् चित् आनन्द नित्य निर्मलता स्वभाव है ॥२३ ॥ 


अवतरण- ऊपर के श्लोक से आत्मा सत् चित् प्रानन्द और निर्मल स्वभाव कहा गया है परन्तु 'मैं सुखो हूं, मैं दुःखी हूं, मैं इच्छा करता हूं, मैं राग करता हूं, मैं द्वेष करता हूं 'इत्यादि प्रतीति से सुख दुःख इच्छा राग द्वेष आदि का प्राश्रय प्रात्मा होना चाहिये। उसको आपने सच्चिदानन्द नित्य निर्मल स्वभाव कैसे कहा? 


श्रात्मनःसच्चिदंशश्च बुद्धेवृत्तिरितिद्वयम् । 
संयोज्य चाविवेकेन जानामीति प्रवर्तते ॥२४ ॥ 

अन्वय - श्रात्मनः सच्चिदंशः बुद्धे वृत्तिः च इति द्वयम् श्रविवेकेन संयोज्य जानामि इति प्रवर्तते ॥ २४ ॥ 


आत्मा का जो सत् चित् अंश है उसका प्रतिबिंब और जो अज्ञान स्वरूप बुद्धिवृत्ति में पड़ता है। इसीलिये इन दोनों को अविवेक ( जबर्दस्ती ) से मिलाकर 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं राग करता हूं, मैं प्रेम करता हूं, मैं द्वेष करता हूं' इत्यादि व्यवहार में जीव प्रवृत्त रहा करता है। वास्तव में आत्मा सुख दुःखादि धर्मों से रहित है; क्योंकि सुखाकार वृत्ति बुद्धि का परिणाम माना गया है, इसलिये सुख दुःख आदि का प्राश्रय बुद्धि है, आत्मा नहीं है ॥ २४ ॥ 


अवतरण- आत्मा के सत् चित् प्रानन्द निर्मल स्वरूप का वर्णन करते हैं-


आत्मनो विक्रिया नास्ति बुद्धेर्बोधो न जात्विति । 
जीवः सर्वमलं ज्ञात्वा कर्ता द्रष्टेति मुह्यति ॥ २५ ॥ 

अन्वय़- प्रात्मतः विक्रिया न अस्ति, जातु बुद्धे: बोष: न अस्ति, इति जोवः सर्वमलं ज्ञात्वा कर्ता द्रष्टा इति मुह्यति || २५ || 


आत्मा विकार रहित है, क्योंकि श्रुति में भी लिखा है 'निर्गुणं निष्क्रियं शान्तं निरवद्य 'निरञ्जनम्' अर्थात् आत्मा निर्गुण ( गुणशून्य ) निष्क्रिय ( क्रिया रहित ) शान्त निरवद्य ( पाप रहित ) और निरञ्जन ( निर्मल ) है। गीता में भी कहा है ' 


अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविका यो॑ऽप्रमुच्यते। 
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ।। 

अर्थात् इस आत्मा को ही अव्यक्त अर्थात् जो इन्द्रियों का गोचर नहीं हो सकता, अचिन्त्य अर्थात् जो मन से भी जाना नहीं जा सकता, और अविकार्य ( जिसे किसी भी विकार की उपाधि नहीं है ) कहते हैं। इसलिये उसे इस प्रकार का समझकर उसका शोक करना तुझे उचित नहीं है। और बुद्धि में बोध ( ज्ञान ) नहीं है, क्योंकि बुद्धि जड़ है, परन्तु अन्तःकरण में चेतन की चेतनता से प्रतिबिम्बित होने पर समस्त देह इन्द्रिय आदि जड़ पदार्थ चेतनरूप प्रतीत होते हैं। इस से अन्तःकरण और आत्मा के अभेद ज्ञान से ही बुद्धि के कर्ता भोक्ता आदि धर्म भ्रम से आत्मा में प्रतात होते हैं। अतः जीव सब के मल को अर्थात् धर्म को अपने में जानकर हो 'मैं कर्ता हूं' और 'द्रष्टा हूं' इस तरह मोह को प्राप्त होता है || २५ || 


अवतरण- ऊपर के इलोक से आत्मा निर्गुण निष्क्रिय और धविकार्य है और बुद्धि जड़ है, अर्थात् ज्ञान रहित है। भ्रमवश दूसरे के धर्म का अपने में आरोप कर जीव मुग्ध होता है यह कहा। अब श्रात्मा में मिथ्या आरोपरूप प्रज्ञान के फल और तत्त्वज्ञान के फल को आगे के श्लोक से कहते हैं -


रज्जुसर्पवदात्मान जीवं ज्ञात्वा भयं बहेत् । 
नाह जोवः परात्मेति ज्ञातं चेन्निर्भयो भवेत् ॥ २६ ॥ 

अन्वयः- ( मनुष्यः ) श्रात्मानं रज्जुसर्पवत् जीव ज्ञात्वा भयं वहेत्। यदा ग्रहं जोवः न किन्तु परमात्मा इति ज्ञातं चेतवा निर्भयः भवेत् || २६ || 


जैसे मनुष्य अन्धरे में पड़ी हुई रस्सी को देखकर भ्रमवश सर्प समझकर भयभीत हो जाता है वसे ही आत्मा को भी भ्रमवश जीव समझकर भयभीत होता है अर्थात् रज्जु में सर्प ज्ञान के बाद होने बाले भय कम्पादि के समान निर्गुण निष्क्रिय और अविकार्य आत्मा को जीव समझने से प्रात्मा में अनेक प्रकार के सुख दुःख प्रतीत होने लगते हैं और जन्म मरण रूप भय होता है, जैसा कि वद में लिखा है 'द्वितीयाद्व भयं भवति, उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति, न चे दहावेदोन्महतो विनष्टिः 'अर्थात् पुरुषों को द्वितीय ( द्वंत ) ज्ञान से" भय होता है । 


और जो किञ्चत् मात्र भेद करने वाला है उसको भय होता है अर्थात् सुख-दुःख जन्म मरणादि भय होते हैं। और जो आत्मज्ञान से रहित हैं उसकी बहुत हानि होती है। 


स्मृतिकार भी लिखते हैं कि 'ईषदप्यन्तरं कृत्वा रौरव नरकं ब्रजेत्।' अर्थात् आत्मा और जीव में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर करने वाला रोरव नरक को जाता है। और जब 'तत्त्वमसि' वाक्यों के उपदेश से मैं जीव नहीं हूं किन्तु सत् आनन्द स्वरूप हूं ऐसा समझता है, तब मनुष्य निर्भय हो जाता है। वह में भी लिखा है 'ब्रह्मविद ब्रहांव भवति' अर्थात् ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है || २६ || 


अवतरण- जब आत्मा, बुद्धि, मन आदि के समीप है तो चित्त अहंकार अन्तःकरण इन्द्रिय बुद्धि मन आदि उस समीपवर्ती आत्मा को क्यों देखते हैं? 


श्रात्मावभासयत्येको बुद्धयादीनीन्द्रियाणि च । 
दीपो घटादिवत्स्वारमा जस्तैनविभास्यते ॥ २७ ॥

अन्वयः- एकः आत्मा बुद्धयादीनि इन्द्रियाणि च बीपः घटादिवत् अवभासयति तैः जडः बुद्धयादिभिः इन्द्रियैश्च स्वात्मा न श्रवभा स्यते ॥ २७ ॥


आत्मा एक है अर्थात् असङ्ग है। वह आत्मा जड़ स्वरूप मन बुद्धि चित्त अहंकार अन्तःकरण और इन्द्रियों को प्रकाशित करता है अर्थात् बुद्धयादिकों पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है। इसलिये जो जड़ पदार्थ बुद्धयादि हैं उनका प्रकाशक आत्मा होता है, परन्तु बुद्धयादि तथा इन्द्रिय प्रात्मा के प्रकाशक नहीं होते हैं, क्योंकि प्रात्मा पर इन बुद्धयादि तथा इन्द्रिय का प्रकाश नहीं पड़ता है। जैसे दीपक का प्रकाश घटादि पदार्थों पर पड़ने से घटादि पदार्थों का प्रकाशक दीपक होता है, परन्तु दीपक पर घटादि पदार्थों का प्रकाश नहीं पड़ता। इसलिये घटादि पदार्थ दीपक के प्रकाशक नहीं होते हैं ॥ २७ ॥ 


अवतरण- ऊपर के श्लोक से जब यह सिद्ध हुआ कि आत्मा हो बुद्धयादिकों का प्रकाशक होता है, आत्मा का प्रकाशक बुद्धयादि नहीं होते हैं तो आत्मा का प्रकाशक कौन है अर्थात् आत्मा का प्रत्यक्ष कैसे होता है?


 स्वबोधे नान्यबोधेच्छा बोधरूपतयाऽऽत्मनः । 
न दोपस्यान्यदीपेच्छा यथा स्वात्मा प्रकाशते ॥ २८ ॥ 

अन्वयः- यथा दीपस्य अन्यदीपेच्छा न भवति तथा आत्मनः बोधहपतया स्वबोधे अन्यबोधेच्छा न भवति, किन्तु स्वात्मा स्वयं प्रकाशते ॥ २८ ॥ 


अपनी आत्मा स्वयं प्रकाशित होती है इस आत्मा को दूसरे के प्रकाश की अपेक्षा नहीं है, क्योंकि आत्मा स्वयं बोधरूप है। इसलिये आत्मबोध में अर्थात् धपनी आत्मा के बोध में दूसरे के बोध की श्रपेक्षा नहीं है। जैसे दीपक के प्रकाश के लिये दूसरे दीपक की अपेक्षा नहीं होती है ॥२८ ॥


अवतरण- जब आत्मा स्वयं प्रकाशित होता है अर्थात् आत्मा के साक्षात्कार में दूसरे प्रकाश को आवश्यकता नहीं है तो बिना यत्न के ही लोग मुक्त हो जायगे तब श्रवण मनन निदिध्यासन आदि जो मुक्ति के कारण माने गये हैं, वे व्यथं हो जायेंगे। 


निषिध्य निखिलोपाधीन्नेति नेतीति वाक्यतः । 
विद्यादेवय महावाक्यैर्जीवात्म परमात्मनोः ॥ २६ ॥ 

अन्वयः– नेति नेति वाक्यतः निखिलोपाघीन् निषिध्य महावाक्यः जीवात्मपरमात्मनोः ऐक्यं विद्यात् || २६ ||



 ( १ ) 'श्रोतव्यः श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः। मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शन हेतवः ॥ 'अर्थात् प्रात्मा वेदवचनों से श्रवण के योग्य है, और उप पत्तियों ( युक्तियों ) के द्वारा मनन के योग्य है, तथा मनन करके निरन्तर ध्यान के योग्य है। ये श्रवण मनन निदिध्यासन आत्मा के दर्शन में कारण माने गये हैं  
श्रवणं नाम – वेदान्तानां पद्वितीये ब्रह्मणि तात्पर्यावधारणानुकूला मानसी किया।' अर्थात् वेदान्त वाक्यों का अद्वितीय ( सजातीय विजातीय स्वगतभेद - शून्य ) ब्रह्म में तात्पर्य के निश्चयानुकूल मानसी क्रिया को श्रवण कहते हैं। 

(२)मननं नाम– ' शब्दावधारितेऽर्थे मानान्तरविरोधशङ्कायां तन्निराक रणानुकूलत र्कात्म कज्ञान जनकमानसव्यापारः। 'अर्थात् शब्द से निश्चित प्रथं में प्रमाणान्तरों के विरोध की आशङ्का आने पर उसके निराकरण के अनुकूल वर्करूप ज्ञानजनक मानस व्यापार को मनन कहते हैं। 


( ३) निदिध्यासनं नाम- प्रनादिदुर्वासनया विषयेष्वाकृष्यमाणस्य चित्तस्क विषयेभ्योऽपकृष्याऽत्मविषयकस्थैर्यानुकूलो मानसव्यापार:। अर्थात् अनादिकालिक दुर्गामना से विषयों से खींचे जाते हुए चित्त को विषयों से हटाकर प्रात्मविषयक स्वैर्वानुकूल मानस व्यापार को निदिध्यासन कहते हैं। 


( ४ ) ब्रह्म के साक्षात्कार ( प्रत्यक्ष ) में निदिध्यासन साक्षात् कारण है और निदिव्यासन में मनन कारण है तथा मनन में श्रवण कारण है।  


नेति नेति इस वाक्य से समस्त उपाधियों का निषध करके 'तत्त्वमसि' 'परमात्मा ब्रह्म' 'प्रज्ञानं ब्रह्म' अहं ब्रह्मास्मि श्रादि महावाक्यों से जीवात्मा और परमात्मा को एकता को जाने। अर्थात् 'स एष आदेशो नेति नेतीत्येतन्निरसनम्' इस व्यास के कथित सूत्र के अनुसार प्रथम यह समझे कि 'अन्य ब्रह्म' अर्थात् क्या अन्य ब्रह्म है? 


तो नेति पद से उसका निषेव करे अर्थात् अन्य ब्रह्म नहीं है। 'प्राणा: ब्रह्म' अर्थात् क्या प्राण ब्रह्म है? तो नेति पद से उसका भी निषेक करे अर्थात् प्राण ब्रह्म नहीं है। इसी तरह 'देहाः ब्रह्म' अर्थात् क्या दे ब्रह्म है? तो नेति वाक्य से उसका निषेध करे अर्थात् देह भी ब्रह्म नहीं है। 


इस प्रकार ब्रह्म ( आत्मा ) से जो भिन्न है उसका त्याग करे अर्थात् आत्मा से भिन्न पदार्थों को जड़ और असिमझे और जब इस प्रकार स्थूल सूक्ष्म काय कारणरूप नामरूपात्मक जगत् का अनित्य ज्ञान हो जाय तब 'तत्त्वमसि' 'अयमात्मा ब्रह्म' 'प्रज्ञानं ब्रह्म' 'अहं ब्रह्माऽस्मि' अर्थात् वह ब्रह्म तू हैं, यह जीवात्मा ब्रह्म है,अज्ञान ब्रह्म है, मैं ब्रह्म हूं, इन महावाक्यों से जीवात्मा और परमात्मा की एकता को जाने। 


उस एकताज्ञान को ही मुक्ति का कारण कहते हैं। अब 'एकताज्ञान का प्रकार कहते हैं।' समान विभक्त्यन्तोष व्याप्य योरर्थयोरमेदान्वयः' अर्थात् समान विभक्त्यन्तोपस्थाप्य अर्थो का अभेदान्वय होता है। इस नियम से 'तत्त्वमसि' यहां 'तत्' पद और 'एवं' पद समानविभक्त्यन्तोपस्थाप्य चैतन्यार्थं के बोधक होने से-




 ( १ ) अथ महावाक्यार्थी वर्ण्यते। इदं तत्त्वमसिवाक्यं सम्बन्ध त्रयेणाख ण्डार्थबोधकं भवति। सम्बन्धत्रयं नाम पदयोः सामानाधिकरण्यं पदार्थयोविशेष णविशेष्यभावः प्रत्यगात्मलक्षणयोर्लक्ष्यलक्षणभावश्चेति।  

( १ ) ननु जीवेश्वरयः किञ्चित्व सर्वज्ञत्वादिविशिष्टयोरत्यन्त विलक्षण योस्तत्त्वमस्यादिमहावाक्यानि परस्परविरुद्धार्थ प्रतिपादकानि कथमखण्डकरसं या प्रतिपादयन्तीत्याशंक्य साक्षादक्यप्रतिपादकत्वाभावेऽपि लक्षणया सम्बन्ध येणाखण्ड कार्य प्रतिपादयन्तीत्याह इदमिति।




परस्पर इनका अभेदान्वय होता है। उस पर सन्देह करते हैं कि 'तत्त्वमसि' यहां पर 'तत्' पदार्थ सर्वज्ञत्वविशिष्ट चैतन्य है। जैसे सुवर्ण के कुण्डलादि भूषण बनने पर उस भूषण के नाम रूप का बाध करके सामान्य सुवर्ण के साथ प्रभेद होता है। और भी उदाहरण इसके हैं जहां दो पदों का परस्पर भेद हो किन्तु अर्थ एक हो। जैसे घट और कुम्भ शब्द 


शब्द भेद होने पर भी दोनों का अर्थ एक ही है। प्रथवा 'सोऽयं देवदत्तः' ( यः काइयां दृष्ट :) अर्थात् यह वही देवदत्त है। ( जिसको काशी में देखा था ) इस वाक्य में 'सः' भयं देवदत्तः, ये तोन पद हैं। 'सः' पद परोक्ष देश और काल का बोधक है। इन दोनों पदों का देश कालरूप जो भिन्न-भिन्न अर्थ हैं उसका त्याग कर सामा न्यार्थ बोधक दोनों पदों का सम्बन्ध एक देवदत्त में ही होता है। 


इसलिये इसको बाघ-समानाधिकरण्य सम्बन्ध कहते हैं। इसी तरह 'तत्त्वमसि आदि महावाक्यों में' तत' पद का वाच्य अर्थ परोक्षत्व आदि और 'त्वं' पदार्थ अल्पज्ञत्वविशिष्ट चैतन्य है। जब परस्पर विरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक तत् त्व पद हैं तो दोनों अखण्ड और एक रस ब्रह्म के प्रतिपादक कैसे हो सकते हैं? 


उसका उत्तर करते हैं कि साक्षात् ऐक्य प्रतिपादक न होने पर भो लक्षणा और सम्बन्धत्रय से प्रतिपादक हैं। वह सम्बन्ध तीन प्रकार के हैं- सामानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्य भाव प्रोर लक्ष्यलक्षणभाव, इन तीनों में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध-




तदुक्तम्। " सामानाधिकरण्यं च विशेषणविशेष्यता लक्ष्यलक्षणसम्बन्धः पदार्थ प्रत्यगात्मनाम् ”॥ इति ।। सामानाधिकरण्य-सम्बन्धस्तावद्यथा सोऽयं देवदत्त इत्यस्मिन् वाक्ये तत्काल विशिष्टदेवदत्त वाचकायंशब्दस्यै तत्काल विशिष्ट देवदत्तवाच कार्यशब्दस्य चैकस्मिन् पिण्डे तात्पर्य सम्बन्धः। तथा च तत्त्वमसीति वाक्येऽपि परोक्षत्वादिविशिष्ट चैतन्यवाचकतत्पदस्या परोक्षत्वादिविशिष्ट चैतन्य · वाचकत्वम्पदस्य चैकस्मिश्चैतन्ये तात्पर्य सम्बन्ध :। विशेषण विशेष्यभावसम्बन्ध स्तु यथा तत्रैव वाक्ये स-शब्दार्थतत्काल विशिष्ट देवदत्तस्यायंशब्दार्थतत्कालवि शिष्टदेवदत्तस्य चान्योन्यभेदव्यावर्तकतया विशेषणविशेष्यभाव। तथाऽत्राफि



दो प्रकार का है। एक मुख्य सामानाधिकरण और दूसरा बाधर्सामा नाधिकरण्य। मुख्यसामानाधिकरण्य सम्बन्ध उसको कहते हैं कि जहां सुवर्ण के बने हुए आभूषणों का। धौर बाघसामानाधिकरण्य एक वस्तु का एक वस्तु के साथ प्रभेद हो। जैसे सूवर्णकार उसको कहते हैं कि जहां एक वस्तु का एक वस्तु के साथ बाघ करके सम्बन्ध विशेषणविशिष्ट चैतन्य हैं। 


'त्वं' पद का वाच्य अर्थ प्रपो क्षत्व प्रादि विशेषण विशिष्ट चैतन्य है। यहां दोनों पदों के वाच्यार्थ में विशेषणांश त्याग कर 'असि' पद में सामान्यार्थ बोधकतया सम्बन्ध को सामानाधिकरण्य सम्बन्ध कहते हैं और दूसरा विशेषणविशेष्य भाव सम्बन्ध है जैसे 'सोऽयं देवदत्तः' अर्थात् यह वही देवदत्त है। यहां देवदत्त विशेष्य पद है और 'सः श्रयं' ये दो विशेषण पद हैं। 


ये दोनों पद स्व-स्व देश और कालरूप अर्थ को त्याग कर देवदत्त के स्वरूप के बोधक होते हैं। इसी तरह 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों में भी 'तत्' पद का अर्थ परोक्षत्व धादि विशेषण सहित चेतन और 'त्वं' पद का अर्थ अपरोक्ष आदि विशेषण सहित चेतन है। 


इनमें दोनों विशेषणों का त्याग कर दोनों का 'असि' पद में सामानाधिकर होता है इसलिये विशेषणविशेष्य भाव सम्बन्ध है। 

तीसरा लक्ष्यलक्षण भाव सम्बन्ध है- जैसे 'सोऽयं देवदत्त' यहां 'सः' 'प्रयं' इन दोनों पदों के विशेषणांश के त्यागने पर केवल देवदत्त मात्र लक्षित होता है। इसी तरह 'तत्त्वमसि' इत्यादि महावाक्यों में भी 'तत्' पद का अर्थ पद्वितीय परोक्ष व्यापक चेतन है और 'पद का अर्थ सद्वितीय-



बाक्ये तत्पदार्थपरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य त्वम्पदार्थापरोक्षत्वादिविशिष्ट है तन्यस्य चान्योन्यभेदव्यावर्त कतया विशेषणविशेष्यभावः। लक्ष्यलक्षणसम्बन्धस्तु थथा त स शब्दाऽयंशब्दयोस्तदर्थयोर्वा विरुद्धतत्कालतत्काल विशिष्टत्व परित्यागेनाविरुद्ध देवदत्तेन सह लक्ष्यलक्षणभावः।तथात्रापि वाक्येतत्त्वम्पदयोस्त दर्थयोर्वा विरुद्धपरोक्षत्वापरोक्षत्वादिविशिष्टत्वपरित्यागेनाविरुद्धचैतन्येन सह लक्ष्यलक्षणभावः। इयमेव भाग ( त्याग ) लक्षणेत्युच्यते ॥ २३ ॥




अपरोक्ष परिच्छिन्न चेतन है। इन विरुद्ध धर्मों को छोड़ कर एक चेतन जो विरुद्ध घम से रहित लक्ष्य अर्थ है वह चक्षित होता है और इन पूर्वोक्त सम्बन्धों के द्वारा लक्षणा से जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है। 


वह लक्षणा तीन प्रकार की है- ( १ ) जहल्लक्षणा, ( २ ) प्रजहल्लक्षणा, ( ३ ) जहदजहल्लक्षणा।' यस्यां लक्षणायां शक्यार्थत्यागः, सा जहल्लक्षणा अर्थात् जिस लक्षणा में शक्त्या बाध्य अर्थ का त्याग हो उसे जहल्लक्षणा कहते हैं। यथा- 'गङ्गायां घोषः' अर्थात् जैसे गङ्गा में घोष ( अहोरों की बस्ती )। यहां गङ्गा का भागीरथ रथखातावच्छिन्न - जलप्रवाह रूप जो वाच्य ( मुख्य ) अर्थ है उसमें घोष का होना असम्भव है, अर्थात् प्रवाह में घोष असम्भावित होने से गङ्गा पद के वाच्यार्थ का त्याग कर गङ्गा पद का तीर में लक्षणा की जाती है। 


यहां गङ्गा पद के सम्पूर्ण वाच्य अर्थ का त्याग है, इसलिये इसको जहल्लक्षणा कहते हैं। घोर 'तत्त्वमसि' आादि महा वाक्यों में 'तत्' एवं 'दोनों पदों का चैतन्यरूप एक अर्थ है, परन्तु उसका त्याग नहीं है। इसलिये जहल्लक्षणा नहीं हो सकती है। 


अब प्रज हल्लक्षणा को कहते हैं- 'यस्यां लक्षणायां स्वार्थ संबलितलक्ष्यार्थ शेषः सा प्रजहल्लक्षणा' अर्थात् जिस लक्षणा में स्वार्थयुक्त लक्ष्य प्रर्थ का बोध हो उसे अजहल्लक्षणा कहते हैं। यथा-काकेभ्यो दधि रक्ष्य-




अस्मिन्वाक्ये नीलमुत्पल मिति वाक्यवद्वाक्यार्थी न सङ्गच्छते। तत्र तु नील पदार्थनीलगुणस्योत्पलपदार्थोत्पलद्रव्यस्य च शौक्ल्यपटादिभेदव्यावर्तक तयाऽन्यो म्य विशेषणविशेष्यभावसं सगं स्यान्यत र विशिष्टस्यान्यतरस्य तदैक्यस्य वा वाक्या त्वांगीकारे प्रमाणान्तरविरोधाभावात्तद्वाक्यार्थः संगच्छते। अब तु तदर्थपरोक्ष स्वादिविशिष्टचैतन्यस्य त्वमर्थापरोक्षत्वादिविशिष्टचैतन्यस्य चान्योन्यभेदव्या वर्तकतया विशेषण विशेषपभा व संवर्गस्यान्तर विशिष्टस्यान्यतरस्य तदैक्यस्य च वाक्यार्थत्वांगीकारे प्रत्यक्षादि प्रमाण विरोधाद्वाक्यार्थो न सङ्गच्छते। तदुक्तम्। " संसर्गों वा विशिष्टो वा वाक्यार्थो नात्र सम्मतः। अखण्डकरसत्वेन वाक्यार्थी विदुषां मतः " ॥ इति ॥ २४ ॥




ताम् अर्थात् जैसे — काकों से दही की रक्षा की जाय। यहां काक पद देने से दूसरों से रक्षा असम्भावित है इसलिये काक पद की दध्युप घातक में लक्षणा की गई। अर्थात् दध्युपघातकों से रक्षा की जाय। दूसरा उदाहरण- 'शोणा घावति' अर्थात् शोण ( लाल रङ्ग ) दौड़ता है। 


यहां लाल रङ्ग में दौड़ना असम्भव है इसलिये शोण पद को शोण अश्व में लक्षणा है। यहां स्वार्थ शोणा का त्याग नहीं है, किन्तु तद्युक्त प्रश्व का बाधक है, इसलिये इसका अजहल्लक्षणा कहते हैं। और 'तत्त्वमसि' प्रादि महावाक्यों में मजहल्लक्षणा नहीं हो सकती, क्योंकि उनमें सम्पूर्ण वाच्य अर्थ का ग्रहण नहीं है। 


मौर जहदजहल्लक्षणा उसको कहते हैं — 'यस्यां लक्षणायां कस्यचिदंशस्य त्यागः कस्यचिदं शस्योपादानं सा जहद जहल्लक्षण। 'अर्थात् जिस लक्षणा में किसी अंश का त्याग धीर किसी अंश का उपादान ( ग्रहण ) हो उसको जहदजहल्लक्षणा कहते हैं। यथा - 'सोऽयं देवदत्तः' अर्थात् वही यह देवदत्त है। 


यहां देश काल पुष्ट कृश आादि विशेषणों का त्याग करा पिण्डमात्र देवदत्त का ग्रहण होता है। इसी तरह 'तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों में समष्टि, व्यष्टि, स्थूल, सूक्ष्म आदि विरुद्ध अंशों का-




अत्र गंगायां घोषः प्रतिवमतोतिवाक्यवज्जहल्लक्षणापि न सङ्गच्छते। तत्र तु गङ्गा घोष यो राधेयभावलक्षणस्य वाक्यार्थस्य शेषतो विरुद्धघत्वाद्वाक्यार्थमशेषतः परित्यज्य तत्सम्बंधितोरलक्षणाया युक्तत्वाज्जहल्लक्षणा सङ्गच्छते। अत्र तु परीक्षा परोक्ष चैतन्यं रुत्वलक्षणस्य वाक्यार्थस्य भागमात्रे विरोधाद्भागान्तरमपि परित्यज्यान्यलक्षणया प्रयुक्तत्वाज्जहल्लक्षणा न सङ्गच्छते। 


न च गंगापदं स्वार्थ परित्यागेन तीरपदार्थ यथा लक्षयति तथा तत्पदं त्वम्पद वा स्वार्थपरित्यागेन त्वम्पदा तित्पदार्थ वा लक्षयत्वतः कुनोऽज हल्लक्षणा न संगच्छन इति वाच्यम्।तत्र तीरपदाश्रवणेन तदर्थाप्रतीतो लक्षणाया तत्प्रतीत्यपेक्षायामपि तत्त्वम्पदयोः श्रयमाणत्वेन तदर्थप्रतीतो लक्षणया पुनरन्यतरपदेनान्यतरपदार्थप्रतीत्यपेक्षा भावात् || २५ ||




त्याग कर व्यापक प्रखण्ड चैतन्यमात्र का जहदजहल्लक्षणा से बोघ होता है। इसको पौराणिक भागत्यागलक्षणा शब्द से कहते हैं। तापर्य यह हुआ कि अविद्या तथा माया दो माने जाते हैं। अर्थात् जीवोपाधि अविद्या कही जातो है और ईश्वरोपाचि माया कही जाती है। 


अविद्या में चैतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ने से जीव तथा माया में चैतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ने से ईश्वर कहा गया है। अर्थात् अविद्या का जीव के साथ सम्बन्ध है और माया का ईश्वर के साथ सम्बन्ध है। यहां ईश्वर पद से ब्रह्मा विष्णु महेश्वर लिये गये हैं अर्थात् इन्हीं तोन का सम्बन्ध माया के साथ है।


इसलिये माया के गुण जो सत्त्व रज और तम हैं इन तीन गुणों के साथ सम्बन्ध होने से ब्रह्मा रजोगुणो, विष्णु सत्त्वगुणी और महेश्वर तमोगुणी कहे जाते हैं। इन तीन देवों से परे जो तुरीप है उसको वैष्णव लोग कृष्ण कहते हैं और चौव लोग शिव शब्द से व्यवहार करते हैं। 


जो तुरोय कृष्ण कहे जाते हैं उनके प्रतिबिम्ब ब्रह्मा विष्णु महेश हैं अर्थात् बिम्बस्थानापन्न जो तुरीय कृष्ण हैं वे माया में प्रतिबिम्बित होने से माया के गुण सत्त्व रज तम का सम्बन्ध भी प्रतिबिम्बित ( ब्रह्मा विष्णु महेश ) के साथ ही हुआ करता है और जो तुरीय कृष्ण हैं उनके साथ नहीं होता है। 


जैसे मायास्थानापन्न दर्पण में दर्पणनिष्ठ दोषों का सम्बन्ध प्रतिबिम्बित-




अत्र शोणो धावतीति वाक्यवदजहल्लक्षणाऽपि न सम्भवति । तत्र शोण गुणगमनलक्षणस्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तदाश्रयाश्वादिलक्षणया तद्विरोधपरिहारसम्भवादजहल्लक्षणा सम्भवति । यत्र तु परोक्षत्वापरोक्षत्वादिवि शिष्टचैतन्यै कत्त्वम्य वाक्यार्थस्य विरुद्धत्वात्तदपरित्यागेन तत्सम्बन्धिनो यस्य कस्य चिदर्थस्य लक्षितत्वेऽपि तद्विरोधपरिहारासम्भवादजहल्लक्षणा न सम्भवत्येव । न च तत्पदं त्वम्पदं वा स्वार्थविरुद्धांश परित्यागेनांशान्तरसहितं त्वम्पदार्थो तत्पदार्थ वा लक्षयत्वतः कथं प्रकारान्तरेण भागलक्षणाङ्गीकरणमिति वाच्यम् । एकेन पदेन स्वार्थांशपदार्थान्तरीभयलक्षणाया असम्भवात्पदान्तरेण तदर्थप्रतीतो शक्षणया पुनस्तस्प्रतीत्यपेक्षाभावाच्च ॥ २६॥



पदार्थों के साथ हा होता है, बिम्ब के साथ नहीं होता। अर्थात् सासा मनुष्य की परछाईं पड़ने से सीसा के मालिन्यादि दोषों का असर परछाई पर होता है इसलिये परछाई सीसा के दोषों से युक्त होती है। 


मनुष्य पर सीसा के दोषों का असर नहीं होता है अर्थात् जंसे सीसा के मलिन होने से मनुष्य मलिन नहीं हो जाता इसो तरह मात्रा के गुण सत्त्व रज तम का सम्बन्ध विम्बस्थानापन्न तुरोय जो कृष्ण हैं उनके साथ नहीं है। अतएव वे कृष्ण शुद्ध अद्वितीय अखण्ड ब्रह्म हैं ॥२६ ॥ 


अवतरण --जब कि आत्मा असङ्ग है तो इस आत्मा के उपाधि भूत जो समष्टि व्यष्टि स्थूल सूक्ष्म आदि घर्म हैं उन धर्मों का त्याग न किया जाय और बिना त्याग के ही अखण्ड सत् चित् आनन्द स्वरूप आत्मा का ज्ञान क्यों न हो जाय?  


आविद्यकं शरीरादि वृश्यं बुद्बुदवरक्षरम् । 
एतद्विलक्षणं विद्यावहं ब्रह्मेति निर्मलम् ॥३० ॥ 

अन्वयः- आाविद्यकं दृश्यं शरीरादि बुद्बुदवत् क्षरं अस्ति, एतद्विलक्षणं ग्रहं ब्रह्म इति निर्मलं विद्यात् ॥३० ॥    


अज्ञान से कल्पित जो शरीर घट पट मठादि जितने जगत् के दृश्य पदार्थ हैं वे जल के बुल्ला के समान नाशवान् हैं और इन दृश्य शरीरादि पदार्थों से विलक्षण अर्थात् सत् चित् श्रानन्द नित्य निर्मल और अपने जीवात्मा का मैं ब्रह्म हूं अर्थात् उपाधिभूत समष्टि व्यष्टि स्थूल सूक्ष्म आदि धर्मों से रहित मैं ब्रह्म हूं ऐसा समझे || ३० || 


अवतरण— जीव और ब्रह्म में ऐक्य ( प्रभेद ) के मनन का प्रकार कहते हैं  


तस्माद्यथा सोऽयं देवदत्त इति वाक्यं तदर्थो वा तत्कालंतत्काल विशिष्टदेव दत्तलक्षणस्य वाक्यार्थस्यांश विरोधाद्विरुद्धतत्काल तत्काल विशिष्टांश परित्यज्या विरुद्धं देवदत्तांशमात्र लक्षयति तथा तत्त्वमसीति वाक्यं तदर्थो वा परोक्षत्वापरो क्षत्वादिविशिष्ट चैतन्यै कत्वलक्षणस्य वाक्यार्थस्यांशे विरोधाद्विरुद्धपरोक्षत्वा परोक्ष त्व विशिष्टांशं परित्यज्याविरुद्धमखण्ड चैतन्यमात्र लक्षयतीति ॥ २७ ॥


बेहान्यत्वाश मे जन्मजराकाइर्यलयादयः । 
शब्दादिविषयैः सङ्गो निरिन्द्रियतथा न च ॥ ३१ ॥

अन्वयः - देहान्यत्वात् मे जन्मजराकार्यलयादयः न सन्ति, निरि न्द्रयतया शब्दादिविषयैः सङ्गश्च न अस्ति ॥ ३१ ॥ 


मैं पुष्ट कृश स्थूल सूक्ष्म रूप शरीर से भिन्न हूं इसलिये जन्म बाल युवा जरा पुष्ट कृश स्थूल सूक्ष्म मरण क्षुधा तृषा आदि जो शरीर के धर्म हैं वे ब्रह्मरूप मुझ में नहीं हैं और मैं निरिन्द्रिय ( इन्द्रियों से रहित ) हूं इसलिये रूप रस गन्ध स्पर्श शब्दादि विषयों के साथ मेरा सम्बन्ध भी नहीं है। अर्थात् में विकाररहित सत् चित् अानन्द रूप और अखण्ड शुद्ध चैतन्य हूं ॥ ३१ ॥ 


अवतरण - दुःख सुख राग द्वेष भय संकल्प विकल्प मोह शोक आादि जो मन के धर्म हैं वे आत्मा में नहीं होते।-


अमनस्त्वान्न मे दुःखरागद्वेषभयादयः । 
प्राणोह्यमनाः शुभ्रइत्यादि श्रुतिशासनात् ॥३२ ॥ 

अन्वयः- अप्राण हि अमना: शुभ्रः इत्यादि श्रुतिशासनात् धमनस्त्वात् मे दुःखरागद्वेषभयादयः न सन्ति ॥३२ ॥ 


मैं अप्राण हूं अर्थात् मैं प्राणों से भिन्न हूं, मैं अमना हूं अर्थात् में अविद्या के मलों से रहित शुद्ध चैतन्य रूप हूं इत्यादिश्रुति ( वेद ) के शासन ( आज्ञा ) से मैं मन से भिन्न हूं अर्थात् मन के धर्म जो सुख दुःख राग व्रष संकल्प विकल्प भय शोक मोह आदि हैं वे मुझ में नहीं हैं, मैं अप्राण हूं अर्थात् प्राण के धर्म जो क्षुषा तृषा आदि हैं के मुझ में नहीं हैं, मैं शुद्ध चैतन्य रूप हूं ॥ ३२ ॥ 


अवतरण- प्राण मन समस्त इन्द्रिय भादि ब्रह्म से उत्पन्न हैं और वे पनित्य हैं 


एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च । 
खं वायुर्ज्योतिरापश्च पृथ्वी विश्वस्य धारिणी ॥ ३३ ॥

अन्वयः - प्राणः मनः सर्वन्द्रियाणि चख वायुः ज्योतिः प्रापः बिम्बस्य धारिणी पृथ्वो च एतस्मात् ब्राह्मणः सकाशात् जायते ॥३३ ॥


प्राण, मन, समस्त इन्द्रिय, आकाश, वायु, अग्नि, जल और चरा चर जगत् को धारण करने वाली पृथ्वी ये सब प्रपञ्चजात अविद्या के द्वारा उसी ब्रह्म से उत्पन्न होते हैं ।। ३३ ॥ 


अवतरण- प्रात्मा गुण किया सङ्कल्प विकल्पादि से रहित है। 


निर्गुणो निष्क्रियो नित्यो निर्विकल्पो निरञ्जनः । 
निविकारो निराकारो नित्यमुक्तोऽस्मि निर्मलः ॥ ३४ ॥ 

अन्वयः- ग्रहं निर्गुणः निष्क्रिय: नित्यः निविकल्पः निरञ्जन: निविकारः निराकार: नित्यमुक्तः निर्मलः अस्मि ॥३४ |


मैं निर्गुण हूं अर्थात् सत्त्व रज तम गुणों से तथा गुणों के कार्य जो बुद्धि राग द्वेष इच्छा प्रादि हैं उनसे भिन्न हूं और मैं निष्क्रिय हूं अर्थात् देह और क्रिया से रहित हूं तथा मैं नित्य हूं अर्थात् सर्वदा अखण्ड शुद्ध चैतन्य रूप हूं और मैं निर्विकल्प हूं अर्थात् संकल्प जो मन के धर्म हैं उनसे रहित हूं, तथा मैं निरञ्जन हूं अर्थात् माया का कार्य जो संसार रूपी मल है उससे भिन्न हूं और मैं निर्विकार हूं, अर्थात् उपचय और अपचय से रहित हूं, तथा मैं निराकार हूं अर्थात् निरवयव हूं और मैं नित्यमुक्त हूं अर्थात् अज्ञान से कल्पित जो मोह आदि बन्धन हैं उनसे रहित हूं , निर्मलहूं अर्थात् से कल्पित अविद्या रूप माया के बन्धन से रहित हूं, इस प्रकार अपने में भावना द्वारा स्थिर संस्कार होने पर प्राणी जीवन् मुक्त हो जाता है || ३४ || 


अवतरण- उक्त श्लोक से आत्मा को निर्गुण निष्क्रिय आदि कहा, परन्तु आत्मा देहवान् प्रतीत होता है अतः आत्मा को परिच्छिन्न होना पड़ेगा सो कहना ठीक नहीं। क्योंकि -


ग्रहमाकाश वत्स बंबहिरन्तर्गतोऽच्युतः । 
सदा सर्वसमः शुद्धो निःसङ्गो निर्मलोऽचलः ॥ ३५ ॥

धन्वय:- ग्रहं सदा श्राकाशवत् सर्वबहिरन्तगंतः अच्युतः सर्वसमः शुद्ध निःसङ्गः निमलः अचल : अस्मि || ३५ || 


मैं हमेशा अकाश के समान समस्त जड़ दृश्य पदार्थों के भीतर चेतन घोर बाहर व्याप्त हूं अर्थात्सब में रह कर भी उनसे पृथक् रूप हूं। यदि यह कहो कि जड़ पदार्थों में रहने से आत्मा का रहना जड़ पदार्थों के नष्ट होने पर आत्मा का भी नाश हो जायगा सो नहीं कह सकते हैं क्योंकि मैं अच्युत हूं अर्थात् समस्त माया- कल्पित जगत के नाश होने पर मेरा नाश नहीं होता क्योंकि मैं अधिष्ठान रूप हूं। 


यदि यह कहा कि अधिष्ठान रूप आत्मा सत्य अविनाशी है परन्तु अन्तःकरण में श्रापको सत्ता और चेतनता दोनों प्रतीत होती है और घट पटादि पदार्थों में केवल सत्ता की ही प्रतीति होती है इस से आत्मा में विषमता होने लगेगी सो कहना ठीक नहीं है क्योंकि मैं सदा सब पदार्थों में सम हूं।और सत्त्वगुण के कार्य होने से स्वच्छ अन्तःकरण में सत्ता और चेतनता दोनों प्रतीत होते हैं तथा तमोगुण के कार्य होने से मालीन घट पट दि में सत्तामात्र की प्रतीति होती है इसमें आत्मा का कोई दोष नहीं है। 

और मैं शुद्ध हूं पर्थात् पुण्य पाप से रहित हूं, तथा मैं निःसङ्ग हूं अर्थात् समस्त सम्बन्धों से रहित हूं, और मैं निमंत्र हूं अर्थात् सङ्कल्प विकल्पादि मलों से रहित हूं तथा में अचल हूं अर्थात् सत् चित् श्रानन्दरूप धर्मों से चलायमान नहीं होता हूं || ३५ || 


अवतरण - 'तत्त्वमसि' महावाक्य में त्वं पदार्थ जीवात्मा का स्वरूप वर्णन करता है और तत्पदार्थ परमात्मा का स्वरूप वर्णन करता, है अब इन दोनों पदों से ऐक्य प्रतिपादन को कहते हैं। 


नित्यशुद्ध विमुक्ते कमखण्डानन्दमद्वयम् । 
सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेव तत् ॥३६ ॥ 

अन्वयः- यत् नित्यशुद्धविमुक्तकं अखण्डानन्दं श्रद्वय सत्यं ज्ञानं अनन्तं परं ब्रह्म अस्ति तत् ग्रहं एव अस्मि ॥३६ ॥


जो नित्य अर्थात् भूत भविष्यत् वर्तमान काल में रहने वाला है और शुद्ध अर्थात् अविद्या आदि मलों से रहित है, तथा विमुक्त अर्थात् संसार से विरक्त है, और एक है अर्थात् सजातीय भेद शून्य है, तथा अखण्ड अर्थात् देश काल परिच्छेद शून्य है और मानन्द स्वरूप है तथा अद्वितीय अर्थात् विजातीय मोर स्वगत भेद शून्य है और सत्य ज्ञान अनन्त रूप परब्रह्म है वह मैं ही हूं। 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात् मैं सत्य ज्ञान अनन्त ब्रह्म हूं ऐसा वेद में भी लिखा है || ३६ || 


अवतरण - उक्त श्लोक से जीव और ब्रह्म के ऐक्य ज्ञान का प्रकार बतलाया। अब उस ऐक्य ज्ञान को अभ्यास के द्वारा दृढ़ करे और दृढ़ होने पर जीव ब्रह्म के ऐक्य ज्ञान से उत्पन्न विद्या उसी क्षण में अविद्या को और अविद्या से उत्पन्न जन्म मृत्यु सुख दुःख भय शोक आदि रूप संसार को नष्ट कर देती है-


 एवं निरन्तराभ्यस्ता बह्मैवास्मीति वासना | 
हरत्यविद्याविक्षेपान् रोगानिव रसायनम् ॥ ३७ ॥ 

अन्वयः- एवं ' अहं ब्रह्म एव अस्मि ' इति निरन्तराभ्यस्ता वासना रसायनं रोगान् इव विद्याविक्षेपान् हरति ॥३७ ॥ 


इस प्रकार 'मैं ब्रह्म ही हूं' इसके निरन्तर अभ्यास होने से उत्पन्न हुई वासना ( दृढ़ संस्कार ) रोगों को रसायन के समान अविद्या से उत्पन्न होने वाले चित्त विक्षेप को अर्थात् जीव और ब्रह्म के भेद ज्ञान को नष्ट कर देती है ॥ ३७ ॥ 


अवतरण- उक्त श्लोक से ऐक्य ज्ञान का प्रयोजन बतलाया अब ऐक्य ज्ञान में साधन को बतलाते हैं - 


विविक्तवेश ग्रासोनो विरागो विजितेन्द्रियः | 
भावयेदेकमात्मानं तमनन्तमनन्यधीः ॥ ३८ ॥ 

श्रन्वय : - यः पुरुषः विविक्तदेशे प्रासीन: विरागः विजितेन्द्रियः अनन्यधीः अस्ति तं एक अनन्तं आत्मानं भावयेत् ॥ ३८ ॥


जो पुरुष एकान्त तथा रूप रस गन्ध स्पर्श शब्दादि पवित्र स्थान में बेठकर विराग अर्थात् विषयों से रहित होकर तथा जितेन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों को वश में करके और अनन्यधी अर्थात् ब्रह्म में निश्चल बुद्धि होकर 'याने मैं ब्रह्म से भिन्न नहीं हूं' ऐसा समझ कर एक और अनन्त अर्थात् देश काल के परिच्छेद से रहित आत्मा है ऐसी भावना करे। इस प्रकार चिन्तन करने से ऐक्य ज्ञान दृढ़ हो जाता है ॥ ३८ ॥ 


अवतरण - जब प्रत्यक्ष रूप से व्यवहारदशा में प्रपञ्च जात वर्त मान है तो ऐक्य ज्ञान की भावना कैसे हो सकती है ?


 धात्मन्येवाखिलं दृश्यं प्रविलाप्य धिया सुश्रीः । 
भावयेदेकमात्मानं निर्मलाकाशवत् सदा ॥ ३६ ॥ 

अन्वयः- सुधीः धिया प्रखिलं दृश्यं आत्मनि एव प्रविलाप्य निर्मलाकाशवत् आत्मानं सदा एकं भावयेत् || ३६ ॥ 


सुधी अर्थात् शुद्ध अन्तःकरण वाला पुरुष बुद्धि से समस्त दृश्य प्रपञ्चजात् को अपनी आत्मा में ही लय करके अर्थात् आत्मा में कथन मात्र जा विकार है उसको दूर करके पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को प्रकाश में लीन करे तथा आकाश को मूल प्रकृति ( माया ) में और मूल प्रकृति ( माया ) को शुद्ध ब्रह्म में लान करे बाद निर्मल प्रकाश के समान आत्मा को सदा एक ( अखण्ड ) अर्थात् अद्वितीय चिन्तन करे || ३६ | 


अवतरण- समस्त दृश्य प्रपञ्चजात का त्याग कर समाधि में स्थित मुमुक्षु जन का स्वरूप वर्णन करते हैं- 


नामवर्णादिकं सर्व विहाय परमार्थवित् । 
परिपूर्ण चिदानन्दस्वरूपेणाव तिष्ठते ॥४० ॥ 

अन्वय- परमार्थवित् पुरुष: सर्व नामवर्णादिकं विहाय परिपूर्ण चिदानन्दस्वरूपेण अवतिष्ठते ॥४० ॥


परमार्थ जो मोक्ष कहा जाता है उसको अथवा ब्रह्म का जानने वाला जो ज्ञानी पुरुष है वह दृश्यमान जो प्रपञ्चजात है उसका त्याग कर परिपूर्ण ( व्यापक ) चित् ( चैतन्य ) और आनन्द रूप से स्थित रहता है। जैसे श्रीमद्भगवद्गोता में श्री कृष्णचन्द्र ने अर्जुन के प्रति कहा है :


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ॥ 
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥ १६॥ ' श्र .६ ।।

अर्थात् वायु रहित स्थान में रखे हुए दोपक की ज्योति जैसी निश्चल होतो है, वही उपमा चित्त को संयत करके योगाभ्यास करने वाले योगो को दी जाती है। इसके अतिरिक्त महाभारत में यह दृष्टांत है— 


तेल से भरे हुये पात्र को जीने पर से ले जाने में, या तूफान के समय नाव का बचाव करने में मनुष्य जैसा युक्त अथवा एकाग्र होता है योगी का मन वैसा हो एकाग्र रहता है। कठोपनिषद् में सारथी औौर रथ के घोड़ों का दृष्टांत दिया है ।। ४० || 


अवतरण- समाधि में स्थित योगी पुरुष को पृथ्वी आदि दृश्य प्रपञ्च के लय होने पर ज्ञाता ज्ञान और ज्ञोय का भेद और तीनों का समूहरूप प्रपञ्च के विद्यमान रहते भो दीपक का सादृश्य कैसा? 


ज्ञातंज्ञानज्ञेयभेद :परात्मनि न विद्यते ।
चिदानन्द करूपत्वाद्दीप्यते न स्वयमेवहि ॥४१ ॥

श्रन्वय:- चिदानन्दै करूपत्वात् परात्मनि ज्ञातज्ञानज्ञेय भेदः विद्यते, हि परमात्मा स्वयमेव दीप्यते ॥४१ ॥ 


निविकल्पक समाधि दशा में चित् आनन्द एक रूप होने से परमात्मा में ज्ञाता ज्ञान ज्ञय की भेद-प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि परमात्मा स्वयमेव प्रकाशित रहता है अर्थात् उसके ज्ञानार्थ अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। परन्तु सविकल्पक समाधि में ज्ञाता ज्ञान और ज्ञय की भेद प्रतीति होती है ॥४१ ॥


अवतरण - ब्रह्म और जीवात्मा के एकाकार प्रतीत होने का फल वर्णन करते हैं-


एवमारमारणो ध्यानमथने सततं कृते । 
उदितावगतिर्ज्याला सर्वाज्ञानेन्धनं बहेत् ॥ ४२ ॥ 

श्रन्वय:- एवं श्रात्मारणौसततं सततं ध्यानमथने कृते भवगतिज्वला उदिता सती सर्वाज्ञानेन्धनं दहेत् ॥ ४२ ॥  


इस प्रकार आत्मारूपी अरणि ( मन्थन काष्ठ ) में निरन्तर ध्यान रूपो मन्थन के करने पर अखण्ड ब्रह्माकार वृत्तिरूपा ज्वाला उदित होकर समस्तअज्ञान तथा अज्ञान के कार्य जन्म मरण आदि संसाय रूप इन्धन ( काष्ठ ) को भरम कर देती है जैसा कि श्रुति में प्रति पादित है -- 


' श्रात्मानमरणि कृत्वा प्रणबं चोत्तरारणिम् । 
ज्ञाननिर्मथनाभ्यासा इहे कर्म स पण्डितः ॥ ' 

अर्थात् आत्मा को नीचे की परणि और प्रणव को ऊपर की धरणि बना कर ज्ञान द्वारा मन्थन से जो कर्मों को भस्म करता है वह पण्डित है। गीता में भी कहा है 


' यथैवासि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । 
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ ' श्र ० ४ श्लो ० ३७ ॥ 

अर्थात् जिस प्रकार प्रज्ज्वलित की हुई अग्नि सब इन्धन को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार हे अर्जुन ! वह ज्ञानरूप अग्नि सब कर्मों को ( शुभाशुभ बन्धनों को ) जला डालती है ॥ ४२ ॥

 

अवतरण- उक्त श्लोक के कथनानुसार उत्पन्न हुई जो ज्वाला उससे अज्ञानरूपी इन्धन का नाश और अनावृत आत्मा के साक्षात्कार होने में पृथक्-पृथक् दो दृष्टान्त देते हैं— 


श्ररुणेनेव बोधेन पूर्वसन्तमसे हृते ।
तत आविर्भवेदात्मा स्वयमेवांशुमानिव ॥ ४३ ॥

अन्वयः – बोधंन ग्रहणेन इव पूर्वसन्तमसे हृते सति ततः श्रास्मा अंशुमान् इव स्वयमेव आविर्भवेत् ॥ ४३ | 


जैसे प्रथम सूर्य के सारथि अरुण के उदय लेने से गाढ़ अन्धकार के नाश होने पर सूर्यनारायण उदित होते हैं इसी तरह ज्ञान के उदय होने से अज्ञान रूप अन्धकार के नाश होने पर आत्मा स्वयं ही सूर्य के समान प्रकाशित होता है अर्थात् निर्मल ब्रह्मज्ञान हो जाता है। इसी बात को गीता में श्री कृष्णचन्द्र ने अर्जुन के प्रति कहा है


 'ज्ञानेन तु तदज्ञान येषां नाशितमात्मनः । 
तेषामादित्य षज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ ' ०५ श्लो ० १६ ॥ 

अर्थात् परन्तु ज्ञान से जिनका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है उनके लिये उन्हीं का ज्ञान परमार्थ तत्त्व को, सूर्य के समान प्रकाशित करा देता है ।। ४३ ॥  


अवतरण- आत्मा अपरोक्ष है और अपरोक्ष होने के कारण नित्य प्राप्त है, क्योंकि जो वस्तु नित्यप्राप्त है वह परोक्ष और अप्राप्त नहीं होती है


आत्मा तु सततं प्राप्तोऽध्य प्राप्त वदविद्यया । 
तन्नाशे प्राप्तवद्धाति स्वकण्ठाभरणं यथा ॥ ४४ ॥ 

अन्वयः– आत्मा सततं प्राप्तः प्रपितु अविद्या प्रप्राप्तवत् भाति, यथा तन्नाशे स्वकण्ठाभरणं तथा प्राप्तवत् भाति ॥ ४४ ॥


आत्मा ज्ञानदृष्टि से निरन्तर प्राप्त है, परन्तु श्रविद्या ( अज्ञान ) के द्वारा प्राप्त के समान प्रतीत होता है। जैसे अपने कंठ में पड़ा हुआ आभूषण प्रज्ञान वश अप्राप्त और ज्ञान यश प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या से अज्ञानियों को अप्राप्त के समान और अविद्या के नाथ होने पर प्राप्त के समान प्रतीत होता है। परन्तु आत्मा ज्ञान दृष्टि से सदा प्राप्त ही है ।॥ ४४ ॥ 


अवतरण- जिसका अपरोक्ष साक्षात्कार होता है वह अखण्ड ब्रह्म नित्यप्राप्त हो परन्तु जीवात्मा नित्यप्राप्त कैसे -


स्थाणौ पुरुषवद् भ्रान्त्या कृता ब्रह्मणि दृष्टे जोवता । 
जीवस्य तात्विके रूपे तस्मिन् दष्टे निवर्तते ॥ ४५ ॥ 

अन्वयः - स्थाणौ पुरुषवत् भ्रान्त्या कृता ब्रह्मणि जीवता कृता वर्तते, जीवस्य तस्मिन् तात्त्विके रूपे दृष्टे सति निवर्तते ॥ ४५ ॥

 

जिस प्रकार अन्धकार में स्थाणु ( वृक्ष खण्ड ) को देखकर पुरुष का भ्रम होता है परन्तु विशेष ज्ञान के होने पर भ्रम से प्रतीत होता है परन्तु जब 'तत्त्वमसि' महाकाव्यों के द्वारा जीव के तात्त्विक ( वास्तविक ) रूप का ज्ञान हो जाता है तब जीवभाव निवृत्त हो जाता है ॥ ४५ ॥ 


अवतरण- जब विवेकियों को भी महं मम ( मैं मेरा ) इत्यादि की प्रतीति होती है तो संसार को निवृत्ति किस प्रकार होती है? 


तत्त्वस्वरूपानुभवादुत्पन्नज्ञान मञ्जता |
ग्रहं ममेति चाज्ञानं बाघते दिग्भ्रमादिवत् ॥ ४६ ॥ 

अन्वयः- तत्त्वस्वरूपानुभवात् उत्पन्नं ज्ञानं ग्रजला दिग्भ्रमादि वत् ग्रहं मम इति प्रज्ञानं बावते च ।। ४६ ।। तत्त्वस्वरूपानुभव से अर्थात् ' तत्वमसि ' इत्यादि महाकाव्यों के द्वारा जीव और ब्रह्म की एकता के अनुभव से उत्पन्न जो ज्ञान वह श्रहं मम ( मैं और मेरा ) इस अज्ञान को रोक देता है अर्थात् नहीं होने देता है । जैसे सूर्यनारायण के उदित होने पर दिशामों में भ्रम ज्ञान नहीं होता है अर्थात सूर्योदय के पूर्व जो दिशाओं पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर श्रादि का भ्रमज्ञान होता है वह सूर्योदय के होने पर नहीं होता है ।। ४६ ॥ 


श्रवतरण- विवेकी ( प्रज्ञान निवृत्त ) की दृष्टि का वर्णन करते हैं । - 


सम्पग्विज्ञानवान् यंगो ग्वात्मन्येवाखिलं स्थितम् । 
एकंच सर्वमात्मानमीक्षते ज्ञानचक्षुषा ।। ४७ ।। 

अन्वयः सम्यक विज्ञानवान् योगी ज्ञानचक्षुषा अखिलंस्वात्मनि एवं स्थितं, सर्व लानं च एक ईक्षते ।। ४७ ।।


सम्यक् विज्ञानवान अर्थात् संख्यात्मक तथा विपरीत ज्ञानशून्य जो योगी है वह ज्ञानचक्षु से अर्थात् ज्ञानरूपी नेत्रों से समस्त जगतु को अपनी आत्मा में स्थित देखता है और सबको एक प देखता है। क्योंकि आत्मा से अतिरिक्त सत्र प्रपञ्चजात मिथ्या माना गया है । ४७ ।। 


अवतरण- प्रत्यक्ष सिद्ध संसार को आत्मा से भिन्न किस प्रकार कहते हैं? समाधान — जैसे उपादेय ( कार्य ) उपादान ( कारण ) से भिन्न प्रतीत होने पर भी बाधसामानाधिकरण्य सम्बन्ध से अभेद प्रतीत होता है इसी तरह संसार भी आत्मा से भिन्न प्रतीत होता है। 


श्रात्मैवेदं जगत्सर्वमात्मात्मनोऽन्यत्र विद्यते । 
मृदो घद्वद्घटादीनि स्वात्मानं सर्वमीक्षते ॥ ४८ ।। 

अन्वयः- यद्वत् सर्वाणि घटादीनि मृदः एव, तद्वत् इदं सर्वं जगत् श्रात्मा एव, श्रात्मनः अन्यत् न विद्यते। अतः विवेकी सर्व स्वात्मानं ईक्षते ॥ ४८ ॥ 


जिस प्रकार उपादेय ( कार्य ) रूप समस्त घट शराब आदि पदार्थ उपादान ( कारण ) रूप मृत्तिका से भिन्न नहीं है किन्तु केवल भिन्न प्रतीति होती है उसी तरह यह उपादेय कोई पदार्थ नहीं है। इसलिए विवेकी पुरुष समस्त जगत् को अपनी आत्मा स्वरूप ही देखता है। तात्पर्य यह हुआ जगत् आत्मा से भिन्न प्रतीत तो होता है परन्तु वास्तव में भिन्न नहीं है जैसे घट शराब मृत्तिका रूप ही है वैसे समस्त जगत् ग्रात्मरूप ही है ।। ४८ ।। 


अवतरण- विवेकी विद्वान् पुरुष की जीवन्मुक्ति अवस्था का वर्णन करते हैं 


जीवन्तु वितस्तु तद्विद्वान् पूर्वोपाधिगुणांस्टयजेत् ।
सच्चिदानन्दरूपत्वावेद भ्रमरकीटवत्॥४६ ॥

अन्वयः- यदा जीवन्मुक्तिस्तु तद्विद्वान् पूर्वीपाधिगुणान् त्यजेत् सच्चिदानन्दरूपत्वावेद भ्रमरकीटवत् हा भवेत् ॥ ४६ ।।


जब जीवन मुक्त पुरुष जीव और ब्रह्म क एकता ( अभेद ) ज्ञान को जानकर तत्त्वज्ञान से पूर्व में कथित जो उपाधियों के गुण है पर्थात् प्रकृति धर्म हैं। उनका श्रवण मनन निदिध्यासनादि द्वारा विवेक से त्याग करता है तब वह जीवन्मुक्त पुरुष सत् चित् आनन्द रूप होने से सच्चिदानन्द हो जाता है। 


जन भृङ्गी नामक कट भ्रमर के चिन्तन से भ्रमर हो जाता है उसी तरह ब्रह्म ज्ञानी पुरुष उपाधि रहित ब्रह्म में तन्मय होने से सच्चिदानन्द हो जाता है । ४६ ।। 


अवतरण- जीवनमुक्त पुरुष की स्थिति का वर्णन करते हैं। 


तीर्खा मोहार्णवं हत्वा रागद्वेषादिराक्षसान् । 
योगी शान्तिसमायुक्तोत्मारामो विराजते | । ५० ।। 

अन्वयः- आत्माराम: योगी मोहार्णवं तीर्त्वा रागद्वेषादिराक्षसान् हत्वा शान्तिसमायुक्तः हि विराजते ॥ ५० ॥ 


आत्मानन्दी योगी पुरष मोहरूप समुद्र को पारकर राग द्वेष आादि रूप राक्षसों का नाश कर शान्ति से युक्त होकर विराजमान होता है। जिस प्रकार पुराणपुरुषत्तम श्रीरामचन्द्र जी ने समुद्र को लांघकर समस्त राक्षसों का नाश कर शान्ति ( सीता ) से युक्त होकर श्री अयोध्यापुरी में विराजमान हुए । ५० ।। 


अवतरण - दृष्टान्त द्वारा जीवन मुक्त पुरुष का वर्णन करते हैं-


बाह्यानित्य सुखासक्ति हित्वाऽऽत्मसुखनिवृतः । 
घटस्वदीपवत्स्वच्छ स्वान्तरेव प्रकाशते ।। ५१ ॥ 

अन्वयः - बाह्यानित्यमुखासक्ति हित्वा आत्मसुख निर्वृ तः स्वान्त एव स्वच्छ: सन् प्रकाशते ।। ५१ ।। 


कर्ण अक्षि नासिका प्रादि वाह्य इन्द्रियों के विषय के साथ सम्बन्ध होने से उत्पन्न जो विषयानन्दरूपी अनित्य सुख उसमें आसक्ति ( प्रेम ) को त्यागकर और आत्मसुख में मग्न होकर घटस्थ ( घट के अन्दर स्थित ) दीपक के समान अपने अन्तःकरण में ही निर्मल होकर प्रकाश मान होता है । गीता मे मा श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्जुन के प्रति कहा है कि- 


'प्रजहाति व्दा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् । 
प्रात्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥म्र ० २ श्लोक ५५ ॥ 

अर्थात् हे पार्थ! जब ( कोई मनुष्य अपने ) मन के समस्त काम अर्थात् वासनाप्रों को छोड़ता है और अपने आप में ही सन्तुष्ट होकर रहता है तब उसको स्थितप्रज्ञ कहते हैं ॥ ५१ 


अवतरण- तत्त्वज्ञानी पुरुषों का विषयों के साथ जो सम्बन्ध होता है वह किस प्रकार है इसको दृष्टान्त द्वारा वर्णन करते हैं-

 

उपाधिस्थोऽपि तद्धमर्न लिप्तो व्योमवरमुनिः । 
सर्वविन्मूढवत्तिष्ठेदसवतो वांयुबच्चरेत् ।। ५२ ॥ 

मुनिः व्योषवत् उपाधिस्थोऽपि तद्धमै: न लिप्तः सर्व वित् मूढवत् तिष्ठेत् प्रसवतः वायुवत् घरेत् ॥ ५२ ।। 


मुनि अर्थात् उपनिषदों के द्वारा स्वान्तःकरण में मनन करने वाला तत्वज्ञानी पुरुष उपाधियों में स्थित होकर भी धूलि से प्रकाश के समान उपाधियों के सुख-दुःख ग्रादि धर्मों से लिप्त नहीं होता है और सर्वज्ञ होकर भी मूढ के समान रहता है तथा सवत होकर अर्थात् प्रारब्धवश प्राप्त विषयों में लवलीन न होकर वायु के समान अर्थात् जैसे वायु सुगन्धित पदार्थों में लवलीन न होकर विचरता है उसी तरह तत्त्वज्ञानी पुरुष भी विषयों में लवलीन न होकर विचरता है || ५२ || 


अवतरण- तत्त्वज्ञानी पुरुष को विदेह कैवल्यमुक्ति का वर्णन करते हैं-


उपाधिविलयाद्विष्णौ निविशेषं विशेन्सुनिः । 
जले जलं वियद् व्योति तेजस्तेजसि वा यथा ॥ ५३ ॥
 

अन्वयः- यथा जले जलं व्योम्नि वियत् वा तेजसि तेजः तथा मुनिः उपाधिविलयात् विष्णौ निर्विशेषं विशेत् ।। ५३ ।।


जैसे जल में जल, अर्थात नदी अपने स्वरूप का त्याग कर समुद्र रूप हो जाती है, आकाश में प्राकाश अर्थात् घटाकाश मठाकाश घट मठ उपाधि को छोड़कर महदाकाश में मिल जाता है भौर तेज में तेज अर्थात् दीपक का तेज अग्नि में मिल जाता है उसी प्रकार मुनि अर्थात् तत्त्वज्ञानी पुरुष देहादि उपाधियों के नष्ट होने पर व्यापक रूप परब्रह्म में अच्छी तरह मिल जाता है ।। ५३ ।। 


अवतरण- उक्त श्लोक से निर्विशेष रूप से परब्रह्म में यह बतलाया उस परब्रह्म का निरूपण करते हैं जिस परब्रह्म की प्राप्ति विदेह मुक्ति मवस्था में होती है-


यल्लाभानापरी लाभो यत्सुखानापरं सुखम् । 
यज्ज्ञानानापरं ज्ञानं तद् ब्रह्मोत्यवधारयेत् ।। ५४ ।। 

श्रन्वय:- यल्लाभात् श्रपर: लाभ: न, यत्सुखात् श्रपरं सुखं न यज्ज्ञानात् परं ज्ञानं न तत् ब्रह्म इति अवधारयेत् ।। ५४ ।। 


जिसके लाभ से बढ़कर दूपरा लाभ न हो और जिस सुख से बढ़कर दूसरा सुख न हो तथा जिस ज्ञान से बढ़कर दूसरा ज्ञान न हो उसको ब्रह्म स्वरूप निश्चय करे। गीता में भी कहा है कि- 


ज्ञानं तेव्ह सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः । 
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातध्यमवशिष्यते ॥श्र ० ७ श्लो ० २ ॥ 

अर्थात् हे पार्थ! विज्ञान समेत इस पूरे ज्ञान को मैं तुझ से कहता हूं, कि जिसको जानकर इस लोक में कल्याणमार्ग में वर्तमान पुरुष को ज्ञातव्य शेष नहीं रह जाता है। 


अर्थात् ब्रह्म के लाभ में समस्त जगतु का लाभ अन्तर्गत है और ब्रह्म के सुख में संसार मात्र का सुख अन्तर्गत है तथा ब्रह्मज्ञान के अन्तर्गत समस्त संसार का ज्ञान हो ता है घोर ब्रह्मज्ञान ही मोक्ष का कारण है ऐसा निश्चय करे ॥ ५४ ॥ 


अवतरण- उक्त विषय का ही विवरण करते हैं-


यद् दृष्टवा न परं दृश्यं यद् भूत्वा न पुनर्भवः । 
यज्ज्ञात्वा न परं ज्ञानं तद् ब्रह्मेत्यवधारयेत् ॥ ५५ ॥ 

अन्वयः- यत् दष्टवा परं दृश्यं न, यत् भूत्वा पुनर्भवः न, यत् ज्ञाता परं ज्ञानं न तत् ब्रह्म इति अवधारयेत् ।। ५५ ।। जिसको देखने पर अर्थात् जिसके साक्षात्कार होने पर दूसरा कोई भी देखने योग्य नहीं रह जाता है, क्योंकि बह्म को देख लेने पर ब्रह्म में कल्पित जगत् का साक्षात्कार हो जाता है और जिस ब्रह्म रूप में होकर पुनर्भव ( पुनर्जन्म ) नहीं होता है गीता में भी कहा है कि-


अव्यबतोऽक्षर इत्युक्तस्माहुः गतिम् । 
परमां यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ प्र ० ८ श्लो ० २१ ॥ 

अर्थात जिस अव्यक्त को 'अक्षर' कहते है, जो परम अर्थात् उत्कृष्ट अन्त की गति कहा जाता है और जिसको प्राप्त कर पुनः लौटना नहीं होता है वह मेरा ही घाम ( स्थरूप ) है। ममैव यहां उपचार में षष्ठी है राहो: शिर: ( राहु के शिर ) के समन। 


अतः सिद्ध हुपा कि मैं ही परम गति हूं और जिसको जानकर दूसरा ज्ञातव्य नहीं रह जाता है क्योंकि कारण से भिन्न कार्य की सत्ता नहीं मानो जाती है अर्थात् कारण ज्ञान से समस्त कार्य का ज्ञान हो जाता है ऐसा जो है उसको ब्रह्म जानकर स्थिर करे ।। ५५ ।। 


अवतरण- उक्त श्लोकों से सिद्ध हुआ कि ज्ञानी पुरुष को विदेह कवल्य अवस्था के द्वारा परमब्रह्म में प्राप्ति होती है उस पर सन्देह होता है कि वह ब्रह्म पर ( अव्यापक ) है अथवा अपरिच्छिन्न ( व्यापक ) है। 


यदि वह परिच्छिन्न ( एकदेशी ) है तो नाशवान् होने से परम पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं होगी और यदि अपरिच्छिन्न ( सर्व ध्यापक ) है तो उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसका उत्तर ब्रह्म निरूपण द्वारा करते हैं-


तिथंगूध्वंमध : पूर्ण सच्चिदानन्दमद्वयम् | 
अनन्तं नित्यमेकं यत्तद् ब्रह्मत्यवधारयेत् ॥ ५६ ।।

धन्वयः– यत् तिर्यक् ऊध्वं प्रवः पूर्ण सच्चिदानन्दं षद्वयं मनन्तं नित्यं एवं तत् ब्रह्म इति अवधारयेत् ।। ५६ ॥ 


जो तिर्यक अर्थात पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशाओं में और ऊपर नीचे सर्वत्र सत् चित् आनंद रूप से परिपूर्ण है और अद्वितीय अर्थात उसके अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ नहीं है तथा अनन्त अर्थात् देश काल वस्तु के परिच्छेद से रहित है और नित्य अर्थात् सत्य है। तथा एक है अर्थात् सजातीय विजातीय स्वगत भेद से रहित है ऐसा जो है उसको ब्रह्म जानकर स्थिर करे। 


अवतरण – 'नेति नेति' वाक्य द्वारा अर्थात् यह ब्रह्म नहीं है यह ब्रह्म नहीं है इत्यादि निषेध द्वारा ब्रह्म का निरूपण करते हैं — 


प्रतद्वयावृत्तिरूपेण वेदान्ते लक्ष्यतेऽव्ययम् । 
प्रखण्डानन्दमेकं यत्तत् ब्रह्मोत्यवधारयेत् ॥ ५७ ॥ 

भन्षयः- यत् वेदान्ते मतद्वयावृत्तिरूपेण अध्ययं अखण्डानन्हं एकं लक्ष्यते तत् ब्रह्म इति अवधारयेत् ।। ५७ ॥ 


वेदान्तादि ग्रन्थों में आत्मा से भिन्न की व्यावृत्ति ( निषेध ) रूप से अर्थात यह ब्रह्म नहीं है, यह ब्रह्म नहीं है इत्यादि रूप से जो शेष अव्यय ( अविनाशी ) है और तत्त्वमसि इत्यादि वाक्यों के द्वारा प्रचण्ड मानन्द एक सुखरूप सिद्ध होता है वह ब्रह्म है ऐसा उसको समझे ॥ ५७ ॥ 


अवतरण - जब ब्रह्मा विष्णु महेश इन्द्र आदि देवताओं को भी आनन्द के भोक्ता शास्त्र में कहा है तब केवल ब्रह्म को ही आनंद के भोक्ता कैसे कहा? 


प्रखण्डानन्दरूपस्य तस्याऽऽनन्दलवाश्रिताः । 
ब्रह्माद्यास्तारतम्येन भवन्त्यानन्दिनोऽखिलाः ॥ ५८ ॥ 

अन्वयः- तस्य अखण्डानन्दरूपस्य श्रानन्दलवाश्रिताः अखिलाः ब्रह्माद्या: तारतम्येन धानन्दिनः भवन्ति ।। ५८ ।।


अखण्ड ब्रह्मानन्द रूप के आनन्द लेश के आश्रय होकर समस्त ब्रह्मा विष्णु महेश इन्द्र आदि अपने-अपने पुण्य के अनुसार अर्थात् न्यून अविक भाव से आनंद युक्त होते हैं अर्थात उस अखण्ड ब्रह्मानन्द का अंशमात्र जो इन देवताओं में प्रतीत होता है वह क्षुद्र आनन्द है और ब्रह्मानन्द तो पूर्ण आनन्द है उससे परे कोई आनंद ही नहीं है जो कि विदेह अवस्था में स्थित पुरुष को ही होता है ॥५८ ॥ 


अवतरण- उक्त श्लोक से अखण्ड ब्रह्मानन्द के अंशमात्र आनंद के सम्बन्ध से ब्रह्मा विष्णु इन्द्र आदि देवता भी आनन्दयुक्त सिद्ध हुए। अब संदेह यह होता है कि जिसके लेशमात्र आनंद के सम्बन्ध से समस्त देवता आनन्दित होते हैं वह अखण्ड ब्रह्मानन्द कहां रहता है? 


तद्यवतमखिलं वस्तु व्यवहारस्तदन्वितः । 
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म क्षीरे सपिरिवाखिले ।। ५६ ।। 

अन्वयः- प्रखिले क्षीरे सपिः इव प्रखिलं वस्तु तद्य क्तम्, व्यव्हार: तदन्वितः तस्मात् ब्रह्म सर्वगतं प्रस्ति ।। ५६ ॥ 


जिस तरह समस्त दूध में व्याप्त होकर घृत रहता है उसी तरह समस्त वस्तुजात अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण घट पट मठ आदि पदार्थ उस ब्रह्म से युक्त हैं और जगत् के जितने लेन-देन गमन-आगमन भोजन आादि व्यवहार हैं वे भी उस अखण्ड ब्रह्मानन्द से युक्त हैं। जैसा कि गीता में श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्जुन के प्रति कहा है-


सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । 
प्रसक्तं सर्वभूच्चैव निर्गुणं गुणभोवत च ॥प्र ० १३ इलो ० १४ ॥ 

अर्थात् उसमें सब इन्द्रियों के गुणों का आभास है, पर उसके कोई भी इन्द्रिय नहीं है, वह सबसे असवत अर्थात् अलग होकर भी सबका पालन करता है घोर निर्गुण होने पर भी गुणों का उपभोग करता है। इससे वह ब्रह्म सबों में व्यापक रूप से स्थित है यह सिद्ध हुघ्रा ।। ५६ ।।


अवतरण- जब ब्रह्म समस्त प्रपञ्च में अनुगत है यह सिद्ध हुआ तो वह ब्रह्म प्रश्व के धर्मों से युक्त क्यों नहीं है ?


 अनण्वस्थूलमहस्वमदीधंमजमव्ययम् ।
श्ररूपगुणवर्णाख्यं तद् ब्रह्मत्यवधारयेत् ॥ ६० ।। 

अन्वयः- यत् अनणु प्रस्थूलं ग्रह्वस्वं प्रदीर्घ प्रजं अध्ययं प्ररूपगुण वर्णाख्यं अस्ति तत् ब्रह्म इति अवधारयेत् ।। ६० ।। 


जो वस्तु न अणु ( सूक्ष्म ) है और न स्थूल है तथा न ह्रस्व है और न दीर्घ है तथा जन्म से रहित है और अविनाशी है तथा रूप, गुण और ब्राह्मणत्व आादि वर्णों से रहित है वह ब्रह्म है ऐसा मुमुक्षु जन निश्चय करें । ६० ।। 


अवतरण- सूर्यादिकों में उसी ब्रह्म का तेज है और उन सूर्यादिकों के तेज से ब्रह्म प्रकाशित नहीं होता है - 


यद्भासा भासतेऽर्कादिर्भास्यैर्यत्तु न भास्यते । 
येन सर्वमिदं भाति तद् ब्रह्मत्यवधारयेत् ॥ ६१ ।। 

अन्वयः- यद्भासा अर्कादि: भासते, यत् तु भास्यैः न भास्यते, इ सर्व येन भाति तत् ब्रह्म इति श्रवधारयेत् ॥ ६१ ॥ 


जिस ब्रह्म के तेज से सूर्य, चन्द्र आदि का प्रकाश होता है और जो प्रकाश्य सूर्य, चन्द्र आदि के तेज से प्रकाशित नहीं होता है तथा यह दृश्यमान समस्त जगत् जिस ब्रह्म से प्रकाशित होता है वह ब्रह्म है ऐसा निश्चय करें ।। ६१ ।। 


अवतरण - ब्रह्म को दूसरे के तेज की आवश्यकता नहीं है वह ब्रह्म स्वयं प्रकाशित होता है इस बात को दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं।-


 स्वयमन्तर्बहिर्व्याप्य भासयनखिलं जगत् । 
ब्रह्म प्रकाशते वह्नितप्तायस पिण्डवत् ॥ ६२ ।। 

:-वह्निप्रतन्तायसपिण्डवत् अन्तर्बहिः व्ताप्य श्रखिलं जगत् भासयद् ब्रह्म स्वयं प्रकाशते ।। ६२ ।।


जिस तरह अग्नि से सन्तप्त लोहपिण्ड के भीतर बाह्र व्याप्त अग्नि स्थित है और लोहपिण्ड को प्रकाशित करता हुआ अग्नि स्वयं भी प्रकाशित होता है, उसी तरह बाहर और भीतर व्याप्त होकर समस्त जगत् को प्रकाशित करता हुआ ब्रह्म स्वयं भी प्रकाशित होता है अर्थात् ब्रह्म सब में श्रोत-प्रोत है अर्थात् ब्रह्म अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।। ६२ ।। 


श्रवतरण- ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है इसको दृष्टान्त के द्वारा स्थिर करते हैं - 


जगद्विलक्षणं ब्रह्म ब्रह्मणोऽन्यन्त्र किञ्चन । 
ब्रह्मान्यद्भाति चेन्मिथ्या यथा मरुमरीचिका ।। ६३ ।। 

अन्वयः- जगद्विलक्षणं वर्तते, ब्रह्मणः श्रन्यत् किञ्चन न अस्ति, ब्रह्मान्यत् किञ्चन भाति चेत् तहि यथा यथा मरुमरीचिका तथा मिथ्या १३ ॥ 


ब्रह्म जगत् से विलक्षग है अर्थात् जड़ मिथ्या और दुःख रूप जगत् से भिन्न सत् चित् आनन्दस्वरूप ब्रह्म विलक्षण है और ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तथा ब्रह्म से अतिरिक्त जो कुछ घट पट मठ आदि प्रतीत होते हैं वे सब मिथ्या हैं जैसे मरुदेश की रेती में जल तथा तेजपुञ्ज की प्रतीति मिथ्या होती है। वास्तव में ब्रह्म ही सत्य है और मिथ्या है ।। ६३ ।। 


अवतरण- उक्त श्लोक से प्रतिपादित विषय का ही विस्तृत रूप से वर्णन करते हैं - 


दृश्यते श्रयते यद्यद् ब्रह्मणोऽन्यत्र तद्भवेत् । 
तत्त्वज्ञानाच्च तद् ब्रह्म सच्चिदानन्दमद्वयम् ॥ ६४ ॥ 

अन्वयः- यत् यत् व यते तत् ब्रह्मणः अन्यत् न भवेत्, अतः तत्त्व ज्ञानात् तद् ब्रह्म सच्चिदानन्दं श्रद्वयं भासते ॥ ६४ ॥ 


जो कुछ वस्तु देखने में अथवा सुनने में आती है वह सब ब्रह्म से भिन्न नहीं है अर्थात् दृश्यमान अथवा श्रूपमाण जो कुछ है वह सब ब्रह्ममय है। इसलिये वह ब्रह्म तत्त्वज्ञान से अर्थात् ' त्त्वमति' महावाक्यों के द्वारा जीव ब्रह्म में प्रभेद प्रतीति होने से चित् मानन्द स्वरूप और श्रद्वैत भासता है अर्थात् अखण्ड प्रतीत होता है । ६४ ।। 


अवतरण- जब कि सत् चित् मानन्दस्वरूप व्रत सर्वत्र व्य पक रूप से वर्तमान है तो सर्वत्र सबको प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता है ?

 

सवग सच्चिदात्मान ज्ञानचक्षुनिरीक्षते । 
श्रज्ञानचक्षुर्नेक्षेत भास्वन्तं भानुरम्ववत् ॥ ६५ ॥ 

ज्ञानचक्षुः पुरुषः सर्वगं सचिवदात्मानं निरीक्षते, अपि च श्रज्ञानचक्षुः पुरुष: भास्वन्त भानु पन्धवत् सर्वग सच्चिदात्मानं न ईक्षते ॥ ६५ ॥ 


ज्ञानचक्षु वाले पुरुष उस सर्वत्र व्यापक सत् चित् आनन्दस्वरूप आत्मा को देखते हैं अर्थात् ज्ञान-दृष्टि से उस ब्रह्म का दर्शन करते हैं। और जो अज्ञानचक्षु वाले हैं पर्थात् जो प्रज्ञानदृष्टि हैं वे लोग उस भासमान व्यापक सत् चित् श्रानन्दस्वरूप प्रात्मा को नहीं देखते हैं जैसे अन्धा पुरुष सर्वत्र भासमान सूर्यनारायण को नहीं देखता है ।। ६५ ।। 


अवतरण- यद्यपि ज्ञानचक्षु पुरुषों को विवेक होने के कारण देह इन्द्रिय आदि में होने वाले अध्यासरूप मल दूर हो जाते हैं, तथापि पूर्वजन्म के अध्यास से संसार की वासना के वश में होकर 'मैं मनुष्य हूं' इस तरह का देह में बन्धन प्रतीत होता है तो आत्मस्वरूप में स्थित होकर जीवन्मुक्त कैसे हो सकता है? 


श्रवणादिभिरुद्दीप्तो ज्ञानाग्निपरितापितः । 
जोवः सर्वकलान्मुक्तः स्वर्णवद् द्योतते स्वयम् ॥ ६६ ।। 

अन्वयः- श्रवणादिभि: उद्दीप्ता ज्ञानाग्निपरितापितः सर्वमलात् मुक्त: जीवः स्वर्णवत् स्वयं द्योतते ।। ६६ ।।


श्रवण मनन निदिध्यासन इन उपायों से उद्दाप्त ( प्रज्वलित ) और ज्ञानरूपी अग्नि से परितावित तथा सम्पूर्ण मलां से मुक्त जो जीव है। 


वह सुवर्ण के समान स्वयं प्रकाशित होता है अर्थात् सच्चिानन्द रूप से स्वयं प्रकाशित होने पर मैं मनुष्य हूं 'यह श्रवण मनन निदिध्यासन कीर्तन और भग्नि सन्तपन आदि उपायों के द्वारा मलों से निर्मुक्त किया जाता है बाद वह सुवर्ण स्वयं प्रकाशित होने लगता है, उसको दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 


इसी तरह धात्मा भी उक्त उपायों के द्वारा मलों से निर्मुक्त होकर स्वयं प्रकाशित होता है। उस आत्मा को दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं रहती है ।। ६७ ।।


अवतरण- उपरोक्त उपायों के द्वारा शुद्ध हुई आत्मा का क्या रूप? और प्रकट कहां होता है ?   


हृदाकाशोदितो ह्यात्मा बोधभानुस्तमोऽपहृत् । 
सर्वव्यापी सर्वधारी भाति सर्व प्रकाशते ।। ६७ ।। 

श्रन्वयः- हृदाकाशोदितः बोधभानु प्रात्मा तमोऽपहृत् भवति, हि, तथाहि प्रात्मा सर्वव्यापी सर्वधारी भाति, सर्व प्रकाशते च ॥ ६७ । 


पूर्वोक्त उपायों से अर्थात् तत्त्वमसि' आदि महावाक्यों के द्वारा जीव धौर ब्रह्म में ऐक्य प्रतीति होने से शुद्ध बोध रूप सूर्य ( प्रात्मा ) हृदयाकाश में उदित होकर अन्धकार के समान प्रज्ञान रूप अन्तःकरण के मल को दूर करता है और वह प्रात्मा सर्वव्यापी है इस कथन से हृदयाकाश के परिच्छिन्न होने से घात्मा को भी परिच्छिन्न होना चाहिए यह शंका निरस्त हो गई ।

 

तथा आत्मा सबका बाघार है अर्थात् प्रज्ञान के कार्य जगत् का अधिष्ठान है अर्थात् भ्रमरूप हृदया काश व्यापक रूप प्रात्मा का नाशक नहीं है और सबका प्रकाशक आत्मा है ।। ६७ ।। 


अवतरण- अग्रलिखित श्लोक से आत्मत्त्वज्ञान को तीर्थ रूप से वर्णन करते हैं और यज्ञादिकमं प्रयागादि तोर्थ इन्द्रादि देवताओं की सेवा की अपेक्षा आत्मतत्त्वज्ञान रू तीर्थ का सेवन श्रेष्ठ है, क्योंकि यागादि सेवन से परम्परा मुक्ति होती है और आत्मसेवन से साक्षात् जीवन्मुक्त हो जाती है। परन्तु आत्मज्ञानी पुरुष भी स्वाभाविक पापों को दूर करने के लिये प्रयाग आदि तीर्थों का सेवन करता है और आत्म ज्ञानी पुरुष सम्भवत् स्वयं प्रकाशमान है तथा समस्त मलों से रहित है तो इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने का क्या प्रकार है?  


    दिग्देशकालद्यनपे सर्वगं 
शीताबिद्दशि सुखं निरञ्जनम् । 
    यः स्वात्मतीर्थं भजते विनिष्क्रियः ४७
स सर्ववित्सर्वगतोऽमृतो भवेत् ॥ ६८ ॥ 

अन्वयः- यः दिग्वेशकालाद्यनपेक्ष्य सर्वगं शोताविहृत् नित्यसुखं निरञ्जनं स्वात्मतीर्थ विनिष्किपः सन् भजते सः सवित् सर्वगतः अमृतः भवेत् ॥ ६८ ॥ 


जो पूर्वाद दिशा, प्रयागादि देश और पुण्यकाल की अपेक्षा न करके सर्वत्र व्यापकरूप है और शीत उष्ण प्रादि द्वग्दों के नाशक तथा नित्य सुखरूप और निरञ्जन अर्थात् माया के कार्य जगत् रूप मल से रहित अपने आत्मरूप तीर्थ को विनिष्क्रिय होकर अर्थात् कर्मों से रहित होकर भजता है अर्थात् केवलं पात्मा के विचार में ही तत्पर रहता है वह सर्ववेत्ता और सर्वत्र व्यापक तथा प्रमृतरूप ( ब्रह्मरूप ) हो जाता है। इससे मुमुक्ष पुरुषों को वेदान्तादि ग्रन्थों के द्वारा आत्म तीर्थ में निश्चल होने के लिये दृढ़ अभ्या स करना चाहिए || ६८ ॥


Read More: 


व्यवहारिक जीवन में वेदांत स्वामी विवेकानंद प्रथम व्याख्यान
राजयोग [प्रथम अध्याय] हिन्दी में :अवतरणिका
रुद्राक्ष, रुद्राक्ष क्या है ? रुद्राक्ष की माला का क्या महत्व है ?
रुद्राक्ष का अर्थ,रुद्राक्ष धारण करते समय किन बातों का रखें ध्यान
सम्पूर्ण शिव विवाह की अमर कथा | शिव-स्तुति,शिवजी की आरती
' रामनाम ' सभी रोगों की एक दवा